Wednesday 27 July, 2022

राही रैंकिंग-2021

राही रैंकिंग-2021 यानी 'हिन्दी के वर्तमान 100 बड़े लेखकों की सूची' जारी हुई है।

जैसाकि नाम से स्पष्ट है, इस सूची में वर्तमान लेखकों के नाम ही शामिल किए जाते हैं, दिवंगतों के नहीं।

( नोट: संस्थान हिंदी के हर रचनाकार को सम्मानित मानते हुए सभी के सृजन को महत्वपूर्ण मानता है। उक्त सूची सर्वेक्षण आधारित है।)

इसे गत अनेक वर्षों से एक सर्वेक्षण समिति के तहत जारी  किया जाता है। यह स्पष्टीकरण वरिष्ठ  कथाकार और इसके संयोजक प्रबोध कुमार गोविल देते रहे हैं। 

मुझे कई बार लगता है कि यह सूची मैन्युअल तैयार नहीं की जाती। यह कम्प्यूटरीकृत है। इसका मुख्य आधार फेसबुक पर सक्रियता है। बेशक, फाइनली जारी करने से पूर्व इसमें मैन्युअल हस्तक्षेप भी अवश्य किया जाता होगा। कम्प्यूटरीकृत होने का अनुमान गलत भी हो सकता है।

बहरहाल, हर वर्ष अनेक प्रकार की विरोधपरक असहमतियों के बावजूद 'राही रैंकिंग' बेहिचक अपने कार्य को अपने ढंग से जारी रखे हुए हैं। बेशक, हर वर्ष कुछ महत्वपूर्ण नाम छूट गए-से मिलते हैं और महसूस होता है कि सूची को 111, 121,131,151 नामों तक बढ़ा दिया जाए; लेकिन कुछ नाम तो तब भी छूटे रहेंगे ही। इसलिए  इसे 100 की सीमा में बरकरार रखना ही श्रेयस्कर है।

गत वर्षों में 'राही रैंकिंग' ने सूची में दर्ज साहित्यकारों की लघुकथाओं, कविताओं आदि के संकलन भी प्रकाशित किए हैं, जो एक विशेष पहल है।

हाँ, इतना अवश्य किया जा सकता है कि किसी (उदाहरणार्थ, अमुक सरीखे) कद्दावर साहित्यकार का नाम जोड़ने के लिए, किसी एक के नाम को हटाने पर विचार किया जाए। लेकिन,  दर्ज नाम को हटाने में सैद्धांतिक अड़चन भी आती ही होगी।

इन सब बातों पर विचार प्रबोध गोविल जी अपने एक साक्षात्कार में प्रस्तुत कर चुके हैं। जैसा भी है, 'राही रैंकिंग' को उसकी मति और गति के अनुरूप चलता रहने देना चाहिए। 

प्रबोध कुमार गोविल : संयोजक



Tuesday 26 July, 2022

एक लघुकथा : सफर 'शादी' से 'शब्दों की संजीवनी' तक

लघुकथा लिखते समय कथाकार के सामने घटनाओं का भरा-पूरा जंजाल होता है। उस जंजाल से कथ्य के अनुरूप एकांगी घटना को चुनना और शेष को नेपथ्य में छोड़ना सरल काम नहीं है। अनेक बार कथाकार कथा की व्याख्या से जुड़ी वे बातें भी कथानक में दर्ज कर देता है, जो वस्तुत: आलोचक के अधिकार-क्षेत्र की होती हैं। प्रस्तुत कथा के मूल ड्राफ्ट में उन्हें देखा जा सकता है। 

कथाकार की मूल भावना को समझे बिना कथा-सूत्र को पकड़ पाना किसी अन्य के वश की बात सामान्यतः नहीं रहती। यद्यपि इस कथा  के अंतिम रूप में अभी भी कसावट की गुंजाइश है, तथापि यहाँ तक के सफर से भी बहुत-कुछ सीखा जा सकता है। कदम-दर-कदम इस लघुकथा के विकास को देखें, इसी दृष्टि से बीना जी की अनुमति से यह यहाँ प्रस्तुत है। 


।।मूल ड्राफ्ट : बीना शर्मा।।

शीर्षक  :  शादी

धीरे-धीरे निकलती शादी की उम्र रानी के अड़ोसी-पड़ोसी व नातेरिश्तेदारों की चिंता का महासागर बनती जा रही थी। 

उसकी कुछ तरंगे जब उसके घर में पहुंच जातीं तो  घर में हडकंप सा मच जाता। पर वह बेफिक्र ही रहती क्योंकि उसकी मां उस का साथ देती।

अचानक एक दिन माँ ने उससे पूछा, 'तू हर रिश्ते को मना कर देती है। क्या कोई है,,,, लोगों के उकसाने पर माँ की आँखोँ में  अविश्वास की परछाई देख वह आपा खो बैठी और गुस्से से बोली 'हां बता दो सबको। है कोई जिसे मैं बेहद प्यार करती हूँ । उसी का इन्तजार है मुझे।" ये सुनते ही माँ  के चेहरे पर मंडराती अमावस्या को देख वो धीरे से बोली ' मां तुम तो जानती हो जब तक मुझे जॉब नहीं मिल जाता मैं शादी नहीं करूंगी।"  

ये सुनते ही माँ का चेहरा पूर्णिमा सा हो गया।कुछ दिनॉ बाद रानी को कामयाबी मिलते ही शादी के प्रस्ताव चक्रवृद्धि ब्याज से हो गए। अपनी सहेली रूपा के भाई का रिश्ता उसे डबल धमाल सा लगा।

बड़ी बहनों की दूर ससुराल  व भाभी से माँ के मनमुटाव को ध्यान में रख उसने इस रिश्ते को हां कर दी।

ससुराल में आते ही सास ने उसे बांहों में भरते हुए  'तुम नाम की ही रानी नहीं, इस घर की सचमुच रानी हो।"  कह चाबियों का  खूबसूरत सा गुच्छा उसके हाथों में थमा दिया।

धीरे-धीरे उसे समझ में आने लगा कि रानी का खिताब दे उसे नौकरानी के मकड़जाल में फंसाने की वो साजिश थी । 

पति का बदलता व्यवहार भी  उसे एहसास दिलाने लगा था कि पत्नी चाहे घरेलू हो या कामकाजी  गुस्सा आने पर उसके मुंह पर चांटा मारने और खुश होने पर उसके शरीर की बोटी -बोटी नोचने का हक उसे मिलता ही है।

एक ही शहर में होने के बावजूद  वह मायके कम ही जा पाती। जब जाती ससुराल में महाभारत मच जाता।धीरे-धीरे उसका मायके जाना त्योहार सा हो गया।

माँ दुखी न हों यही सोच वो मुस्कुराहट का लेप लगाये रखती। पर अपने जख्मों के नासूर बनने का डर उसे हमेशा सताता।इसीलिये  वो अपने जख्मों पर कलम से मरहम लगाने लगी। अनचाहे को मनचाहा बनाने की फितरत तो थी उसकी। अपनी व्यथा को किसी भी पात्र में उड़ेल देती।

माँ को उसकी मुस्कुराहट के पीछे छिपे जिस गम का अंदाजा था उसकी पुष्टि उसकी कहानियाँ करने लगीं।

एक दिन अकेले में उससे उन्होंने पूछ ही लिया, 'तू खुश तो नहीं है, पर अपने मन की बात बताने से दुख कुछ कम ही होगा बेटी।" अपनत्व की गर्माहट ने अंतर्मन को पिघला दिया।

वो माँ  के कंधे को  भिगोने लगी ।उसे पुचकारते हुए माँ ने  रुंधे गले से पूछा ' बेटी  तूने इतना सहा पर कभी क्यूँ नही  कहा?"      

सुबकते हुए उसने जवाब दिया "बडी बहनों के गम में डूबी आपको मैं और दुखी नहीं करना चाहती थी।"

ये सुन उसे अपने सीने से चिपटाते हुए वो बोली 'पगली माँ को कमजोर तो बेटी की चुप्पी कर  देती है।।तू कमजोर नही तेरी आत्मनिर्भरता तेरी ताकत है। मैं आखिरी सांस तक  तेरे साथ हूँ ।"

माँ के शब्दों की संजीवनी ले वह घर पहुंची।  हमेशा की तरह महाभारत मच  गया वहाँ । वह चुपचाप खड़ी रही। उसकी चुप्पी को कमजोरी समझने वाले पति के उठे हुए हाथ को उसने कसकर पकड लिया।

पलटवार देख सब दायें-बायें हो गये।पर पति अभी भी मैदाने जंग में डटा था। आज तो उस पर भी मानो सरस्वती की कृपा बरस रही थी।

उसके तर्कों से थक-हारकर पति चिल्लाया, "शादी कर यहाँ आई है तू। मेरे घर से बाहर निकल।" पति की बात से विचलित हुए बिना  उसने कड़कते स्वर में कहा 'ये घर तुम्हारा ही नहीं मेरा भी है।शादी की है मैनें  कोई अपराध नहीँ ।

।।कथाकार को सलाह हेतु तैयार ड्राफ्ट : बलराम अग्रवाल।।

शादी

धीरे-धीरे निकलती शादी की उम्र रानी के अड़ोसी-पड़ोसी व नाते-रिश्तेदारों के कौतूहल का महासागर बनती जा रही थी। 

उसकी कुछ तरंगें जब उसके घर में पहुंच जातीं तो  घर में हड़कंप-सा मच जाता। पर वह बेफिक्र ही रहती क्योंकि माँ उसका साथ देती।

अचानक, एक दिन माँ ने उससे पूछा, "तू हर रिश्ते को मना कर देती है। क्या कोई है!..." 

लोगों की शंकालु नजरों की तिलभर भी फिक्र नहीं थी उसे। लेकिन माँ उनसे विचलित हो उठेंगी, सोचा नहीं था। उनकी आँखोँ में अविश्वास की परछाई देख वह आपा खो बैठी और गुस्से से बोली, "हां, बता दो सबको। है कोई जिसे मैं बेहद प्यार करती हूँ । उसी का इन्तजार है मुझे।" 

यह सुनते ही माँ  के चेहरे पर अमावस्या की कालिमा उभर आई। उसे देख वह धीरे-से बोली, "माँ, तुम तो जानती ही हो कि मैंने जॉब न मिलने शादी न करने का फैसला किया था।"  

"हाँ, लेकिन... "

"अभी-अभी मिला है अपॉइंटमेंट लैटर!" हाथ में थाम रखे लिफाफे को उनके चेहरे के आगे लहराते हुए उसने कहा, "अब लाइन क्लियर है।

माँ ने लंबे समय बाद जैसे पहली बार चैन की साँस ली। उनका चेहरा पूनम के चाँद-सा दमक उठा। 

(बीना जी, इसके बाद कथानक लघुकथा को छोड़कर कहानी में प्रविष्ट हो गया है।)

।।दूसरा ड्राफ्ट:बीना शर्मा।।

शादी

धीरे-धीरे निकलती शादी की उम्र रानी के अड़ोसी-पड़ोसी व नाते-रिश्तेदारों के कौतूहल का महासागर बनती जा रही थी। 

उसकी कुछ तरंगें जब उसके घर में पहुंच जातीं तो घर में हड़कंप-सा मच जाता। पर वह बेफिक्र ही रहती क्योंकि माँ उसका साथ देती।

अचानक, एक दिन माँ ने उससे पूछा, "तू हर रिश्ते को मना कर देती है। क्या कोई है!..." 

लोगों की शंकालु नजरों की तिलभर भी फिक्र नहीं थी उसे। लेकिन माँ उनसे विचलित हो उठेंगी, सोचा नहीं था। उनकी आँखोँ में अविश्वास की परछाई देख वह आपा खो बैठी और गुस्से से बोली, "हां, बता दो सबको। है कोई जिसे मैं बेहद प्यार करती हूँ । उसी का इन्तजार है मुझे।" 

यह सुनते ही माँ के चेहरे पर अमावस्या की कालिमा उभर आई। उसे देख वह धीरे-से बोली, "माँ, तुम तो जानती ही हो कि मैंने जॉब न मिलने शादी न करने का फैसला किया था।"  

"हाँ, लेकिन... "

"अभी-अभी मिला है अपॉइंटमेंट लैटर!" हाथ में थाम रखे लिफाफे को उनके चेहरे के आगे लहराते हुए उसने कहा, "अब लाइन क्लियर है।"

माँ ने लंबे समय बाद जैसे पहली बार चैन की साँस ली। उनका चेहरा पूनम के चाँद सा दमक गया ।

भाभी से मां का मनमुटाव व बड़ी बहनों की दूर ससुराल के कारण उसने अपनी सहेली रूपा के भाई के रिश्ते को हां कर दी।

पहले ही दिन सबके सामने ' रानी तुम केवल नाम की ही नहीं इस घर व मेरे दिल की रानी हो।"कह पति ने उसे जो गर्व महसूस कराया था वो जल्द ही चकनाचूर हो गया।

धीरे-धीरे वह महसूस करने लगी थी कि पत्नी चाहे घरेलू हो या कामकाजी पति को गुस्सा होने पर उसे पीटने व खुश होने पर उसके शरीर की बोटी-बोटी नोचने का अधिकार होता है।

माँ उसका दुख जान कहीँ टूट न जायें इसीलिये चेहरे पर मुस्कुराहट का लेप लगाये रखती।कहीं जख्म नासूर न बन जायें यही सोच उसने कलम थाम ली। अपनी व्यथा को किसी भी पात्र में उड़ेल कर सकून मिलने लगा था उसे।

उसकी कहानियाँ पढती माँ के दिल को अनहोनी की आशंकाएँ घेर लेतीं ।एक दिन माँ ने उसकी आँखोँ में झांकते हुए जब इस बारे में जानना चाहा तो उसने आँखे झुका लीं। 

माँ उसके हाथों को अपने हाथों मे थामते हुए बोली 'बेटियों की चुप्पी ही माँ को कमजोर कर देती है।"

अपनत्व की गर्माहट चुप्पी रुपी बर्फ की दीवार को पिघलाने लगी।

उसने वो सब कहा जो भी सहा ।उसे पुचकारते हुए माँ ने रुंधे हुए स्वर में पूछा 'पगली तूने मुझे बताया क्यूँ नहीं?"

माँ के गले से लिपट वो सिसकने लगी। माँ उसके सिर को सहलाते हुए बोली 'तेरा मनपसंद साथी जॉब व माँ तेरे साथ हैं।तुझे कसी से डरने की जरुरत नहीं। माँ के शब्दों की संजीवनी ले वह वापस आई।

वादविवाद की बिसात से भयभीत हुए बिना उसके तर्कपूर्ण जवाब पति के क्रोध को हवा दे रहे थे।

आवेश में हाथ उठाते हुए वो बोला, 'शादी की है तुमने।पत्नी हो मेरी, निकलो मेरे घर से।"

पति के उठे हाथ को कसकर पकड़ उसने फुफकारते हुए कहा, 'मैने शादी की है कोई अपराध नहीं। पत्नी हूँ कैदी नहीं। रही घर की बात ये घर तो मेरा भी है।"

।।तीसरा ड्राफ्ट : ब.अ.।।

शीर्षक  :  शब्दों की संजीवनी

बढ़ चुकी उम्र वाली रानी अड़ोसी-पड़ोसी व नाते-रिश्तेदारों के लिए कौतूहल का महासागर बन चुकी थी। 

परेशान हाल माँ ने, एक दिन धीमी आवाज में उससे पूछा, "तू हर रिश्ते को मना कर देती है; क्या कोई है!..." 

औरों की शंकालु नजरों की तिलभर भी फिक्र नहीं थी रानी को। लेकिन माँ उनसे विचलित हो उठेंगी, सोचा नहीं था। उनकी आँखोँ में अविश्वास की परछाई देख वह आपा खो बैठी और गुस्से से बोली, "हां है; बता दो सबको। है कोई जिसे मैं बेहद प्यार करती हूँ। उसी की 'हाँ' का इंतजार है मुझको।" 

यह सुनते ही माँ के चेहरे पर अमावस्या की कालिमा छा गई। उसे देख वह धीरे-से बोली, "माँ, तुम तो जानती ही हो कि मैंने जॉब मिलने पर ही शादी करने का फैसला किया था।"  

"हाँ, लेकिन... "

"अभी-अभी मिला है यह अपॉइंटमेंट लैटर!" हाथ में थाम रखे लिफाफे को उनके चेहरे के आगे लहराते हुए उसने कहा, "अब लाइन क्लियर है।"

तपते घाम के बीच माँ ने लंबे समय बाद पहली बार ठंडी बयार महसूस की। उनका चेहरा पूनम के चाँद-सा दमक उठा। उन्होंने तुरंत उसकी सहेली रूपा के भाई रोहन का रिश्ता आने की बात उससे कह दी। रानी ने तुरंत 'हां' कर दी। 

शादी हो गई। 

"तुम नाम की ही नहीं, इस घर की व मेरे दिल की भी रानी हो।" रोहन ने पहले ही दिन सबके सामने उसे जो गर्व महसूस कराया था वो जल्द ही चकनाचूर हो गया।

गुस्सा होने पर उसे पीटने व खुश होने पर उसके शरीर की बोटी-बोटी नोंचने को वह अधिकार की तरह प्रयोग करता था।

जख्म नासूर न बन जायें, यही सोच उसने कलम थाम ली। व्यथा को किसी भी पात्र में उँड़ेल डालने में उसे सकून मिलने लगा।

उसकी कहानियाँ माँ पढ़तीं तो उनके दिल को अनहोनी की आशंकाएँ घेर लेतीं। उसके ऑफिस पहुँच, एक दिन माँ ने जब उसकी आँखोँ को पढ़ना चाहा तो वे टप-टप टपक पड़ीं। 

उसके हाथों को अपने हाथों में थामकर माँ ने कहा, "बेटियों की चुप्पी माँ को छील डालती है।"

ममता भरे बोलों की गर्माहट पाकर बर्फ की दीवार पिघलकर बह निकली। जो कुछ वह सह रही थी, सब कह डाला। उसे पुचकारते हुए माँ ने रुंधे हुए स्वर में कहा, "पगली, कम से कम मुझे तो बताया होता!"

वह उठी और माँ के गले से लिपटकर सिसकने लगी।

माँ उसके सिर को सहलाते हुए बोली, "तेरी जॉब और तेरी माँ तेरे साथ हैं। किसी से भी डरने की जरुरत नहीं।"

माँ के शब्दों की संजीवनी ले वह घर आई। वाद-प्रतिवाद की बिसात से भयमुक्त उसके तर्क पति के क्रोध को हवा देने लगे। आवेश में हाथ उठाते हुए वह चीखा, "अभी, इसी पल, निकल मेरे घर से।"

पति के उठे हाथ को मुट्ठी में जकड़ उसने फुफकारते हुए कहा, "शादी करके लाई गई हूँ। पत्नी हूँ, रखैल नहीं। रही बात घर की, तो यह घर मेरा भी है, सुन लो!"

रोहन को पहली बार पहाड़ के नीचे से गुजरने का एहसास हुआ।

उस दिन के बाद रानी ने कभी न सिर झुकाया न आँखें।

प्रो. (डॉ.) बीना शर्मा



Thursday 21 July, 2022

मनोरमा पंत की लघुकथाएँ

दिनांक 20-7-2022 को फेसबुक समूह 'लघुकथा के परिंदे' की ओर से दूसरी साप्ताहिक 'लघुकथा गूगल संगोष्ठी' में बतौर अध्यक्ष भागीदारी का अवसर मिला। इसमें श्रीमती मनोरमा पंत जी ने अपनी 5 लघुकथाओं का पाठ किया जिनकी  समीक्षा प्रस्तुत की विदुषी श्रीमती सुनीता मिश्रा जी ने। संगोष्ठी का संचालन मुजफ्फर इकबाल सिद्दिकी ने किया।  प्रस्तुत हैं, सुनाई गई लघुकथाएँ।

।।एक।। सिद्घार्थ तुम बुद्ध  नहीं 

अचानक, पाँच वर्ष के पश्चात् सिद्धार्थ हँसता हुआ रोहिणी के सामने आ खड़ा हुआ। चौंककर वह कुछ क्षण  हैरान होकर जड़ हो गई, परन्तु शीघ्र ही उसने अपने आप को संयत करके उसकी ओर प्रश्नवाचक दृष्टिपात किया। अब चौंकने की बारी सिद्धार्थ  की थी । कहाँ तो वह सोच रहा था कि उसे देखते ही रोहिणी उससे लिपट जाएगी और आँसू गिराती हुई उसके अचानक गायब हो जाने की शिकायत करेगी। पर वह तो सदानीरा खुशहाल नदी से शुष्क नदी में बदल चुकी थी, जिसमें अब कंकड़, पत्थर, रेत के ढेर बचे थे! रोहिणी प्रस्तरवत् भावहीन सख्त मुद्रा में अभी भी खड़ी थी। कैफियत देने की कोशिश में सिद्धार्थ  ने बोलना शुरू किया, "तुम मेरे प्यार में इतनी पागल थीं कि मुझे किसी भी हालत में विदेश नहीं जाने देतीं इसलिए...।" 

उसके वाक्य को अधूरा छोड़कर रोहिणी ने कहा, "हाँ! ठीक कहा तुमने, वह प्यार नहीं पागलपन था, यह इन पाँच वर्षो में समझ आ गया और तुम भी मुझे कितना प्यार करते थे, यह भी समझ में आ गया। सिद्धार्थ ! तुम वापिस  चले जाओ, तुम बुद्ध नहीं हो।"

।।2।। सतपुड़ा  पर्वत का दर्द 

"अरे देखो! सतपुड़ा दादा को क्या हो गया? सिर थामे बैठे  हैं?

"पगडंडी बेटी! मैं  अपने सुरम्य सागौन के वनों को ढूंढने निकला था, वे मिले नहीं; ऊपर से चिलचिलाती धूप में, मैं घबरा गया। तुम्हें याद है, मेरे घने  जंगलों के कारण मुगल कभी  देवगढ़ का किला नहीं जीत पाऐ थे और अब कहाँ गये मेरे वन?"

"दादा! वनों के साथ-साथ पशु-पक्षी भी गायब हो गये!"

दीर्घ साँस भरते हुऐ सतपुड़ा बोला, "वनों की बात छोड़ो, अब तो मेरा अस्तित्व  ही दाँव पर लग गया है, दूसरों को आश्रय देने वाला स्वयं मैं, अपना आश्रय ढूँढ  रहा हूँ ।"

।।तीन।। कलेक्टर की माँ

 कलेक्टर बेटा आफिस से लौटा तो देखा--माँ जमीन पर पालथी मारे,  इतमीनान से प्लेट में चाय डालकर सुड़क-सुड़क की आवाज के साथ पी रही हैं! आसपास नौकरों का मजमा जमा था और सबके हाथ में चाय की प्याली!! माँ का चेहरा खुशी से दमक रहा था। गुस्से से कलेक्टर बेटे का चेहरा लाल हो गया। उसे देखते ही सारे नौकर नौ दो ग्यारह हो गये। बेटे ने माँ से पूछा--

"जमीन पर क्यों बैठी हो ?"

जवाब मिला, "नहीं, आसन पर बैठे हैं ।"

बेटे ने फिर प्रश्न उछाला--"... और ये प्लेट में चाय क्यों डालकर पीती हो ?"

माँ बोली, "जिंदगी गुजर गई बस्सी (चीनी की प्लेट) में ही चाय डालकर पीते; कोप ( कप) में बहुत गरम रहती है ।"

"और यह सुड़क-सुड़क की आवाज ?"

माँ खुशी से किलकती हुई बोली, "तू भी एक दिन बस्सी में चाय डालकर पी, सुड़क-सुड़क की आवाज से ही चाय पीने की तृप्ति होती है । बचपन में तू  ऐसे ही चाय पीता था । भूल गया ?"

बड़ी मनुहार के बाद माँ को लेकर आये कलेक्टर बेटे ने कुछ सोचा और आवाज लगाई, "रामदीन ! चाय लाओ। कप के साथ प्लेट भी लाना।" 

और माँ के पास नीचे बैठ, प्लेट में चाय डालकर सुड़क-सुड़क की आवाज करता पीने लगा।

।।चार।। भारत का दर्द 

इंडिया और मैं यानी भारत बाजार में टकरा गये।

सूट-बूट धारी इंडिया को देख दीन-हीन मैं कन्नी काटकर जाने लगा, तो इंडिया ने रोककर पूछा, "भैय्ये! यहाँ कैसे ?"

दीनता से मैंने कहा, "फोन लेने आया हूँ। चलो, आपने रोक ही लिया है तो तनिक मदद ही कर दो। एक पुराना स्मार्ट फोन दिला दो। चाहता हूँ कि मेरे बच्चे भी ऑनलाइन पढ़-लिख लें।"

मेरा मजाक उड़ाते हुऐ इंडिया बोला, "भैय्ये! फोन तो खरीदवा दूँगा; पर तुम्हारे सैकड़ों गाँवों में इंटरनेट की समस्या बनी रहती है, तो फोन को क्या चाटोगे!"

मैं, भारत, मन मसोसकर रह गया। कितनी भी योजनाएँ बनें, कितनी भी कोशिशें  कर लें, मैं कभी भी इंडिया की बराबरी नहीं कर सकता। कोरोना ने मुझको फिर पीछे धकेल दिया। मेरे कुछ युवा बेहतर जिदगी की आस में शहरों में बस गये थे; पर उन्हें प्रवासी मानकर वापिस गाँव लौटने पर मजबूर कर दिया। इंडिया को लौटने के लिये हवाई जहाजों तक का इंतजाम किया गया, और मुझे मासूम बच्चों के साथ भूखे पेट, नंगे पैर चिलचिलाती धूप में सैकड़ों किलोमीटर की दुखदायी यात्रा करने को धकेल दिया। क्या मेरे बच्चों का भी मेरे समान अंधकारमय भविष्य रहेगा ?

।।पाँच।। प्रत्याशी 

नामांकन का दिन पास आता जा रहा था, पर अभी तक कुकर बस्ती में यही तय नहीं था कि चुनाव कौन लड़ेगा। बहुत-से युवा कूकर चुनाव लड़ना चाहते थे, पर एक नाम तय नहीं हो पा रहा था।तभी, बस्ती के वयोवृद्ध कूकर, श्रीमणि की नजर नेता जी के अलसेशियन कूकर पर पड़ी--एकदम तदुरूस्त, चमकीले बालों वाला, मस्तानी चाल से अपने नौकर के साथ टहलते दिखा । बस, उसके दिमाग में कुछ कौंधा और उसने चिल्लाकर कुत्तो को पुकारा--"इधर आओ भाई सब; प्रत्याशी मिल गया!"

सबने बड़ी उत्सुकता से पूछा, "कौन ?"

श्रीमणि ने नेता जी के कुत्ते की ओर इशारा किया।

सबने हैरान-परेशान होकर कहा, "अरे, ये बँगले के अंदर रहने वाला हमारा नेता कैसे बन सकता है ?"

श्रीमणि ने कहा, "रोटी के एक टुकड़े के लिये दिनभर भटकते तुम लोगों की क्या औकात है, जो तुम लोग चुनाव लड़ोगे। बस, फैसला हो गया। रही बंद बँगले से चुनाव लड़ने की बात; सो, यह लोकतान्त्रिक देश है। यहाँ मनुष्य जाति के महाबली जेलों में रहते हुुए भी चुनाव लड़ते हैं और जीत भी जाते हैं। जीतने के लिये धन और बल दोनों चाहिये। समझे ?

श्रीमती मनोरमा पंत

शिक्षिका (सेवानिवृत्त), केन्द्रीय विद्यालय  

शिक्षा  : एम.ए. संस्कृत, बी.एड. 

लेखन की विधाएँ : लघुकथा, कविता, व्यंग्य।

साझा संकलन : 8 

संपादन : 'उन्मेष' लघुकथा संकलन की सहसंपादक (आरिणी फाउंडेशन, भोपाल)

प्रकाशन : जागरण, अक्षरा, कर्मवीर आदि पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन 

सम्मान : अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच सम्मान, हिन्दी सेवी सम्मान, (लेखिका संघ भोपाल)

अमृता प्रीतम, महादेवी वर्मा सम्मान (अंतराष्ट्रीय महिला मंच द्वारा)

अनेक साहित्यिक कार्यक्रमों की अध्यक्षता।

संपर्क  : 92291 13195

Sunday 10 July, 2022

क्षितिज : लघुकथा-सम्मान परंपरा / सतीश राठी

लघुकथा विधा के लिए वर्ष 1983 से सतत कार्यरत संस्था क्षितिज, इंदौर के द्वारा वर्ष 2018 में एक अखिल भारतीय लघुकथाकार सम्मेलन इंदौर शहर में आयोजित किया गया। इस सम्मेलन की विशेषता यह थी कि इसमें लघुकथा के लिए समर्पित लघुकथाकारों का सम्मान किया गया था। 

वर्ष 2018 का क्षितिज लघुकथा शिखर सम्मान श्री बलराम अग्रवाल दिल्ली





क्षितिज लघुकथा समालोचना सम्मान  श्री बी एल आच्छा, चेन्नई




क्षितिज लघुकथा नवलेखन सम्मान श्री कपिल शास्त्री, भोपाल 

को दिया गया । 





प्रादेशिक प्रथम क्षितिज लघुकथा समग्र सम्मान 2018 श्री संतोष सुपेकर उज्जैन को दिया गया। 

इस आयोजन में सर्वश्री  बलराम, सतीशराज पुष्करणा, भगीरथ परिहार, अशोक भाटिया, सुभाष नीरव, योगराज प्रभाकर को भी सम्मानित किया गया। श्री रविंद्र व्यास को क्षितिज साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान से सम्मानित किया गया।

वर्ष  2019 में सम्मान प्राप्त कथाकार:सामूहिक चित्र 
इस आयोजन की निरंतरता वर्ष 2019 में बनी रही तथा उस वर्ष का शिखर सम्मान श्री सुकेश साहनी को प्रदान किया गया। 

नवलेखन सम्मान कुणाल शर्मा को

समालोचना सम्मान माधव नागदा को प्रदान किया गया। 


क्षितिज लघुकथा प्रादेशिक समग्र सम्मान 2019 श्रीमती कांता राय, भोपाल को
दिया गया।

कोरोना के कारण वर्ष 2020 में कार्यक्रम नहीं हो पाया लेकिन वर्ष 2021 में कार्यक्रम आयोजित कर दो वर्ष के सम्मान एक साथ प्रदान किए गए। 

डॉ कमल चोपड़ा दिल्ली को 2020 का शिखर सम्मान एवं श्री रामकुमार घोटड को 2021 का शिखर सम्मान, श्री पुरुषोत्तम दुबे को 2021 का समालोचना सम्मान,   श्रीमती  दिव्या राकेश शर्मा को 2020  एवं श्रीमती अंजू निगम को 2021 का  नवलेखन सम्मान दिया गया।  श्रीमती ज्योति जैन को 2020 का एवं  श्री योगेंद्रनाथ शुक्ल को  वर्ष 2021 का समग्र सम्मान प्रदान किया गया। 

इस वर्ष में मालवा की परंपरा में वरिष्ठ साहित्यकारों का सम्मान भी किया गया। श्री सूर्यकांत नागर, श्री शरद पगारे को समग्र जीवन  साहित्यिक अवदान सम्मान, श्री नरहरि पटेल को मालव गौरव सम्मान से सम्मानित किया गया। 

श्री सत्यनारायण व्यास को क्षितिज समग्र जीवन साहित्यिक अवदान सम्मान, डॉ विकास दवे को साहित्य गौरव सम्मान, डॉ अर्पण जैन को भाषा सारथी सम्मान प्रदान किए गए। श्री राज नारायण बोहरे, नंदकिशोर बर्वे, चरणसिंह अमी, अंतरा करवड़े, डॉ वसुधा गाडगिल को भी विशिष्ट सम्मानों से सम्मानित किया गया। चेन्नई से प्रकाशित होने वाली पत्रिका पुष्पांजलि के संपादक श्री गोविंद  मूंदड़ा जी को क्षितिज साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान 2021 से सम्मानित किया गया।

वर्ष 2022 के लिए संस्था के द्वारा सम्मान घोषित कर दिए गए हैं--

श्री भगीरथ परिहार रावतभाटा को क्षितिज लघुकथा शिखर सम्मान 2022




क्षितिज लघुकथा समालोचना सम्मान 2022 श्री जितेन्द्र जीतू









प्रदेश स्तरीय क्षितिज लघुकथा समग्र सम्मान2022 श्री पवन शर्मा





क्षितिज लघुकथा नवलेखन सम्मान 2022 सुश्री रश्मि चौधरी को अक्टूबर 2022 में होने वाले वार्षिक कार्यक्रम में प्रदान किए जाएंगे। 



इनके अतिरिक्त नगर के कुछ प्रमुख साहित्यकारों को भी उनके साहित्यिक अवदान के लिए सम्मानित किया जाएगा।

सतीश राठी

आर 451, महालक्ष्मी नगर,

इंदौर 452010

मोबाइल  : 94250 67204


Saturday 9 July, 2022

लघुकथा, इंदौर और क्षितिज / सतीश राठी

'क्षितिज' की बात करने से पहले तत्कालीन लघुकथा के मालवा और निमाड़ परिदृश्य पर बात करना मुझे बड़ा जरूरी लग रहा है, अतः अपनी इस बात को मैं वहीं से प्रारंभ कर रहा हूं। मालवा और निमाड़ के क्षेत्र में लघुकथा लेखन की बहुत पुरानी परंपरा रही है। मालवा एक पठारी क्षेत्र है और यहां की भूमि के बारे में कभी लिखा गया है कि:-

 मालव भूमि गहन गंभीर 

डग डग रोटी पग पग नीर

ये पंक्तियां तत्कालीन मालवा के समृद्ध परिदृश्य की ओर इंगित करती है। पर यह समृद्ध परिदृश्य आर्थिक और आवासीय रूप से ही नहीं था अपितु उस समय यहां का साहित्यिक परिदृश्य भी काफी मजबूत रहा है। 

लघुकथा विधा की परंपरा में जो नाम आते हैं, उनमें मालवा और निमाड़ के क्षेत्र के श्रद्धेय माखनलाल चतुर्वेदी एवं पद्मश्री दादा रामनारायण उपाध्याय का नाम सर्वोपरि रूप से लिया जाता है। दोनों खंडवा शहर के साहित्य परिदृश्य में देदीप्यमान रहे हैं। दादा माखनलाल चतुर्वेदी की लघुकथा 'बिल्ली और बुखार' प्राचीन लघुकथा  लेखन में गिनी जाती है। मालवा निमाड़ के लघुकथा के पितृपुरुष पद्मश्री दादा  राम नारायण जी उपाध्याय का जिक्र करना चाहूंगा, जिन्होंने लघुकथा को बहुत स्नेह प्रदान किया है । मध्य प्रदेश के परिदृश्य में उस समय पद्मश्री दादा रामनारायण उपाध्याय लघुकथाएं लिखते रहे हैं। दादा का जब मैंने एक साक्षात्कार लिया था, तब उनसे लघुकथा पर भी बातचीत की गई थी।

आपको मैं यह बताना चाहूंगा कि इंदौर शहर लघुकथा का  प्रारंभिक रूप से सबसे महत्वपूर्ण स्थान रहा है। डॉ सतीश दुबे का पहला लघुकथा संग्रह 'सिसकता उजास' वर्ष 1974 में प्रकाशित हुआ था । 'वीणा' पत्रिका जो श्री मध्य भारत हिंदी साहित्य समिति इंदौर की मुख्य पत्रिका रही है, उस पत्रिका में डॉ श्याम सुंदर व्यास ने बतौर संपादक लंबे समय तक लघुकथाओं का प्रकाशन किया है।  वर्ष 1977 में नरेंद्र मौर्य और नर्मदा प्रसाद उपाध्याय के संपादन में श्री कमलेश्वर की भूमिका के साथ 'समांतर लघुकथाएं' पुस्तक भी इंदौर से ही प्रकाशित हुई।

लघुकथा लेखन के क्षेत्र में मेरा प्रवेश भी तकरीबन वर्ष 1977 का ही रहा है। उस समय डॉ सतीश दुबे एक साहित्यिक संस्था, 'साहित्य संगम' की मासिक गोष्ठियां सुदामा नगर स्थित अपने आवास पर किया करते थे और उन गोष्ठियों में, जब मैं अपनी कविताओं के साथ गया तब वहीं पर लघुकथा विधा से मेरा परिचय हुआ। मेरे लघुकथा गुरु डॉ सतीश दुबे ने मुझे यह प्रेरणा दी कि मैं लघुकथा लिखना प्रारंभ करूं।  उस समय मैंने अपनी पहली लघुकथा 'समाजवाद' लिखी जो बाद में 'लघु आघात' में प्रकाशित हुई।

लघुकथा की पहली पत्रिका 'आघात' जो बाद में  'लघु आघात' के नाम से प्रकाशित हुई, इंदौर शहर से ही प्रारंभ हुई। 'आघात' का प्रवेशांक  जनवरी से मार्च 1981  का प्रकाशित हुआ।  उस अंक की कीमत सिर्फ ₹3/- थी तथा त्रैमासिक पत्रिका  'आघात' का वार्षिक शुल्क सिर्फ ₹12/- था। प्रवेश अंक में उसके प्रणेता डॉ सतीश दुबे प्रधान संपादक रहे  और संपादक श्री विक्रम सोनी। अन्य संपादकीय साथियों के रूप में सर्वश्री वेद हिमांशु, वसंत निर्गुणे, महेश भंडारी  रहे। पत्रिका का तीसरा अंक 'ग्रामीण लघुकथा अंक' के रूप में प्रकाशित हुआ। 'आघात' नाम से पंजीयन ना मिलने के कारण जनवरी 1982 से यह पत्रिका 'लघु आघात' के रूप में प्रारंभ हुई, जिसके संपादन मंडल में प्रधान संपादक डॉ सतीश दुबे, संपादक  विक्रम सोनी, उप संपादक वेद हिमांशु, सतीश राठी, राजेंद्र पांडेय 'उन्मुक्त' एवं महेश भंडारी रहे। इस पत्रिका का अप्रैल-जून 1982 अंक 'महिला लघुकथाकार अंक' के रूप में प्रकाशित हुआ। कुछ समय तक पत्रिका का नियमित त्रैमासिक प्रकाशन हुआ, फिर कुछ अंतराल देकर और तत्पश्चात आठवें वर्ष में संयुक्त अंक 30 से लेकर 33  के साथ जनवरी 1989 में पत्रिका का प्रकाशन बंद हो गया। 

'क्षितिज 'संस्था की स्थापना 26 जून वर्ष 1983 में की गई । दिनांक 28  नवंबर 1984 को एक संस्था के रूप में इसका पंजीयन भी हो गया संस्था के प्रारंभ से साथियों ने मुझे अध्यक्ष के पद का  दायित्व प्रदान किया जिसे सबके सहयोग और समर्पण से आज तक निर्वहन किया जा रहा है। जिन साथियों ने क्षितिज का निर्माण किया उनके प्रमुख नाम और दायित्व इस प्रकार है। डॉक्टर अखिलेश शर्मा उपाध्यक्ष, श्री सुरेश बजाज कोषाध्यक्ष, श्री अनंत श्रीमाली सचिव। इनके अतिरिक्त कार्यकारिणी के प्रारंभिक सदस्यों के रूप में  सुभाष जैन, किशन शर्मा 'कौशल' और सुभाष त्रिवेदी अधिवक्ता रहे। संस्था का प्रारंभिक सदस्यता शुल्क ₹ 12/- प्रतिवर्ष रहा और लंबे समय तक यही रखा रहने के बाद वर्ष 1986 में इसे ₹15/- वार्षिक किया गया। प्रथम वर्ष में ही सदस्य संख्या 50 हो गई थी और इसी उत्साह से भरे हुए साथियों ने सबसे पहले यह तय किया कि लघुकथा को लेकर एक पत्रिका का प्रकाशन 'क्षितिज' नाम से ही शुरू किया जाए।

लघुकथा पत्रिका 'क्षितिज' का प्रथम अंक वर्ष 1984 में प्रकाशित हो गया। प्रारंभिक अंक का संपादन सतीश राठी एवं डॉक्टर अखिलेश शर्मा द्वारा किया गया।  सहयोग अनंत श्रीमाली, सुरेश बजाज, किशन शर्मा कौशल का रहा। कला सहयोग श्री पारस दासोत एवं किशोर बागरे का रहा तथा सूर्यकांत नागर भी सहयोगी साथी के रूप में रहे। लघुकथा पत्रिका 'क्षितिज' का प्रथम अंक  बहुत पसंद किया गया। इस प्रवेशांक में एक अखिल भारतीय लघुकथा प्रतियोगिता आयोजित कर उसमें पुरस्कृत लघुकथाओं को प्रकाशित किया गया था, तथा इसका लोकार्पण कार्यक्रम पद्मश्री दादा रामनारायण उपाध्याय, कहानी लेखिका मालती जोशी और कथाकार विलास गुप्ता के सानिध्य में किया गया। इस अंक में श्री कृष्ण कुमार अरोरा, अरुण कुमार धूत, अशोक शर्मा भारती, विश्वबंधु नीमा, नरेंद्र जैन एवं लक्ष्मी नारायण राठौर विशेष सहयोगी साथियों के रूप में शामिल हुए। इस प्रवेशांक को डॉ हरिवंश राय बच्चन, डॉ शिवमंगल सिंह सुमन, विष्णु प्रभाकर, बालकवि बैरागी, कवि रामविलास शर्मा जैसी हस्तियों का आशीर्वाद मिला। दादा रामनारायण उपाध्याय प्रमुख निर्णायक तथा सूर्यकांत नागर एवं राजेंद्र पांडेय सहयोगी निर्णायकों के रूप में पत्रिका में उपस्थित रहे।

इस प्रतियोगिता में फजल इमाम मल्लिक की लघुकथा 'फर्क' प्रथम, मदन शर्मा की लघुकथा 'अनुभव' द्वितीय एवं शंकर पुणतांबेकर की लघुकथा 'अवैध संतान', पारस दासोत की लघुकथा 'उतार लो' एवं राजेंद्र राकेश की लघुकथा 'विवशता' तृतीय स्थान पर रहीं। डॉ रत्न लाल शर्मा का आलेख 'लघुकथा की प्रासंगिकता' तो इस अंक को महत्वपूर्ण बना ही रहा था; लेकिन लघुकथा पर सतीश राठी द्वारा  श्री सरोज कुमार, श्री रामविलास शर्मा, डॉ राजेंद्र कुमार शर्मा, सुश्री साधना जोशी से लिए गए साक्षात्कारों के साथ  सबसे अंत में डॉ सतीश दुबे से लिया गया एक  महत्वपूर्ण साक्षात्कार भी इसे संग्रह के योग्य बना गया। पूरा प्रवेशांक पारस दासोत एवं किशोर बागरे के रेखांकनों  से सुसज्जित था।

यह अंक क्षितिज के सोच की जमीन तैयार करने वाला अंक था।  इसमें रतीलाल शाहीन, रंजीत राय, मधुकांत, जया नर्गिस, खान अब्दुल रशीद दर्द, तारिक असलम तस्लीम, मार्टिन जान अजनबी, नरेंद्रनाथ लाहा, हीरालाल नागर, योगेंद्र शर्मा, डॉ कमल चोपड़ा, कालीचरण प्रेमी जैसे लघुकथाकारों की लघुकथाएं प्रशंसनीय लघुकथा के रूप में शामिल थीं।

साथियों का उत्साह बढ़ गया था और उसकी परिणिति के रूप में वर्ष 1985 में दूसरा अंक सतीश राठी एवं सुरेश बाजार के संपादन में प्रस्तुत हुआ। यह अंक पुनः एक प्रतियोगिता अंक के रूप में था। निर्णायकों के रूप में 'वीणा' के तत्कालीन संपादक डॉ श्याम सुंदर व्यास, जलगांव के डॉ शंकर पुणतांबेकर, दिल्ली के श्री राजकुमार गौतम, गंज बासौदा के पारस दासोत रहे। उस समय के उदीयमान लेखक पवन शर्मा की लघुकथा 'मजबूरी' प्रथम रही, साबिर हुसैन की लघुकथा 'ठेका' द्वितीय रही, जया नर्गिस की लघुकथा 'बेताल का बयान' तृतीय लघुकथा के रूप में सामने आई। अशोक मिश्र, श्यामसुंदर चौधरी, कमल चोपड़ा, आनंद बिल्थरे, सुभाष नीरव की लघुकथाएं प्रोत्साहन पुरस्कार से सम्मानित की गईं एवं अशोक चतुर्वेदी,  राजकुमार सिंह, सुरेंद्र तनेजा, पुष्पलता कश्यप, चांद शर्मा, भगीरथ, कृष्णशंकर भटनागर एवं महेंद्र सिंह महलान की लघुकथाएं प्रशंसनीय लघुकथाओं के रूप में शामिल हुई। 'मालवा के लघुकथाकार' शीर्षक से राजेंद्र पांडेय का लेख चर्चा में रहा और निरंजन जमीदार की मालवी भाषा की लघुकथा 'भाटो' भी चर्चा में रही।

दादा रामनारायण उपाध्याय ने एक लेख 'शब्द में शक्ति सूक्ष्मता से आती है' शीर्षक से लिखा तथा प्रताप राव कदम ने भी लघुकथा को अपने आलेख का विषय बनाया।

दूसरे अंक में ही 'क्षितिज' में सारे देश को समेटने का प्रयास किया । पंजाबी साहित्य की लघुकथाओं पर सुभाष नीरव का आलेख और जगदीश अरमानी की लघुकथा, राजस्थानी साहित्य में लघुकथा पर पुष्पलता कश्यप का आलेख एवं दुर्गेश की लघुकथा, गुजराती में लघुकथाओं पर  डॉ कमल पुंजाणी का आलेख एवं बल्लभ दास दलसाणिया की लघुकथा, नेपाली कथा साहित्य पर गोविंद गिरी प्रेरणा एवं किशोर पहाड़ी का आलेख एवं अशेष मल्ल की लघुकथा इस विशेष अंक को पुनः संग्रहणीय बना गई। उर्दू लेखक मंटो की लघुकथा 'सफाई पसंद', चेक लेखक जेम्स थर्बर  की  लघुकथा 'शेर और लोमड़ी', कार्ल सेण्डबर्ग की अमेरिकी लघुकथा 'रंगभेद', कन्फ्यूशियस की चीनी लघुकथा  'तानाशाह और शेर',  एबरोस बियर्स  की अंग्रेजी लघुकथा  'अफसर और ठग',  टॉलस्टॉय  की रूसी लघुकथा  'बोझ'  इस अंक को अंतरराष्ट्रीय स्वरूप प्रदान कर गई। इस अंक की एक और विशेषता श्री चरण सिंह अमी द्वारा लघुकथा पर सर्वश्री बलराम, राजकुमार गौतम, राजेंद्र मिश्र, सूर्यकांत नागर, विलास गुप्ते, सतीश राठी, सिंघई सुभाष जैन, अशोक शर्मा भारती एवं लक्ष्मी नारायण राठौर के साथ बैठकर की गई बातचीत की प्रस्तुति थी, जिसमें लघुकथा के बहुत सारे मुद्दे चर्चा में रहे।

क्षितिज के इन दोनों अंकों की ताजपोशी लघुकथा के जगत में एक जिम्मेदारी पूर्ण पत्रिका के रूप में हुई । हालांकि कुछ लोगों को परेशानी भी थी, पर इनके स्वरूप और निष्पक्ष प्रतियोगिता निर्णय लोगों के मन को भा गए । लघुकथा के क्षेत्र के कई बड़े सारे नाम उस समय 'क्षितिज' पत्रिका में शामिल होकर गौरवान्वित हुए।

संयोगवश यहां पर बताना चाहूंगा कि पिछले दिनों 'क्षितिज' के कार्यक्रम में आदरणीय श्याम सुंदर अग्रवाल ने यह कहा कि, 'क्षितिज' के इस अंक में पंजाबी लघुकथा पर सुभाष नीरव के आलेख ने उन्हें चिंतित किया और उसी के परिणाम स्वरूप उन्होंने न सिर्फ 'मिन्नी' पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया, अपितु पंजाबी लघुकथाओं को शीर्ष पर बिठाने का प्रयास किया और आज आप देखिए हिंदी से भी अधिक पंजाबी लघुकथा गुणवत्ता की दृष्टि से स्वीकार की जाती है।

'क्षितिज' संस्था के साथियों का उत्साह चरम पर था और शहर के संस्थानों ने आर्थिक सहयोग प्रदान करने में भी कभी कोई कसर नहीं रखी। यहां तक की सोमदत्त के समय साहित्य परिषद भोपाल ने भी इस पत्रिका को उस वक्त में सदैव विज्ञापन सहयोग प्रदान किया, जबकि आज इतनी पुरानी पत्रिका के आवेदन को साहित्य परिषद भोपाल सदैव नकार देती है। वहां की लालफीताशाही साहित्य को हाशिए पर डालने में लगी हुई है। 

बहरहाल वर्ष 1986 में संस्था के द्वारा 1981 से 1985 तक की श्रेष्ठ लघुकथाओं का संकलन 'तीसरा क्षितिज' सतीश राठी के संपादन में पंकज प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित किया गया, जिसके प्रकाशन के लिए दिल्ली में डॉ कमल चोपड़ा ने बहुत सहयोग प्रदान किया। अपनी गुणवत्ता के कारण यह पुस्तक उस समय की चर्चित लघुकथा पुस्तक के रूप में रही।

वर्ष 1986 में ही क्षितिज का वार्षिक अंक सतीश राठी एवं सुरेश बजाज के संपादन में प्रकाशित हुआ। अभी तक के काम पर सारे देश से प्रशंसा के ढेर सारे पत्र आए थे और कुछ चुनिंदा पत्रों को इस अंक के प्रारंभ में शामिल कर उन सब की सराहना को स्थान दिया गया। इस अंक में दिल्ली से डॉ कमल चोपड़ा की लघुकथा 'मां पराई', राजकुमार गौतम की लघुकथा 'दो स्थितियों का लेखक', विष्णु प्रभाकर की लघुकथा 'दोस्ती', सुभाष नीरव की लघुकथा 'रफ कॉपी' शामिल की गई। हरियाणा से राजकुमार निजात की लघुकथा 'चिंता', तरुण जैन की लघुकथा 'भीड़', सिंधु जुनेजा की लघुकथा 'विकल्प', शमीम शर्मा की लघुकथा 'जीवन-मृत्यु', प्रेमसिंह बरनालवी की लघुकथा 'औरत' शामिल की गई। पंजाब से दर्शन मितवा की लघुकथा 'औरत और मोमबत्ती', खुशविंदर कुमार की लघुकथा 'पुलिसवाला' शामिल हुई। उत्तर प्रदेश से पुष्कर द्विवेदी की लघुकथा 'अतीत होता भविष्य', श्यामसुंदर चौधरी की लघुकथा 'कारण', राजकुमार सिंह की लघुकथा 'खुशहाल लोग', चित्रेश की लघुकथा 'प्रेरणा', निहाल हाशमी की लघुकथा 'रंगदार आदमी बदरंग तितली', दिनेश रस्तोगी की लघुकथा 'आदमी और राजा' शामिल की गई। राजस्थान से अंजना अनिल की लघुकथा 'करंट टॉपिक', माधव नागदा की लघुकथा 'काल' शामिल की गई। महाराष्ट्र से शंकर पुणतांबेकर की लघुकथा 'दधीचि', मातादीन खरवार की लघुकथा 'तंगहाली में', रतीलाल शाहीन की लघुकथा 'महान आत्मा' शामिल की गई। बिहार से अतुल मोहन प्रसाद की लघुकथा 'प्रस्फुटन', तारिक असलम तस्नीम की लघुकथा 'किस्मत वाला', नरेंद्र नाथ श्रीवास्तव की लघुकथा 'वर्दी', शहंशाह आलम की लघुकथा 'मेरा गुनाह' शामिल की गई । सतीशराज पुष्करणा का बिहार की लघुकथाओं पर एक आलेख भी शामिल था। गुजरात से दीपक जगताप की लघुकथा 'पितृ तर्पण', मुकेश रावल की लघुकथा 'जिम्मेदारी' शामिल की गई। हिमाचल प्रदेश से कृष्णा बांसल की लघुकथा 'स्वप्न', असम से भीखी प्रसाद वीरेंद्र की लघुकथा 'बाघ और आदमी', नागालैंड से चितरंजन भारती की लघुकथा 'राहत कार्य', पश्चिमी बंगाल से शिव शारदा की लघुकथा 'सिर्फ रोटी के लिए' शामिल की गई। 

दरअसल 'क्षितिज' के इस अंक में विभिन्न राज्यों में लघुकथा के लेखन की स्थिति को स्पष्ट करने का प्रयास सीमित संसाधनों में किया गया था, इसलिए अधिक पृष्ठों में सामग्री नहीं दी जा सकी, लेकिन अभी तक यह स्थापित हो चुका था कि 'क्षितिज' का प्रत्येक अंक नई दृष्टि के साथ प्रस्तुत होता है। भोपाल से सोमदत्त ने 'साक्षात्कार' के एक अंक का विज्ञापन सहयोग इस अंक में भी प्रदान किया। रमा लाहिरी का एक लेख 'लघुकथाएं और मंगला कथा साहित्य' बहुत ही चर्चा में रहा। मध्यप्रदेश से सतीश राठी, सुरेश शर्मा, पवन शर्मा, रशीद दर्द, रामनारायण उपाध्याय, रमेश चंद्र, वेद हिमांशु, प्रताप राव कदम, डॉ नरेंद्र नाथ लाहा, डॉ उपेंद्र नाथ विश्वास, सूर्यकांत नागर, राजेंद्र मिश्र, संतोष राठी, सुरेश बजाज, रविंद्र कंचन, राजेंद्र पांडेय, रमेश अस्थिवर, राजेंद्र कुमार शर्मा, अशोक शर्मा भारती, जयप्रकाश मानस, सतीश खरे, चंद्रा सायता, चरण सिंह अमी, कमल पारुलकर, पारस दासोत, निशा व्यास, जया नर्गिस, तरशचंद्र जैन, सुभाष जैन, सुनीता मूणत, सुभाष त्रिवेदी, अनंत श्रीमाली, सतीश दुबे, विक्रम सोनी एवं डॉ श्याम सुंदर व्यास की लघुकथाएं इसमें शामिल की गई।

वर्ष 1986 में क्षितिज की एक साथ दो प्रस्तुतियां आई थी। कुछ उनका भार, कुछ नौकरियों की व्यस्तता, इस सबने वर्ष 1987 की गैप कर दी। पर हां, वर्ष 1988 में क्षितिज पुनः नए अंक के साथ सामने था।

क्षितिज का यह अंक 175 पृष्ठों का बना। सतीश राठी एवं अनंत श्रीमाली के संपादन में यह अंक लघुकथा की तकनीक एवं लघुकथा के मूल्यांकन पर केंद्रित रहा। एक ओर जहां प्रवेशांक में लघुकथा प्रतियोगिता के द्वारा लघुकथा की सशक्तता, जीवंतता एवं प्रामाणिकता को प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया, तथा बाद के अंक में विभिन्न भाषाओं एवं प्रादेशिक भाषाओं में श्रेष्ठ लघुकथा लेखन को प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया, वहीं क्षितिज के द्वारा लघुकथा विधा के सार्वभौमिक स्वरूप एवं अकादमिक मूल्यों की स्थापना का प्रयास भी किया गया । विभिन्न राज्यों में जब लघुकथा की स्थितियों को पहले सामने लाकर रखा गया, तब उसके साथ ही यह भी सोचा गया कि कुछ प्रमुख लघुकथाकारों को उनके लघुकथा लेखन पर समालोचनात्मक एवं मूल्यांकन टिप्पणियों के साथ प्रस्तुत करना चाहिए। इसलिए  इस कार्य को हाथ में लेकर वर्ष 1988 के अंक में 51 लघुकथाकारों के लघुकथा लेखन पर पांच वरिष्ठ समालोचक साहित्यकारों की मूल्यांकन टिप्पणियों के साथ एवं चार विशिष्ट आलेखों को समाविष्ट कर यह अंक प्रस्तुत किया गया। लघुकथा की तकनीक, शैली व शिल्प पर बातचीत के साथ इसमें नौवें दशक के लघुकथा परिदृश्य एवं एकल लघुकथा संग्रहों पर भी चर्चा की गई। वह समय ऐसा भी था जब लघुकथा पर बहुत सारे स्थानों पर बहुत सारी बेबुनियाद बहसें चल रही थीं। तब 'क्षितिज' ने यह तय कर लिया था कि हमें सिर्फ और सिर्फ लघुकथा को लेकर सार्थक काम करना है।

आलेख खंड में लघुकथा की सृजन प्रक्रिया पर शंकर पुणतांबेकर का आलेख, लघुकथा के रचना विधान और मूल्यांकन पर सतीशराज पुष्करणा का आलेख, नवें दशक के लघुकथा संकलनों पर अतुल मोहन प्रसाद का आलेख एवं एकल लघुकथा संग्रहों पर महेंद्र सिंह महलान का आलेख इस अंक की विशेष उपलब्धि के रूप में सामने आए। अंक का स्वरूप इस तरह से निर्धारित किया गया था कि, प्रत्येक दस लघुकथाकारों के ऊपर एक लघुकथाकार द्वारा मूल्यांकन टिप्पणी की जाए। प्रथम खंड में शंकर पुणतांबेकर, श्याम सुंदर अग्रवाल, सतीशराज पुष्करणा, डॉ उपेंद्र विश्वास, अंजना अनिल, पुष्पलता कश्यप, श्यामसुंदर सुमन, सन्यासी, भीखी प्रसाद 'वीरेंद्र' और मार्टिन जान 'अजनबी' पर डॉ सतीश दुबे का मूल्यांकन आलेख था। दूसरे खंड में कमल चोपड़ा, हीरालाल नागर, अतुल मोहन प्रसाद, अशोक लव, तरुण जैन, मुकेश जैन पारस, तारिक असलम तस्नीम, मोहन सोनी, राजेंद्र परदेसी, उमा शर्मा की लघुकथाओं पर सूर्यकांत नागर का मूल्यांकनपरक आलेख था। तृतीय खंड में राजकुमार निजात, पारस दासोत, सत्यनारायण सारू, पवन शर्मा, अशोक मिश्र, साबिर हुसैन, अनिरुद्ध प्रसाद विमल, मदन शर्मा, नीलम और रमेश अस्थिवर की लघुकथाओं पर विलास गुप्ते का मूल्यांकन आलेख था। चतुर्थ खंड में नरेंद्र नाथ लाहा, शहंशाह आलम, राजेंद्र पांडेय, वेद हिमांशु, हनुमान प्रसाद मिश्र, मदन अरोड़ा, सुरेंद्र मंथन, अंचल भारती, सिद्धेश्वर और रूप देवगुण की लघुकथाओं पर चंद्रशेखर दुबे की मूल्यांकन टिप्पणी थी। अंतिम खंड में महेंद्र सिंह महलान, कुंवर प्रेमिल, रमेश चंद्र, पुष्कर द्विवेदी, अनिल शूर 'आजाद', सुरेश जांगिड़ उदय, अशोक भाटिया, महेंद्र कुमार ठाकुर, मुकेश शर्मा, शराफत अली खान और मोहम्मद मोइनुद्दीन अतहर की लघुकथाओं पर रामविलास शर्मा का मूल्यांकन आलेख था।  इसी अंक को पुस्तक रूप में मनोबल के नाम से भी प्रकाशित किया गया।

अशोक शर्मा भारती, डॉ सतीश शुक्ल, डॉ अखिलेश शर्मा एवं डॉ दिलीप चौहान का इस अंक में विशेष सहयोग रहा।

वर्ष 1989 में क्षितिज के अधिकतर साथी नौकरियों के कारण इंदौर शहर से स्थानांतरित हो गए और एक कार्य जो लघुकथा को लेकर चल रहा था स्थगित का हो गया। मैं (सतीश राठी) स्वयं भी इंदौर से स्थानांतरित हो गया था, लेकिन मन में आग यथावत लगी हुई थी । इसी भावना से वर्ष 1991 में मध्य प्रदेश के पांच लघुकथाकारों की सौ लघुकथाओं का एक संकलन 'समक्ष' नाम से मेरे संपादन में प्रस्तुत हुआ। सर्वश्री पारस दासोत, राजेंद्र पांडेय उन्मुक्त ,अशोक शर्मा भारती, पवन शर्मा एवं सतीश राठी की 25-25 यानी 100 लघुकथाओं की यह पुस्तक पुनः चर्चा में रही। शंकर पुणतांबेकर एवं राधेलाल बिजघावने द्वारा इस पुस्तक की भूमिका  के आलेख लिखे गए। पंकज प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित इस पुस्तक पहली बार लोगों ने खरीद कर भी पढ़ी ।

लगभग 10 वर्ष के लम्बे अंतराल के बाद वर्ष 2001 में मध्यप्रदेश के व्यंग्य लेखन पर केंद्रित एक पुस्तक 'जरिये नजरिये' सतीश राठी एवं अनंत श्रीमाली के संपादन में प्रस्तुत हुई, जिसका लोकार्पण उज्जैन में डॉ शिवमंगल सिंह 'सुमन' के द्वारा किया गया । इस कार्यक्रम में 'समावर्तन' के संपादक डॉ प्रभात कुमार भट्टाचार्य भी मुख्य अतिथि के रुप में उपस्थित रहे।

वर्ष 2002 में  नौकरी गत प्रवास से पुनः  इंदौर में पदस्थापना मिली और इस वर्ष में न सिर्फ मेरा स्वयं का लघुकथा संग्रह 'शब्द साक्षी हैं' प्रकाशित हुआ अपितु 'क्षितिज' का नया अंक  भी उसी अनुराग के साथ पाठकों के समक्ष प्रस्तुत हो गया।

इस अंतराल के तारों को  जोड़ने का कार्य, श्री श्रीराम दवे के द्वारा अपने आलेख 'क्षितिज की जाजम और लघुकथा का विधा बनना' में किया गया। डॉ सतीश दुबे के षष्ठीपूर्ति प्रसंग पर उनकी लघुकथाओं को प्रकाशित कर अंक को गरिमामय बनाया गया। सूर्यकांत नागर ने 'लेखक की जागरूकता और लघुकथा का रचनात्मक पक्ष' पर अपना आलेख लिखा। बलराम अग्रवाल ने 'लघुकथा में कथावस्तु, कथानक और घटना' विषय पर अपना लेख प्रस्तुत किया। कई महत्वपूर्ण लघुकथाकारों की लघुकथाओं की प्रस्तुति के साथ, उज्जैन के दिवंगत लघुकथाकार श्री अरविंद नीमा की लघुकथाएं देकर उन्हें श्रद्धांजलि दी गई।

'आकलन' स्तंभ के अंतर्गत 'गुफाओं से मैदान की ओर' पुस्तक के द्वारा लघुकथा की जमीन तैयार करने वाले भगीरथ के लघुकथा लेखन पर डॉ वेद प्रकाश 'अमिताभ' का आलेख 'भगीरथ की लघुकथाओं में व्यवस्था विरोध' एवं भगीरथ की कुछ  लघुकथाएं प्रस्तुत की गईं।

मालवांचल के लघुकथाकारों पर मेरा आलेख 'हिंदी लघुकथा की विकास यात्रा में मालवा का योगदान' इस अंक में प्रकाशित हुआ तथा पद्मश्री दादा रामनारायण उपाध्याय को श्रद्धांजलि देते हुए 'लघुकथा की परंपरा' शीर्षक के अंतर्गत उनकी दो लघुकथाएं 'अंगूर लोमड़ी और लड़की' तथा 'पुराण पंथी कछुआ और प्रगतिशील खरगोश' प्रकाशित की गई।

अभी तक क्षितिज के सारे प्रकाशनों में निरंतर पुस्तक समीक्षा के पत्र-पत्रिकाओं की प्राप्ति के कॉलम निरंतर जारी रहे और इस अंक में भी चैतन्य त्रिवेदी के लघुकथा संग्रह 'उल्लास' पर बलराम की समीक्षा का प्रकाशन किया गया।

2004 में इंदौर शहर के पुनः स्थानांतरण हो गया और उज्जैन का भ्रमण करते हुए अंततः 2007 में मनावर में जाकर पदस्थापना हुई। स्टेट बैंक ऑफ इंदौर में शाखा प्रबंधक के दायित्व का निर्वहन करते हुए भी यहां पर राज ऑफसेट मनावर के सीमित संसाधनों से 'क्षितिज' का नया अंक प्रकाशित किया। अभी तक 'क्षितिज' के अंकों का कला पक्ष पारस दासोत ही संभालते रहे, लेकिन यहां पर एक विलक्षण प्रतिभा संपन्न व्यक्तित्व श्री विशाल वर्मा से मुलाकात हुई। उसके पूर्व उज्जैन में श्री मुकेश बिजौले के रेखांकनों से परिचित हो चुका था, अतः इस अंक का आवरण  विशाल वर्मा के द्वारा तैयार किया गया, तथा भीतरी रेखांकनों में भी उनका एवं मुकेश बिजौले के चित्रों का उपयोग किया गया। आवरण पर मां दुर्गा का कलात्मक रेखांकन उसके बादामी  बैकग्राउंड में उसे बहुत ही सुंदर स्वरूप प्रदान कर गया। यह अंक  'स्त्री विषयक'  लघुकथाओं  पर केंद्रित था  और  लघुकथा में स्त्री विमर्श  इसका प्रमुख आकर्षण था। सूर्यकांत नागर ने लघुकथाओं में नारी विमर्श विषय पर एक बहुत अच्छा लेख भूमिका के रूप में प्रस्तुत किया। पंजाब के लघुकथा परिदृश्य में तब तक स्त्री विषयक लघुकथाओं का बहुत सारा कार्य हो चुका था और श्याम सुंदर अग्रवाल के द्वारा पंजाब से तकरीबन बारह लघुकथाएं इस संदर्भ में इस अंक के लिए प्रस्तुत की गईं। इसके अतिरिक्त तकरीबन 52 लघुकथाकारों की लघुकथाएं जो स्त्री विषयों से संबंधित थी, इस अंक में प्रकाशित की गई। लघुकथा की परंपरा में वीणा के पूर्व संपादक डॉ श्याम सुंदर व्यास को श्रद्धांजलि स्वरूप उन की लघुकथाएं दी गईं तथा इसी अनुक्रम में इंदौर के ही एक अन्य लघुकथाकार श्री चंद्रशेखर दुबे को भी लघुकथा की परंपरा में श्रद्धांजलि देते हुए उनकी लघुकथाएं प्रकाशित की गई ।

श्रीमती चित्रा मुद्गल  से उनके उज्जैन प्रवास के दौरान सतीश राठी एवं राजेश सक्सेना ने स्त्री विमर्श पर  बातचीत की थी, उसका प्रकाशन  इस अंक की उपलब्धि रही। लघुकथा की  पुस्तकों की समीक्षा का प्रकाशन भी इस अंक में किया गया । सतीश राठी को मिले 'ईश्वर पार्वती स्मृति सम्मान' की रिपोर्ट भी इसमें थी जो उनकी लघुकथा पुस्तक के लिए उन्हें प्रदान किया गया था। प्रकाशन लागत बढ़ने के बावजूद 90 पृष्ठ के इस अंक का मूल्य सिर्फ ₹15/- रखा गया। क्षितिज के प्रकाशनों की गुणवत्ता को देखते हुए तार सप्तक के कवि गिरिजाकुमार माथुर ने  एक पारदर्शी टिप्पणी मे लिखा था कि, 'लघुकथा के विभिन्न क्षितिजों को तो 'क्षितिज' ने रेखांकित किया ही है, उसने नई जमीन भी तोड़ी है। आज की जिंदगी की कशमकश की छोटी-बड़ी घटनाओं के लघु दृश्य बिंदुओं के माध्यम से उन्हें आदमी की संवेदना का हिस्सा बनाया है।'

पंजाब के लघुकथाकारों ने अभी तक लघुकथा के क्षेत्र में जो उल्लेखनीय कार्य किए, उन्होंने 'क्षितिज' को सदैव प्रभावित किया । इसीलिए 'क्षितिज' का वर्ष 2012 का अंक 'मध्य प्रदेश-पंजाब लघुकथा विशेषांक' के रूप में सामने आया। बीच में अंतराल तो था, लेकिन इस अंक ने उस अंतराल को भुला दिया। आवरण पर पारस दासोत का एक बहुरंगी चित्र उसे बहुत गरिमा प्रदान कर रहा था । पारस दासोत के द्वारा राजस्थान की लोक संस्कृति पर बनी हुई एक चित्र श्रंखला 'बनी ठनी' से प्रेरणा लेते हुए, अपनी चित्र श्रृंखला 'ठनी बनी' बनाई थी। उसी चित्र श्रृंखला में से एक चित्र इसका आवरण था, जिसमें एक महिला बन ठन कर हाथ में धनुष बाण लेकर तीर से अपने लक्ष्य पर निशाना साध रही है।

इस अंक के प्रारंभ में डॉ पुरुषोत्तम दुबे ने हिंदी 'लघुकथा की सृजन प्रक्रिया और मध्य प्रदेश' शीर्षक से एक लेख में मध्यप्रदेश के लघुकथा लेखन को केंद्रित करते हुए जानकारी पूर्ण सामग्री दी है। मध्यप्रदेश के लघुकथाकारों  की लघुकथाएं प्रथम खंड में दी गई हैं।

दूसरे खंड में 'पंजाब का लघुकथा संसार' विशेष से श्याम सुंदर अग्रवाल का महत्वपूर्ण आलेख है, तथा पंजाब के प्रमुख लघुकथाकारों की लघुकथाएं दी गई है।

भारतीय स्टेट बैंक में स्टेट बैंक ऑफ इंदौर के विलय के बाद से नौकरीगत व्यस्तताएं बहुत बढ़ गई थी, अतः  फरवरी 16 में बैंक से सेवानिवृत्ति के पश्चात वर्ष 2017 में 'क्षितिज' का नवीन अंक प्रकाशित हुआ। पूर्व की तरह इस अंक का आवरण भी पारस दासोत का ही रहा। पारस दासोत का अवसान तो 2014 में हो गया, पर उनके पुत्र कुलदीप दासोत मेरे निरंतर संपर्क में रहे और पारस जी के द्वारा जो काम तैयार किया गया था उसमें से कुछ महत्वपूर्ण चित्रों को लेकर हम आगामी अंकों में प्रवेश करते गए । 

इस अंक के आवरण पर जो चित्र था, उसमें एक आभासी चित्र पूर्व राष्ट्रपति डॉ एपीजे अब्दुल कलाम का था।  महत्वपूर्ण बात यह है कि इस पर उनके द्वारा हस्ताक्षर किए गए थे। आवरण पेज में भारत के पूर्व राष्ट्रपति के हस्ताक्षर से युक्त यह अंक सभी ने बहुत पसंद किया।

'क्षितिज' का यह अंक मेरे संपादन एवं श्री अशोक शर्मा भारती के सह संपादन में 'श्रद्धांजलि अंक' के रूप में प्रस्तुत हुआ। श्रद्धांजलि खंड में स्वर्गीय पारस दासोत, स्वर्गीय सुरेश शर्मा एवं स्वर्गीय डॉ सतीश दुबे को श्रद्धांजलि देते हुए उनके चित्र परिचय के साथ उन पर एक आलेख और उनकी लघुकथाएं प्रस्तुत की गई थी। 

पारस दासोत मेरे दिल के सदैव बहुत नजदीक रहे। जब वह गंज बासौदा में रहते थे, तब सिर्फ उनसे मिलने के लिए गंज बासौदा जाकर पूरी एक रात उनकी कला वीथिका में और उनके संचयन से गुजरते हुए अभिभूत होकर गुजारी थी। इसके बाद जब वह जयपुर शिफ्ट हो गए थे, तब भी एक बार जयपुर में उनके निवास पर जाकर उनकी पूरी कला वीथिका, जो अप्रतिम रूप से महत्वपूर्ण संग्रह के साथ तैयार की गई है, एवं बहुत ही अच्छे तरीके से संयोजित की गई है, को देखने का मौका मिल गया। पारस दासोत जुनून से भरे हुए कलाकार थे। जब उन्होंने लघुकथाएं लिखना शुरू कीं तो ढेर सारे प्रयोगों के साथ लघुकथा संग्रह प्रस्तुत किए, जिनमें हस्तलिखित लघुकथा संग्रह भी रहे। आज भी उनके कुछ हस्तलिखित संग्रह मेरे संकलन में हैं। उन्होंने कोयला शिल्प पर काम किया। लकड़ी के शिल्प पर काम किया और नदियों के किनारे भटकते हुए विभिन्न स्वरूप वाले पत्थरों का सुंदर संग्रहण किया। उनके संकलन में शेर पर बैठी दुर्गा, गणेश के विभिन्न स्वरूप, शिव के विभिन्न स्वरूप तथा और भी कई तरह के आकार जो उनकी कुशल दृष्टि ने खोजें, वह मौजूद हैं। आजकल उस संग्रहालय की देखरेख उनके पुत्र कुलदीप दासोत कर रहे हैं। लोहे का बनाया हुआ वजन उठाता एक कुली आज भी गंज बासौदा के रेलवे स्टेशन पर खड़ा हुआ है। उन पर जो आलेख मैंने इसमें लिखा, वह मेरी भावभीनी श्रद्धांजलि के रूप में ही था।

स्वर्गीय सुरेश शर्मा क्षितिज के प्रारंभ से ही हमारे सक्रिय साथी के रूप में जुड़े रहे। बहुत ही सहज और सरल व्यक्तित्व वाले सुरेश जी पर सूर्यकांत नागर का एक लेख इसमें शामिल है। सुरेश जी अपनी सादगी के साथ सदैव नैतिक और मानवीय मूल्यों के पक्षधर रहे। उनका लेखन भी उनके जैसा ही सहज और सरल रहा। उनकी कहानियों की पात्रा 'शोभा' सदैव चर्चित रही। अपनी लघुकथाओं में वह अपने आसपास को बहुत ही बारीक निरीक्षण के साथ समेट देते थे। उनकी एक लघुकथा 'राजा नंगा है' बहुत चर्चित रही है। जब भी मिलते थे, तो बड़ा हंसकर बताते थे कि, देखो फलां व्यक्ति ने किस तरह से मेरा शोषण किया ।याने वह अपनी तकलीफ को भी हंसकर ही बयान करते थे।

डॉ सतीश दुबे मेरे लघुकथा गुरु रहे हैं। उनका चले जाना मेरे लिए बड़ी व्यक्तिगत क्षति के रूप में था। लघुकथा के लिए उनका समर्पण देखने योग्य था। उनके नौ लघुकथा संग्रह प्रकाशित हुए। जिस वर्ष उनका देहावसान हुआ उसके पहले मैं अपनी पत्नी के साथ उनसे मिलने गया था। जब हम लोग बैठे बातचीत कर रहे थे तो आदरणीय भाभी जी की ओर देखकर मुस्कुराते हुए वह बोले, 'सतीश भाई मेरा 55 प्रेम लघुकथाओं पर एक संग्रह आ रहा है, जो इनके लिए लिखा गया है और अगले वर्ष हम लोग मिलकर उसका लोकार्पण करेंगे।' पर प्रभु इच्छा कुछ और थी। उस लोकार्पण के पूर्व ही वह शरीर छोड़ गए। बाद में जब मैं आ. भाभी से मिला तो उन्होंने कहा, 'मुझे तो बिल्कुल खाली कर गए। वह थे तो मैं सब कामों में लगी रहती थी। उनका सब कुछ समेटती  रहती थी। अब क्या करूं?  मैं तो बिल्कुल खाली हो गई ।'

उनका यह दर्द हम सभी के लिए असहनीय  रहा। आज भी आ. भाभी का समर्पण और उनका मित्रों के प्रति स्नेह, बार-बार आंखों के सामने आता है।

उनके आंगन में अशोक का एक पेड़ था जो उन्हें बहुत प्रिय था और उनकी कथाओं में भी आया है। उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए मेरा आलेख 'चला गया साहित्य के आंगन का अशोक' इस अंक में शामिल है। वे सदैव यह कहते थे कि, 'मैं लिखता नहीं हूं, बल्कि अपने ही आसपास के जीवन, उससे जुड़े लोग, देखेभाले अप्रत्याशित अनुभव मुझे लिखने को मजबूर करते हैं। मैं चाहता हूं मेरा लेखन जीवन से जुड़ा हो। इसकी चमक जिंदगी के अनुभव से मिले तथा इसके केंद्र में मनुष्य हो, उसकी तमाम कमजोरियां, अच्छाई, विवेक, चालाकी, चतुरता तथा आदमी होने की पहचान हो।' उनके बेटे परेश का भी एक आलेख' मजबूत इच्छाशक्ति वाले पापाजी', इसमें शामिल हुआ, जो एक पुत्र की आंख से पिता को देखता है।

डॉ सतीश दुबे के रचनात्मक व्यक्तित्व पर डॉ उमेश महादोषी के एक आलेख के कुछ अंश भी इसमें शामिल हुए।

पत्रिका के दूसरे खंड में बलराम अग्रवाल का एक आलेख 'लघुकथा भाषा और अभिव्यक्ति' के साथ लघुकथा खंड में ढेर सारी लघुकथाएं और क्षितिज की गतिविधियों की रिपोर्ट तथा पुस्तक समीक्षाएं शामिल रहीं।

इस समय तक क्षितिज की टीम के बाहर पदस्थ साथी सेवानिवृत्त होकर इंदौर आ चुके थे । बहुत सारे नए साथी भी क्षितिज में जुड़ चुके थे। नियमित मासिक गतिविधियां जारी थीं, लेकिन एक बड़े आयोजन का सपना जो मेरी आंखों में वर्ष 2002 से पल रहा था, उसे क्रियान्वित करने का मौका वर्ष 2018 में प्राप्त हुआ।

क्षितिज में साथी अशोक शर्मा भारती, अंतरा करवडे, वसुधा गाडगिल, सुरेश बजाज, कुलदीप दासोत, अखिलेश शर्मा, सुभाष त्रिवेदी, अनंत श्रीमाली, बी एल आच्छा, ब्रजेश कानूनगो, दीपक गिरकर, राममूरत राही, राकेश शर्मा, ज्योति जैन, पदमा सिंह, उमेश नीमा, बालकृष्ण नीमा, संतोष सुपेकर, कांता राय, अरुण धूत, अनघा जोगलेकर, अश्विनी कुमार दुबे, बी आर रामटेके, दिलीप जैन, दौलत राम आवतानी, जितेंद्र गुप्ता, ज्योति जैन, किशन लाल शर्मा, किशोर बागरे, कविता वर्मा, लक्ष्मी नारायण राठौर, ललित समतानी, पुरुषोत्तम दुबे, प्रताप सिंह सोढ़ी, राजेंद्र पांडेय, रमेश चंद्र, सतीश शुक्ल, सूर्यकांत नागर, , कीर्ति राणा, रविन्द्र व्यास, विनीत शर्मा, विश्वबंधु नीमा, योगराज प्रभाकर, योगेंद्रनाथ शुक्ल  भरत भाई शाह, चरण सिंह अमी, नंदकिशोर बर्वे, नरेंद्र जैन, प्रदीप नवीन, गरिमा दुबे  आदि बहुत सारे साथी जुड़ चुके थे।

'क्षितिज' को इस वर्ष जून माह में पूरे 35 वर्ष पूर्ण हो रहे थे। इस प्रसंग पर यह योजना बनी कि 35 वर्ष की स्मृतियों को संजोकर एक स्मृति  स्वरूप पत्रिका 'क्षितिज सफर 35 वर्षों का' निकाली जाए, तथा एक अंक जो नियमित है, वह 2011 से 2017 के मध्य रची गई श्रेष्ठ लघुकथाओं के संकलन के रूप में निकाला जाए।

कार्य बहुत ही बड़ा था लेकिन संकल्प उससे भी बड़े थे। जब इसे योजनाबद्ध तरीके से करने का मन आगे बढ़ा तो फिर टीम में सक्रिय साथियों ने जी-जान लगा दी और आयोजन  सफलतापूर्वक संपन्न हुआ। इस आयोजन ने क्षितिज को एक मजबूत टीम प्रदान की जिसमें साथियों की कल्पनाशीलता सारे क्रिएशन में रंग भरती है। नाम अलग से लिखकर अन्य साथियों के सहयोग को छोटा नहीं करना चाहता; पर हां, एक बात का उल्लेख जरूर करूंगा। 'क्षितिज' को लेकर अंतरा करवड़े द्वारा बनाई गई आधा घंटे की फिल्म और नंदकिशोर बर्वे एवं टीम द्वारा लघुकथाओं का नाट्य मंचन इस आयोजन को हिमालय की ऊंचाई तक पहुंचाने में कामयाब रहा। अनघा जोगलेकर एवं किशोर बागरे के द्वारा बनाये गए लघुकथा पोस्टर बहुत सराहे गए। नेपथ्य में कई सारे साथियों ने नींव के पत्थर की तरह अलग रहकर पूरे कार्यक्रम को आकार दिया ।आयोजन में पधारे अतिथियों ने यह कहा कि आपने तो लघुकथा को लेकर आयोजन का हिमालय खड़ा कर दिया है।

वर्ष 2018 के जून माह के आयोजन में ही क्षितिज संस्था के द्वारा  लघुकथा के लिए स्थापित विभिन्न सम्मान प्रदान किए गए, जिसमें कथाकार बलराम, बलराम अग्रवाल, बीएल आच्छा, योगराज प्रभाकर, सतीशराज पुष्करणा, अशोक भाटिया, सुभाष नीरव, भागीरथ, कपिल शास्त्री, श्यामसुंदर दीप्ति, रविन्द्र व्यास, नंदकिशोर बर्वे, संदीप राशिनकर, कांता रॉय, किशोर बागरे, अनघा जोगलेकर आदि सम्मानित किए गए। इसी आयोजन प्रसंग में क्षितिज का 200 पृष्ठों का नियमित अंक भी  लोकार्पित हुआ। 

इस प्रसंग पर प्रकाशित 'क्षितिज सफर 35 वर्षों का' एक ऐतिहासिक दस्तावेज के रूप में सामने आई। 'क्षितिज' के इस सफर के समस्त महत्वपूर्ण साथियों के नाम इसमें शामिल थे। डॉक्टर पुरुषोत्तम दुबे ने  'क्षितिज' के इस सफ़र पर एक विस्तृत आलेख तैयार किया था, जो इस अंक में प्रकाशित है। 'क्षितिज' के द्वारा समकालीन हिंदी कविता पर और कहानी पर एक महत्वपूर्ण पुस्तिका 'अपने समय के बीच में' का भी वर्ष 2005 में प्रकाशन किया गया था, जिसका जिक्र इसमें शामिल है। 

डॉ पुरुषोत्तम दुबे का एक और आलेख 'इस दौर के लघुकथाकार : इंदौर के लघुकथाकार' इंदौर के लघुकथा लेखन के पूरे इतिहास को समझते हुए लिखा गया, जो इसमें शामिल हैं। स्त्री सृजन और लघुकथा विषय पर अंतरा करवड़े का लेख एवं वैश्विक लघुकथा के ऐतिहासिक और वर्तमान परिदृश्य में भारतीय लघुकथा की भूमिका विषय पर शामिल की गई परिचर्चा ने इसे और ऊंचाई प्रदान की। 'क्षितिज की यादों का गलियारा' के अंतर्गत, 'क्षितिज' के प्राचीन अंकों में से चयन कर निरंजन जमीदार, रामनारायण उपाध्याय ,शंकर पुणतांबेकर, सुरेश बजाज, चरण सिंह अमी, सुभाष त्रिवेदी, अनंत श्रीमाली, विक्रम सोनी, रमेश  अस्थिवर, डॉ श्याम सुंदर व्यास, नरेंद्र कौर छाबड़ा, चंद्रशेखर दुबे एवं गोविंद सेन की लघुकथाएं यहां पर शामिल की गईं। 'क्षितिज' के 35 वर्षों के सफर को यादों के झरोखे से भी प्रस्तुत किया गया जिसमें यादों की चित्रमय झलकियां प्रस्तुत की गई थीं। बहुत सारी हस्तियों के बहुत सारे पुराने समय के चित्र यहां पर यादों के रूप में प्रस्तुत हुए, जिन्होंने इसे उन सबके लिए भी संग्रह के योग्य बना दिया। पुरानी यादों के तकरीबन 82 चित्र एक फिल्म की तरह इसमें शामिल हुए और साथ में उस समय के समाचार पत्रों में प्रकाशित आयोजनों की 84 रिपोर्ट/समाचार/समीक्षा, एक कोलाज के रूप में इसमें शामिल हुईं । यह सब बड़ा ही अनूठा था।

'लघुकथा कलश' पर प्रताप सिंह सोढ़ी की समीक्षा; इसके अतिरिक्त अन्य पुस्तकों पर बृजेश कानूनगो, सुरेश उपाध्याय, अश्विनी कुमार दुबे, कविता वर्मा, सुरेश बजाज, वसुधा गाडगिल, सतीश राठी, ओम ठाकुर आदि के द्वारा प्रस्तुत समीक्षाएं, प्राप्त पुस्तकों और प्राप्त पत्रिकाओं की जानकारी, इसे संपूर्णता प्रदान कर गए। वर्ष  2018 क्षितिज के लिए अविस्मरणीय हो गया।

वर्ष 2018 की सुनहरी यादों के साथ 'क्षितिज' संस्था ने जब वर्ष 2019 में प्रवेश किया तो उनके कंधों की जवाबदारी भी और अधिक हो गई, क्योंकि जब आप किसी शिखर पर पहुंच जाते हैं तो उस पर बना रहना भी जरूरी होता है। क्योंकि 2018 के सम्मेलन में लघुकथा की गुणवत्ता की बात  हुई थी इसलिए 2019 का क्षितिज का अंक लघुकथा की सार्थकता की विवेचना पर केंद्रित किया गया और एक नए स्वरूप में अंक प्रस्तुत करने का निर्णय लिया गया। इस बार यह सूचना प्रदान की गई कि, आपने अपने इतने लंबे साहित्यिक/लेखकीय परिदृश्य में जितनी लघुकथाएं पढ़ी हैं, उनमें से जो आपको श्रेष्ठ लघुकथा लगी है, या जिसे आपने बहुत पसंद किया है, उस लघुकथा को उस पर आपके द्वारा लिखी गई एक विवेचना टिप्पणी के साथ प्रेषित करें। इसके पीछे का आशय यह था कि, लेखक स्वयं के मोह से बाहर निकले और अच्छे साहित्य को पहचानना भी सीखें। हालांकि कुछ लोगों ने मौके का फायदा उठाकर अपने मित्रों की रचनाएं भी भेजी, पर हमने भी सप्रयास उन्हें हटाने का काम किया और चयन से बाहर कर दिया, क्योंकि हम अपने उद्देश्य को पूर्ण करना चाहते थे।

'क्षितिज' के पृष्ठों की निरंतर बढ़ती जा रही थी और इस बार का यह अंक 208 पृष्ठों का निकला। मेरे संपादन में निकले इस अंक के सहयोगी संपादक अश्विनी कुमार दुबे एवं अशोक शर्मा भारती थे। कला सहयोग पूर्ववत कुलदीप दासोत के द्वारा प्रेषित स्वर्गीय पारस दासोत का एक चित्र था। भीतरी रेखांकन भी उन्हीं के थे। क्षितिज के इस अंक की की सामग्री इतनी अधिक महत्वपूर्ण थी कि उसे पुस्तक के रूप में निकालना भी जरूरी लगा और 'सार्थक लघुकथाएं' शीर्षक से उसका पुस्तक आकार में प्रकाशन भी हुआ। पुस्तक का आवरण इंदौर के प्रसिद्ध चित्रकार श्री संदीप राशिनकर के द्वारा बनाया गया। मेरे संपादन में इंदौर के 10 लघुकथाकारों की 110 लघुकथाओं का संग्रह 'शिखर पर बैठकर : शीर्षक से' प्रकाशित हुआ, जिसका खूबसूरत आवरण मनावर के विशाल वर्मा के द्वारा बनाया गया था, जो पहले भी क्षितिज संस्था के साथ जुड़े रहे थे। अंतरा करवड़े एवं वसुधा गाडगिल ने जहां मंच की व्यवस्थाओं को गंभीरता से संभाला वहीं क्षितिज के सक्रिय साथी श्री दीपक गिरकर, अशोक शर्मा भारती, उमेश नीमा, बालकृष्ण नीमा के द्वारा वर्ष 2019 के इस आयोजन को नेपथ्य में बहुत ही जिम्मेदारी के साथ संभाला गया है । ज्योति जैन, सीमा व्यास, चेतना भाटी, दीपा व्यास, विजया त्रिवेदी, निधि जैन आदि कई स्थानों पर सक्रिय सहयोगी भूमिका में रहे।

'क्षितिज' संस्था के द्वारा वर्ष 2018 से प्रदेश स्तर का एक समग्र सम्मान भी प्रारंभ किया गया था जो वर्ष 2018 में  उज्जैन के लघुकथाकार  संतोष सुपेकर को दिया गया था, एवं 2019 में भोपाल की लेखिका कांता राय को दिया गया था।

2019 में वार्षिक आयोजन जून माह से हटकर कुछ कारणवश नवंबर माह में शिफ्ट करना पड़ा।

24 नवंबर 2019 को किए गए इस एक दिवसीय आयोजन में श्री सुकेश साहनी को 'क्षितिज लघुकथा शिखर सम्मान', श्री माधव नागदा को 'क्षितिज लघुकथा समालोचना सम्मान' एवं श्री कुणाल शर्मा को 'क्षितिज लघुकथा नवलेखन सम्मान' दिया गया। इस वर्ष एक विशिष्ट सम्मान 'क्षितिज लघुकथा शिखर सेतु सम्मान' श्री श्याम सुंदर अग्रवाल को लघुकथा के लिए उनकी दीर्घकालीन सेवा के लिए प्रदान किया गया।

गत वर्ष के दो दिवसीय आयोजन के मुकाबले में, यह एक दिवसीय आयोजन तो जरूर था, लेकिन अपनी गुणवत्ता में बिल्कुल भी कम नहीं रहा।

लघुकथा विधा के लिए समर्पित 'क्षितिज' संस्था आज वर्ष 2022 में 39 वर्ष पूर्ण कर चुकी है और अब उसके ऊपर नियमित रूप से जिम्मेदारी पूर्ण आयोजन करने की जवाबदारी आ गई है। कोरोना महामारी के चलते वर्ष 2020 का समय केवल ऑनलाइन आयोजन के भरोसे निकला, लेकिन वर्ष 2021 में 'क्षितिज' संस्था के द्वारा 2 वर्ष का संयुक्त आयोजन किया गया जिसमें 2 वर्ष के सम्मान संयुक्त रूप से प्रदान किए गए। यह एक दिवसीय आयोजन पुराने आयोजन की तरह ही गरिमा पूर्ण आयोजन के रूप में सामने आया। कई सारी पुस्तकों के लोकार्पण के बीच 'क्षितिज' संस्था का 'संवादात्मक लघुकथा अंक' भी लोक-अर्पित किया गया। 'क्षितिज' का वर्ष 2022 का विशेष अंक लघुकथा समालोचना को कुछ नवीन तरीके से प्रस्तुत करने का विचार लेकर तैयारी पर है। संस्था के सचिव श्री दीपक गिरकर के द्वारा समूह पर उत्कृष्ट लघुकथाओं को प्रस्तुत करने का महत्वपूर्ण कार्य किया जा रहा है । इस वर्ष में जून 2022 तक कुछ महत्वपूर्ण कार्यक्रम आयोजित किए जा चुके हैं तथा कुछ आयोजन तैयारी पर हैं। प्रत्येक माह में कम से कम एक आयोजन करने का संस्था का विचार क्रियान्वित होता रहता है।

यहां पर एक विशेष बात अपने पाठकों को बताना चाहूंगा। क्षितिज से जुड़ने से कई नवांकुर रचनाकारों ने लघुकथा विधा को समझा, अपनी रचनाओं को परिष्कृत किया और ऐसे रचनाकारों ने लघुकथा विधा में अपने को स्थापित किया। खुशी की बात है कि 'क्षितिज' के सदस्यों के  'क्षितिज' के वरिष्ठ लघुकथाकारों के सहयोग तथा मार्गदर्शन से  लघुकथा-संग्रह  तक प्रकाशित हो चुके हैं। 'क्षितिज' के कई सदस्यों की लघुकथाओं का अनुवाद विविध भाषाओं में हो चुका है। 'क्षितिज' के कुछ सदस्यों की लघुकथाएं स्कूल और विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल हो चुकी हैं।

'क्षितिज' की   वर्तमान टीम जिसमें प्रमुख रूप से सक्रिय श्री दीपक गिरकर, अंतरा करवड़े, वसुधा गाडगिल, अश्विनी कुमार दुबे, पुरुषोत्तम दुबे, योगेंद्रनाथ शुक्ल, सूर्यकांत नागर, कांता राय, उमेश कुमार नीमा, राम मूरत राही, ललित समतानी, चरण सिंह अमी, ज्योति जैन, संतोष सुपेकर, दिलीप जैन, विनीता शर्मा, ब्रजेश कानूनगो, बालकृष्ण नीमा, नंदकिशोर बर्वे, दौलत राम आवतानी, राजनारायण बोहरे, कुलदीप दासोत,  सीमा व्यास, चेतना भाटी आदि लघुकथाकार हैं। समय-समय पर नवीन साथी सदस्यता ग्रहण करते जा रहे हैं और एक टीम के रूप में सभी लोग मजबूती से काम कर रहे हैं। नाम के लिए कोई भी नहीं भागता। सभी लोग काम करने को तत्पर रहते हैं। निश्चित रूप से अक्टूबर 2022 के आगामी आयोजन को यह टीम अधिक आत्मीय एवं खूबसूरत बनाएगी, ऐसा मेरा विश्वास है।


सतीश राठी

आर 451, महालक्ष्मी नगर,

इंदौर 452010

मोबाइल  : 94250 67204