दिनांक 18-9-2020 से आगे
लघुकथा : समीक्षा के सन्दर्भ में आत्मिक और दैहिक अस्तित्व का तात्विक विवेचन
सातवीं कड़ी
सामान्यतःकथा रचनाओं में पात्र चरित्र के रूप में मौजूद होते हैं। लेकिन लघुकथा में ऐसा नहीं है। लघुकथा में समस्या या समस्यात्मक स्थिति एवं अनुभूति प्रमुख होती है, चरित्र नहीं। इसलिए पात्र लघुकथा की क्रियाशीलता को बढ़ाने में सहायक होते हैं, उसके केन्द्रबिन्दु नहीं। पात्रों की क्रियाशीलता कथा में प्रायः कुछ न कुछ स्पेस माँगती है, संख्या में पात्र जितने अधिक होंगे, रचना का आकार और शिथिलता उतनी ही बढ़ती जायेगी। इसलिए पात्रों की संख्या आवश्यकनुरूप कम से कम किन्तु सक्रियता यथाधिक होनी चाहिए। पात्र जितने अधिक सक्रिय और प्रभावशाली होंगे, लघुकथा की कथा भी उतनी ही अधिक क्रियाशील और प्रभावशाली होगी।
लघुकथा के विधागत स्वभाव के सानुरूप होने के लिए भी पात्रों की क्रियाशीलता स्वतन्त्र, समस्या या अनुभूति और उनके कारणों को उभारने वाली, उसकी सघनता और रचना के प्रभाव को बढ़ाने वाली होनी चाहिए। स्वतन्त्र क्रियाशीलता से आशय यह है कि पात्रों की भूमिका कथा में स्वाभाविक और आवश्यकतानुसार उद्भूत हो। लेखक का हस्तक्षेप उसी स्थिति में हो, जब कोई दूसरा विकल्प मौजूद न हो। रचनाकार की लेखकीय दक्षता का एक बिन्दु यह भी होता है कि वह पात्रों को कथा को क्रियाशील बनाने में कितनी स्वतन्त्रता दे पाता है। प्रायः जहाँ पात्रों की संख्या, उनके नाम, उनके परिचय से जुड़ी जानकारी, उनकी भाषा, वेष-भूषा, स्वभाव और उनके अन्दर चलने वाला चिंतन-मनन-उद्वेलन आदि कथा की आवश्यकतानुरूप होते हैं और उनका प्रकटीकरण वातावरण तथा कथा की क्रियाशीलता में से होता है, वहाँ कथा अधिक स्वाभाविक और प्रभावशाली होती है। जहाँ रचनाकार स्वयं इस कार्य में संलग्न हो जाता है, वहाँ लघुकथा में स्वाभाविकता और अपेक्षित प्रभाव नहीं आ पाता है। कुछ लोग इस बात को लेखक की आजादी में हस्तक्षेप मानते हैं। ऐसे मित्रों को समझना चाहिए, लेखक की आजादी रचना के सृजन में निहित होती है, अपने ही द्वारा सृजित रचना के पात्रों को निष्क्रिय बनाने और उनके कार्य में हस्तक्षेप करने में नहीं। लेखक अन्ततः रचना का लेखक होता है, रचना के तत्वों का संयोजक, पात्रों का बॉस या मार्गदर्शक नहीं। लेखकीय प्रेवश पर डॉ. बलराम अग्रवाल द्वारा प्रेरित बहस को इस सन्दर्भ में देखा जा सकता है।
तीसरी बात, पात्रों की रचना भी कथा की आवश्यकतानुसार लघुकथा के तमाम तत्वों के संयुग्मन से जनित कथा-शक्ति द्वारा हो न कि कथाकार द्वारा अपनी सुविधा और इच्छानुसार। यह स्थिति अधिक उपयुक्त और स्वाभाविक होगी।
संवाद
लघुकथा में प्रभाव पैदा करने वाले महत्वपूर्ण अवयव होते हैं संवाद। संवाद, यानी वार्तालाप, जो कथा के विभिन्न पात्रों के मध्य कथा-विषय के सम्बन्ध में होता है। संवादों को कथा की आवश्यकता एवं विषय तक सीमित और कथा को उसके चरम की ओर ले जाने के साथ कथ्य के रूपाकार लेने और प्रकटीकरण के साथ उसको ऊर्जावान बनाने में सहायक होना चाहिए। उन्हें अनावश्यक चीजों में नहीं उलझाना चाहिए।
संवादों में प्रयुक्त भाषा पात्रों के साथ, स्थान और समय के भी अनुरूप हो। सहज, सरल किन्तु मारक/व्यंजनात्मक प्रभाव वाले संवाद लघुकथा के प्रभाव को गुणित करते हैं। समीक्षा की दृष्टि से संवादों की उद्देश्यपरकता के साथ स्वाभाविकता, संगतता और प्रभावशीलता की पड़ताल होनी चाहिए।
03. भाषा : संगतता, सामयिकता और प्रभाव
भाषा में दो चीजें होती हैं- प्रकार और प्रकृति। भाषा का प्रकार अभिव्यक्ति का सामान्य माध्यम होता है, उसका महत्व भी उतना ही सीमित होता है। भाषा की प्रकृति रचनात्मक स्तर पर व्यापक महत्व की होती है। प्रकृति की दृष्टि से अपने प्रभाव के साथ शब्दों और संकेतों के ध्वनित और ग्राह्य अर्थ ही भाषा का वास्तविक रूप होते हैं।
भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम होती है, स्वाभाविक है कि अभिव्यक्ति के प्रकटीकरण एवं सम्प्रेषण में उसकी भूमिका के साथ उसका अभिव्यक्ति की प्रकृति और उद्देश्य के अनुरूप होना भी आवश्यक है। इसी के साथ उसे रचना के वातावरण और पात्रों के अनुरूप भी होना चाहिए।
लघुकथा में भाषा या तो पात्रों के संवादों व मनन-चिंतन के माध्यम से सामने आती है या फिर प्रस्तुतकर्ता (नरेटर) की व्याख्या में प्रयुक्त शब्दावली के रूप में। कभी-कभी रचना में ऐसा भी हो सकता है कि कोई पात्र उपस्थित होकर भी न तो बोले और न ही किसी गतिविधि में प्रत्यक्षतः सहभागी बने। इसके बावजूद बहुत कुछ कह जाये। यह भी भाषा का एक रूप होता है, जो मौन या चुप में से या पात्र की स्थिति से प्रस्फुटित होता है और रचना में अपने प्रभाव को प्रदर्शित कर जाता है।
लघुकथा में स्वाभाविकता, जो अन्ततः उसके प्रभाव को बढ़ाती है, बनाये रखने के लिए भाषा को रचना की प्रकृति, उद्देश्य एवं वातावरण की आवश्यकताओं के अनुरूप होना चाहिए। पात्रों द्वारा प्रयुक्त भाषा का पात्रों के चरित्र, परिवेश एवं योग्यतानुरूप होना भी आवश्यक है। एक अनपढ़ व्यक्ति की भाषा शिक्षित व्यक्ति से अलग होगी। प्रेम लघुकथा की भाषा विसंगतियों की अभिव्यक्ति एवं शोषण से जनित आक्रोश की भाषा से अलग होगी। हिन्दी में लघुकथा सृजन करते हुए भारत के पंजाब प्रान्त की भाषा बिहार प्रान्त की भाषा से अलग होगी।
यहाँ एक बात मुझे बहुत जरूरी लगती है कि यदि हम लघुकथा का वातावरण और पात्र हिन्दीतर क्षेत्रों (जहाँ हिन्दी को बहुत कम समझा जाता है) से सम्बन्धित हैं और रचना को हम पूरी तरह हिन्दी की ही बनाए रखना चाहते हैं तो मूल हिन्दी के प्रयोग की बजाय अनूदित (उस भाषा से) जैसी हिन्दी (एक्सप्रैशंस आदि को ग्रहण करके चलने वाली) अथवा हिन्दी में समझे जाने योग्य उस भाषा के शब्दों का हिन्दी में मिश्रण करके प्रयोग करें, तो अधिक उचित होगा। इससे एक ओर पाठक रचना-पाठ के समय रचना की स्थानीयता से जुड़ा रहेगा, दूसरी ओर रचना की विश्वसनीयता के खण्डित होने का अवसर नहीं रहेगा।
04. शैली : संगतता, सामयिकता और प्रभाव
कथात्मक रचनाओं में शैली कथा के प्रस्तुतीकरण की कला होती है। शैली कथाकार कीे कलात्मकता का संकेत भी होती है और रचना की आवश्यकता भी। एक लेखक जिस तरह की लघुकथा के लिए वर्णनात्मक या व्याख्यात्मक शैली का उपयोग कर सकता है, दूसरा उसी तरह की रचना के लिए संवाद शैली का। कुछ लघुकथाओं या कुछ दृश्यों के कन्टेंट ऐसे होते हैं, जिनके लिए कोई विशेष शैली ही उपयुक्त हो सकती है। सामान्यतः संवाद शैली को लघुकथा के लिए अधिक प्रभावशाली माना जाता है। संवाद शैली में लघुकथा का विषय, उद्देश्य, वातावरण, कथ्य - सबकुछ संवादों के माध्यम से ही प्रकट होता है, अतः इस शैली में लघुकथा के कन्टेंट के साथ पात्रों के व्यवहार और गतिविधियों में भी लेखक के हस्तक्षेप की गुंजाइश नहीं रहती। इससे लघुकथा में स्वाभाविकता अधिक आती है और उसका प्रभाव भी बढ़ता है। लेकिन एक सच्चाई यह भी है कि हर लघुकथा संवाद शैली में नहीं लिखी जा सकती। संवाद शैली के दूसरे रूप चैट शैली में भी आजकल सफल लघुकथाएँ लिखी जा रही हैं।
सामान्यतः अन्य शैलियों के साथ संवाद का मिश्रण ही देखने को मिलता है। विशुद्धतः वर्णनात्मक शैली में लिखी लघुकथाएँ बहुत अधिक प्रभाव नहीं छोड़ पाती हैं। प्रतीकों व बिम्बों के माध्यम से रचना में अपेक्षाकृत अधिक प्रभाव आ जाता है, वशर्ते प्रतीक/बिम्ब क्लिष्ट न हों। पत्र शैली में लघुकथा-सृजन कम हुआ है लेकिन इसमें प्रभावशाली सृजन हो सकता है।
कथा में काव्यात्मक शैली का प्रयोग भी उसके प्रभाव को बढ़ाता है, लेकिन कथा पर काव्यात्मकता के हावी हो जाने पर क्लिष्टता आने का खतरा बढ़ जाता है।
पाठकों से तारतम्य बनाने के लिए लघुकथा में उन्हें सीधे सम्बोधित करने की शैली भी अपनाई गई है, यद्यपि उसका अपेक्षित प्रभाव नहीं आ पाया है। वास्तविकता यह है कि लघुकथा की प्रकृति पाठकों से सीधे संवाद के लिए बहुत उपयुक्त नहीं है। हाँ, कोई ऐसी रचना सृजित हो, जिसमें नरेटर और पाठक- दो प्रमुख पात्रों के रूप में आमने-सामने हों अथवा नरेटर (‘मैं’ पात्र) द्वारा पूरी कथा पाठक को एक सम्बोधन के रूप में प्रस्तुत की जाये तो संभवतः कुछ सफलता मिल सकती है।
लघुकथा में कई बार दृश्य/दृश्यों की स्थिति काफी महत्वपूर्ण हो जाती है और लेखक को अपनी शैली उसी के अनुरूप तय करनी पड़ सकती है।
समीक्षक को विभिन्न शैलियों की पड़ताल रचनात्मकता पर उनके प्रभाव, कथा-सौंदर्य में उसके योगदान के साथ पाठकों को कथा से जोड़ने में सफलता की दृष्टि से करनी चाहिए।
शेष आगामी अंक में जारी…
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