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ठाकुर साहब के घर औरतों का जमघट था। ढोलकी की थाप पर लोकगीत गूँज रहे थे। ठाकुर साहब के घर में पहली बार लड़का पैदा हुआ था। अत: हर तरफ हर्षोल्लास का आलम था। पास ही से गुजरती गंगादेई ने यह-सब देखा तो चौखट के अन्दर धँसते हुए पूछा—“अरी चमेली! क्या हुआ है री ठकुराइन को?”
॥1॥ पैदाइशी दीवार
फोटो:आदित्य अग्रवाल |
फोटो:आदित्य अग्रवाल |
“अरी कुँअर साहब आए हैं,” चमेली खिलकर बोली,“बोत सोणी सकल-सूरत है…बिल्कुल ठाकुर साहब पर गए हैं…सपूत हैं एकदम सपूत…”
सहसा गंगादेई को ध्यान आया।
“अरी, और कुछ सुना है…हरिया चमार की बहू के छोरा पैदा हुआ है या छोरी?”
“होता क्या, कलुआ हुआ है,” हाथ नचाते हुए चमेली बोली,“उस करमजले के मारे हरिया फूला फिर रहा है।”
अब वे दोनों नाक सिकोड़ने लगी थीं।
(रूपसिंह चन्देल द्वारा संपादित लघुकथा-संकलन ‘प्रकारांतर’(1991) से)
॥2॥ तवा
नई दिल्ली के प्रगति मैदान में आयोजित अन्तरराष्ट्रीय व्यापार मेले की भीड़ देखकर मैं हतप्रभ रह गया। किसी तरह प्रवेश टिकट लेकर अन्दर दाखिल हुआ। हॉल नं॰ 6 पर पहुँचकर मेरे कदम रुक गये। ‘क्या खरीदूँ?’—इस बात के लिए मेरे मन में उहापोह नहीं थी। अभावों ने इतना तंगहाल बना दिया कि ‘शॉपिंग’ जैसे शब्द मेरे शब्दकोश से हमेशा बाहर रहे हैं।
फोटो:आदित्य अग्रवाल |
शादी के बाद से मैं अपनी पत्नी अंजलि को कोई सुख नहीं दे पाया। सिवाय गरीबी में रहकर जीवन काटने के उपदेशों के। हम दोनों की तकरार में सभी विषय आर्थिक ही रहे हैं। मैं एक के बाद एक कई स्टालों पर घूमता हुआ रुक गया। एक नॉन-स्टिक तवे को उलट-पलटकर देखने लगा। ध्यान आया, अंजलि अभी तक उसी घिसे-जले लोहे के, बिना हैंडिल वाले तवे पर रोटियाँ सेंकती है। उसकी उँगलियाँ कई बार खाना बनाते हुए जल जाती हैं। पराँठे सियाह काले पड़ जाते हैं। अंजलि अक्सर मुझसे तवा बदलने को कहती रही है। मैं अंजलि की पीड़ा को समझने के बजाय झुग्गी-झोपड़ी में रहने वालों की कठोर जिन्दगी से तुलना करके उपदेश देने लगता हूँ।
एक तवा इस बार खरीद ही लिया जाए। अंजलि के लिए यह एक सरप्राइज रहेगा। यही सोचकर मैंने तीन-चार कंपनियों के तवे पलटे। एक, जो मुझे अच्छा लगा, उसका भाव पूछा—“यह कितने का है?”
“तीन सौ पचास का।”
कीमत सुनकर एक बार मैं सहम गया। पर तवे की खूबियाँ बार-बार मुझे आकर्षित कर रही थीं।
“यह हैंडिल वाला है…नॉन-स्टिक है…इसकी दो वर्ष की गारंटी है…इसमें पराँठे नहीं जलते…यह घी और तेल की बचत करता है…इसके साथ एक छाता फ्री है…” स्टॉल वाले ने लगातार तवे की कई खूबियों का जिक्र किया।
तवा लेकर जब मैं शाम को घर पहुँचा तो अंजलि नया तवा देखकर खिल उठी। पहली बार शायद मैंने अंजलि के चेहरे पर इतनी खुशी देखी थी। अंजलि ने वह तवा सँभालकर रख लिया।
कोई दो सप्ताह बाद ही, जब मैंने अंजलि को वही पुराना तवा इस्तेमाल करते देखा तो जिज्ञासावश पूछा,“क्यों भई, उस नये तवे का क्या हुआ?”
“मैंने उसे पैक करके सन्दूक में रख दिया है।”
अंजलि के उत्तर से मैंने फिर पूछा,“क्यों भला?”
“सुरभि बिटिया के दहेज में काम आयेगा।”
“अभी से?” मैं चौंकते हुए बोला,“अभी तो वह सात-आठ साल की बच्ची है!”
“आप समझते क्यों नहीं,” अंजलि मुझे समझाने लगी,“अभी से तिनका-तिनका जोड़ोगे, तब भी दहेज पूरा नहीं हो पायेगा। जानते नहीं, आजकल लड़की वालों को कितना-कुछ देना पड़ता है! आगे समय और-भी खराब आने वाला है।”
और अंजलि की बात सुनकर मैं उस रात ठीक से सो नहीं सका।
(जगदीश कश्यप द्वारा संपादित ‘बीसवीं सदी की चर्चित हिंदी लघुकथाएँ’(2007) से)
॥3॥ चोर
मैं सीढ़ियाँ चढ़कर मीटर-रीडर तेवतिया जी के दरवाजे की कॉल-बेल दबाने ही वाला था कि ठिठककर रुक गया। भीतर से मारधाड़ की आवाज़ के साथ बच्चे के रुदन का स्वर सुनाई पड़ा। तेवतिया जी आली-गलौज करते हुए अपने लड़के को बुरी तरह से पीट रहे थे। हो सकता है कि लड़के ने कोई काम बिगाड़ दिया हो। निरा शरारती जो ठहरा, मैं सोचने लगा।
मेरे कॉल-बेल दबाते ही तेवतिया जी ने दरवाज़ा खोला। मुझे देखकर वे सहज होने की मुद्रा बनाने लगे। बोले,“आइए-आइए, और सुनाइए क्या समाचार है?”
“लड़के को क्यों पीट रहे हो?” मैंने पूछा।
“अजी, कुछ मत पूछो आजकल की औलाद की; ससुरा रोज कोई-न-कोई काम बिगाड़ता रहता है। आज मेरी कमीज़ से पचास रुपए चुराकर फिल्म देख आया!” तेवतिया जी के स्वर में अभी भी गुस्सा था।
फोटो:बलराम अग्रवाल |
“जाने दो तेवतिया जी, गुस्सा थूको अब। बच्चे तो बच्चे ही होते हैं। प्यार से समझाइए।” कहते हुए मैंने जेब से बिजली का बिल निकाला और एक सौ का नोट भी साथ में पकड़ा दिया। तेवतिया जी ने सौ का नोट अपनी पैंट की जेब में ठूँसा तथा छह सौ अस्सी रुपए का बिल संशोधित कर एक सौ पेंतीस रुपए लिखकर हस्ताक्षर कर दिए। तेवतिया जी अब मुस्करा रहे थे। मेरा काम हो चुका था। मैं सीढ़ियाँ उतरने के लिए आगे बढ़ा तो मैंने एक बार पीछे मुड़कर देखा। लड़का सुबकता हुआ मुझे ही घूर रहा था।
तेवतिया जी के घर से काफी दूर निकलने के बाद मुझे लग रहा था मानो, उस बच्चे की घूरती आँखें अभी तक मेरा पीछा कर रही हैं।
(सुकेश साहनी व रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ द्वारा संपादित ‘बाल-मनोवैज्ञानिक लघुकथाएँ’(2009) से)
11 comments:
कालीचरण प्रेमी की तीनों लघुकथाएँ अलग-अलग तेवर की हैं जो समाज की विभिन्न स्थितियों को बहुत शिद्दत से चित्रित करती हैं।
नमस्कार !
प्रेमी साब कि तीनी लघु कथाए अलग अलग मिजाज़ कि है पहली लघु कथा एक अंतर स्पष्ट करी है कि एक बच्चे के जन्मने पे उसका घराना क्या है भली ही बच्चे पे ना पड़े मगर आसा पड़ोस को फरक पड़ता है क्यूंकि ''ऊँचे '' घर कोईसे जुड़ने में जो सुकून जो आमा दामी को होता है वो शायद आम आदमी के घर से जुड़ने पे नहीं होता होगा ,
दूसरी लघु कथा में ..
तवा कितना अंतर ला देता है अपनी माँ कि सोच में कि इतना महँगा तवा बिटिया कि देहज के लिए सही रहेगा , अपने यथार्थ का सोचा !
तीसरे में .
एक मनोवेग्यानिक रूप लगा कि बच्चे ने बिना कुच कहे बहुत कुछ कह दिया और वो व्यक्ति भी अंतर मन से जानता है कि इस में योगदान किं लोगो का होता है ,गहनता से रचा है इण अमर लघु कथाओं को १
श्रेदय काली चरण साब को इण कथाओं के ज़रिये हार्दिक श्रधांजलि !
सादर
सच कहूं तो प्रेमी जी की तीसरी लघुकथा उन्हें अव्वल दर्जे का लघुकथाकार सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है।
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मुझे बाकी दो ने प्रभावित नहीं किया। पर तीसरी लघुकथा में वे जैसे दो पीढि़यों की बात एक साथ कह गए हैं। सचमुच बहुत प्रभावशाली लघुकथा है।
यद्यपि प्रेमी जी की कुछ ही लघुकथाएं मैंने पड़ी हैं, पर उनमें उनका जिया-भोगा-देखा यथार्थ होता है। यही यथार्थ उनकी लघुकथाओं को उर्जावान एवम प्रभावी बनाता है। इन तीनों लघुकथाओं विशेषत: 'तवा' के बारे में भी यही सच है । उनके यथार्थ को इन लघुकथाओं के बहाने रेखांकित करके आपने उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि दी है।
peremi ji ki tawa aur chor laghukathaen vakai bahut prabavi hain.
कालीचरण जी की लघुकथा तवा बहुत ही यथार्थपरक है लघुकथा तवा के माध्यम से जीवन की वास्तविकता ने दिल से कुछ पंक्ति निकली
सुख के पंख होते हैं
उडा जा सकता है अंतहीन असीमित
इसी भ्रम में
दुख की परत दर परत
हम ओढते चले जाते हैं ।
Har laghukatha apane hi tareeke hai..
behatareen chayan
तीनों ही लघुकथायें तीन अलग परिस्थितियों मे मनह भाव को व्यक्त करती है.
तीसरी कथा अलग ही प्रभाव छोड़ती है.
http://musafir-theunknownjourney.blogspot.com/
सामाजिक विसंगति की ओर ध्यान खींचती हुई 'तवा'लघुकथा का विशेष महत्व है । एक ओर दानव जैसी दहेज प्रथा को खतम करने का प्रयास किया जाता रहा है दूसरी ओर दहेज खुशी से देने वालों की भी कमी नहीं है।देने -लेने वाला राजी तो क्या करेगा काजी ।
सुधा भार्गव
काफी भावपूर्ण अभिव्यक्ति..लाजवाब लघुकथाएं...प्रेमी जी का जाना सभी को अखर गया. श्रद्धांजलि.
"तवा" प्रेमी जी की उत्कृष्ट लघुकथा है। जिसमे पुत्री के विवाह को लेकर माध्यमवर्ग की चिंता को बड़ी ही कुशलता से कालीचरन जी ने रेखांकित किया है। कैंसर रोग द्वारा प्रेमी जी का असमायिक निधन लघुकथा की अपूरणीय क्षति है।
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