दोस्तो, 'जनगाथा' पर बहुत समय बाद तपन शर्मा की एक लघुकथा 'शवयात्रा' गत दिनों पोस्ट की थी। इस बार प्रस्तुत हैं--शोभा रस्तोगी 'शोभा' की चार लघुकथाएँ:
गन्दा आदमी
डेली पैसेंजरी करते एक अरसा हो गया| रोज वही चेहरे,
ट्रेन,सीटी, भाग-दौड़| पाँच की बर्थ पर आठ-नौ व्यक्ति| पचास ग्राम जगह
भी मिल जाए तो समझो किस्मत चमकी| ट्रेन की रफ़्तार पकड़ते ही निद्रा देवी
का राज शुरू| झपकी आना...सिरों का लुढ़कना...लार निकलना...| मर्दों से आधा
किलोमीटर दूर रहनेवाली ने भी उनसे सटके बैठना सीख लिया| क्या करे? कब तक
खड़ी रहे? रोज का काम| शरीर टूटता अलग|
आज
भी वही मुच्छड़ गन्दा चिपचिपा सा आदमी उसकी बगल में बैठा था| झपकी आने पर
धूल भरा सिर उसके कंधे से टकराएगा| वह घृणा से झटक देगी| फिर वह माफ़ी
भरी आँखों से देखेगा| उफ़! जाने रात को इन्हें नींद क्यों नहीं आती? उसे
खुद कभी ट्रेन में नींद नहीं आती|
रात
बिटिया को बुखार था| उसकी नींद भी पूरी न हुई| ऑफिस में भी काम पर काम|
लगी रही दिन भर| बाहर देखते-देखते पता नहीं कब झपकी ने आँखों को थपकी दी| अगले स्टेशन पर जोरदार आवाज़ से उसकी नींद टूटी तो पाया ...ओह! उसका
अपना सिर इस गंदे आदमी के कंधे पर...ओह गाड! नो,नो ..इम्पोसिबल ...बट इट
हेज़ हेप्पंड़ न| सॉरी| कहना पड़ा गंदे आदमी को|' कोई बात नहीं बहन|
थकान की नींद ऐसी ही होती है|'
अब वह अपने आप से नज़रें चुरा रही थी|
क़त्ल किसका
दंगे भड़क उठे थे| सांप्रदायिक तत्व कार्यशील थे|
कत्ले-आम आम हो गया| बी.एस.एफ. की गाड़ियाँ दनादन रौन्दाई गईं| कर्फ्यू का
ऐलान| भग्गी मच गयी| लोग जहाँ-तहा पनाह लेने लगे| आँखों से विश्वास
उतरकर बन्दूक, चाकू पर आ गया| भीड़ छँटते ही सड़क नंगी हो गयी| पुलिया
के नजदीक एक आदमी खून से लथपथ मृत पड़ा था| तहकीकात हुई| कोई वारिस नहीं|
किसी संप्रदाय का कोई चिन्ह नहीं| कानाफूंसी होने लगी--किसका खून हुआ?
सब आदमी पर लगे सांप्रदायिक लेबल ढूँढते रहे|
क़त्ल आदमी का हुआ| यह कोई समझ न पाया|
उजाला
ढोल-नगाड़ों की चाहत रखने वाली दादी के माथे पर अनगिनत शिकनें धमाचौकड़ी मचा
रही थीं | एक तो पोती का जन्म, उस पर बहू का कुआँ पूजने का ऐलान| सिर सौ-सौ
मन भारी हुआ जा रहा था| कौन-सा मुँह दिखाएगी--जात-बिरादरी को, मौहल्ला-पड़ोस को, समाज को, नाते-रिश्तेदारों को| जितने मुँह उतनी बातें| जम के जगहँसाई होगी| मन किरिच-किरिच हुआ जा रहा था| छोटे की जिद खातर
पढ़ी-लिखी बहू ब्याहने पर पहले ही कितनी छीछालेदार हुई थी उसकी| और अब
कुआँ, वो भी छोरी जात का!
आपादमस्तक दुःख से त्रस्त, पसीने से तर-बतर मान-मनुहार की मन में दबाएजच्चाखाने
में पैर पड़ते ही कानों में गर्म सीसा पिघल गया| 'ढोल बजवाऊँगी, नौ दिन
नवरात्रे रखूँगी | दुर्गा,लक्ष्मी, सरस्वती की कृपा बरसी है मेरी गोद में| कुआँ पूजूँगी मै अपनी लाडो का|' बहू का चेहरा लकदक उजाले से उल्लसित
हुआ जा रहा था| कोर-कोर से रौशनी के असंख्य पुंज फूट रहे थे, जिसके दृष्टिमात्र से ही सास के मन में सदियों से बैठी अमावस का अज्ञानी तिमिर
सिर पे पैर रख के भाग उठा| उलटे पैरों आती वह ख़ुशी से चिल्लाई--कुएँ की
तैयारी कर लो| मेरे घर दुर्गा आई है|
प्रेस्टीज इश्यू
'ओफ्फोह ! करीने से रखिए फूलमालाएँ डेड बॉडी के पास| व्हाट! पुरानी चादर? हटाओ इसे| नई धुली, वेल प्रेस्ड बोम्बे डाइंग की बेडशीट्स बिछाओ
|... विडियो कवरेज हो रही है| देखिए! आप सभी रिश्तेदार अपने कपड़े ठीक करें… और चेहरा कुछ मुस्काता हुआ...आई मीन…थोडा दुःख के साथ...बाकी ठीक है| साहब की माँ एक्सपायर हुई हैं | लगना चाहिए भई |'
विडियोग्राफर कवरेज के दौरान हिदायतें दे रहा था।
'अरे
ये काली साड़ी!...नो..नो…सफ़ेद पहनिए|' मृतका की ग्रामीण चचेरी बहन को
रोका उसने|
'पर सफ़ेद साड़ी तो...' वह झिझकी|
'तो किराए पर ले लो|...बड़ी बात है| साहब के आफिस में, मित्रों में…हर जगह यह विडियो
दिखाई जाएगी| बॉस का प्रेस्टीज इश्यू है न|' विडियोग्राफर बोला |
लेखिका परिचय
शोभा रस्तोगी 'शोभा' चित्र:बलराम अग्रवाल |
शिक्षा - एम. ए. [अंग्रेजी-हिंदी ], बी. एड. , शिक्षा विशारद, संगीत प्रभाकर [ तबला ]
जन्म - 26 अक्तूबर 1968 , अलीगढ [ उ. प्र. ]
सम्प्रति - सरकारी विद्यालय दिल्ली में अध्यापिका
पता - RZ-D.-- 208, B, डी.डी.ए. पार्क रोड, राज नगर - || पालम कालोनी, नई दिल्ली -110077.भारत
प्रकाशित रचनाएँ.-- पंजाब
केसरी, कादम्बिनी,कल्पान्त, राष्ट्र किंकर, हम सब साथ साथ, केपिटल
रिपोर्टर,कथा संसार, बहुजन विकास, न्यू ऑब्जर्वर पोस्ट, शैल सूत्र, जर्जर
कश्ती,सुमन सागर आदि में लघुकथा, कविता, कहानी, लेख,समीक्षा आदि
प्रकाशित| 'खिडकियों पर टंगे लोग' लघुकथा संग्रह में लघुकथाएं संकलित
| आकाशवाणी भोपाल से लेख प्रसारित| आकाशवाणी नई दिल्ली से ब्रज भाषा मै
कहानियां प्रसारित|
ओंन लाइन पोर्टल पर प्रकाशित -- सृजनगाथा.कॉम
, लघुकथा.कॉम , साहित्याशिल्पी.कॉम , शब्दकार.कॉम , रचनाकार.कॉम,
स्वर्गविभा.कोम, हिंदी चेतना[कनाडा] पर शेर , लघुकथा व कविता, समीक्षा
प्रकाशित|
सम्मान -युवा लघुकथाकार सम्मन2010, पंचवटी राष्ट्रभाषा सम्मान2011, नारायणी साहित्य सम्मान2012
5 comments:
वाह ! भाई बलराम, शोभा की लघुकथाएं पढ़कर आनन्द आ गया… पहली तीन लघुकथाएं तो उच्च कोटि की लगीं…एक एक शब्द तराशा हुआ… जैसा कि लघुकथा लेखन में दरकार होती है…। 'पचास ग्राम जगह' के मुहावरे ने अपनी डेली पैसेंजरी के वर्ष याद दिला दिए… "पता नहीं कब झपकी ने आँखों को 'थपकी' दी" बेहद सटीक वाक्य… नि:संदेह,'गन्दा आदमी' एक श्रेष्ट लघुकथा के गुण लिए है… 'क़त्ल किसका' और 'उजाला' भी कसी हुई लघुकथाएं है… 'प्रेस्टीज इश्यू'में एक व्यंग्य छिपा है… बधाई शोभा जी…बधाई बलराम भाई …
माननीय बलराम जी
बहुत बहुत शुक्रिया मेरी लघुकथाएं पसंद कर पत्रिका मै स्थान देने हेतु | जनगाथा मै मेरी लघुकथाएं छापकर निस्संदेह आपने मुझे गौरवान्वित किया है | मै बहुत सौभाग्यशाली हूँ की मुझे आप जैसे शीर्षस्थ लेखक का मार्गदर्शन व सहयोग मिल रहा है | पुन: शुक्रिया |
शोभा रस्तोगी शोभा
माननीय सुभाष नीरव जी
आपने मेरी लघुकथाओं को न केवल पढ़ा है अपितु उन्हें आलोचनात्मक द्रष्टिकोण भी प्रदान किया है |
आप सरीखे श्रेष्ठ लघुकथाकार की प्रशंसा से मै अभिभूत हूँ | मुझे अभी भी विश्वास नहीं हो रहा है की मेरी ल.क. जनगाथा मै छपी हैं और सुभाष जी की सकारात्मक टिपण्णी की मै हकदार हुई हूँ | फिर से विशेष धन्यवाद | ऐसे ही पारखी नज़र मेरी रचनाओं पर बनाये रखेंगे इसी आशा के साथ - -- शोभा रस्तोगी
एकदम हकीकत ...बहुत सुंदर शोभा जी हार्दिक बधाई आपको |
प्रेस्टीज इश्यु और उजास लघुकथाएं विशेषकर अच्छी लगीं ।
प्रेस्टीज इश्यु समाज के तौर तरीकों व् मनोवृतियों पर गहरा कटाक्ष है ।वातावरण की गंभीरता को नजरंदाज करते हुए लोग चहरे पर एक नहीं दो -दो ,तीन -तीन मुखौटे चढाने से बाज नहीं आते ।उजास बहुत ही सकारात्मक प्रभाव डालती है और सुधी पाठक लिंग भेद के प्रति सजग हो उठता है ।
सशक्त और सधी हुई लघुकथाएँ हैं।
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