Sunday 20 September, 2020

लघुकथा : समीक्षा के सन्दर्भ में…8 / डॉ॰ उमेश महादोषी

दिनांक 19-9-2020 से आगे

लघुकथा : समीक्षा के सन्दर्भ में आत्मिक और दैहिक अस्तित्व का तात्विक विवेचन

आठवीं कड़ी

 

05. विशिष्ट प्रभावोत्पादक तत्वों (काव्यात्मकता, बिम्ब, नेपथ्य आदि) का प्रयोग 

प्रभाव की दृष्टि से लघुकथा कविता के काफी करीब होती है। इसलिए उसमें कविता के कुछ गुण आ जाने से उसका प्रभाव बढ़ता है। लेकिन काव्यात्मकता के सन्दर्भ में डॉ. बलराम अग्रवाल का मन्तव्य काफी महत्वपूर्ण है कि लघुकथा में काव्यात्मकता होनी चाहिए लेकिन वह लघुकथा पर हावी न हो। इसका आशय है कि काव्यात्मक तत्वों की उपस्थिति के बावजूद लघुकथा, लघुकथा ही रहे, कविता न बन जाए।

      बिम्ब और नेपथ्य का प्रयोग लघुकथा में एक ओर संक्षिप्तता का गुण बढ़ाते हैं तो उसके प्रभाव को गुणित भी करते हैं। अपनी विशेष मिकेनिज्म के कारण नेपथ्य से निकलने वाली अभिव्यक्ति की ध्वनियों का वेग तीव्र होता है। परिणामस्वरूप कथ्य का सम्प्रेषण भी त्वरित होता है।

      बिम्ब के प्रयोग से लघुकथा में व्यंजना भी आती है और कई बार प्रभावशाली नेपथ्य का निर्माण भी होता है, जो रचना में बहुत कुछ अनकहे को कह जाता है। डॉ. संध्या तिवारी की लघुकथा ‘लेकिन मैं शिव कहाँ’ (अविराम साहित्यिकी, अप्रैल-जून 2018) ऐसी ही रचना है, जिसमें अंतिम प्रतीकात्मक संवाद के बाद लघुकथा शाब्दिक रूप में पूर्ण भले हो जाती है लेकिन नेपथ्य से निकलती ध्वनियों को पाठक काफी देर तक सुनता रहता है। इस रचना में ‘शिव’ को एक बिम्ब के रूप में उपयोग करते हुए ‘मैं’ को विपरीत बिम्ब बनाकर प्रस्तुत करके जिस सटीक नेपथ्य का निर्माण किया गया है, वह सहज-सरल होकर भी बेहद कलात्मक और रचनात्मक सौंदर्य को त्वरित करने वाला है।

 06. प्रयोग और प्रभाव

      प्रयोग नई विधाओं और नई रचनात्मकता के दरवाजे खोलते हैं। इसलिए प्रत्येक विधा में प्रयोग होते हैं। लघुकथा में समय-समय पर कई रचनाकारों ने प्रयोग किए हैं। लेकिन भगीरथ एवं पारस दासोत इस दिशा में अग्रणी रहे हैं। मधुदीप के भी कुछ विशिष्ट प्रयोग देखने को मिले हैं। डॉ. सतीश दुबे ने भी जीवन के अंतिम दिनों में ‘प्रेम’ के विभिन्न कोंणों को लेकर प्रयोगधर्मी लघुकथाओं का एक संग्रह दिया है। भगीरथ जी के प्रयोगों में या तो कथात्मकता में सम्प्रेषण संबंधी जटिलता अधिक है या फिर निबंधात्मकता आ जाने से कथा विचारों में प्रवाहित हो गई लगती है। इसके बावजूद उनकी कई प्रयोगधर्मी लघुकथाएँ अपना प्रभाव छोड़ने में सक्षम हैं। ‘तिलचट्टे’, ‘चेहरा’ जैसी लघुकथाएँ सटीक उदाहरण हैं।

      दासोत जी के प्रयोग विषय एवं शैली को लेकर हैं। यद्यपि उनकी कई प्रयोगशील लघुकथाएँ प्रभावित करती हैं लेकिन उनका प्रभाव मूलतः कन्टेंट और दूसरों के सापेक्ष प्रस्तुति की नवीनता की दृष्टि से है। मधुदीप जी ने ‘समय का पहिया’ लघुकथा में नाटक का प्रयोग किया है, जो इस अर्थ में सफल माना जा सकता है कि उसमें विभिन्न लम्बे कालखण्डों से गुजरती रचना को एक अच्छी लघुकथा में पिरो सके हैं। उन्होंने कुछ लघुकथाओं में पाठकों को सीधे सम्बोधित करने का जो प्रयोग किया है, वह लेखक-पाठक के मध्य तादात्म्य स्थापित करने के उद्देश्य में अपेक्षित रूप से सफल नहीं हो पाया है। प्रयोग के पीछे उद्देश्य अच्छा है, लेकिन अपेक्षित सफलता के लिए अभी कई कोंणों से सोचना आवश्यक है। यदि अन्य तत्वों का ठीक से निर्वाह किया जा सके तो राजकुमार गौतम जी का लघुकथा में लघुकथा (लेखकवर: संरचना-9) जैसा प्रयोग भी सफल हो सकता है। यत्र-तत्र अन्य प्रयोगकर्ता लेखकों के वही प्रयोग कुछ सीमा तक सफल हैं, जो काल-दोष को लघुकथा से दूर करने की दृष्टि से अथवा नई तकनीक या जीवन-संयोगों को लेकर किए गए हैं। 

      प्रयोगों की पड़ताल इस दृष्टि से की जानी चाहिए कि वे लघुकथा के बारे में बनी भ्रान्तियों और अनुचित धारणाओं का खण्डन कितना कर पाते हैं। दूसरे, नई रचनात्मक संभावनाओं को उभारकर क्या लघुकथा के विद्यमान रूप-स्वरूप को कुछ नए आयाम देने में सक्षम हैं? तीसरी बात, क्या ये समकालीनता या किसी अन्य सन्दर्भ में लघुकथा के विधागत स्वभाव व स्वरूप में हस्तक्षेप करने में समर्थ हैं? जो प्रयोग ऐसे किसी भी उद्देश्य की पूर्ति कर सकते हैं, वे निश्चित रूप से सफल माने जायेंगे। 

 07. कथ्य : मानव-जीवन से निकटता, स्पष्टता और सम्प्रेषणीयता

      कथ्य लघुकथा का परिणाम होता है। यह कथा के अन्त में शाब्दिक विचार के रूप में प्रकट हो सकता है और भाव रूप में भी। कभी-कभी कथ्य रचना में एक भाव-प्रवाह के रूप में भी स्थित रहता है। 

      सामान्यतः कथ्य को लघुकथा की प्रेरणा-भूमि (समस्यात्मक स्थिति, जीवनानुभूति आदि) के सन्दर्भ में लघुकथाकार के चिंतन और दृष्टि के परिणामी भाव के रूप में समझा जा सकता है। इसका अर्थ यह है कि कथ्य क्षणिका की तरह काव्यात्मक शक्ति से संपन्न एक भाव की तरह होता है, जिसमें चिंतन और दृष्टि- दोनों का समावेश होता है। 

      चूँकि लघुकथा अपने स्वभाव से मनुष्य के जीवन-व्यवहार से प्रभावित, मनुष्य के प्रति संवेदनात्मक तथा उससे जुड़ी गहन अनुभूतियों की सम्प्रेषक होती है, अतः कथ्य का मानवीय जीवन की समस्याओं और संवेदनाओं से जुड़ा होना तथा मनुष्य और मनुष्यता के पक्ष में प्रभावोत्दक होना आवश्यक है। कथ्य से जुड़ा यह तथ्य लघुकथा की नायकत्व के सापेक्ष समस्या एवं अनुभूति केन्द्रित होने की मूल प्रवृत्ति के सानुरूप है। अतः यह भी कहा जा सकता है कि कथ्य मनुष्य और मनुष्यता के पक्ष में प्रभावोत्पादक दृष्टि से जीवन की आलोचना या अभिव्यक्ति का संकेतक होता है।

       लघुकथा के प्रभाव की दृष्टि से कथ्य को स्पष्ट और सम्प्रेषणीय होना चाहिए। उसके सम्प्रेषण की गति जितना तीव्र और त्वरित प्रकृति की होगी, उसका प्रभाव उतना ही अधिक होगा। अन्य तत्वों के समुचित संयोजन के साथ कथ्य के रूपाकार लेने और प्रकटीकरण के मध्य समय जितना कम होगा, उसका सम्प्रेषण उतना ही अधिक तीव्र होगा। यानी कथानक और दूसरे तत्वों में अनावश्यक चीजों से बचा जाए और बिम्ब एवं नेपथ्य का यथासंभव उपयोग किया जाए।  

 08. शिल्प की बुनावट

      शिल्प की बुनावट से तात्पर्य है विभिन्न दैहिक तत्वों का संयोजन। यह संयोजन इस प्रकार होना चाहिए कि रचना अपने उद्देश्य एवं प्रभाव की प्रतिपूर्ति के साथ सौंदर्यबोधक भी बन सके। कथानक, कथावस्तु, भाषा-शैली आदि के साथ विशिष्ट प्रभावोत्पादक तत्वों (बिम्ब, प्रतीक, नेपथ्य, मारक/व्यंजनात्मक संवाद आदि) का समुचित संयोजन (आवश्यकता, अनुक्रम और प्रकृति/मात्रा का निर्धारण) एवं उपयोग शिल्प को प्रभावशाली बनाकर रचना के सौंदर्य में वृद्धि करते हैं। एक रचना के शिल्प की बुनावट दूसरी रचना से अलग हो सकती है। निश्चित रूप से एक सुन्दर और प्रभावशाली संयोजन किसी फार्मूले से अधिक लेखक की दक्षता, कलात्मकता और अभ्यास पर निर्भर करता है। कई लेखक रचना में कई-कई बार परिवर्तन करते हैं, विभिन्न कोंणों से (दृश्यों कोे, संवादों एवं भाषा को, बिम्बों की प्रकृति को, यहाँ तक कि पात्रों की संख्या और चरित्र को भी बदलकर देखना आदि) परिवर्तन करके देखते हैं, इष्ट मित्रों की प्रतिक्रिया लेते हैं। यह प्रक्रिया रचना के शिल्प की बुनावट को तार्किक और प्रभावशाली बनाती है। 

      लघुकथा के सन्दर्भ में एक सत्य यह भी है कि रचना के शिल्प की बुनावट की माँग एक सीमा तक रचना के अन्दर से निकलकर आती है। उसे समझना और उसके अनुरूप रचना को गढ़ने/सँवारने का प्रयास लेखक कर सकता है। बार-बार पुनर्लेखन और पुनरीक्षण का उद्देश्य भी यही होता है। रचना के सृजन की पृष्ठभूमि (समस्यात्मक स्थिति, जीवनानुभूति आदि), विषय की प्रकृति और उद्देश्य जैसी चीजें शिल्प की बुनावट की माँग को तय करने में सक्रिय होती हैं। 

      समीक्षा की दृष्टि से शिल्प की बुनावट को दैहिक तत्वों के यथास्थान स्थापन और उसके परिणामी प्रभाव के सन्दर्भ में पड़ताल के दायरे में लाना चाहिए।

 09. विश्वसनीयता

      समकालीन लघुकथा का यथार्थ रचनात्मक सत्य होता है। इसका अर्थ यह है कि उसमें कल्पना का अंश होता है। लेकिन यह केवल उतना होता है, जितना सांसारिक भौतिक सत्य को रचनात्मक (यानी मनुष्य के जीवन-व्यवहार को जीवन की सहजता-सरलता के पक्ष में उपयोगी होने के अनुरूप) बना सके। कल्पना का यह अंश यथार्थ के रूप एवं प्रकृति में भी अनावश्यक हस्तक्षेप नहीं करता अपितु स्वयं यथार्थ प्रेरित होता है। इसलिए समकालीन लघुकथा में अविश्वसनीय चीजों का स्थान नहीं हो सकता। दैहिक तत्वों के साथ वैचारिक तत्वों में भी विश्वसनीयता के प्रति सजग रहना चाहिए। भाषा की पात्रानुकूलता और पात्रों की विषय और वातावरण के साथ सानुरूपता आवश्यक होती है। घटनाओं और दृश्यों की प्रकृति भी ऐसी होनी चाहिए कि पाठक उस पर विश्वास कर सके।

      दूसरी बात, प्रत्येक यथार्थ लेखन अपने समय की धारणाओं, विश्वासों और मन्तव्यों के साथ उनकी दिशा को अभिव्यक्त करता है। इसी के माध्यम से वह एक ओर अपने समय और उसके सत्य के निकट होता है तो दूसरी ओर भविष्य की ओर देखता है। जिस लेखन में सामयिक दृष्टि का अभाव है यानी वह अपने से इतर समय की धारणाओं, विश्वासों और मन्तव्यों की प्रस्तुति करता है तो उसमें अपेक्षित स्तर पर विश्वसनीयता का अभाव हो सकता है। इस आधार पर भी लेखन की विश्वसनीयता को परखा जाना चाहिए। यहाँ हमें ध्यान रखना होगा, एक स्थान (या समय) का यथार्थ दूसरे स्थान (या समय) के यथार्थ से मूलभूत भिन्नताओं के बावजूद प्रभावित हो सकता है, यदि प्रभावित करने वाला यथार्थ प्रभावित होने वाले यथार्थ के सापेक्ष विस्तारित हो रहा है यानी अपनी प्रभावशीलता के कारण उसकी दिशा में प्रवाहमान है। कथित विकसित देशों की संस्कृति विकासशील एवं अविकसित देशों की संस्कृति को इसी तरह प्रभावित करती है।

      समकालीन लघुकथा में सामान्यतः अतिरंजना को अविश्वसनीय नहीं माना गया है लेकिन मुझे लगता है कि इस सम्बन्ध में कोई सीमा रेखा हो तो रचनात्मक सृजन अधिक प्रभावकारी हो सकता है। मुझे लगता है कि अतिरंजना में वास्तविकता को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करने में असत्य का भी अंश होता है। असत्य का यह अंश वास्तविकता के प्रति कटुता भी व्यक्त करता है, जो सदैव सकारात्मक ही हो, आवश्यक नहीं। इसीलिए अतिरंजना से युक्त कुछ लघुकथाएँ व्यक्तिगत रूप से एक पाठक के तौर पर मुझे अधिक प्रभावित नहीं कर पाई। उनकी सकारात्मकता में मुझे भावनात्मक अवरोधों का एक अन्तःप्रवाह दिखाई देता है। मुझे लगता है कि जो रचनात्मक प्रभाव उन लघुकथाओं का होना चाहिए, उसका कुछ हिस्सा नकारात्मक प्रवाह में बह गया है अथवा कहीं अटककर रह गया है। मैं जानता हूँ वर्तमान पाठकीय और समीक्षात्मक वातावरण में इस सोच को लेकर मुझे समर्थन नहीं मिलेगा, लेकिन एक पाठक के रूप में मेरा यथार्थ यही है। 

      रचना में विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए रचनाकार को सन्दर्भित दस्तावेजी तथ्यों के सन्दर्भ में पर्याप्त और सही जानकारी का होना भी आवश्यक है। यदि आप किसी वास्तविक घटना विशेष या जीवन से जुड़े तथ्य विशेष की चर्चा अपनी रचना में कर रहे हैं तो उसकी वास्तविक जानकारी आपको होनी चाहिए। जानकारी नहीं है तो उपयुक्त विश्वसनीय स्रोत से जानकारी करके ही उसे रचना में प्रस्तुत करें। 

                                                                  शेष आगामी अंक में जारी…

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