Monday 7 November, 2022

लघुकथा-समीक्षा / बबीता कंसल

समीक्षित संग्रह : अस्तित्व की यात्रा

कथाकार  : कांता रॉय 

लघुकथा संग्रह 'अस्तित्व की यात्रा' समाज में व्याप्त विसंगतियों, विडम्बनाओं को पहचान कर संवेदानाओं में रची भिन्न कथानकों, चरित्रों में बसी हुई, नयी राह पर चलने का मार्ग दिखाती हैं। भाषा सहज, सरल है। पंच लाइन से लेखिका की पैनी व सूक्ष्म दृष्टि का पता चलता है।  लघुकथाएं पाठक के मन को गहरे तक पैठ बनाती हैं, जिनको पढ़ते हुए हुए मैं कितनी ही बार नि:शब्द सी रह विचार करती रह गयी।

कांंता राॅय
मैंने कान्ता जी की लघुकथा को पढ़ा ही नही घूंंट-घूंट पिया भी हैं। यही कारण है कि पाठकीय प्रक्रिया देने में देरी हुई। उनकी लघुकथाओं पर समीक्षा करना मेरे वश में नहीं, ना ही उनकी लघुकथाओं पर समीक्षात्मक प्रक्रिया देने की सामर्थ्य मुझ में है । पर सत्य को जीवन्त करती हुई उनकी लघुकथाएं पढ़कर प्रतिक्रिया दिये बिना कैसे रह सकती थी।

'अस्तित्व की यात्रा' लघुकथा संग्रह का आवरण पृष्ठ प्रभावी हैं, जिसे देखकर पुस्तक को पढनें का मन होता हैं।

इस संग्रह में 160 लघुकथाएँ हैं, जिनमें पहली लघुकथा 'सावन की झड़ी' बहुत सुन्दर मर्मस्पर्शी लघुकथा हैं। इसमें चीनू अपनी भाभी से जानवर पर निबंध लिखवाने को कहता है। वह जब अपनी बहन के प्रेमी को बाऊजी द्वारा जानवर कहे जाने को लेकर बहन को परेशान देखता है तो अपनी भाभी से बातों ही बातों में निबंध के माध्यम से, हृदय की संवेदनाओं को प्रकट करता है। बच्चे के मुख से सहज सत्य कहलाकर पाठक के मन को अन्दर तक छू लेने वाली लघुकथा है। 

एक गरीब लड़की कैसे असमय प्रौढ़ बन जाती है। घर में मां, दादी की कही बातों को बिना जाने ही मान जाना और मालकिन से भी उसे मानने को कहना। उसकी मासूमियत को 'कतरे हुए पंख' लघुकथा में बहुत प्रभावी रूप से दर्शाया गया है। मालकिन का उसे स्कूल भेजना, साथ ही पगार भी देते रहना, उसके उड़ने को पंख लगा देता हैं।

'विभाजित सत्य' एक स्त्री और जमीन का आपसी संवाद जिसमें स्त्री जमीन से कहती हैं कि "मैं तुम्हारा दर्द समझती हूँ। जमीन बिकने के बाद भी अपना स्वभाव और स्थान नही बदलती, जबकि स्त्री को मालिक के अनुसार बदलना पड़ता हैं।" लघुकथा की हर पंक्ति पाठक को  सत्य से जोड़ती है।

'खटर -पटर'।  पाठक पति पत्नी के बीच की लड़ाई को औरत और मर्द के रुप में जब देखता है, उसका नजरिया ही बदल जाता है।

ऐसे ही, 'श्रम की कीमत' आरम्भ से अंत तक पाठक को बांधे रखती है। मजदूर के हाथों की फटी हथेलियों को देख मजदूर के बिना कुछ कहे ही पूरा पारिश्रमिक दे देता है। आखिर मेहनत की अनदेखी नहीं कर पाता।

"स्वभाववश" सांप और नेवले की लघुकथा, जिसमें दोनों अपनी लड़ाई से उकताकर भगवान से एक ही प्रजाति में जन्म लेने की इच्छा रखते हैं ताकि साथ रहें और एक-दूसरे से प्रेम भी करें। दूसरे जन्म में तब एक स्त्री और एक पुरुष बना यानी मनुष्य जाति में भी एक-दूसरे के विपरीत।

"परिमलतुम कहां गये" में एक बिगड़ैल बेटे को मां अपना बेटा मानने से मना कर देती है। अच्छी लघुकथा ।

'अहिल्या का सौन्दर्य', जमीर की हिफाजत', 'बदनीयत', 'तालियां', 'नशे', बन्दगी', 'आहुति', 'इंजीनियर बबुआ', 'जंगली', 'रंडी', 'पगहा', विविध विषयों और समाज में उभरती विसंगतियों पर चोट करती लिखी गयी, पाठक के मन पर प्रभाव छोड़ती लघुकथाएं हैं। ये लघुकथाएँ पाठक के मन में चिंतन-मनन का धरातल बुनती हैं और पाठक विचलित हो सोचने पर मजबूर हो जाता है। हर लघुकथा में अपने आसपास के परिवेश का प्रभाव दिखता है। इस तरह ये अपना अर्थपूर्ण संदेश देने में  कामयाब रही हैं ।

मुझे विश्वास है कि कान्ता जी का लघुकथा संग्रह पाठकों को अवश्य ही पसन्द आयेगा और वो संग्रह को अपना पूरा स्नेह देंगे।

मैं इस लघुकथा संग्रह के लिए कान्ता जी को प्रणाम करती हूँ। हार्दिक बधाई, शुभकामनाएं देती हूँ। इसी तरह उनकी लेखनी निरंन्तर चलती रहें और हम उनकी  पुस्तक पढ़कर लाभान्वित होते रहें।

बबिता कंसल, दिल्ली


 

 

 

 

 

 

 

 

Saturday 5 November, 2022

लघुकथा : सृजन भूमि और समालोचना / डॉ. बी. एल. आच्छा

Prof. B L Achchha

साहित्य एक व्यापक संज्ञा है और विधाएँ उसकी अभिव्यक्ति का सहज प्रतिबिम्बन। विधाओं की विषयगत या भावगत अनुरूपता होती है। मसलन गीत के लिए जो अंतरंग भाव सघनता की लय चाहिए तो कथा-कुल के लिए गद्य का पठार | पर ऐसा भी नही कि कविता में लय ही लय होती हो और कथा- कुल में भाव- सघनता से रिश्ता- नाता न हो। इसीलिए आज की कविता में गद्य-अभिव्यक्ति ने भी ताल ठोककर पहचान बनाई है और कथा-साहित्य भी गद्य-गीत की लय में संक्रमित हुआ है। यह परिवर्तन जब रचनाओं में घटित होता रहता है, तो  आलोचक की दृष्टि इस बदलाव को परखती है। और जब युग- सापेक्ष संवेदन या वैचारिक संबोध में भावान्तर आता है, तब भी वह पड़ताल का विषय बनती है। तो क्या इस बदलाव की किसी सुनिर्धारित शास्त्र से फॉर्मेट से, सुनिश्चित मानकों से तौलना चाहिए? स्पष्ट है कि रचना में बदलाव आया है और वह प्रवाह यदि कन्टेन्ट और फॉर्म में भी उतरा है, तो मानदण्ड स्थायी नहीं हो सकते।

           
रचना का तापमान अलग तरह का है, तो बेरोमीटर भी बदलाव के लिए प्रतिश्रुत है। पर इसका अर्थ यह भी नहीं कि पुराना शास्त्र खारिज हो जाता है और नये को परखने की दृष्टि ही पुराने शास्त्र के हिसाब से बेगानी हो जाती है। कालिदास जब ‘पुराणमिवत्येव न साधु सर्वम् ‘की बात करते हुए नये की प्रतिष्ठा  करते हैं ,तो तय है कि रचनाधर्मिता में बदलाव आया है, फिर कसौटी में भी बदलाव आएगा! आखिर बासी उत्तरों से भी नये सवाल खड़े होते हैं। और साहित्य तो उस रमणीयता का उपासक रहा है। जो कहता है- ‘क्षणे क्षणे यन्नवतामुपैति तदैव रूपं रमणीयताया:।” कालिदास साहित्य में इसी प्रयोगविज्ञान के उपासक थे। लघुकथा हो या साहित्य की अन्य विधाएँ, ये सभी नवोन्मेषी प्रयोगशीलता की माँग करती हैं। क्योंकि युग बहुत गतिशील है, तकनीक और विचार में भी ; इसलिए साहित्य में यह गतिशीलता और बदलाव दशक-पंचक में उतर आये है।
             

समीक्षा या आलोचना रचनापेक्षी है। शास्त्र तो एक तरह से नौसीखियों के लिए सधी हुई सीढ़ियाँ हैं। पर वे भी इतनी सुगठित है कि न तो छठी शताब्दी के आचार्य भामह की  अनदेखी की जा सकती है, न आचार्य भरत के नाट्यशास्त्र की। हिन्दी में यह बात आचार्य शुक्ल और  हजारीप्रसाद द्विवेदी प्रभृति अनेक आलोचकों की परंपरा मे पुनराविष्कृत हुई है। वामपंथ में भी और रसवादी आनंद धारणा में भी पर बदलाव बहुत आये हैं। मार्क्स, फ्रायड, पूँजीवाद, आधुनिकता, उत्तर- आधुनिकता, ग्लोबल से गुजरते हुए और नयी विधाओं के रूपांकन के साथ उनके निरन्तर बदलाव में भी।
            

अब किसी फार्मेट या चौखट से  बंधकर लिखना संभव नहीं है। यों भी साहित्य हर काल में परम्परा का अतिक्रमण करता है। यदि घनानंद कहते हैं कि–“लोग हैं लागि कवित्त बनावत, मोहि तो मोरे कवित्त बनावत।” लक्षणों के आधार पर निर्मित काव्य- व्यक्तित्व एक बात है और स्वानुभूत प्रयोगविज्ञान से निर्मित व्यक्तित्व नितांत अलहदा। इसीलिए शास्त्र को रचनात्मक व्यक्तित्व के विकास की सीढ़ियां कहा है, व्यक्तित्व का मूर्ति स्थापन नहीं| रचनाकार पुरानी मूर्तियों को गला भी देता है, तो नये आविष्करण के लिए । इलियट इसे ट्रेडिशन एंड  इन्डिविज्युअल कहते हैं। हम भी जानते हैं कि जब कोई विधा ऑटोमेटिक सी हो जाती है, यहाँ तक कि रचना किसी प्रवाह या वाद- संबद्ध भी तो उसपर भीआघात होता है। नयी रचनाधर्मिता अतिक्रमण करती है। पर आलोचक के लिए उन्हीं सोपानों का यानी शास्त्र का ज्ञान जरुरी है। और रचनाधर्मिता में आ रहे बदलावों को चीरकर देखने की नयी दृष्टि भी। साथ ही इन बदलावों के पैटर्न को समझकर शास्त्रीय दृष्टि को नवनवीन बनाने की। रचना भी बदलती है और शास्त्र भी बदलता है। रचना को समझने के लिए शास्त्र भी जरूरी हैं और रचना के बदलाव को समझने के लिए लोचदार शास्त्रीय दृष्टि भी।
पैरवी में उठा हाथ हो सकता है, विवशता की बॉडी लैंग्वेज हो सकती है। और… और… पर अंतर्गठन तो उत्स से लेकर पूर्णता तक एक दिशा, एक गंतव्य। अब इसे कितने शब्दों में रूपाकृत किया जाए तो शास्त्रीय निर्देश भी साधक हैं- ‘अन्यूनातिरिक्तत्वं मनोहारिणी अवस्थितिः। न कम न अतिरिक्त शब्द- रचना मनोहारी होती है। तय है कि कथा भी होगी, कथारस भी, ध्वनियाँ भी, शब्द भी, संवाद भी, कथानकीय मोड़ भी, दृश्य-नाट्य भी, परिवेश भी, चरित्र का केंद्रीय संघटन भी, संदेश की दिशा भी। मगर सारा लक्ष्यधावन तो उसी अंतिम बिन्दु के लिए समर्पित,  जिसके लिए कथा का रचाव है। इसलिए न प्रासंगिक कथाजाल, न बहुचरित्रीय, न परिदृश्यों की पट्टभूमि ।तंतुजाल तो हो लता की तरह, पर उसी में कोई फूल खिलकर मुखर हो जाए। संपूर्ण लता की बात नहीं, केवल एक पुष्प के लिए जो तंतुजाल बुना जाता है, बस उसी के प्रतीक के रूप में।
          

अब कई बार यह भी कहा जाता है कि क्या दो काल और दो कथाएँ समांतर रूप से नहीं चल सकतीं? मेरा मानना है कि हर्ज नहीं है क्योंकि युगांतर को दर्शाने के लिए ऐसा हो सकता है, पर समांतर योजना का उद्देश्य भी एक बिन्दु पर जाकर विस्फोट करना है। उदाहरण के लिए भृंग तुपकुरी की लघुकथा’बादशाह बाबर का नया जन्म’ मे बाबर की शहंशाही सल्तनत और राजेश की बेबसी विरोधी रंग योजना में समांतर कथानक रचते हैं, पर दोनों ही विवशता के शिखर पर माइक्रो हो जाते हैं। या अशोक वर्मा की ‘खाते बोलते हैं' के कालान्तर के तीन परिदृश्य। पर मार तो अंतिम परिदृश्य के ‘रामभरोसे’ के व्यंग्य और सामाजिक-आर्थिक स्थिति पर ही है। इसे कालदोष मानने की जरूरत भी नहीं।
         

लघुकथा चाहे आतिशबाजी में तीर की तरह आकाश में नुकीले क्षण पर विस्फोट कर अपने रंग बिखराये या चक्री की तरह घुमावदार होकर जमीनी वृत्त में ही बिन्दु विशेष को जगमगा दे, पर उसका वृत्त समूचे परिदृश्य या चरित्र को प्रकाशी बनाने का नहीं है। “क्षण को सीमित अर्थ में लेना ठीक नहीं, उसके साथ वह अनुभूत चक्र भी है, जो एक दिशा में ही एक अपनी अणु- व्यंजना पर संकेन्द्रित होता है। लघुकथा एकरेखीय नहीं है, वह मनस्थितियों का संघर्ष भी है, विरोधों की तल्खी भी है, तटस्थता की चुप्पी की भीतरी व्यथा भी है, समाजशास्त्र का छोटा सा एकांश भी है, चरित्र की माइक्रो झलक भी है। और इतना जरूर है कि सारा कथाविन्यास अपने व्यंजक शीर्ष के लिए समर्पित हो। लघुकथा न बौन्साई है, न कहानी का लघु- संस्करण। इस सूक्ष्म, इस क्षण, इस शीर्ष, इस अणु, इस मेक्रो की संघनित अभिव्यक्ति का पूर्ण बिम्ब उतरकर आ जाए और वह कहानी में परिवर्तित होने की संभावनाओं को भी यह जतला कर समाप्त कर दे कि इससे व्यंजना का घनत्व बिखर कर अपनी क्षमता को खो देगा। तय है कि ऐसी बुनावट लघुकथा को संक्षिप्त आकार ही देगी, क्योंकि यह सौ मीटर की दौड़ है, मैराथन नहीं। तलवार, कटार और चाकू तीन अलग अलग हथियार हैं, उसीतरह आज कथाकुल की सबसे छोटे आकार की लघुकथा अब विधारूप में स्थापित है, शब्दों की संख्याके आधार पर नहीं, स्वरूप की संभावित पहचान के आधार पर।

और किसान- मजदूर, मजलूम झंडा गाड़ गये। श्रेष्ठता के सामाजिक अधिमान वाले सारे पात्र जब कथा साहित्य से झड़  गये हैं, तो साधारण आदमी के सारे मनोराग, सारी दुर्बलताएँ, सारी शक्तिमत्ता, सारे संघर्ष, सारे सोच, परिवार, समाज और में उसकी केन्द्रीयता, उसकी वैयक्तिक सत्ता अस्मिता और सामाजिक स्वतंत्रता, विवशता और मानवीयता जैसे अनेक अक्स कथा साहित्य में आ गए। कभी उच्च-मध्य-निम्त वर्गीय अवधारणाओं और संघर्ष के साथ, कभी अवचेतन की कुंठाएँ, कभी राजनैतिक-सामाजिक प्रतिरोध, कभी विवश दैन्य की चीख तो कभी संकल्पों की हुँकार। और इन अक्सों के भी कई भीतरी अक्स हैं। और कहना होगा कि ये अक्स, ये संवेदन, ये परिदृश्य ,ये मनोराग, ये अनुभूतियाँ इतने पार्श्वों के साथ संजीदा हैं, जिन्हें लघुकथा के कलेवर में ही संघनित अभिव्यक्ति मिल सकती है। आखिर सूरज का अपना आकाश है, और जुगनू के लिए रात के अंधेरे के परिदृष्य में क्षणिक मगर रेखांकन योग्य चमक। हिंदी लघुकथा जुगनू की इस चमक में अपने समय के उजले- अंधेरे अक्सों को इन पात्रों के माध्यम से व्यक्त कर रही है। अब इन पात्रों का शास्त्रीय दृष्टि से वर्गीकरण संगत नहीं है, न ही उसकी सार्थकता सवाल। इतना ही है कि वह पात्र भी कितना स्मरणीय बन जाता है।
          

ये चरित्र लेखक की तयशुदा मानसिकता के उत्पाद हैं, या किसी वैचारिक हलचल, आदर्श-यथार्थ की टकराहट, परिवर्तन की आकांक्षा, पीढ़ियों के टकराव, यथास्थिति और संवेदनशीलता के द्वंद्व के नये रचाव की सूक्ष्मता युगबोध, नक्काल आधुनिकता  पर प्रहार, मुर्दा आस्थाओं का प्रतिकार, किसी सूक्ष्म भाव रसायन की मानवीय अर्थवत्ता या तलस्पर्शी फलसफ़ों से इस तरह सने हों कि लघुकथा के सूक्ष्म आकार में भी चरित्र और कथा एकमेक हो जाएं। पर इससे लघुकथा की अन्विति प्रभावित न हो कभी ली लघुकथा मे चरित्र के दो केन्द्र बन जाते है। कन्हैया लाल मिश्र 'प्रभाकर' की ‘इंजीनियर को कोठी' में केन्द्र तो इंजीनियर है, पर माली का चरित्र भी उतना ही प्रभावी। इससे चरित्र का केन्द्र स्खलित होता है। इसके बजाय प्रसाद का ‘गूदड़ सांई’ एक संपूर्ण चरित्र बन जाता है, अविस्मरणीय।

लघुकथा में संवाद सपाटपन, सहजबयानी और वर्णनात्मक ठंडेपन पर प्रहार करते हैं।अपनी जीवंतता, संवेदनीयता और कहन के भीतरी प्रेरकों से। कभी कभी तो लघुकथा का चरमांत कथन अपने में की पूरी ताकत दिखाता है। कभी इनमें प्रहार, कभी छुअनभरी संवेदनीयता, कभी प्रतिकार , कभी दर्शन की गहराई, वहीं प्रतिबोध कहीं व्यथा, कहीं क्रियात्मक संवेग, कहीं भीतरी कुंठा, कहीं मनोवेग, कहीं दोहरापन आदि इसतरह व्यक्त होते हैं कि सारे संवाद चरित्र के आत्मसंघर्ष को नुकीले अंत तक पहुॅचा देते हैं। इनमें कहीं गद्यगीतों का मार्मिक गुंफन, कभी व्यंग्य की मार, कभी खुली चुनौती, कभी आत्मव्यथा आदि संवेग रचना की अपेक्षानुरूप बुन दिये जाते हैं। बल्कि ये संवाद खुद ही लघुकथाकार के मानस पर इस तरह छा जाते हैं कि शब्दों में भाव-तरंगें झंकृत हो जाती हैं।  

             

भाषा-शैली के तेवर इन लघुकथाओं को संदेश और आस्वाद की दृष्टि से, चेतना और कलात्मक स्थापत्य की दृष्टि से असरदार बनाते हैं। आधुनिक लघुकथाओ’ में तो बिंब, प्रतीक, सांकेतिकता, मिथक, विरोधी रंगों का संयोजन या कंट्रास्ट, व्यंग्य, आंचलिकता, शब्दलय और अर्थलय, अन्योक्ति, काव्यात्मक स्पर्श, खड़खड़ाते शब्दों की आग, कभी सम्मूर्तन कभी अमूर्तन, कभी चित्रात्मकता, कभी सांगीतिक प्रभाव कभी संस्मरणात्मक या रेखाचित्रात्मक भाषा, कभी देशी-विदेशी शब्दों की कोडमिक्सिंग से लघुकथा में विन्यास की चालक शक्ति को नियोजित किया जाता है कि लघुकथा का अंत अपने पैनेपन में एक खासतरह की चुभन बन जाता है। पर यह सब रचना की अंतर्वस्तु की प्रेषणीयता पर निर्भर करता है। शब्दों, ध्वनियों, वाक्य योजना के प्रवाह, विराम चिह्नों की सार्थकता या अर्थव्यंजना में सहकारिता, अर्थ की सांकेतिकता आदि का चयन लेखकीय क्षमता का प्रतिमान बन जाता है। फिर शैलीगत प्रयोग तो लघुकथा में निरंतर हो रहे हैं। कथाकथन की शैली से लेकर पंचतंत्रीय शैली तक, संवादात्मक शैली से आत्मकथा या डायरी शैली तक, मिथकीय प्रयोगों से लेकर कालांतरों के परिवर्तन तक।

            

जहाँ तक परिवेश या केनवास का सवाल है, लघुकथाकार शब्दों की मितव्ययता के साथ परिवेश के नियोजन में भी सार्थक मितव्ययता का ही परिचय देता है। प्रकृति का उतना ही अंश जो लघुकथा की मनःस्थिति का पोषक हो । घर-परिवार का उतना ही नाट्य दृश्य, जो रचना के भीतरी तनाव और संदेश का क का नियोजक हो । एकतरह से सृजन और कतरन एक साथ चलते हैं, सर्जक के भीतर के आलोचक की तरह।बड़ी बात यह कि प्रकृति, जीवन या समाज ये सादृश्य तभी सकारक होते हैं, जब वे लघुकथा की भीतरी जरूरत का अनिवार्य हिस्सा बन जाते हैं। यथार्थ भी, कला भी, परिवेश भी ,संवेदना भी,चित्र भी, मनःस्थिति भी ।

              

पर बात उस चरमांत की है,जिसे पुरानी भाषा में उद्देश्य कहा जाता है।और ये सारे तत्व, सारे रचाव, सारी यति-गतियाँ, सारे चरम विन्यास, शैलीगत विन्यास इसी पैनी, भाव-संवेदी अर्थवत्ता से जुड़े हैं। लघुकथा की अंत:प्रेरणा से लेकर उसकी व्यंजना तक ।सारे कथा-विन्यास का वात्याचक्र, वैचारिक संवेदन का मर्म, माइक्रोस्कोपिक चित्रण का ऊर्जा बिन्दु, व्यंग्य की मार, संघर्ष के चरमान्त, की चेतना, संवेदना का तर्क, चुभन का एन्द्रिय मनस्तात्त्विक उद्वेलन, यथार्थ का साक्षात्कार, जड़ता पर कौंधभरी चेतना, पतनशील मूल्यों से मुठभेड़ करता विवेक, अन्तर्विरोधों की सूक्ष्म पकड़ ,लेखकीय प्रवेश से रहित उसके आंतरिक मनस्ताप वाला व्यक्तित्व इस उद्देश्य में विशिष्ट छाप छोड़ जाते हैं। गेहूँ की बाली का कद छोटा ही होता है, पर सूखने के बाद उसका नुकोला सिरा कितना चुभनदार होता है। इस चुभन में लघुकथा का अंतरंग जितना छुपा होता है, उतना ही पाठक के भीतर का प्रभावी संवेदन भी।

           

पर ये छह तत्व तो सीढ़ियाँ हैं, दरवाजे हैं। न जाने कितनी खिडकियाँ और वातायन हैं, जिनसे कोई कौंध अपनी गमक के सा प्रविष्ट हो जाती है और रचनाकार के भीतरी रसायनों से से श्लिष्ट होकर रूपाकृत हो जाती है। खासकर लघुकथा के लिए इनका कंडेसिंग या संघनन बहुत छोटे आकार में बड़ा संदेश देने की जद्दोजहर करता है। तो  भाषिक विन्यास को कितना काटना-पीटना, तराशना, संप्रेषी तत्वों में रचाना एक गहरी तन्मयता और समावेशी कला की मांग करता है। शीर्ष संवेदन की संप्रेषणीयता से सिद्धि के लिए भाषा के तमाम घटक यदि पथार्थ के नुकीले अक्स तक जाएँ, भावतरलता में रूपांतरित करें, ये तर्क से पाठक की चौखट को खटखटाएँ, नये शिल्प के प्रभावक बनें, पुराने शिल्प में नयी संवेदना के संवाहक बनें तो लघुकथा पाठक भी पूँजी बन जाती है। कोई तर्क, कोई संवेदना, यथार्थ का कोई सिरा तीर की तरह राह चीरता हुआ पाठक तक पहुँच जाए और उसके हृदय-मस्तिष्क मे टन्न बजा दे ।
         

ये सारी बातें पुरानी भी हैं और बहुत कुछ नयी भी, बल्कि अभिव्यक्ति में प्रयोगी भी। पर कुछ अच्छी लघुकथाओं के आधार पर कहूँगा कि सावयविक अंतर्ग्रथन (organik unity ) जरूरी है। बुनावट में यह संवेदन और भाषिक विन्यास की बुनी हुई मित्रता है, उसके नाट्य और विज्युअल रूप में।कई बार इनके भीतर यथार्थ का पठार और गद्यगीत की भावुकता मैत्री करते हुए गड्‌मड्ड हो जाते हैं। जो प्रतीक या चरित्र उभरते हैं, वे संपूर्णता में खुद को विकसित नहीं कर पाते। पर मूल संघर्ष और उसकी वांछित परिणति के निर्मायक बन जाते हैं। लेखक पात्रों को अपने तोतारटंत संवादों से नहीं लादता, बल्कि नेपथ्य में ही संवेदना का अंग बन जाता है।
            

और इस सब के लिए शिल्प की चालक शक्ति ही कारगर है, बिना किसी नक्काशी के, बिना जड़ाऊ शिल्प के | सार्थकता संवेदनात्मक चरमान्त के साथ पाठकीय प्रवेश में है। इसीलिए बहुत ज्यादा अमूर्तन या
सपाटपन से पाठक दरवाजे पर ही ठिठक  जाएगा। चाहे झनझनाए, तरल कर दे, उदात्त बनाये, तर्क खड़ा करे, यधार्थ के किसी कोने को शीर्ष बनाए, कभी नयी मर्यादा गढ़े, पुराने को खंडित करे, विरोध की तनी हुई मुट्ठी बने,विसंगति के खिलाफ प्रतिपक्ष या प्रतिरोध बने, पर लघुकथा समकाल की वैचारिकी से भरीपूरी हो और रचाव मे अन्तस्तंतुओं से इतनी गहरी बुनी हो कि उसनके किसी हिस्से को काटना, या बदलना नामुमकिन हो जाए। 
             

लघुकथा की वस्तुपरक (objective) पड़ताल के अतिरिक्त एक पक्ष और है मूल्यांकन का | तब नये बिन्दु उमरते हैं – रचना का यथार्थ और जीवन का यथार्थ। कई लोग इनके सीधे तुलना करते हैं, तो कई रचना के यथार्थ को विशिष्ट मानते हैं। इसलिए भी कि रचना में कलात्मक संप्रेषण के साथ रचनाकार की सृजन- भूमि के मनस्तत्व वैचारिकी  से संश्लिष्ट होते है। कई बार कल्पना और कला तत्व उसे स्थूल यथार्थ की अपेक्षा संवेदनीय यथार्थ में इसतरह विन्यस्त कर देते हैं कि जीवन की धड़कन ही विशिष्ट हो जाती है। पर जो मूल्यगत प्रतिमान होते हैं, उन्हें आलोचक विचारधारा, अपनी आलोचना दृष्टि और पूर्वाग्रहों से परखता है, तो विवाद भी होते हैं। देखना तो यह भी चाहिए कि  लेखक जिस उद्देश्य को लेकर चला है, वह रचना से संप्रेषित होता है या संदेश और रचना के विन्यास में कोई खोट है। मूल्यग्गत प्रतिमान सब्जेक्टिव या विचारधाराओं की प्रतिबद्धता लिए हों तो परिणाम भी वस्तुनिष्ठ नहीं हो सकते। असल में तीन चरण हो सकते हैं- रचना के भीतर दो-तीन बार अन्तर्यात्रा। रचना की भाषा से रचना का सूक्ष्म विश्लेषण। सूक्ष्म विश्लेषण के आधार पर रचना की मूल्यगत पड़ताल और जीवन सापेक्षता। इससे रचना केन्द्र में रहेगी और मूल्य प्रतिमान रचनापेक्षी।
             

इस लंबे विमर्श में विमर्शों की भी अपनी भूमिका है, क्योंकि वे समकालीनता का चर्चित पक्ष होते हैं। व्यापक तौर पर ये वैचारिक विवेक के पक्षधर हैं;जो सामाजिक रूप से मानव नियति को समता और बेहतर जीवन तक ले जाते हैं। चाहे जेण्डर समता हो, वर्गीय विषमता का संघर्ष हो, तकनीक और जीवन का पक्ष हो, पर्यावरण ‘और जैविक संतुलन का पक्ष हो । पर इन सबसे साक्षात्कार लेखक की वैचारिकी का हिस्सा है। यह हिस्सा सृजनात्मक बनकर रचना में आए, न कि विचारधारा के साधन के रूप में । विमर्शों से रचना का कथ्य लदा न हो, वल्कि विमर्श पात्रों की चेतना और कथ्य का सहज पक्ष बनें। यह भी कि रचनाएं विमर्श को नये कोण दें ,संवेदना के नये अक्स दें और विमर्श इस सृजनात्मकता से अधिक समृद्ध हों।
       

इतना सब कहने के बावजूद लघुकथा और उसकी समालोचना में ”इदमित्थम्’ तो नहीं हो पाता। बात तभी सार्थक लगती है, जब रचना के ध्वनि पक्ष से लेकर उसके सारे भाषिक तत्वों से गुजरा जाए। मुक्तिबोध इस रूप में संगत लगते हैं कि रचनाकार भाषा के सिंहद्वार से बाहर आता है।तो आलोचक भाषा के सिंहद्वार से रचना में प्रवेश करता है। पाठक रचना का सहयात्री बन जाए और आलोचक रचना की भाषिक संरचना से ध्वनित संदेश का वस्तुपरक-मूल्यपरक मूल्यांकन करें।

(लघुकथा डाॅट काॅम,  नवम्बर 2022 से साभार)

डाॅ. बी एल आच्छा

फ्लैट नं-701, टॉवर-27, नॉर्थ टाउन अपार्टमेंट, स्टीफेंशन रोड (बिन्नी मिल्स), पेरंबूर, चेन्नई (तमिलनाडु)-600012

मो-9425083335


Thursday 27 October, 2022

लघुकथा-समीक्षा-2021/अनिता रश्मि

एकांतवास में  सार्थक कर्म 

त्रासद कोरोना काल की कम शब्दों में अधिक बात कहती अशोक लव की लघुकथा संग्रह हैं "एकांतवास में ज़िंदगी"। बकौल उनके, कोरोना काल में लाॅकडाउन के दौरान घर में बंद जो देखा, महसूस किया, उसे लघुकथाओं में ढाल दिया है। डरे, सहमे मनुष्य लोगों की पीड़ा को स्वर देने का दायित्व इन्होंने प्रस्तुत पुस्तक की लघुकथाओं में बखूबी निभाया है। 

पुस्तक सर्वभाषा ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित की गई है। 

अशोक लव जी एक सिद्धहस्त संवेदनशील लघुकथाकार ही नहीं, अनेक विधाओं में चिंतनशील रचनाएँ लिखनेवाले बहुप्रशंसित सुप्रसिद्घ रचनाकार हैं। आठवें दशक से लघुकथा विधा के मूर्धन्य लेखक रहे हैं। विधा पर उनकी पकड़ बहुत मजबूत है। ये अपनी छोटी-छोटी लघुकथाओं के द्वारा कथा के मर्म को पूर्णतः उद्घाटित करते हैं। 

पुस्तक कोरोना के ग्रास बने समर्थ, संवेदनशील लघुकथाकार, संपादक, आलोचक स्व. रवि प्रभाकर जी को समर्पित की गई है। 

"एकांतवास में ज़िंदगी" की भूमिका वरिष्ठ लेखक, संपादक योगराज प्रभाकर द्वारा लिखी गई है। उसका शीर्षक है - 'तीन सौ साठ डिग्री विश्लेषण करती लघुकथाओं का संग्रह' यह भूमिका पठनीयता से भरपूर तो है ही, संग्रह की रचनाओं के प्रति आकर्षण भी जगाती है।

"एकांतवास में ज़िंदगी" की पहली लघुकथा है, "बड़-बड़ दादी" हमेशा बोलनेवाली दादी को भी कोरोना के खतरों का एहसास हो चुका है। इसीलिए वह बस हनुमान चालीसा में रम सबके संकट को टालने की प्रार्थना में लीन रहती है। हर परिवार का यही किस्सा था उस वक्त। सभी बेबस, वश में कुछ नहीं। सभी अपने-परायों, यहाँ तक कि दुश्मनों के लिए भी बस, प्रार्थनारत थे। यह लघुकथा उसी काल को तथा लोगों के एकांत भावों को प्रस्तुत करती है। 

अधिकांश लघुकथाओं के कथ्य, प्रस्तुतिकरण और समग्र प्रभाव विविध चुनौतीपूर्ण स्थितियों को दर्शाते हैं। साथ ही प्रामाणिक भी हैं।

अशोक लव लघुकथा की तकनीक, पंचलाइन पर पूर्ण दक्षता के साथ निगाहें डालते हैं। यथा - धुलाई युद्ध, और क्या जीना, मृत्यु का भय, इकलौता मास्क, आनलाइन चैन कहाँ आदि अनेक। 

"स्व-आहुति" जैसी रचनाएँ मात्र रचना नहीं, सच्चाई है। डर के साए में पनपी सच्चाई! पत्नी पति को सब्जी लेने सामने की दुकान पर भी नहीं भेजना चाहती है। वह लड़ पड़ी है क्योंकि भय का कद बढ़ गया है, कोविड उसके पति को न छू ले। घर का इकलौता कमानेवाला पति गुजर न जाए। घर उजड़ जाएगा। खुद वह मर गई तो फर्क नहीं पड़ेगा। ऐसे भय से हम दो-चार हो चुके हैं। 

खुद चिकित्सक, नर्स, कोरोना वारियर तक स्वजनों से बिछड़ रहे थे। ऐसे में जीवन-स्पंदन में चिकित्सक की सूझ-बूझ से नर्स के मंगेतर की जान बच जाती है। 

"चलें गाँव" में लेखक ने मजदूरों की वापसी को विषय बनाया है। सरकार ने गाँव-घर वापसी के लिए बस की व्यवस्था कर दी थी। फिर भी कुणाल गाँव में बीमार बापू पर बोझ बनने से बचने के लिए बस से उतर जाता है। अंत की पंक्ति कई सवाल खड़े करती है, उसकी आँखों में चमक लौट आई थी और पैरों में खड़े होने का साहस लौट आया था।

लाॅकडाउन में साहित्यकारों द्वारा आनलाइन कवि गोष्ठी, लघुकथा गोष्ठी की अधिकता पर तंज है "नाम रोग वायरस" तो देश बचना चाहिए में सत्ता पक्ष की असंवेदनशीलता को रेखांकित किया गया है। वह भी वैश्विक स्तर पर। "वे पचपन दिन" वेल विहेब्ड प्रेमी की लाॅकडाउन में सच्चाई सामने आने पर प्रेमिका की मुक्ति जैसे लाॅकडाउन के साइड इफेक्ट (फायदे) को बता रही है। उस दौरान अंदर बंद जोड़ों तथा पारिवारिक रिश्तों के झगड़ों की बातें भी आम हो रही थीं। 

पचास किलोमीटर तक पैदल चलनेवाली कोमलांगी शारदा ईश्वर के भरोसे कोरोना काल में पति संग गाँव लौट रही थी। सहृदय सिक्खों द्वारा भोजन और जरूरी सामान दिया जाना मनुष्यता की मिसाल कायम करते मददगारों की कथा है भगवान सुनते हैं। यह शीर्षक बदल दिया जाता और अंत भी तो लाॅकडाउन के वक्त तमाम डर के बावजूद मनुष्यता का अद्भुत चेहरा सामने आता। इसे सबने उस त्रासद काल में भरपूर देखा था, महसूस किया था। 

बहुत छोटी सी प्यारी सी लघुकथा "अलमारी खुल" पुस्तकों की महत्ता बतलाती है। लाॅकडाउन ने उपेक्षित पड़ी किताबों में प्राण फूँक दिए। सच कहा जाए तो लोगों के अंदर प्राण का संचार हुआ। यह लघुकथा पहली पंक्ति से पंच लाइन तक बाँधे रखती है। 

"विवशता" लोगों की विवशता को अच्छी तरह उजागर करती है। 

कोविड 2 के समय अस्पतालों में बेड, आॅक्सीजन, लकड़ियों की किल्लत से सभी वाकिफ हैं। कोई घर ऐसा न था, जहाँ किसी परिजन को कोविड ने लील न लिया हो। शवों से श्मशान अटे पड़े थे। एक तरफ मनुष्यता तो दूसरी तरफ असंवेदनशीलता, फायदा उठाने की कोशिशें भी देखने में आ रही थीं। इन्हीं सब को आधार बनाकर लिखी गई "न लकड़ी, न अग्नि" बहुत चुपके से उस दौर को सामने लाती है और हाहाकार का स्वर बन जाती है। पूरी लघुकथा ही वस्तु स्थिति को दर्शाने में सक्षम। कभी भी कोविड की दूसरी लहर का जिक्र होगा, विभीषिका को प्रस्तुत करती यह लघुकथा याद की जाएगी; और "एकांतवास में ज़िंदगी" किताब भी।

पुस्तक में गत दो वर्षों में लिखी इनकी 60 यथार्थवादी लघुकथाएंँ सम्मिलित हैं। इस पुस्तक की लघुकथाओं से परिलक्षित होता है, उनके अंतर्मन में मानव व मानवीय भावनाओं के प्रति एक सकारात्मक भाव है। महामारी के लगभग हर पक्ष को समाहित किया गया है। ये केवल दुखदायी आपबीती नहीं, व्यष्टि से समष्टि की ओर बढ़ती रचनाएँ हैं। मनुष्य के साहस, धैर्य, संघर्ष, मनुष्य बने रहने की खासियतों को बिना असहज हुए, बिना अधिक शब्द खर्च किए कितनी सफाई से अपनी बातें कहती हैं ये लघुकथाएँ कि पाठक चकित हो जाता है। 

अशोक लव जी का अनुभव, सूक्ष्म दृष्टि, लघुकथा लेखन का कौशल देखते बनता है। सहज, सरल, बोधगम्य भाषा की रवानगी मर्मस्पर्शी लघुकथाओं को पठनीय बनाती हैं। 

अंत में "एकांतवास में ज़िंदगी" के आलेख खंड में केशव मोहन पांडेय, डॉ मनोज तिवारी तथा यशपाल निर्मल के तीन आलेख भी सराहनीय हैं और पुस्तक की उपयोगिता को प्रस्तुत करते हैं। 

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पुस्तक : एकांतवास में ज़िंदगी (लघुकथा संग्रह) 

लेखक : अशोक लव

प्रकाशक : सर्व भाषा ट्रस्ट, नई दिल्ली 

संस्करण : 2021

मूल्य : 300 /-

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समीक्षक 

अनिता रश्मि 

19-20 की उम्र में लघु उपन्यास। एक और उपन्यास, दोनों पुरस्कृत। लघुकथा और समीक्षा पर भी कार्य। 

प्रमुख सम्मान / पुरस्कार - 

शुरुआत में ही राजभाषा विभाग, बिहार सरकार का नवलेखन पुरस्कार, साहित्य गौरव सम्मान, शैलप्रिया स्मृति सम्मान, रामकृष्ण त्यागी समृति सम्मान से पुरस्कृत। 

अद्यतन 

'हंस सत्ता विमर्श और दलित विशेषांक' के पुस्तक रूप में एक कहानी। 

"रास्ते बंद नहीं होते" लघुकथा संग्रह इंडिया नेटबुक्स से। 

'सरई के फूल' कथा संग्रह, हिन्द युग्म से। 

डायमंड बुक्स कथामाला के अंतर्गत "21 श्रेष्ठ नारी मन की कहानियाँ, झारखंड" का संपादन। 

सम्प्रति - स्वतंत्र लेखन।

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Monday 17 October, 2022

अंजू खरबंदा की लघुकथाएं : चरित्रों की गोमती-गंगा / डॉ. जितेन्द्र जीतू

अंजू की रचनाएं मुझे भारतीयता से ओतप्रोत दिखाई पड़ती हैं। इनका स्वाद मुझे ठेठ देसी लगता है। इनके पात्रों में अनुभवजन्य परिपक्वता है। यह परिक्वता पहले पहल मुझे ट्रांस्प्लांटेड लगीं लेकिन ज्यों ज्यों मैं इनकी लघुकथाओं को इनसे  परिचय और प्रगाढ़ता के माध्यम से पढ़ता गया मुझे समझ आ गया कि यह वस्तुतः वह धर्म-संस्कार हैं जो खुद इनके भीतर से इनके पात्रों के भीतर जाकर रचे बसे हैं। यह इनका एक बहुत बड़ा अलक्षित अचीवमेंट ही कहा जायेगा कि इन्होंने अपने कमोबेश सभी लघुकथाओं में किसी न किसी एक पात्र को अपने भीतर की कोमलता प्रदान की है और इनके पात्र भी इनके विषय विन्यास ही नहीं, अधिकतम एक्टिविटी को भी इनसे आहरित किये बैठे हैं। संतोष की बात है कि यह आहरण भी कभी इन्हें खाली हाथ न कर सका। नित नई लघुकथा लिखते समय यह अपने पात्रों को जीवन देते दिखीं। निश्छल, निस्पृह, निश्चिंत।
अंजु खरबंदा

इनके पात्रों में अनुभवजन्य परिपक्वता मैंने क्यों कही? ये अपने पात्रों के चरित्र में विविध रंग सायास अथवा अनायास भरने के लिए प्रतिबद्ध दिखती हैं। इनकी कतिपय लघुकथाओं में मैंने महसूस किया कि मुख्य पात्र सदैव सैक्रिफाइस के लिए तैयार रहता है। यह विरोध करना नहीं जानता या नहीं चाहता। यह संबंध सुधारक है। इसके पास क्रांति के कारण तो मिल जाएंगे मगर लड़कर हक़ मांगने की कोई इच्छा नहीं दिखती।

इसके साथ ही यदि इनके कुछ स्त्री पात्रों के चरित्र की पड़ताल करें तो चौंकाऊं नतीजे प्राप्त होते हैं। इनकी लघुकथाओं के कतिपय स्त्री पात्र क्रान्ति का बिगुल लिए होते हैं। ये पात्र लड़कर भी अपना हक़ लेना जानते हैं। इनका लड़ना सिर पर सवार होना नहीं है। इनका लड़ना ज़िद तक सीमित है। यह ज़िद भी कुछ पाने के लिए नहीं है। उनकी यह ज़िद सच्चाई, समझदारी के लिए है। यह ज़िद बराबरी की मांग लिए चलती है। ज़िद में भी इनकी स्त्री पात्र कर्कश नहीं होती। वह सभ्यता के दायरे में रहती है। वह संस्कारित है। उसे अपने बोलने की आज़ादी का ज्ञान है। उसे अपनी सीमाओं का भी ज्ञान है।

इनकी स्री झुकना भी जानती है और तेवर दिखाना भी। इनकी स्त्री आत्मसम्मान की मूरत है। तेजस्वी है। बातचीत में बैलेंसिंग रखती है और अधिकारों के प्रति भी तभी मुखर होती है जब उसे दबाने की कोशिश की जाती है। उसके व्यक्तित्व को मरने के लिए छोड़ा जाता है।

पहली रात में ही अपने पति को मिसफिट करने वाली इनकी विद्रोहिणी पात्र मुग्धा को समझने की कोशिश कीजिये, क्या चाहती है अपनी पति से। अनचाहे बच्चे को जन्म देने के लिए व्यग्र /उत्सुक /लगभग उतावली सी शैली के चरित्र से मुग्धा की तुलना कीजिये। पति से कुछ कहने से भी संकोच करती है। मुग्धा की भांति ही दिशा का चरित्र है। वह अपनी माँ की मांगों को ससम्मान स्वीकार करने का तब भी हौसला दिखाती है जब वह उसे देखने के लिए आने वाले लड़के के सामने गोरेपन की क्रीम लगाकर आने को कहती है।

अब थोड़ा श्रेया को याद कीजिये जिसकी स्कूटी सीखने की इच्छा होने पर पतिदेव की हिक़ारत भी रोक नहीं पाती और खुलापन जिसकी रगरग में बसता है। रिया को कौन भूल सकता है जो अपने पुराने प्रेमी को अवॉयड करके पति को चूज़ करती है और अतीत पर मिट्टी डालने का संदेश देती है। रमिता जैसे चरित्र को कौन भूल सकता है जो पति के विरोध के बावजूद ऑफिशियल ट्रेनिंग के लिए अमेरिका जाने को तैयार हो जाती है जहाँ की कल्पना मात्र उसे मन्द मन्द शीतल हवा का अहसास करा जाती है।

सिर्फ स्त्री ही क्यों। अंजू की लघुकथाओं के पुरुष पात्र भी अपनी अतिरिक्त संवेदना और क्रांतिकारी निर्णयों के कारण चिन्हित किये जा सकते हैं।

तारु को याद कीजिये। पत्नी की असामयिक मृत्यु के बाद बच्चों को एक मिशन की तरह पालना कितने लोग कर पाते हैं। सरप्राइज' लघुकथा का वह दामाद याद करें जिसका लघुकथा में ज़िक्र ही तब होता है जब मोरिशस में अपने हनीमून के लिए टिकट लेते समय वह सास ससुर के गोवा के लिए भी टिकट खरीदकर भिजवाता है। 'सोलमेट' लघुकथा के राकेश कुमार को याद करें जो शादी के बाद अपनी बीवी को उसकी माँ के लिए उदास देखकर सलाह देता है कि उन्हें भी यहीं ले आओ, साथ रहेंगी।

वस्तुतः जब अंजू लघुकथा लिखने के लिए कैरीकेचर तैयार करती हैं तो मन ही मन चरित्र में डूब जाती हैं। इनके वाक्य विन्यास बची हुई ज़िम्मेदारी को निभा देते हैं। कैरेक्टर तलाशने का हो या न हो, नहीं जानता, पर कैरक्टर तराशने का इनका अपना फ़लसफ़ा कमोबेश सभी लघुकथाओं में दिखाई पड़ता है। लघुकथा का जो फ्रेम लेकर ये चलती हैं उसमें ये उदासी, मोह, खुशी, त्याग, बलिदान चरित्र की उपस्थिति आवश्यकतानुसार करके ये अपनी लघुकथाओं को चारित्रिक ऊंचाइयों पर ले जाती हैं जहाँ से इनके बाकी सहयोगी पात्र अक्सर बौने नज़र आते हैं। ख़ुद इनकी दृष्टि इतनी व्यापक है कि विषयों का अंबार है इनके पास। चरित्रों के लिए इतनी छटपटाहट है कि यदि ये कहानी ही नहीं, उपन्यास भी लिखना आरम्भ करें तो यह छटपटाहट कम नहीं होगी। कहानी दर कहानी या उपन्यास दर उपन्यास बढ़ती चली जायेगी। जैसे लघुकथा दर लघुकथा बढ़ती चली जाती है।

डॉ. जितेन्द्र जीतू

संपर्क : jitendra.jeetu1@gmail.com

मोबाइल: 8650567854

Thursday 6 October, 2022

पुस्तक समीक्षा--छोटे-छोटे सायबान / कल्पना भट्ट

पुस्तक का नाम : छोटे-छोटे सायबान 

कथाकार : पुरुषोत्तम दुबे 

प्रस्तोता : जन लघुकथा साहित्य 

प्रथम संस्करण : जनवरी २०२१

मूल्य : ४० ₹

हिन्दी-लघुकथा जगत् में पुरुषोत्तम दुबे एक चीर-परिचित हस्ताक्षर हैं| आप उच्चशिक्षा विभाग मध्यप्रदेश शाशन से सेवानिवृत प्राध्यापक रहे हैं| आप हिन्दी-साहित्य में भी रुचि रखते हैं| आपके निबंध, लम्बी-कविता, ग़ज़ल की पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं| इन विधाओं के अतिरिक्त आपकी विशेष रुचि ‘हिन्दी-लघुकथा’ में रही है | आपने लघुकथा केन्द्रित अनेक आलोचनात्मक एवं समीक्षात्मक लेख लिखे हैं जो विविध पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं| 


                    डॉ. पुरुषोत्तम दुबे


डॉ. पुरुषोत्तम दुबे ने गत वर्ष अपना लघुकथा संग्रह ‘छोटे-छोटे सायबान’ भेजा था जिसको मैं अपने निजी कारणों से पढ़ नहीं पायी, परन्तु हाल ही में मेरे मुंबई प्रवास के दौरान इस बेहतरीन संग्रह को पढ़ना संभव हो सका| आपकी लघुकथाओं को पढ़कर जितना समझ पायी हूँ उसको यहाँ प्रषित करने का विनम्र प्रयास कर रही हूँ, इसमें कितना सफल हुई हूँ यह आप सुधि-पाठक तय करें| 

आपने अपने इस संग्रह में विभिन्न विषयों पर जैसे कि पारिवारिक, मनोवैज्ञानिक, दर्शनशास्त्र, सामाजिक जैसे कि दहेज़ विरोधी, सांप्रदायिक, धर्म(भ्रष्टाचार, आडम्बर), मित्रों की दोस्ती इत्यादि पर अपनी कुशल लेखन शैली का परिचय दिया है| 

इस संग्रह के शुरुवात में ‘संश्राव्य यानी सुनाने योग्य’ में आपने जो लिखा है उसपर पाठकों का ध्यान आकर्षित करवाना चाहती हूँ| आप लिखते हैं, ‘अनुभूति से बड़ा यार कोई नहीं| विचारों को अभिव्यक्ति के पैरों से गति देना, सर्जक का यही मौलिक और अनिवार्य धर्म है| लेखक की भूख का कोई अंत नहीं | एक रचना कह देने के बाद वह दूसरे ही दम नई रचना कह देने के लिए तैयार मिलता है,सृजन की भूख ही सृजनकार की सृजनात्मक शक्ति होती है|’

आप आगे कहते हैं, “मैं सृजन के गमले में लघुकथा को उगाना नहीं चाहता, न ही लघुकथा को आसमान पर उलटा लटकाना चाहता हूँ| तथापि चाहता हूँ, बिजली के करंट की तरह मेरी लघुकथाएँ पाठक के मन में सिहरन पैदा कर दें|” आपके कथन को हर उस लेखक को जो लघुकथा लिखना चाहता है को ध्यान में रखना चाहिए| 

इस लघुकथा संग्रह में कुल ४४ लघुकथाएँ प्रकाशित हुई हैं| जिसमें पारिवारिक लघुकथाएँ, मनोवैज्ञानिक लघुकथाएँ, राजनीति पर आधारित लघुकथाएँ, मानवेत्तर इत्यादि| अब अगर शिल्प की दृष्टि से देखा जाए तो इस संग्रह में कुछ प्रयोगात्मक एवं फंतासी में भी लघुकथाएँ भी प्रकाशित हुई हैं जिस कारण यह संग्रह कुछ विशेष बन पडा है| 

सबसे प्रथम मैं प्रयोगात्मक लघुकथाओं पर प्रकाश डालना चाहूँगी | ‘लड़की पसंद है’ इसमें कथानक को पाँच दृश्यों में बाँटा गया है | प्रथम दृश्य में तबले पर थाप पड़ रही है और कोने में पड़ी सारंगी रो रही थी| इस तरह का चित्र प्रस्तुत किया गया है| दूसरे दृश्य में कथानायिका की माँ और पिता के परस्पर संवाद है| जिसमें माँ कहती हैं, “तरंगीता के पापा! तुमने घर को संगीतशाला बना दिया है!” और यह शिकायत भी करते हुए नज़र आती हैं, “और कुछ नहीं तो बेटी को संगीत की शिक्षा में डाल दिया!!” 

जिसपर उनका पति प्रणव अपनी बेटी का पक्ष लेते हुए कहते हैं, “तुम भी शामली! लड़कियों को घर के काम-काज के अलावा दूसरे हुनर भी आने चाहिए|” इस संवाद में पिता की अपनी बेटी को आत्मनिर्भर बनाने का संकल्प भी छिपा हुआ दिखाई देता है जो पुरुषप्रधान समाज जो बेटों को महत्त्व देते हैं के लिए एक सन्देश देता प्रतीत होता है कि बेटियाँ भी बेटों से कम नहीं और समय आने पर बेटियाँ अपने घरेलु दायित्वों को निभाते हुए दूसरे कार्यों पर भी अपने को साबित करने में नहीं चुकती हैं| 

तृतीय दृश्य में तरंगीता को देखने शैलेश, उसकी माँ और उसके पिता आये हुए हैं| और तरंगीता चाय-नाश्ते से सजी ट्रे के साथ ड्राइंग-रूम में आती है| यहाँ उस परिवार के संस्कारों को दर्शा रहा है जो सहज है| 

चौथे दृश्य में तरंगीता की रुचि को जानकार लड़के की माँ जोर देकर कहती हैं “लड़के को गाना-बजाना कतई पसंद नहीं! वह घर को संगीत का घराना बनाना नही चाहता है| घर को मंदिर ही बनाये रखना चाहता है|”  

यहाँ एक ऐसे परिवार का चित्रांकन है जिसमें संगीत को अच्छा नहीं मानते, जो समाज में अक्सर दिखाई देता है | 

इसके जवाब में तरंगीता कहती है , “मंदिर भी आरती और भजन बिना संज्ञाहीन है|” इस संवाद से कथानायिका की समझदारी दिखाई देती है जिसमें उसको घर के अच्छे संस्कारों के साथ-साथ घर में सामंजस्य बनाने के गुण भी हैं ऐसा दृष्टिगोचर होता है साथ ही वह एक सशक्त स्त्री है जो अपना और अपने घर का अच्छा-बुरा भली-भाँति जानती और समझती है और वक़्त आने पर विरोध भी  दर्ज करवाने की क्षमता रखती है | यह नारी-सशक्तिकरण का बेहतरीन उदहारण प्रस्तुत किया गया है जो सराहनीय है| 

पाँचवे दृश्य में तबले बैण्ड-बाजे बन चुके थे और सारंगी शहनाई | इस वाक्य से समापन किया गया है| यह प्रतीकात्मक बन पडा है जो यह दर्शा रहा है कि तरंगीता का रिश्ता तय हो जाता है और उसका विवाह हो रहा है| 

इस अन्तिम वाक्य में एक सन्देश यह भी छिपा हुआ प्रतीत होता है कि अगर मन में दृढ़ निश्चय कर लिया जाए और अपने हुनर के लिए प्रेम और समर्पण की भावना हो तो व्यक्ति अपने लक्ष्य को पा सकता है जिस हेतु उसका प्रयास आवश्यक होता है| 

इसकी शिल्प की वजह से यह लघुकथा श्रेष्ठता को छू रही है | इसी तरह एक और लघुकथा को देखा जा सकता है | ‘अनमोल गीत’, ‘प्रार्थना’ हैं जो कथन के रूप में प्रस्तुत किया गया है जो राष्ट्र-प्रेम को दर्शा रही हैं| इसी तरह की शिल्प में आपकी एक और लघुकथा है जिसका शीर्षक ‘घ्राण शक्ति’ है| यह एक मानवेत्तर लघुकथा के साथ-साथ व्यंग्य भी किया है और ऐसे व्यक्तिओं पर कटाक्ष किया है जो व्यक्ति-से-व्यक्ति बदलने पर अपने आचरण और व्यवहार को बदल लेते है बिलकुल इस कहावत के अनुसार कि गंगा गए गंगा दास और जमुना गए जमुनादास| ये तीनों ही लघुकथाएँ सुंदर बन पड़ी है | 

‘समान्तर साक्षात्कार’ शीर्षक से एक लघुकथा इस संग्रह की एक और उत्कृष्ट रचना है जो साक्षात्कार शिल्प में लिखी गयी है| जिसमें दो साक्षात्कार प्रस्तुत किये गए हैं पहला साक्षात्कार साहित्यकार से और दूसरा एक ड्राईवर से | दोनों को एक-से प्रश्न पूछे गए हैं ‘आपकी दिनचर्या क्या है?” और द्वितीय प्रश्न साहित्यकार से यह पूछा है कि आप लिखते हैं” दिनचर्या बताने के उपरान्त साहित्यकार का उत्तर है ‘कल’ और ड्राईवर से जब पूछा जाता है, ‘आप सोते कब हो?” तब उसका भी उत्तर भी कल होता है| पर दोनों के कल में अंतर कितना है यह इस लघुकथा की जान है | साहित्यकार के लिए कल आलास का प्रतीक है जब की एक मेहनतकश इंसान के लिए ‘आराम हराम है’ जैसा होता है| इसी उद्देश्य को दर्शाती यह लघुकथा श्रेष्ठ बन पड़ी है जिसके लिए लेखक बधाई के पात्र हैं| 

पारिवारिक परिवेश पर आधारित लघुकथाओं के शीर्षक इस प्रकार हैं, ‘फैसला होने  तक’ जिसमें संयुक्त परिवार की महत्ता को दर्शाया गया है एवं परिवार में सामंजस्य बनाने की जिम्मेदारी तीसरी पीढ़ी की भी और वह इसको जब निभाते नज़र आते हैं तब भारतीय संस्कृति ‘वासुदेव कुटुम्बकम्’ की झलक दिखाई देती प्रतीत होती है जो इस लघुकथा का उद्देश्य भी है और सन्देश भी| 

‘युक्ति’ लघुकथा में कथानायक अमीरचंद का पुश्तेनी तीन मंजिला मकान जो  पिलगोंडा बाज़ार के बीचो-बीच स्थित है वह जर्जर हो चुका है और नगरनिगम की  खतरनाक भवनों की सूची में प्रमुखता के आधार पर नामंकित्त है| उसको लिए नगरनिगम ने समय सीमा बाँधते हुए यह आदेश दिया है कि या तो समय सीमा के भीतर उसको तुड़वाकर जमींदोज करवा दें अन्यथा नगरनिगम का जत्था उस भवन को तोड़ डालेगा| अमीरचंद पेशे से बढई है और वह भी अन्य काष्ठकारों के साथ रोजन्दारी के हिसाब से फर्नीचर बनाने का काम करता है | वह तीन बेटों का पिता है| एक बार उसका मन उस मकान को बेचने का हुआ पर परिवार की सहमति न मिलने पर वह थोडा परेशान भी होता है क्योंकि उन सब के अनुसार नया मकान खरीदना आसान न होगा उनके लिए| ऐसे में उसका एक मित्र उसके भवन का मुआयना करता है और बताता है कि मकान की छत पर करीब पच्चीस से तीस लाख रुपयों की सागबान की लकड़ी लगी हुई हैं | वह कहता है कि सावधानी से चारों भवन को तोड़ने का कार्य करें और लकड़ी का उपयोग फर्नीचर बनाकर बेचने का प्रयास करें | यह युक्ति उसको काम आ जाती है और वह धीरे-धीरे अमीर बन जाता है| इस लघुकथा के माध्यम से लेखक यह सन्देश देना छह रहे हैं कि समस्या में ही समाधान छिपा हुआ है, बस प्रयास भर करने से उसका हल मिल जाता है| यह भी एक उत्कृष्ट लघुकथा है| इनके अतिरिक्त ‘ घर लौटा राम खिलावन’ में एक माँ का अपने मजदूर बेटे के प्रति प्रेम को दर्शाता है| पति-पत्नी के आपसी प्रेम को दर्शाती लघुकथाओं में ‘आसमान के नीचे’ , ‘उस दिन...’, ‘बेड टी’ हैं जो सुन्दर हैं| ‘अनुभवों का उपहार’ लघुकथा में सास अपनी तीनों बहुओं को अपने-अपने कार्यशैली और रुचि को देखते हुए दिवाली की पूजन के उपरान्त छोटी बहू को इंग्लिश भाषा का स्पिकिंग कोर्से ज्वाइन करने बाबक कोचिंग क्लास की फीस जमा कर उसकी रसीद प्रदान की| मँझली बहू को डांस क्लास की मेम्बरशिप का कार्ड दे दिया| बड़ी बहू को हेलिकोपते से सैर करने की टिकेट दे दी| इस तरह से मटेरियल गिफ्ट न देते हुए एक्स्पेरियंशियल गिफ्ट देकर उनकी मुरादें पूरी कर देती हैं| और इस तरह से लेखक ने वर्तमान पीढ़ी की औरतों हेतु प्रगितिशील विचार धरा प्रस्तुत किया है जो उल्लेखनीय है| 

मानवेत्तर लघुकथाओं का उल्लेख करूँ तो इस संग्रह में ‘ सतयुग का शिलालेख’, जो पर्यावरण संरक्षण को लक्षित करती है, ‘अन्नप्राशन’ लघुकथा में वृक्षों की कटाई के चलते पक्षिओं के लिए अपने घरौंदे बनाने और बचा पाने के लिए चिंता जताई गयी है | 

मनोविज्ञान पर आधारित लघुकथाओं में ‘कार्टून’ अपने कथ्य के कारण, ‘ जीवन क्रम’ आत्महत्या करने के प्रयास करने वालों के लिए एक सकारात्मक सन्देश दे रही है कि हर सुबह एक और दिन जी लेने को कहती है, यह लघुकथा इसी वजह से उत्कृष्ट बन पड़ी है | ‘युग-पीड़ा’ मनोविश्लेषण पर आधारित  का एक बेहतरीन उदाहरण  है जिसमें कथानायक अपने बच्चे को स्कूल बस में बैठाने के लिए एक रोज़ उसके साथ बस-स्टॉप पर खड़ा होता है तभी पहचाने पालकों के चेहरों की बीच उसको एक नया चेहरा दिखाई देता है | परिचय पाने के लिए वह अपना हाथ आगे बढ़ाता है बदले में सामने वाला व्यक्ति अपने दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार करता है| कथानायक के मन में एक प्रश्न आता है और वह सोचता है कि, ‘भारतीय संस्कारों को अपनाकर चलने वाला वह नया चेहरा बच्चे को अंग्रेजी स्कूल में दाखिल कर क्या अन्तेर्द्वंद से नहीं गुजर रहा होगा?’ और उनके इस अंतर्द्वंद को अचानक अपने भीतर के विचारों से तौलता है तब उसको लगता है कि वह तो युगबोध लिए हुए है, जबकि वह नया चेहरा युगपीड़ा  से आंदोलित है | इस लघुकथा में लेखकीय प्रवेश दृष्टिगोचर हो रहा है परन्तु यह लघुकथा अपने उद्देश्य को पूर्णतः संतुष्ट करती है | ‘माती का मीत’ लघुकथा दर्शनशास्त्र पर आधारित लघुकथा है | कुल सात पंक्तियों की लघुकथा को देखें- चलता चाक थामकर निर्मित घड़े को उसने पकाने की प्रक्रिया में एक ओर रख दिया| अब फिर नया घड़ा घड़ने में गूँथी मुलायम मिट्टी उसने हाथों में ली | 

चाक जब तक बंद रहता है, वह लौकिक बना रहता है| घूमने के साथ ही वह स्वयं में अलौकिक रूप प्रदाता का आभास कराता है| बावजूद इसके, वह जन्मदाता नहीं है|

माटी, माटी को ही पैदा करेगी | जीवन का वरण करने वाली मृत्यु उसके वश में नहीं है| 

तभी तो वह अलौकिक होकर भी देवता नहीं है| 

व्यक्ति सोचता है कि वह निर्माता है, परन्तु वह वही करता है जो समय ने पहले से ही उसके लिए निर्धारित करके रखा हुआ है| परन्तु चूँकि वह कार्य करता है वह अपने लक्ष को पाकार या अपने निर्धारित किये कार्य में सफलता को देखकर वह आनंदित हो जाता है और स्वयं को इश्वर समझने की भूल कर बैठता है परन्तु वह भूल जाता है कि वह जन्मदाता नहीं है| 

वह जीवित है, वह सब कुछ कर तो सकता है परन्तु जीवन और  मृत्यु उसके हाथ में नहीं है| इसलिए वह अलौकिक होकर भी देवता नहीं है| इसका अर्थ यह है कि इंसान अपने को इंसान ही माने परन्तु वह देवता किसी भी परिस्थिति में नहीं बन सकता | यही सन्देश इस लघुकथा के माध्यम से दिया गया है जो यथार्थ और सटीक है| इसके प्रस्तुतीकरण के कारण यह लघुकथा उत्तम श्रेणी में आती है| 

‘अफवाह से अफवाह तक’ सामाजिक मनोविज्ञान को दर्शाती एक अच्छी लघुकथा है जिसमें यह दर्शाया गया है कि जब कोई अफवाह फैलती है तब शब्द कानोंकान हस्तांतरित होते हैं और जब लौटकर मुख्य व्यक्ति तक पहुँचती है तब उसको एहसास होने लगता है कि आकाश पर थूकने पर थूक लौटकर थूकने वाले पर ही गिरता है | 

इसके बाद अगर वह सतर्कता भी रखता है तब वह हर बात को अफवाह मान लेता है और ऐसे में उसका अपना नुक्सान भी हो जाता है| फिर उसको यह एहसास हो जाता है कि पूरी दुनिया इस अफवाह के गिरफ्त में फँसी हुई है| 

‘नर नरेश नारायण’ पौराणिक पात्रों को प्रतीक बनाकर यह दर्शाया है कि जब कोई व्यक्ति अपनी जिम्मेदारी को किसी पर भरोसा करके सौंपता है तब वह कार्य करता है परन्तु कभी किसी पल उसकी महत्वाकांक्षा हावी हो जाती है तब वह सोचने लगता है कि वह नरेश ही क्यों है? नारायण क्यों नहीं?” और वह रक्षक से भक्षक बन जाता है। उसके भीतर की आस्था को तिरोहित कर वह आततायी बन जाता है और घमंड से चूर वह स्वयम को स्वयम्भू समझने लगता है और एक दिन वह नारायण से ही नाता तोड़ लेता है| वर्तमान समय में अति महत्वकांक्षी व्यक्ति की मनोदशा को प्रतीकात्मक ढंग से बाखूबी उकेरा गया है जो प्रशंसनीय है| 

‘तिजारत’ लघुकथा में कथानायक रमेश से कहता है ‘आदमियों की तिजारत करना मूर्खों का काम है!’ और उसका अभिप्राय माँगता है तब रमेश दैत्यों और देवताओं के द्वारा किया गया अमृत-मंथन का दृष्टांत देते हुए यह बताने का प्रयास करता है और कहता है कि कलयुग में मनुष्यों की नीयत का मंथन हुआ| जिसमें शिष्टाचार और भ्रष्टाचार नाम के दो पेय निकले| शिष्टाचार का पान सबको विषैला प्रतीत हुआ| इसके चलते सब मनुष्यों ने भ्रष्टाचार नाम का अमृत का पान किया| 

परिणाम स्वरुप भ्रष्टाचार का यह अमृत अब ऊपर से नीचे तक बराबर रूप में सबको पीने को मिल रहा है और आदमियों में बीच आदमी का व्यापार चल रहा है|” यह एक अच्छी लघुकथा हुई है |  

विद्यार्थिओं के मनोविज्ञान को दर्शाती ‘चातुर्य’ शीर्षक की लघुकथा सुन्दर बन पड़ी है जिसमें एक अध्यापक अपनी कक्षा में जाता है तब वह देखता है कि कुछ विद्यार्थी तो उसको कक्षा में आया देखकर अपनी जगह पर खड़े हो जाते हैं परन्तु कुछ बैठे रहते हैं| 

अध्यापक को प्राचार्य पहले ही आगाह कर देते हैं कि एक कक्षा में तोमर नाम का एक छात्र है, जो छात्र संघ का अध्यक्ष भी है| जब वह अध्यापक बैठे हुए विद्यार्थिओं को देखता है वह समझ जाता है  कि ये छात्र तोमर गुट के हैं तब वह मनोवैज्ञानिक ढंग से अपना आंशिक परिचय देते हुए अपनी हॉबियों को बताते हुए कहता है, “मुझे फाउंटेन पेनों में ‘होमर’ पसंद है, घड़ियों में ‘रोमर’ पसंद है और जाति-बिरादरी में ‘तोमर’ पसंद है|” 

यह सुनते ही बैठे हुए छात्र एक साथ खड़े हो जाते है| विद्यार्थियों को अगर विश्वास में लेना हो,ऐसे में अध्यापक अगर उनको विश्वास में लेते हुए यह दर्शाने का प्रयास करते हैं कि विद्यार्थी अपने अध्यापक को अपना ही समझे क्योंकि वह भी उनमें से एक है तो उनकी बातों का उनपर प्रभाव पड़ता है और विद्यार्थी राजनीति को छोड़ अपने सही उद्देश्य यानी की पढ़ाई की ओर बढ़ जाता है जो वर्तमान समय के शिक्षा संस्थाओं के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण चुनौती बन गयी है| जिसका निराकण होना अति आवश्यक हो गया है| इसी उद्देश्य को दर्शाती यह एक बेहतरीन लघुकथा बन पड़ी है| चूँकि लेखक स्वयं एक प्राध्यापक रह चुके छात्र संघ जैसी समस्याओं से किस तरह से समाधान तलाशा जा सकता है यह आप बेहतर समझ सकते है और आपने अपने अनुभवी होने का परिचय इस लघुकथा के माध्यम से प्रेषित किया है| एक अच्छा लेखक वही होता है जो अपने लेखन में न सिर्फ समाज में चल रही किसी विसंगति पर अपनी कलम चलाये अपितु उस विसंगति के प्रति सजग हो उसका समाधान भी प्रस्तुत करना एक लेखक का कर्त्तव्य होता है जो पुरुषोतम दुबे जैसे कुशल लेखकविद भली-भाँति समझते है चूँकि उनके पास वर्षों का अनुभव होता है |आपने भी ऐसा ही किया है| 

इसी श्रेणी में ‘चेहरा’ लघुकथा भी एक सुन्दर लघुकथा है जिसमें व्यक्ति में मनोबल को बढ़ाने का सन्देश है| टूटे हुए आत्मबल को पुनः हासिल करने के लिए व्यक्ति के भीतर आत्मविश्वास बढाने की आवश्यकता होती है जिसके हासिल होते ही वह जीवन की हारी हुई बाजी जीत सकता है | 

राजनीति विषयक लघुकथाओं में ‘फिर वही राजनीति’ जिसमें यह दर्शाया गया है कि राजनीति में आमजन पर छलावा करके उनपर राज करने की कूटनीति परंपरा-सी बन गयी है और वर्तमान में भी ऐसा ही हो रहा है| ‘उपद्रवी’ लघुकथा में एक कुटिल व्यक्ति जो राजनीति में है पर तंज़ कसा गया है कि वह अवतार लेता है- हरदम, हरघडी| गिरगिट की तरह रंग नहीं बदलता परन्तु हर रंग का गिरगिट बन जाता है | वह एक बार शत्रु को मात देने के चक्कर में वह शतरंज का मोहरा बन जाने को तैयार हो जाती है और जब देखता है कि वह अपनी जगह नहीं बना पाया है तब वह चौसर का पासा बन जाता है क्योंकि उसको पता चल जाता है कि पासा ऐनवक्त पलट भी जाया करता है| और उसको जुबान से पलट जाने में बड़ा आनंद मिलता है | जिसके चलते उसको जानने वाले उसके बहुरुपिया, नौटंकीबाज, यहाँ तक कि दगाबाज़ ही नाम दे देते हैं| 

वह इतना ढीट बन जाता है कि उसको यह लगने लगता है कि अपने नाम के आगे एक ऐसे विशेषण के लग जाने पर वह दुनिया का एक ऐसा व्यक्ति बन जाता है जिसके बारे में यह कहा जा सकता है, ‘दुनिया में यदि कोई काम का आदमी है, तो वही एक, वही एक, वही एक है|’ इसका शीर्षक विषयवस्तु के अनुरूप है | 

‘लहरों पर डोंगियों से शब्द’ स्त्री-सशक्तिकरण को दर्शाती एक सकारात्मक लघुकथा है जिसमें एक मात्र स्त्री-डोंगी अपने साथी पुरुष-डोंगियों की चुनौती को स्वीकार कर अपनी काबिलियत को साबित करती है और उनके मध्य की प्रतिस्पर्धा में न सिर्फ हिस्सा लेती है अपितु उसमें जीत भी हासिल करती है और इस तरह से इस व्यवसाय को जो की पुरुष प्रधान है में अपनी उपस्थिति सिद्ध करते हुए वह भी उनसे कहीं से भी और किसी से भी कम नहीं है का डंका बजवा देती है| यह अपने कथानक और जैसे जैसे कथा आगे बढती है इस कथा में पात्रों के संघर्ष को जिस तरह से चित्रांकित किया गया है वह बहुत ही प्रभावशाली बन पडा है जिस कारण यह लघुकथा उत्कृष्टता की पंक्ति में आती है| इसका प्रतीकात्मक शीर्षक सटीक है और कथानक को परिभाषित करता है | 

‘राग गाँवठी’ धर्म के नाम पर अन्धविश्वास को दर्शाती है जिसके चलते नकली साधू बनकर आमजन को लूटने वाले ढोंगी बाबाओं का सुंदर चित्रांकन किया गया है जो समय के चलते आगे राजनीति में आ जाते हैं परन्तु उनका मुख्य उद्देश्य तब भी भोली-भाली जनता को लूटना और उनपर अपनी धाक जमाना होता है|  इसका प्रतीकात्मक शीर्षक भी सटीक हुआ है|  

‘अज्ञानता की देवी’ लघुकथा अंचल क्षेत्र की एक ऐसी स्त्री के चरित्र को चित्रांकित करती है जो निराक्षर होने के कारण अपने जीवन से जुडी तारीखों का हिसाब भी नहीं समझ पाती और ऐसे में उसको यह याद रह जाता है कि पिछली दफे की जात्रा में उसने मन्नत मांगी थी कि तीन छोरी के बाद उसकी कोख से छोरा जन्मे| उसका कोई असर नज़र न आने पर वह फिर से जात्रा में शरीक होकर पुरानी मन्नत की गाँव देवता को याद दिलाएगी| यह पुरुषप्रधान समाज को दर्शा रही है जिसमें स्त्री का शोषण हो रहा है और वह अपनी कमियों को समझने की बजाय डरी हुई सहमी हुई सी अबला दिखाई पड़ती है|  इसका अंत नकारात्मक होने के बावजूद समाज में स्त्री साक्षातकर्ता को महत्त्व देती हुई एक सुन्दर लघुकथा है| इस लघुकथा का प्रस्तुतीकरण भी सहज और सुन्दर हुआ है|  

‘वे दो’ यह इस संग्रह की प्रथम लघुकथा है जो आतंकवाद पर केन्द्रित है और इस लघुकथा के माध्यम से लेखक ने यह कहने का प्रयास किया है कि आतंकवादियों में संवेदना लेस मात्र भी नहीं होती और वह अपने साथी को मारने से भी पीछे नहीं हटता| 

‘अँधेरी सुरंग’ वर्तमान में बढती हुई बेरोज़गारी को दर्शाती एक कालजयी लघुकथा है जो एक यक्ष प्रश्न पाठकों के लिए छोड़ रही है|  रोजगार के लिए भटकते हुए का बहुत ही मार्मिक ढंग से चित्रण किया गया है | इस लघुकथा का अंत देखें- अब रौशनी का कोई नामोनिशान नहीं| लोगबाग चल रहे हैं अथवा अँधेरे को पैर लग गए हैं! कहाँ अंत है सुरंग का? कब अंत है सुरंग का? कब मिलेगा सुरंग के उस पार का छोर? क्या कल? क्या परसों? क्या साल दो साल बाद? दो साल बाद! तो, दो साल बाद दुनिया होगी भी की नहीं? 

कुछ लघुकथाएँ ऐसी होती है जो हर समय पर प्रासंगिक लगती है यह लघुकथा उनमें से एक है जो पाठकों के मन-मष्तिष्क पर अपनी अमिट छाप छोडती हुई प्रतीत होती है| 

‘रूनझुन’ एक प्रतीकात्मक लघुकथा है जिसमें एक स्त्री के संघर्ष का चित्र है जो अपने भीतर एक बालक को जीवित रखना चाहती है | 

‘एक कोशिश ऐसी भी’ वर्तमान समय में मोबाइल के चलते बच्चों में भाषा और बिगड़ते हुए हरुफ के प्रति चिंता जताते हुए पत्र-लेखन को बढ़ावा देती हुई एक अच्छी लघुकथा हुई है| 

देश प्रेम और फौजीओं पर आधारित लघुकथाओ का उल्लेख करूँ तो , इस संग्रह में ‘मस्तक दान’, ‘अलंघ्य घेरा’, ‘राष्ट्रमाता का ख़त फौजी पर’ इत्यादि हैं | ‘मस्तक दान’ में मातृभूमि के लिए किया जाने वाला ‘मस्तक दान’ ही सर्वश्रेष्ठ होता है का सन्देश प्रेषित किया गया है| इसी पृष्ठभूमि पर ‘प्रार्थना’ लघुकथा भी है जो वतन पर मिट जाने वाले को अमर कर देता है को लक्षित करती है| 

‘अलंघ्य घेरा’ फंतासी शिल्प में लिखी एक बेहतरीन लघुकथा है जिसमें प्रतीकात्मक रूप से यह दर्शाया गया है कि जब संगठित होकर दुश्मनों का मुकाबला किया जाता है तब दुश्मन को यह लगने लगता है जैसे एक अलंघ्य घेरा उसके चारों ओर खींच दिया गया है और उसको एहसास होने लग जाता है  कि यह वही धड़ हैं जिनपर आततायी के रूप में कभी बर्बरता के साथ उसने कभी ठोकरें मारी थीं|  इस लघुकथा का आरंभ देखें- ‘एक ने हाथ खड़ा किया, फिर दूसरे ने हाथ खड़ा किया, फिर तीसरे, चौथे ने| देखते ही देखते मैदान में उपस्थित सारे के सारे धड़ ऊँचे उठे हाथों में तब्दील हो गए| इस लघुकथा को दूसरे रूप में देखा जाए तो किसी व्यक्ति विशेष के सामने अगर कोई बड़ी समस्या आ जाए और उसकी आँखों के आगे अन्धकार-सा छा जाए ऐसे में वह अपनी इन्द्रियों की शक्तियों को इक्कट्ठी कर अपने सामने आई बड़ी से बड़ी समस्या पर विजय प्राप्त हो सकता है का सन्देश भी छिपा हुआ है | 

‘राष्ट्रमाता का खत फौजी पर’ एक ऐसी लघुकथा है जिसमें फौजी जीवन पर प्रकाश डाला गया है| इस लघुकथा का कथानायक ‘फौजी तुषारसिंह तोमर’ मिस्टर वर्मा से मिलने आता है और चाय-नाश्ता के टेबल पर कहता है, “ माँ से पता चला कि जिस ख़त पर मुझको फौजी परिवारों से आने वाले खतों की प्रतियोगिता का पहला पुरस्कार मिला है, उस ख़त को आपने मेरी अनपढ़ माँ के विशेष आग्रह पर लिखा था| माँ की मेरे प्रति भावनाओं को समझते हुए, उनकी ओर से लिखकर मेरे नाम उस ख़त को आप ही ने पोस्ट भी किया था| 

मिस्टर वर्मा को याद आता है परन्तु वह आश्चर्य व्यक्त करते हुए पूछते हैं, “खत और पहला पुरस्कार? जिसके जवाब में फौजी उत्तर देता है, “सर जी, हमारी बटालियन में हर शनिवार की शाम, हफ्तेभर में सैनिकों के नाम आये खतों को सार्वजनिक रूप में पढ़ा जाता है| फिर अच्छे लिखे एक पत्र को पुरस्कार की श्रेणी में रखा जाता ही| चयनकर्ताओं ने इस बार माँ द्वारा भेजे पत्र को पहला पुरस्कार देने की श्रेणी में रखा था|” और आगे कहता है,” ख़त के आखिर में माँ की भावना को समझते हुए आपने लिखा था, कि ‘यह मत समझना तुषार, कि यह खत एक माँ अकेले बेटे तुषारसिंह को लिख रही है; बल्कि निश्चित तौर पर यही समझना कि राष्ट्रमाता के रूप में तेरी माँ सीमा पर तैनात अपने सभी बेटों को इस खत में सदा विजेता बने रहने के आशीष लिख रही है|’ आपकी इस बात ने पूरी बटालियन का सीना गर्व से फुला दिया सर जी|” 

फौजिओं का जीवन संघर्षमय होता है, अपने घर-परिवार से दूर वह देश के प्रति समर्पित होकर अपना जीवन ज्ञापन करते हैं ऐसे में उनके लिए पल भर की ख़ुशी भी उनको ऊर्जा प्रदान करती है और ये लोग अपने व्यस्तम जीवन काल में भी अपने लिए खुश होने का और आनंदित होने के साथ-साथ पारिवारिक होने का भी एहसास दिलाते है और सभी मिलकर अपने सुख-दुःख को बाँट लेते है| ऐसा ही दृश्य इस लघुकथा के माध्यम से उकेरा गया है साथ ही माँ की महत्ता को भी दिखाया गया है कि माँ की ममता निर्मल होती है और वह निश्चलता से सभी बच्चों में एक-सी बाँटती है और अगर फौजियों की बात की जाए तो उनके लिए किसी एक फौजी साथी की माँ उसको अपनी माँ-सी प्रतीत होती है और ऐसे में माँ का ऐसा ख़त पढने पर वह भावुक हो जाता है जो बहुत ही  सहज और स्वाभाविक है| 

इस लघुकथा का अंत देखें- इतना कहकर तुषार मिस्टर वर्मा के चरण छूने  को झुका; लेकिन उन्होंने बीच में ही उसे अपने अंक में भर लिया| यहाँ एक फौजी के भीतर एक आम नागरिक के प्रति आदर भाव के साथ-साथ यह भी सन्देश देता है कि फौजी का दर्जा बहुत ऊपर होता है और उनमें भी संवेदनाएं होती है बिलकुल एक आम नागरिक जैसी तो उनका सम्मान करना चाहिए और वह आदर के पात्र होते हैं|     

‘सातत्य’ फंतासी शिल्प में लिखी गयी शृंगार-रस से ओत-प्रोत के बेहतरीन लघुकथा है जिसमें आसमान, चाँद, वृक्ष, नवयौवना बाला, धरती को पात्र बनाकर बहुत की कलाकारी से कथानक का निर्माण किया गया है| इस लघुकथा का आरम्भ में आसमान अपने ऊँचे कद से थोड़ा झुक जाता है और अपने अनगिनित हाथों से अपने वक्ष:स्थल में दमकते चाँद को वृक्ष के नीचे प्रतीक्षारत नवयौवना बाला के चेहरे पर शृंगार की तरह सजा देता है| जिससे नीचे की धरती का कायाकल्प हो जाता है| इस परिच्छेद में छिपा यह गूढ़ अर्थ की जब कोई व्यक्ति बड़ा हो जाता है तब उसको चाहिए कि वह थोड़ा झुके और अपने से छोटों को अपने अनुभवों को साझा कर उनका साथ देकर उनको अवसर प्रदान करे जिससे वह भी पल्लवित हो सकें| इस तरह से अपने आस-पास के वातावरण को वह खुशहाल बना सकता है | 

अगले परिच्छेद में दर्शाया गया है कि कवि के आँगन में जैसे कविता रचने का मौसंम उतर आया हो| और वह अपने आलोड़ित(मथे हुए विचारों) विचारों में कलम डुबोकर रुबाईयाँ लिखने लगता है| उधर वृक्ष के तले बैठी उस नवयौवना को हिचकियाँ आने लगती है! प्यार परिभाषित होने लगता है और हवा तरंगायित हो जाती हैं| सरोवर में खिले सरोरुह आलिन्ग्बध होने लगते है| 

प्यार और विश्वास जब पल्लवित होता है तो युवा मन ऊर्जा से भर जाता है और वह आनंदित होकर अपने भीतर छिपी खूबियों से न सिर्फ दूसरों को परिचय करवाता है अपितु वह तन-मन से उस कार्य को करने में तल्लीन हो जाता है नतीजन कार्य पहले से सोचे कार्य से भी कई बेहतर संपन्न हो जाता है जिससे न सिर्फ उसका विकास अपितु उसके आस-पास पनप रहे असंख्य लोग, या संघठन या अन्य किसी भी तरह का व्यावसायिक अथवा को भी संस्था हो के लिए मिसाल बन जाता है और लोग उस व्यक्ति का अनुसरण करने से पीछे नहीं हट्ते जिस कारण वह श्रेष्ठता की शिखर पर पहुँच जाता है| 

ऐसे में अगर दूर किसी पर्वत की चोटी पर चाँद को अनुपस्थित पाकर उदास मन चकोर चकोरी संग प्रणय कलह करने शैवालं की हरी दरी पर लौट आया| 

ऐसे में अगर रौशनी देने वाला अगर अदृश्य  हो जाता है तब उम्र में नव यौवन अपने को सम्भाल नहीं पाते और उनके मन में कलह उत्पन्न हो जाता है और वह धरती पर लौटने लगता है यानी वह धराशाही हो जाता है| ऐसे में आसमान पुनः उंचा होता है और सुबह का सूरज उग जाता है| इसके मायने यह एक निरंतर चल रही क्रिया है की बड़ों के अनुभवों से ही बच्चा सीखता है और जहाँ बड़े उपस्थित न हों तो बच्चे में भटकाव की सम्भावना बढ़ जाती है ऐसे में बड़ों को चाहिए कि वह पुनः उनके करीब आने का प्रयास करें ताकि भावी पीढ़ी अपने उज्वल भविष्य की ओर अपने कदम बढ़ा सकें| यह एक उच्चकोटि की लघुकथा है जिसका प्रतीतात्मक एवं काव्यात्मक प्रस्तुतीकरण पाठकों के मन को अवश्य भा जाएगा ऐसा मुझको पूर्ण विश्वास है|

‘गृहासक्त’ हिन्दी-विभाग में कार्यरत दो प्रोफेसरों में शब्दों की बनावट को लेकर वैचारिक उदध छिड़ जाता है और कथा जैसे-जैसे बढ़ती है एक प्रोफेसर अपने को सर्वश्रेष्ठ साबित करने पर तुला हुआ होता है जब कि दूसरा प्रोफेसर पहले वाले से कहीं से कमतर नहीं होता परन्तु वह विवेकशील होता है और वह पहले प्रोफेसर की तरह किसी को नीचा दिखाने की आदत से सहमत नहीं होता | यह एक अच्छी लघुकथा बन पड़ी है | ‘कह कि मैं झूठ बोलिया’ व्यंग्य लिए हुए एक सुन्दर लघुकथा है जिसमें नयी कॉलोनी में प्लाट बेचने के सिलसिले में दलाल किस कदर हाथ धोकर पीछे पड़ जाता है कि अपना मुनाफ़ा कमाने के लिए वह उस क्षेत्र के नाई, हलवाई इत्यादि को भी अपने साथ ले लेता है और वे सब भी बिल्डर के चुंगुल में फँसकर जलती हुई आग में अपने-अपने हाथ सेकने हेतु प्रयासरत्त हो जाते हैं| वो भी बिना यह सोचे-समझे कि इसका खरीदार पर क्या असर पड़ सकता है या पड़ रहा है| यह बिल्डर और दलालों के लालच को दर्शाती एक सुन्दर व्यंग्यपरक लघुकथा हुई है| ‘जुगाड़’ बड़े घरों की ओछी मानसिकता को दर्शाती एक सुन्दर लघुकथा हुई है| बड़े घर वाले पैसे से भले अमीर हों परन्तु कई बार उनमें से कोई जब गरीब तपके के लोगों पर अपनी धाक जमाते हुए उनसे वो सब छीन लेते है जिसको छिनते हुए वह बिलकुल भी नहीं हिचकते | इसी पर आधारित है यह लघुकथा| इसका शीर्षक व्यंग्यात्मक है परन्तु  इस कथानक के अनुरूप है | 

‘माँ’ लघुकथा में यह दर्शाया गया है कि बच्चे जितना भी चाहें कि वह अपनी माँ को भूलकर आगे बढ़ते जाएँ परन्तु उनका अंतर्मन अपनी माँ को कभी भूलने नहीं देता और वह उनकी छवि को भुलाने में असमर्थ हो जाते हैं| और उनके सामने उनकी वही अभागिन माँ खड़ी मिलती है जिसके दूध का कर्ज उसके सिर पर चढ़ा हुआ है| माँ की महत्ता को दर्शाती यह एक सुन्दर लघुकथा हुई है| इस लघुकथा में एक जगह मेरी सहमती नहीं बन पा रही है वो इस लघुकथा की अन्तिम पंक्ति में :- “अरे पगले! चित्रकार है, संकल्पना का अथाह समुद्र तुझमें हिलोरें ले रहा है! उसमें ज़रा डूब! फिर उस डूब में अपने आँखें खोल! देख, समझ, मैं तेरी वही अभागिन माँ हूँ जिसके दूध का कर्ज तेरे सिर पर चढ़ा हुआ है!!!” यहाँ यह तीन विस्मयादिक बोधक लगाने का आशय मुझ अज्ञानी को समझ नहीं आ रहा | यहाँ अगर एक ही चिह्न होता तब भी इस पंक्ति का वही प्रभाव पड़ता जो पाठकों पर पड़ना चाहिए ऐसा मेरा मत है जरूरी नहीं की लेखक मेरी इस बात से सहमत हों

‘तीन पत्ती’ दहेज़ प्रथा पर आधारित है| इस लघुकथा में दो दृश्य सामानांतर चल रहे हैं जैसे एक दृश्य में ताश में तीन पत्ती का खेल खेला जा रहा है और क्रमशः इसकी तुलना दहेज़ लेने वाले और देने वालों में मध्य हो रहे क्रिया-कलापों को चित्रांकित किया गया है| इस तरह इस दोनों का तुलनात्मक ढंग से प्रस्तुतीकरण इस लघुकथा को विशेष बना देता है जो प्रशंसनीय है|

‘प्रोफेसर विल्फ्रेट’ एक ऐसी लघुकथा है जिसमें कथानायक सेवानिवृत होने के बाद भी अपने मित्रों से संपर्क करता रहता है परन्तु धीरे-धीरे वह यह बात मानने हेतु विवश हो जाता है कि उसके मित्र निश्चित ही अपने पते से गुम हो गए हैं| इस लघुकथा के माध्यम से लेखक ने यह समझाने का प्रयास किया है कि इंसान इतना स्वार्थी हो गया है कि जब तक वह सामने है तब तक अपनेपन का ढोंग करता है परन्तु बाद में वह सब कुछ भूल-भालकर अपना रास्ता ले लेता है| 

‘विरेचन’ इस लघुकथा की आखरी लघुकथा है जो इसके पीछे के कवर पेज पर प्रकाशित हुई है| यह एक हलकी-फुलकी लघुकथा है जिसमें दो दोस्तों का दूरभाष पर वार्तालाप होता है का दृश्य चित्रांकित किया गया है| यह एक साधारण-सी लघुकथा है | 

यूँ तो चूँकि इस लघुकथा में कुल ४४ लघुकथाएँ हैं परन्तु इसमें प्रस्तुत विविध विषयों पर आधारित लघुकथाओं ने इसको विशेष बना दिया है जो बहुत ही उल्लेखनीय है और पाठकों को अपनी ओर आकर्षित करेगा ऐसा मेरा मानना है| मैं पुरुषोत्तम दुबे जी को इस संग्रह हेतु बहुत-बहुत बधाई प्रेषित करती हूँ साथ ही इसमें प्रस्तुत लघुकथाओं के चयन करने हेतु आदरणीय भगीरथ परिहार जी, बलराम अग्रवाल जी, अशोक भाटिया जी एवं माधव नागदा जी को भी धन्यवाद देती हूँ कि आप सब ने मिलकर इस बेहतरीन संग्रह को हम पाठकों तक पहुँचाने में अपना अमूल्य समय एवं सहयोग दिया है जिसके लिए लघुकथा-जगत् सदैव आपका आभारी रहेगा| 

स्मृतिशेष डॉ.सतीश दुबे जी के अनुसार “लघुकथा मानव-मन की अभिव्यक्ति को कुछ शब्दों में प्रभावशाली ढंग से कह डालनेवाली सशक्त विधा है| इसकी मारक शक्ति इतनी तेज तथा संवेदना के तन्तुओं को प्रभावित करनेवाले तत्त्व इतने शक्तिशाली होते हैं कि उनका प्रभाव अभूतपूर्व होता है| 

मेरा दृढ़ विश्वास है कि डॉ.पुरषोत्तम दुबे जी का ‘छोटे-छोटे सायबान’ नामक लघुकथा-संग्रह में प्रस्तुत लघुकथाएँ पाठकों को अवश्य पसंद आएँगी।  इसी आशा के साथ मैं दुबे जी  को अपनी शुभकामनाएँ प्रेषित करती हूँ और अपने इस प्रयास को आप सब को समर्पित करती हूँ| 

कल्पना भट्ट / +91 94244 73377



Wednesday 5 October, 2022

अपराजित योद्धा : बिनोय कुमार दास

बिनोय कुमार दास 
(6 नवम्बर, 1949--4 अक्टूबर, 2022)
साहित्य साधक अपनी जड़ों को इतना विस्तार दे जाते हैं कि मौत के पंजे कभी भी उन्हें अपनी गिरफ्त में नहीं ले पाते। 

 संसार में बहुत कम लोग ऐसे होते हैं, जिन्हें जिन्दगी चाहे जितना डरा-धमकाकर रखे, मौत लेशमात्र भी डरा नहीं पाती है। ऐसे लोग में एक मैंने मधुदीप को देखा है और दूसरे हैं उड़िया और हिन्दी के बीच साहित्य-सेतु बन चुके बालासोर, उड़ीसा के निडर योद्धा—बिनोय कुमार दास जी।

श्री बिनोय कुमार दास से पहले परिचय के रूप में 24 सितंबर 2020 को मैसेंजर पर प्राप्त उनका एक संदेश मेरे मैसेंजर पर पड़ा है। संदेश उन्होंने अंग्रेजी में लिखा, जिसका अर्थ था—‘ओडिशा से मैं बिनोय कुमार दास, एक सेवानिवृत्त व्यक्ति। मैंने ‘दृष्टि’ के पृष्ठ 59 पर प्रकाशित आपकी लघुकथा ‘लगाव’ का उड़िया में अनुवाद किया है जोकि उड़िया के एक बहु-प्रसारित दैनिक अखबार में छपा है। मूल लेखक के तौर पर आपका नाम भी उड़िया-अनुवाद के साथ छपा है।’

साथ में उन्होंने उड़िया में प्रकाशित ‘लगाव’ की फोटो क्लिप भी भेजी थी और लिखा था—‘उड़िया में इसको ‘अदृश्य आकर्षण’ शीर्षक दिया गया है।’

आगे उन्होंने लिखा—‘आपके सूचनार्थ यह भेज रहा हूँ। अगर अच्छा लगे, तो कृपया सूचित करें।’

अच्छा न लगने का सवाल ही पैदा नहीं होता था। अपने इस संदेश के साथ उन्होंने उड़िया अनुवाद की प्रकाशित क्लिप और ‘दृष्टि’ में प्रकाशित ‘लगाव’ के ऊपरी अंश की फोटो भी भेजी थी। ‘लगाव’ के अंश की फोटो देखने पर उनकी संतुलित कार्यपद्धति का पता चलता है। उदाहरणार्थ, रचना के ऊपर लिखे मेरे नाम पर उन्होंने ‘राइट’ का चिह्न लगाया, साथ ही अंग्रेजी में लिखा—‘ट्रांसलेटेड ऑन 15-1-20 (यह तिथि 15-9-20 भी हो सकती है)’ और नीचे अपना हस्ताक्षर किया। हिन्दी पाठ में उन्होंने ‘मसनद’ पर भी एक निशान लगाया हुआ है, जिसका तात्पर्य मेरे अनुसार, यह रहा होगा कि ‘मसनद’ का समानार्थी शब्द उड़िया में तलाशना है।

मेरी लापरवाही देखिए, कि उनके उक्त संदेश को मैंने 24 जनवरी 2022 को पढ़ा यानी 1 वर्ष 4 माह बाद; और तभी उनको धन्यवाद भी ज्ञापित कर पाया।

बाद में, 4 अप्रैल, 2022 को इसी लघुकथा के अनुवाद को उन्होंने बालासोर और भुवनेश्वर से प्रकाशित उड़िया दैनिक ‘आजिकालि’ में प्रकाशित कराकर पुन: सूचित किया तथा उसकी फोटोप्रति भी मैसेंजर पर भेजी।

उसी दिन मैंने अपना कोई लघुकथा संग्रह भेजने के लिए उनसे उनका डाकपता माँगा। उन्होंने विनम्रतापूर्वक कहा—‘आप वरिष्ठ लघुकथाकार हैं। आपकी रचनाएँ इन दिनों लिखी जा रही लघुकथाओं से नितांत अलग होती हैं। यहाँ के पाठक आपकी लघुकथाएँ पसंद करते हैं। संग्रह भेज देंगे तो आपकी कुछ अन्य लघुकथाओं का उड़िया-अनुवाद करने में आसानी हो जाएगी।’

24 अप्रैल, 2022 को उन्होंने मुझसे लघुकथाकार अरुण सोनी का नम्बर माँगा, जोकि मैं नहीं दे सका।

मेरी नालायकी और लापरवाही देखिए कि 4 अप्रैल 2022 की अपनी-उनकी बातचीत को मैं भूल ही गया। अपना कोई संग्रह उन्हें नहीं भेज पाया। इस बीच संतोष सुपेकर आदि अनेक मित्रों ने उनके अस्वस्थ होने की पोस्ट फेसबुक पर डाली, उन पर भी सामान्य अफसोस ही जाहिर करके इतिश्री मान ली, संवाद नहीं किया।

गत 21 सितंबर को मैसेंजर में संदेश भेजकर उन्होंने मेरा वाट्सएप नम्बर माँगा। कहा कि—‘मैंने आपकी ‘कुंडली’ शीर्षक लघुकथा का उड़िया अनुवाद किया है। मैं उसकी टाइप की हुई प्रति आपके उपयोग हेतु भेज दूँगा।’

तब पहली बार मैंने पूछा—‘आपका स्वास्थ्य अब कैसा है?’ कहा—‘ईश-कृपा से आप स्वस्थ रहें।’ इसी के साथ अपना वाट्सएप नम्बर और ईमेल आईडी उन्हें दिया। उन्होंने वाट्सएप पर ‘कुंडली’ के उड़िया अनुवाद की फोटोप्रति मुझे भेजी।

स्वास्थ्य संबंधी मेरे सवाल के जवाब में उन्होंने लिखा—‘(पूछने के लिए) धन्यवाद… मैं अभी भी बिस्तर पर पड़ा हूँ… बीमारी कुछ ऐसी है कि… ठीक होने की कोई आशा नहीं है… केवल दिन गिन रहा हूँ… आखिरी साँस का इंतजार कर रहा हूँ…।’

ऐसी हालत में ‘अफसोस’ कितनी मुश्किल से जाहिर हो पाता है, यह मैंने महसूस किया। मैंने लिखा—‘पहली बार ऐसी बीमारी के बारे में सुन रहा हूँ। लेकिन ईश्वर सर्वशक्तिमान है और उस पर मुझे विश्वास है।’ तभी, अपना संग्रह भेजने का अपना पुराना वादा मुझे याद आया। मैंने लिखा—‘अपने दो संग्रह आपको भेज रहा हूँ।’

‘धन्यवाद… मेहरबानी।… मैं मानसिक रूप से स्वस्थ हूँ। बिस्तर में पड़ा-पड़ा अच्छी तरह पढ़ता और लैपटॉप का इस्तेमाल कर लेता हूँ। इससे मुझे मानसिक शान्ति और संतोष की प्राप्ति होती है।’

साथ ही उन्होंने अपना डाकपता पुन: मैसेंजर पर लिखा। इस बार मैंने लापरवाही नहीं बरती। अपने दो लघुकथा संग्रह ‘पीले पंखों वाली तितलियाँ’ और ‘जुबैदा’ उसी दिन रजिस्टर्ड डाक से भेज दिए। 28 सितंबर को उन्होंने सूचित किया—‘किताबें मिल गयी हैं।’

‘उम्मीद है, अच्छी लगेंगी।’ मैंने लिखा।

जवाब आया—‘नि:संदेह… आप निहायत संवेदनशील हैं और पाठक के दिल में सीधे उतरते हैं… मैं पहले आपकी बहुत-छोटी रचनाओं का अनुवाद करूँगा क्योंकि (रोग के निदान हेतु) बार-बार की जाँच-पड़ताल के कारण कम्प्यूटर का इस्तेमाल नहीं कर पाता हूँ। दो साल से अधिक समय से बिस्तर पर हूँ… जो भी हो, आपकी लघुकथाएँ अब मेरी प्रेरणा हैं (जीने हेतु प्रेरित करेंगी)।’

29 सितम्बर को उन्होंने ‘रचनाशील विपक्ष’ का उड़िया-अनुवाद मुझे वाट्सएप कर दिया तथा 30
सितम्बर को ‘भरोसा और ईमानदारी’ का। 

सोमवार की रात 12 बजकर 07 मिनट पर (यानी 4 अक्टूबर, 2022 दिन मंगलवार को प्रात: 00:07 बजे, अपने निधन से मात्र 23 घंटे पूर्व) मेरे वाट्सएप पर उनका भेजा एक लिंक मिला जिसका जवाब मैंने उसी रात 12 बजकर 54 मिनट पर उन्हें भेजा। 

4 अक्टूबर को ही किसी समय उन्होंने लिखा—‘निसंदेह… किसी भी तरह की रचनात्मकता आपको ऐसे अन्तहीन आनन्द से भर देती है जैसा संसार में कोई अन्य शायद न दे सके… रचनात्मकता व्यक्ति को न केवल व्यस्त रखते हुए समय बिताने में मदद करती है बल्कि निकट भविष्य में आपके कार्य के रूप में आपको सुखद सपने भी दिखाती है।

बिस्तर पर पड़ा मैं… जब अपनी किताबों और लैपटॉप में… मोबाइल में… नेबुला और ऑक्सीजन लगवाने में मुब्तिला रहता हूँ… मेरी पत्नी अपने आप को व्यस्त रखती है… वह मस्तिष्क के अद्भुत कलात्मक विचारों को सुई और रंगीन धागों… (क्रोशिया कढ़ाई के) फ्रेम… सिलाई मशीन के जरिये नयनाभिराम चीजों में तब्दील करती है।

आज मेरे पैन आदि रखने के उसने यह मिनि बैग बनाया है। (सान्त्वना द्वारा 4-10-2022 को लिखा गया)

No doubt....creativity of any kind job in you will fetch you immence pleasure that can perhaps nothing in this world can give.....it not only engages one to spend time smoothly but shows a brighter dream with a colourful result in near future of your ensuing job.

While on bed.....I am busy with books...lap tap...mobile ....nebulisation ...oxygen...

my Mrs. keeps herself with niddle...colourful thread...frame..sewing machine with fantastic ideas in mind to create something eye catchers product.

Today just completed this mini bag for keeping my pen etc....

#prepared by SANTWANA. 4.10.22

मैं नत-मस्तक हूँ साहित्य के उस सच्चे साधक के सामने जिसके लिए भाषा कोई सीमा नहीं थी और नितांत दुर्दमनीय रोग जिसकी साधना और सेवा भाव के बीच कोई बाधा नहीं खड़ी कर पाया। हिन्दी रचनाकारों को उड़िया रचनाकारों तक पहुँचाने का श्रमसाध्य कार्य उन्होंने अंतिम साँस तक किया, मुझे प्राप्त उनका वाट्सएप संदेश इसका प्रमाण है।

        ॥बार-बार… बार-बार नमन॥