'बेटी तो बेटी होती है', 'दया', 'कथा नहीं', 'रक्षा' जैसी कथ्य, भाषा, शैली, सामाजिक सरोकारों से ओतप्रोत लघुकथाओं का संग्रह 'तीन न तेरह' हर लघुकथा प्रेमी के खजाने में होना चाहिए। उसके लेखक, कथाकार पृथ्वीराज अरोड़ा पिछले कुछ सालों से बेहद अस्वस्थ चल रहे हैं।
मस्तिष्क संबंधी किसी रोग के कारण उनके सिर का ऑपरेशन हुआ है और उनको स्मृति-भृंश हुआ है। यह सूचना फरवरी 2010 में सबसे पहले अशोक भाटिया ने मुझे दी थी। उसके बाद यह महसूस करके कि अब वे स्वस्थ हो चुके होंगे, 'अविराम साहित्यिकी' के लघुकथा विशेषांक 2012
का
संपादन करने के क्रम में उनसे 'मेरी लघुकथा यात्रा' स्तम्भ के लिए उनकी अपनी लघुकथा यात्रा के उन कुछ बिन्दुओं पर
प्रकाश डालने का अनुरोध किया था, जिन्हें सिर्फ वही
जानते हैं। लेकिन उन्होंने कहा कि डॉक्टर ने
ऐसा हर काम करने की मनाही की है जिसमें मस्तिष्क पर दबाव पड़ने की सम्भावना
हो, इसलिए मैं अब कुछ नहीं
लिख सकता। मैंने तभी उनसे वादा किया था कि लिखने की जरूरत नहीं है, मैं स्वयं इस विषय पर आपसे बातचीत को रिकॉर्ड करने आऊँगा।
उन्होंने इस पर भी असमर्थता जताई थी इसलिए स्वयं मैंने भी उनके मानसिक स्वास्थ्य
के मद्देनजर उनसे बातचीत करना उचित नहीं समझा। आज मैं करनाल गया था--अशोक भाटिया
के पास। बातचीत के दौरान भाई पृथ्वीराज अरोड़ा के निवास भी जाना निश्चित हुआ। हम
यानी अशोक भाटिया, मैं और मेरा बेटा
आदित्य उनके घर गये। अरोड़ा जी जब तक सेवा में रहे, यूनियनिस्ट
रहे। अपने किसी लिपिक अथवा सेवादार साथी पर किसी अधिकारी का अत्याचार देखा या सुना नहीं कि भिड़ जाते
थे। अपनी शेर-जैसी दहाड़ से जालिम अधिकारियों को दहलाए रखने वाला वह जाँबाज आज अपने मुख के रास्ते भोजन खाने-पीने में असमर्थ है। भोजन के रूप में तरल पदार्थों को पेट तक पहुँचाने के लिए उनकी नाक के रास्ते एक लम्बी नली स्थाई रूप से लगी है। कमजोरी और स्मृति-भृंश के कारण कुछ बोल पाने
में भी वे असमर्थ हैं। भाभी जी (श्रीमती कान्ता अरोड़ा) उनकी सेवा में लगी हैं। पुत्र वधू घर का बाकी काम सँभाल रही थी। अरोड़ा जी के निकट पहुँचकर अशोक
भाटिया ने पहले मेरा नाम उन्हें बताया, फिर अपना। हम दोनों को
पहचान लेने के प्रमाण स्वरूप उनके गले से 'हाँ' जैसी ध्वनि आई। इससे अधिक वे कुछ न बोल सके, मात्र देखते रहे। मन कुछ प्रसन्न हुआ यह देखकर कि स्मृति पूरी तरह
क्षीण नहीं हुई है, मित्रों-परिचितों को पहचानते हैं; लेकिन अपने-आप को वे
अब अभिव्यक्त नहीं कर सकते हैं, यह देखकर अपार दु:ख
हुआ। भाभी जी
से अनुमति लेकर हमने उनके फोटो लिए। देखिए--पहले फोटो में वह अपने निकट खड़े अशोक
भाटिया को ताक रहे हैं। दूसरे फोटो में, कैमरा हाथ में लिए
सामने खड़े मुझको और तीसरे में, हम सबका सामूहिक फोटो
खींच रहे आदित्य की ओर देख रहे हैं। मैं और भाटिया अधिक समय उनके समीप खड़े रह सकने की हिम्मत न जुटा सके। वहाँ से निकलकर बाहर वाले कमरे में आ खड़े हुए। भाटिया ने तो कुछ पल तक अपना सिर ही दोनों हाथों में थाम लिया। उदास-मन मैं चुपचाप उनकी उस दशा को देखता खड़ा रहा। ‘जनगाथा’ के 28-2-2010 तथा 20-3-2010
अंक में उनकी लघुकथाएँ ‘नागरिक’, ‘भ्रष्ट’, ‘पति’, ‘प्रश्न’, ‘शिकार’
और ‘बुनियाद’ प्रकाशित की थीं। उनमें से ‘बुनियाद’ पाठकों के लिए यहाँ पुन:
प्रकाशित है :
बुनियाद
उसे
दुख हुआ कि पढ़ी-लिखी, समझदार पुत्रवधू ने झूठ बोला था। वह सोचता रहा—क्यों झूठ बोला था उसने? क्या विवशता थी जो उसे झूठ
का सहारा लेना पड़ा?
जब उसका
बेटा कार्यालय के लिए चला गया और पत्नी स्नान करने के लिए, तब उपयुक्त समय समझते हुए
उसने पुत्रवधू को बुलाया।
वह आई,“जी, पापा!”
उसने
पुत्रवधू को कुर्सी पर बैठ जाने का इशारा किया। वह बैठ गई। उसने कहा,“तुमसे एक बात पूछनी थी।”
“पूछिए
पापा।”
“झिझकना
नहीं।”
“पहले कभी
झिझकी हूँ! आपने मुझे पूरे अधिकार दे रखे हैं, बेटी से भी बढ़कर।”
“थोड़ी देर
पहले तुमने झूठ क्यों बोला? मैंने तो अभी नाश्ता करना है! तुमने मेरे नाश्ता कर लेने की बात कैसे कही?” उसने बिना कोई भूमिका बाँधे पूछा।
उसका झूठ
पकड़ा गया है, उसने
अपना सिर झुका लिया। फिर गंभीर-सी बोली,“पापा,
हम बेटियाँ झूठ बोलने के लिए अभिशप्त हैं। माँएँ भी, गृहस्थी में दरार न पड़े इसलिए हमें ऐसी ही सीख देती हैं।” वह थोड़ा रुकी। भूत को दोहराया,“भाई के लिए नाश्ता बनाने में देर हो रही है, वह नाराज न हो, कोई बहाना बना डालो। पापा का कोई काम वक्त पर न हो पाया हो तो झूठ का
सहारा लो। आज भी ऐसा ही हुआ। नाश्ता बनाने में देर हो रही थी। इनके ऑफिस का वक्त
हो गया था। ये नाराज होने को थे कि मैंने आपको नाश्ता करवाने की वजह से देर हो
जाने की बात कह डाली। आपका जिक्र आते ही ये चुप हो गये।” उसने विराम लिया। फिर निगाह उठाकर
ससुर को देखा और कहा,“सुबह-सुबह कलह होने से बच गई।…और मैं क्या करती पापा?”
ससुर
मुस्कुराए। उसके सिर पर हाथ फेरकर बोले,“अच्छा किया। जा, मेरे लिए नाश्ता ला। बहुत
भूख लगी है।”
वह भी
किंचित मुस्कराई,“आभी लायी।”
पुत्रवधू
नाश्ता लेने चली गई। ससुर ने एक दीर्घ साँस ली।
पृथ्वीराज अरोड़ा :
जन्म: 10 अक्टूबर,
1939 को बुचेकी(ननकाना साहिब, पाकिस्तान में)
प्रकाशित कृतियाँ:तीन न तेरह(लघुकथा संग्रह), प्यासे पंछी(उपन्यास), पूजा(कहानी
संग्रह), आओ इंसान बनाएँ(कहानी संग्रह)
मोबाइल नं:09255921912
2 comments:
अति दुखद!क्या जीवन चक्र इसी तरह चलता है!
बलराम जी यह लघु कथा बुनियाद पहली बार जब पढ़ी थी तब मन पर कहीं एक गहरा प्रभाव छोड़ गई थी पर यह याद नहीं था कि किस की है . अरोड़ा जी की यह लघु कथा पुनः पढ़ कर बहुत अच्छा लगा .अरोड़ा जी जल्दी स्वस्थ हो कर और रचनाये दें ,यही कामना है .
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