Sunday, 10 November 2013

‘मुझमें मंटो’ : एक प्रतिक्रिया / बलराम अग्रवाल



इस आलेख को ‘रचना और दृष्टि’ के अन्तर्गत प्रकाशित टिप्पणी के रूप में पढ़ा जाये।
                                                                     चित्र : साभार गूगल
‘मुझमें मंटो’ पर अपनी राय मैं रचना और उस पर सुकेश साहनी जी की टिप्पणी, दोनों के मद्देनज़र रखूँगा।
सबसे पहले तो हमें कथा के शिल्प पर ध्यान देना होगा क्योंकि वह दहशतगर्द की क्रूर और विक्षिप्त मानसिकता को व्यक्त करने वाला है—‘उस खूँखार दरिंदे दहशतग़र्द ने सड़क पार कर रहे एक छोटे बच्चे पर निशाना साधा और दन्न से गोली चला दी।’  यानी उसने यह जानते-बूझते कि सड़क पार करने वाला ‘बच्चा’ है, उस पर निशाना साधा और एक पल के लिए भी बरबाद किए बिना ‘दन्न से गोली चला दी।’ तात्पर्य यह कि निशाना साधने और गोली चलाने के बीच दहशतगर्द के हृदय या शरीर में ‘संवेदना’ के वशीभूत कोई क्रिया होने के किसी अवसर का सूत्र इन पंक्तियों से नहीं मिलता है।
कथादेश में यह लघुकथा जिस प्रकार छपी है उस ओर भी ध्यान आकर्षित करना चाहूँगा। रचना शुरू होने से पहले शब्द ‘एक’ लिखा हुआ है जो यह संकेत करता प्रतीत होता है कि यह कोई स्वतंत्र रचना नहीं; बल्कि थपलियाल जी द्वारा मंटो को केन्द्र में रखकर लिखी गई अनेक रचनाओं में से एक (यहाँ पहली) लघुकथा है। मेरी धारणा गलत भी हो सकती है, लेकिन प्रेस कॉपी तैयार करने में हुई संपादकीय लापरवाहियाँ कभी-कभी इस तरह सोचने को विवश कर देती हैं।
एक ही शीर्षक या बिना शीर्षक एक ही विषय पर लघुकथा लेखन असगर वज़ाहत, विष्णु नागर, प्रेमपाल शर्मा आदि अनेक हिन्दी कथाकार अक्सर करते रहे हैं। असगर वज़ाहत की ‘शाहआलम कैंप की रूहें’, विष्णु नागर की ‘ईश्वर की कहानियाँ’, प्रेमपाल शर्मा की ‘बाइयाँ:कुछ चित्र’ के नाम उदाहरणस्वरूप लिया जा सकता है; अभी हाल में ‘समापवर्तन’ में प्रकाशित अशोक भाटिया की भी ‘पाँच उपकथाएँ’ भी इनके अन्तर्गत गिनाई जा सकती हैं। लघुकथा लेखन का यह कैसा विचलन है, इस पर विद्वान कथा-आलोचक ही अधिक प्रकाश डाल सकते हैं। अस्तु। यहाँ बहस इस मुद्दे पर नहीं है।
बहस का मुद्दा लघुकथा में प्रयुक्त मानवेतर पात्र, जिसे साहनी जी ने ‘गोली’ के रूप में चिह्नित किया है, भी नहीं है। बहस का मुद्दा ‘संवेदना’ है। इसके लिए मैं भी ‘स्याह हाशिए’ से ही मंटो की दो लघुकथाओं को उद्धृत करूँगा। ‘स्याह हाशिए’ से ही उद्धरण का कारण मात्र यह है कि ‘मैं मंटो’ में संवेदना की तलाश ‘स्याह हाशिए’ की लघुकथा के माध्यम से ही शुरू की गई है। पहली रचना ‘स्याह हाशिए’ के समर्पण पृष्ठ पर यों अंकित है—
उस आदमी के नाम
जिसने अपनी खूँरेज़ियों का ज़िक्र करते हुए कहा:
जब मैंने एक बुढ़िया को मारा
तो मुझे ऐसा लगा,
मुझसे क़त्ल हो गया…!
यह अफसोस पाठक को उसके दुखी मन से सहज ही जोड़ देता है। यहाँ दहशतगर्द का मानवीय चेहरा दिखाने में मंटो बिना किसी नारेबाजी के सफल रहे हैं। दूसरी रचना है—‘सॉरी’ :
छुरी, पेट चाक करती हुई नाफ़ के नीचे तक चली गयी।
            नाड़ा कट गया।
छुरी मारने वाले के मुँह से एकाएक पश्चात्ताप के बोल फूट पड़े—“च्…च्…च्…मिशटेक हो गया!”
‘संवेदना’ इसे कहते हैं। इसे समझने के लिए मंटो की ही एक ऐसी लघुकथा को भी पढ़ लेना समीचीन होगा जिसके पात्र मानवीय संवेदनहीनता का क्रूर उदाहरण बनकर सामने आये हैं। लघुकथा का शीर्षक है—‘रिआयत
“मेरी आँखों के सामने मेरी जवान बेटी को न मारो…”
“चलो, इसी की मान लो…कपड़े उतारकर हाँक दो एक तरफ़…”
      मुझमें मंटो’ चार संवादों में संपन्न रचना है। इसमें नाटकीयता लाने और पाठकीय जिज्ञासा जगाने की दृष्टि से थपलियाल जी ने मंटो के कथन को दो अलग-अलग वाक्यों में तोड़कर प्रस्तुत किया है, जो प्रशंसनीय है। यह निर्विवादित है कि अलग-अलग आलोचक रचना के परिवेश और पात्रों के चरित्र में अलग-अलग ढंग और अलग-अलग कोण से प्रवेश करते हैं। मेरी विवशता यह है इस रचना में मैं साहनी जी वाले तरीके और कोण, दोनों से ही नहीं घुस पा रहा हूँ। इस रचना में ‘गोली’ न अपना धर्म निभा रही है न दहशतगर्द का।
दहशतगर्द स्वयं ‘लोहे की गोली’ (यह जानते हुए भी कि सड़क पार करने वाला निरीह बच्चा है; उस पर निशाना साधने और दन्न से गोली चलाने के परिणामस्वरूप) और बच्चे को मारने से कतराकर गुजर जाने वाली ‘संवेदनशील गोली’ (ऐसी किसी संवेदना का आभास दहशतगर्द के क्रियाकलाप में दर्शनीय नहीं है) — दोनों हो सकता था; मगर उस प्रक्रिया से दहशतगर्द को थपलियाल जी नहीं गुजार पाये जिस प्रक्रिया से मंटो की लघुकथा ‘बेखबरी का फायदा’ के दहशतगर्द गुजरकर सम्पूर्ण चरित्र बन गये हैं। इस सबसे अलग, ‘मंटो’ का कथन मुझे ‘मैं’ के कथन के ‘बचकानेपन’ का उपहास उड़ाता-सा अधिक प्रतीत होता है; क्योंकि किसी प्रकार की कोई कँपकँपी, कोई विचार ‘निशाना साधकर दन्न से’ गोली चला देने वाले दहशतगर्द के शरीर या जेहन में लेखक ने नहीं दिखाया है; और न वैसा कोई आभास ही दिया है।
      मुझे लगता है कि इस ही नहीं, भविष्य में आने वाली इस तरह की अन्य लघुकथाओं पर भी नये सिरे से विचार करने की अतीव आवश्यकता है।

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