Saturday, 1 May 2010

मधुदीप की लघुकथाएँ

-->रिष्ठ कथाकार मधुदीप 30 अप्रैल 2010 को सरकारी सेवा से निवृत्त हो चुके हैं। दिशा प्रकाशन के प्रबन्धक एवं उपन्यासकार के तौर पर वह गत कई दशकों से समाज एवं साहित्य की सेवा में भी रत हैं जिससे निवृत्ति वे शायद न ले पाएँ। फिलहाल, सरकारी सेवा से निवृत्ति के अवसर पर उन्हें शतश: शुभकामनाएँ।
लघुकथाकार के रूप में मधुदीप की विशेषता यह है कि उनके पात्र किसी दुविधा अथवा दवाब में नहीं जीते। इसका तात्पर्य यह बिल्कुल भी नहीं है कि वे अपने समय और सामाजिक परिस्थितियों से प्रभावित नहीं हैं; बल्कि ऐसा इसलिए होता है कि वे निर्णय लेने में सक्षम हैं। यद्यपि उनके सामने हिस्से का दूध के पति जैसी परिस्थिति भी उत्पन्न होती है और खुरंड के उस व्यक्ति जैसी भी जिसकी उम्मीदों पर कारखाने की तालाबन्दी पानी फेर देती है। बावजूद इस सबके उनके पात्र एलान-ए-बगावत, तनी हुई मुट्ठियाँ, अतित्वहीन नहीं जैसे जुझारू चरित्र के कारण समकालीन लघुकथा में अपनी अलग पहचान बनाने में सक्षम हैं। जनगाथा के इस अंक में प्रस्तुत हैं उनके कथा-संग्रह मेरी बात तेरी बात से तीन लघुकथाएँ:

अस्तित्वहीन नहीं
उस रात कड़ाके की ठंड थी। सड़क के दोनों ओर की बत्तियों के आसपास कोहरा पसर गया था।
रोज़ क्लब के निकास-द्वार को पाँव से धकेलते हुए वह लड़खड़ाता हुआ बाहर निकला। झट दोनों हाथ गर्म पतलून की जेबों के अस्तर छूने लगे।
बरामदे में रिक्शा खड़ी थी। उसकी डबल सीट पर पतली-सी चादर मुँह तक ढाँपे चालक गठरी-सा बना लेटा था। घुटने पेट में घुसे थे।
रिक्षा देखकर उसका चेहरा चमक उठा।
खारी बावली चलेगा…? वह रिक्शावाले के समीप पहुँचा।
उधर से चुप्पी रही।
चल, दो रुपए दे देंगे। युवक ने उसके अंतस को कुरेदा।
दो रुपैया से जियादा आराम की जरूरत है हमका।
साले! पेट भर गया लगता है… नशे में बुदबुदाता हुआ जैसे ही वह युवक आगे बढ़ा…
तड़ा…ऽ…क!!! रिक्शेवाले का भारी हाथ उसके गाल पर पड़ा।
क्षणभर को युवक का नशा हिरन हो गया। वह अवाक्-सा खड़ा उसके मुँह की ओर देख रहा था।
रिक्शावाला सीना फुलाए उसके सामने खड़ा था।

रुदन
अर्से से बीमार पति को एक रात धरती पर उतार लिया गया। सारा परिवार रोने-पीटने लगा था। नीरा को गहरा सदमा पहुँचा था। वह जड़ हो गई। उसकी रुलाई नहीं फूट रही थी। प्रतिदिन वह गीता का पाठ करती थी, वह शायद इसी का प्रभाव रहा हो।
सियापे के मध्य दूर कोने में बैठी सास-ननद उसे सुनाते हुए बत्तियाने लगी थीं
रोयेगी क्यों? इसकी तो मुराद पूरी हो गयी! वे सिसक रही थीं।
पीहर में जाकर मौज उड़ाएगी, रोये इसकी जूती! इसके मन में तो लड्डू फूट रहे हैं।
इसका क्या, दूसरा कर लेगी। राँड तो वो जिसका मर जाए भाई… ननद ने घृणित स्वर में कहा।
अभी बात पूरी भी नहीं हुई थी, नीरा का हृदय फटने लगा और वह दहाड़ मार-मारकर रोने लगी।
अब सास-ननद के साथ सारा मोहल्ला उसे ढाढ़स बँधा रहा था।

बंद दरवाज़ा
उसके शरीर पर फटी-पुरानी मर्दानी कमीज़ थी जो अपना असली रंग खो चुकी थी। उसकी तरह मटमैली ही थी, बस। उसके धूल से भरे मैले पाँवों पर, पसीना आने से कुछ आधुनिक चित्र-से बन गए थे। मन्दिर के मुख्य-द्वार पर खड़ी वह बड़े चाव से नाक की गन्दगी निकाल-निकालकर फेंक रही थी।
यहाँ क्यों खड़ी है हरामजादी! कोई मन्दिर में आयेगा तो तेरी गन्दी परछाई उस पर पड़ेगी। चल दूर हो यहाँ से…। पण्डित की क्रोध उगलती लाल आँखें देख वह आठ वर्षीया बच्ची सहम गयी थी।
मेरी माँ अन्दर गई है। उसका डरा-सा स्वर बस इतना ही उभर पाया था।
पण्डितजी की लाल आँखें खुमार से मुँदने लगी थीं।
अच्छा, कोई बात नहीं। यहीं पर खेल ले। कहते हुए पण्डित तेज कदमों से अन्दर की ओर चल पड़ा।
दरवाज़ा खटाक-से बंद हुआ।
नन्हीं बच्ची बंद दरवाजे को देर तक निहारती रही।

मधुदीप : संक्षिप्त परिचय
मूल नाम: महावीर प्रसाद
जन्म : 1 मई 1950 को हरियाणा के गाँव दुजाना में
शिक्षा: कला स्नातक
मौलिक कृतियाँ: 7 उपन्यास, 1 कहानी संग्रह, 1 लघुकथा संग्रह व 1 बाल उपन्यास
संपादित कृतियाँ: 2 लघुकथा संकलन तथा 3 कहानी संकलन
हिमप्रस्थ पुरस्कार से सम्मानित
सम्प्रति: निदेशक, दिशा प्रकाशन
सम्पर्क: 138/16, त्रिनगर, दिल्ली-110035
मोबाइल: 9312400709

9 comments:

PRAN SHARMA said...

MADHUDEEP JEE,AAPKEE TEENO KAHANIYAN DIL MEIN UTAR GAYEE HAIN.
ARSE KE BAAD ACHCHHEE LAGHU KATHAYEN PADHEE
HAIN.AAPKEE LEKHNI LAGHU KATHA PAR
KHOOB CHALTEE HAI.BADHAAEE AUR
SHUBH KAMNA.

shail agrawal said...

Sankshipt aur prabhavshaali, Vakai me laghukathaen. Badhaai!

रूपसिंह चन्देल said...

भाई बलराम,

बहुत दिनों के बाद मधुदीप की लघुकथाएं पढ़ने का सौभाग्य मिला. उल्लेखनीय रचनाएं. आप दोनों को हार्दिक बधाई.

मधुदीप के सेवा निवृत्त होने और आगे रचनात्मक कार्यों में निमग्न रहने की हार्दिक कामना सहित.

चन्देल

सुभाष नीरव said...

मधुदीप जी की रचनाएं एक अरसे से पढ़ता रहा हूँ। उनकी लघुकथाएं मुझे सदैव प्रभावित करती रहीं। वे सरकारी सेवा से निवृत्त हो गए, उन्हें बधाई। अब उनसे कुछ और आशाएं बंधती हैं, उनके लेखन को लेकर। उनकी ये तीनों लघुकथाएं पाठक को प्रभावित करने और गहरे उतर जाने में पूर्णतय: सक्षम हैं। भाई बलराम, तुमने उनकी सेवा-निवृत्ति पर इस तरह याद किया, अच्छा लगा।

Shekhar Kumawat said...

achi bate he

सुधाकल्प said...

मधुदीप जी की लघुकथाएँ सराहनीय हैं i' बंद दरवाजा ' लघुकथा ह्रदय को छलनी करती है i
सुधा भार्गव
sudhashilp.blogspot.com

Devi Nangrani said...

Madhup ji ki laghukatahyein yekeenan ek disha aur dasha ko ujgaar kar rahi hai jo rozmarra jeevan ka pratinidhitv kar rahi hain...bahut sarthak anubhutian!!

प्रदीप कांत said...

सारी लघुकथाएँ गहरे तक आहत करती हैं।

सुनील गज्जाणी said...

मधु दीप जी ,
प्रणाम !
अच्छी लघु कथाए हमे पढ़ाने के लिए आप काऔर श्री बल राम जी का भी आभार !
साधुवाद