Monday, 1 July 2013

भगीरथ की लघुकथाएँ

हक़

                  चित्र : बलराम अग्रवाल, साभार
पिता की सम्पत्ति में अब पुत्रियों का भी वही हक़ है जो पुत्रों का है। क़ानून ने अब स्त्री-पुरुषों को बराबर का अधिकार दिया है।” पति अपनी पत्नी को समझा रहा था, “पिताजी की सम्पत्ति में जो तुम्हारा हिस्सा है, उसका दावा है यह!” यों कहते हुए उसने कोर्ट-केस के पेपर्स पत्नी के सामने रख दिये। पत्नी सोच में पड़ गयी।
“क्या चाहते हो तुम?”
“इस पर दस्तख़त कर दो बस, बाकी मैं देख लूँगा।”
“हूँ, तो तुम देख लोगे! क्या देख लोगे?”
“तुम बेकार ही तैश में आ रही हो। तुम केवल अपना हक़ माँग रही हो।”
“दहेज में तुमने एक लाख रुपया लिया। माल लिया, सो अलग; जिसे तुमने निठल्ले बैठकर हजम कर दिया।”
“सीमा! प्लीज़, समझने की कोशिश करो। तुम तो केवल अपना हक़…”
“हक़! वाह खूब। हक़ माँगना मैं तुमसे सीखूँगी! अच्छा बताओ, दहेज़ लेना तुम्हारा हक़ था?”
“वो छोड़ो, पुरानी बात में क्या रखा है। दहेज तो रस्म है और समाज में अपनी इज्ज़त रखने के लिए हर कोई दहेज देता है।”
“मेरे पिता को लूटने की यह नई तरकीब है। मैं हरगिज़ दस्तख़त नहीं करूँगी।” और उसने काग़ज़ फाड़कर फेंक दिये।
“तुम बेकार ताव खा रही हो, ज़रा समझने की कोशिश करो। आज हम अभावों से जूझ रहे हैं। अगर कुछ इन्तज़ाम नहीं करते तो निश्चित है, बहुत बुरे दिन देखने होंगे।”
अभावों का आकाश खुलते ही सीमा के तेवर ढीले पड़ गये। वह समझौता करने पर तैयार हो गयी। धीमे स्वर में बोली, “लेकिन इससे हमारे सम्बन्धों में ज़हर घुल जायेगा। मैं इतना बड़ा पहाड़ अपने सीने पर रखकर जी नहीं सकूँगी।”
“अरे, सम्बन्धों का क्या! आज बिगड़े, कल ठीक।”
“इतने हल्के स्तर पर मत लो मेरी बात।”
“नहीं, मैं गम्भीर हूँ। प्रगतिशील नारी का कर्तव्य है कि…”
“तुम्हारे-जैसा नाकारा आदमी प्रगतिशीलता की बात करता है, और शर्म भी नहीं आती!!!” पत्नी फिर तैश में आ गयी, “तुम्हें पैसा चाहिए? एक काम करो—जितना माल और पैसा अब तक तुमने मेरे पिता से लिया है, उसका हिसाब कर, दावे की रकम में से घटा दो; फिर मैं हस्ताक्षर कर दूँगी। बाप-बेटी और भाई-बहन के सम्बन्धों को तिलांजलि दे दूँगी।”
“तुमने यह सब बाकी निकलवा दिया तो बचेगा क्या? अच्छा यह सब छोड़ो, पिताजी से कहकर मुझे यहाँ धन्धा खुलवा दो।”
“धन्धे के लक्षण होते तो यह नौबत ही क्यों आती? ऐसा करो, मेरा गला घोंट दो, बच्चों को चम्बल में डुबो दो। फिर एक-और शादी करना। उसका माल मिले, उससे धन्धा खोल लेना। बस, इससे ज्यादा मैं कुछ नहीं कर सकती।”
अब वहाँ चुप्पी पसर गयी थी। ***



कनविंस करने की बात
“देखती हूँ, तुम मुझसे उखड़े-उखड़े रहते हो!”
   
                      चित्र : बलराम अग्रवाल, साभार
  
“तुमसे? नहीं तो।”
      “फिर क्या बात है? बताओ भी।”
      “पिछला कॉन्ट्रेक्ट खत्म हुए सालभर होने को आया है और अब कोई कॉन्ट्रेक्ट हाथ में नहीं है।”
      “मिल जाएगा, इतना निराश क्यों होते हो। प्रोपर्टी से आमदनी हो ही जाती है।”
      “नहीं, इस बार कॉन्ट्रेक्ट मुझे ही मिलना चाहिए। नब्बे लाख का कॉन्ट्रेक्ट है। यह कॉन्ट्रेक्ट मिल गया तो मेरी हैसियत बढ़ जायेगी।”
      “बताओ, मैं क्या मदद कर सकती हूँ।”
      “मैं यही तो चाहता हूँ कि तुम मेरी मदद करो। आइ-कैम्प लगाने के बारे में कल लायंस क्लब की मीटिंग है, इनिशियेटिव लेकर चीफ इंजीनियर से बात करना। उन्हें कनविंस करना कि यह कॉन्ट्रेक्ट मुझे मिले। चन्दा देने का पूरा आश्वासन दे देना। एडमिनिस्ट्रेटिव ऑफीसर को तो मैं सँभाल लूँगा। मिस्टर खण्डेलवाल भी इस ठेके पर जोर दे रहे हैं। ठेकेदारी में मुझसे दस साल जूनियर है, लेकिन अफसरों की मदद से कहाँ-से-कहाँ तक पहुँच गया। अब वह गरीबों की मदद के लिए मेडिकल कैम्प लगा रहा है, चाहे उसकी लेबर को एस्प्रो की गोली भी नहीं मिलती हो।”
      “मैं कोशिश करूँगी, लेकिन तुम इतना परेशान क्यों होते हो?”
      “खण्डेलवाल मुझे मटियामेट करने पर तुला है, लेकिन मैं भी बच्चू को छोड़ूँगा नहीं। देखो, यह अखबार देखा है! एकदम सेन्सेशनल। मैं पीछे न पड़ता तो इस बात का पता ही नहीं लगता। मैंने तो पूरे फोटो और टेप भी तैयार कर रखे हैं।”
      खबर यों भी : ठेकेदार खण्डेलवाल और कम्पनी के बड़े अफसर कम्पनी के गेस्ट हाउस में एक कॉल-गर्ल के साथ संदिग्ध हालत में पाये गये। सुना जाता है कि ठेकेदार, ठेका प्राप्त करने के सिलसिले में एडमिनिस्ट्रेटिव ऑफीसर का मनोरंजन कर रहे थे।
      “बड़े ठेकेदार बनते हैं और करते हैं भड़वागीरी!” वह उत्तेजित हो बोली।
      “यह धन्धा बढ़ाने की तरकीब है, पैसे तो सभी देते हैं, लेकिन जो अफसरों को बेडरूम में नंगा कर लेता है, उसकी तो पाँचों उँगलियाँ घी में हैं।”
      “यानी तुम मुझे कॉल-गर्ल वाला काम दे रहे हो?”
      “नहीं सुधा, जरा कनविंस करने की बात है! समझा करो, नब्बे लाख का ठेका है!! जरा हँस-बोल लोगी तो तुम्हारा क्या घिस जायेगा।”
      कितने ठण्डे दिल से बोल गया वह। सुधा की सिसकियाँ थमने का नाम नहीं ले रही थीं।***
मूल नाम : भगीरथ परिहार
संपर्क : 228, मॉडर्न पब्लिक स्कूल, नया बाज़ार, रावतभाटा-323305 (वाया कोटा) राजस्थान
मोबाइल : 09414317654

3 comments:

सुभाष चंदर said...

haq bahut badhiya rachna hai..Bhagirath ji kobadhai

सुधाकल्प said...

दोनों लघुकथाएँ अच्छी हैं । बधाई ।

राजेश उत्‍साही said...

मुझे तो ये दोनों ही लघुकथा की बजाय छोटी कहानियां लगीं। लघुकथा का चौंकाने वाला त‍त्‍व तो इन दोनों में से गायब है।