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11 सितम्बर, 2010 को उज्जैन की कालिदास अकादमी में कथाकार संतोष सुपेकर के लघुकथा संग्रह ‘बंद आँखों का समाज’ का लोकार्पण हुआ। इस अवसर पर विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ शैलेन्द्र कुमार शर्मा, वरिष्ठ साहित्यकार श्रीयुत् श्रीराम दवे, सूर्यकांत नागर, बलराम अग्रवाल, सुरेश शर्मा, प्रतापसिंह सोढी तथा अनेक साहित्यप्रेमी उपस्थित थे।
विमोचन के अवसर पर बायें से सर्वश्री राजेन्द्र देवधरे 'दर्पण', सुरेश शर्मा, श्रीराम दवे, सूर्यकांत नागर, बलराम अग्रवाल तथा डॉ शैलेन्द्र शर्मा |
संतोष सुपेकर की लघुकथाओं में संवेदन के अनेक अनछुए बिंदु दृष्टिगत होते हैं। संवेदना के स्तर पर संतोष अपने समकालीनों में एकदम अलग और बेहतर नजर आते हैं। उनकी लघुकथाओं में व्यंग्य जैसे करेंट की तरह दौड़ता है; लेकिन शिल्प के स्तर पर वे बहुत लापरवाह नजर आते हैं। कथा को पूर्णता प्रदान करने का धैर्य उनकी कम ही लघुकथाओं में नजर आता है। यही कारण है कि बहुत-से अनमोल अनुभव जो पाठक को उनकी वीक्ष्ण और तीक्ष्ण दृष्टि का लोहा मनवाते हैं, शैल्पिक गठन के अभाव में बिखर गए-से लगते हैं। कई गंभीर कथ्य उपहास की भेंट भी चढ़ गए हैं। उनकी लघुकथाओं को पढ़ते हुए यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि वे एक सचेत चिंतक हैं, मानवीय-समता के पक्षधर हैं, संस्कृति के पक्षधर हैं, वसुधैव कुटुम्बकम् के पक्षधर हैं। उनमें एक अच्छा लघुकथाकार सिद्ध होने की पूर्ण सम्भावना है। यहाँ प्रस्तुत हैं उनके लघुकथा संग्रह ‘बंद आँखों का समाज’ से दो तथा ‘हाशिए का आदमी’ से एक लघुकथा:
महान पाप
सुबह-सवेरे वे अपने धर्मस्थल का ताला खोलने पहुँचे तो बुरी तरह चौंक पड़े। दिल धक् से रह गया।
धर्मस्थल के चबूतरे पर कुछ ‘अपवित्र’ वस्तुएँ पड़ी हुई थीं। उन्हें गहरा धक्का लगा। कुछ क्षण वे अपने-आप को सँभाल न सके। फिर अचानक सम्भलकर चारों ओर देखा। कोई न दिखने पर उन्होंने चुपचाप वे टुकड़े उठाए, सड़क के उस पार कूड़े के ड्रम में फेंके और आकर चबूतरा साफ किया।
मैं सारी घटना देख रहा था। आखिर पूछ ही बैठा—“बाबा, यह शरारत तो लगता है…जान-बूझकर की गई है। फिर आपने हल्ला…?”
“बेटा,” वे भरे कंठ से बोले,“चाहता तो मैं भी सबकी तरह हल्ला मचा सकता था; परन्तु आखिर में होता क्या? वही दंगा-फसाद, कई सारी मौतें, घरों की बरबादी, वहशीपन, अफवाहों का दौर, कर्फ्यू…! मैंने चुप रहकर यह पाप जरूर किया है पर इस छोटे-से पाप ने मुल्क के करोड़ों रुपए बचा लिए, कई जानें बच गईं। खैर छोड़ो। तुम भी मेहरबानी करके यह घटना किसी को बताना मत।”
बॉर्डर का दर्द
“आप तो बहुत जल्दी तैयार हो गए! आपका बैग भी कम्पलीट है!! पहले फौज़ में रहे हैं क्या?”
“नहीं मैडम, फौज़ में तो नहीं, बॉर्डर के गाँव में रहा हूँ कई साल। बॉर्डर पर गोलीबारी, युद्ध की स्थिति में सब-कुछ छोड़कर तुरंत तैयार होकर भागना पड़ता है, फिर यह तो छोटा-सा बैग है। बॉर्डर पर रहना, फौज में रहने से कम नहीं है।” कहते-कहते आँखें छलछला उठीं उनकी।
समझा करो
“हैलो! महेश जी को देखने जा रहे हो क्या?”
“हाँ यार, बस निकल ही रहा था कि तुम्हारा फोन आ गया। बहुत सीरियस कंडीशन में है।”
“पर अभी मत जाना। जरा रुककर…शाम तक जाना।”
“क्यो?”
“अरे यार समझा करो। उन्हें अभी ब्लड की जरूरत है।”
“ओ…ऽ…थैंक्यू यार! अब मैं कल ही जाऊँगा उनको देखने। थैंक्यू वैरी मच।”
29 जून 1967 को मध्य प्रदेश के उज्जैन नगर में जन्मे संतोष सुपेकर की मातृभाषा मराठी है लेकिन लेखन वे हिन्दी में करते हैं। उनके पिताश्री मोरेश्वरजी सुपेकर अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के जिमनास्टिक-कोच हैं। एम कॉम तथा पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातकोत्तर डिप्लोमा प्राप्त संतोष सुपेकर पश्चिम रेलवे में ‘लोको पायलट’ के पद पर कार्यरत हैं। उनकी साहित्य सेवा को देखते हुए अनेक साहित्यिक संस्थाओं ने उनको सम्मानित एवं पुरस्कृत किया है। कविता, लघुकथा एवं व्यंग्य उनकी प्रिय विधाएँ हैं। ‘साथ चलते हुए’(2004) तथा ‘हाशिए का आदमी’(2007) के बाद ‘बंद आँखों का समाज’ उनका तीसरा लघुकथा-संकलन है।
उनके निवास का पता है :31, सुदामा नगर, उज्जैन(म प्र) / मोबाइल : 09424816096
3 comments:
आपने सुपेकर जी की इन लघुकथाओं की प्रस्तुति में जो कुछ लिखा है, ये लघुकथाएं उसकी पुष्टि करती हैं।
देश के दो विपरीत छोरों पर बैठे दो समकालीन चिन्तक कैसे एक ही प्रष्ठभूमि पर चिंतन कर रहे होते हैं, यह संयोग भी आपके और सुपेकर जी के बीच "बीती सदी के चोंचले" के बाद "महान पाप" पड़ने पर देखने को मिला। हो सकता है कुछ लोग इसे मौलिकता पर प्रश्नचिन्ह के रूप में देखें, पर असल में ये संयोग एक विचार के एक धारा के रूप में विद्यमान होने का प्रमाण है।
संतोष जी को बधाई और आपका आभार
बलराम जी जनगाथा पर आकर बहुत अच्छा लगा। संभव है लघुकथा को समर्पित और भी ब्लाग हों। पर आप जो काम कर रहे हैं वह बहुत जरूरी है। बधाई एवं शुभकामनाएं।
संतोष जी की लघुकथाओं के बारे में आपकी टिप्पणी से मैं भी सहमत हूं। वह बात इन लघुकथाओं में भी नजर आती है।
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