Monday 22 July, 2024

लघुकथा कलश-12 / योगराज प्रभाकर (संपादक)

लघुकथा कलश (पंजाबी लघुकथा महाविशेषांक,  अंक 12, जुलाई-दिसम्बर 2023)


पंजाबी में 'मिन्नी कहानी' (लघुकथा) शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम अप्रैल-1970 में मासिक 'आरसी' (दिल्ली) में प्रकाशित प्रीतम सिंह पंछी की तीन लघुकथाओं के साथ किया गया था। यह खोज मैंने अपने शोधकार्य, 'पंजाबी मिन्नी कहानीः इतिहास एवं विषयगत अध्ययन' के दौरान वर्ष 1930 से 1970 तक के विभिन्न पंजाबी पत्र-पत्रिकाओं का अध्ययन करके की। 
- डॉ. हरप्रीत सिंह राणा

अजन्मा बच्चा / प्रीतम सिंह पंछी

अकाल ही अकाल। एक भयानक काली परछाई ने जैसलमेर के रेगिस्तान में जीवन लील गई थी। हीरा चौधरी अपने गाँव से दाना-पानी की तलाश में निकल पड़ा था। सब कुछ गँवाने के बाद उसके पास सिर्फ दो चीजें बची थीं - एक छोटी-सी पोटली और दूसरी उनकी बीमार पत्नी। लेकिन कुछ कोस का फासला तय करने के बाद वह भी बीच रास्एते दम तोड़ गई। हीरा में इतनी शक्ति नहीं था कि मुर्दे का बोझ ढोकर शहर पहुँच जाता। उसे वहीं छोड़कर अपनी अनजान मंज़िल की ओर बढ़ गया। कुछ दूर जाकर पगडंडी पर उसे एक बच्चा दिखाया दिया। वह लगभग दो वर्ष का होगा। वह कितनी देर वहाँ खड़ा हुआ इधर-उधर निगाह दौड़ाता रहा था कि शायद उसका कोई वारिस दिखाई दे जाए। पर कोई दिखाई नहीं दिया। बच्चा भूख से बिलख रहा था। अब दो अजनबियों की एक ही मंज़िल थी... दोनों लावारिस... एक नन्हा-सा बच्चा जिसकी आँखों में नवजीवन के उगते सूरज की चमक थी, और दूसरा एक बूढ़ा, जिसकी आँखों में डूबते हुए सूरज की रोशनी की उदासी थी। दोनों एक छोटे-से शहर में पहुँच गए। बच्चा भूख से रो रहा था। हीरा रो तो नहीं रहा था, किंतु उसकी आत्मा में कोई एक दबी हुई चीख़ ज़रूर सिसक रही थी।

वह बड़बड़ाया, “तू कितना मूर्ख है हीरा, जो किसी पराए की औलाद को कंधों पर ढोता फिर रहा है। तू भी बिल्कुल अपने बापू और दादा की तरह ही है, जो खुद भूखे पेट रहकर भी समाज का बोझ ढोते रहे, दूसरों का पेट पालते रहे... अरे मूर्ख इनसान ! ये समाज तो आपनों का बोझ नहीं ढोता। तू कहाँ का फ़रिश्ता बना घूम रहा है?" म्युनिसिपल पार्क में बैठा वह सोच रहा था। उसका दिल तेज़ी से धड़कने लगा था। अँधेरा होने से पहले वह किसी फ़ैसले पर पहुँच जाना चाहता था। अचानक उसके अंदर से हूक-सी उठी, "नहीं नहीं, मैं यह पाप नहीं करूँगा। मैं इस नन्ही जान को नहीं मारूँगा। भले मैं किसी और को क्यों न सौंपना पड़े।"

फिर वह एक जौहरी की दुकान के अंदर घुस गया और उसको पूछा, "बच्चा लोगे?"

"पर तुम बच्चे को क्यों रहे हो?"

"मैं गरीब आदमी हूँ। मैं इसे पाल नहीं सकता।"

"इस बच्चे की जाति और धर्म?"

"कोई नहीं, कोई नहीं,” कहते हुए हीरा उस दुकान से निकल गया। वह कई दुकानों के अंदर गया। सभी ने बच्चे की जाति पूछी, धर्म पूछा, पर मानव की जाति के बारे में किसी ने नहीं पूछा। 

अंततः उसने फ़ैसला कर लिया कि वह स्वयं उस बच्चे को पालेगा! किसी जाति या धर्म की गोद में देने की बजाय इस अजन्मे बच्चे को एक नया जन्म देगा। ('आरसी' अप्रैल-1970 से)

चौथी कापी / सतवंत कैंथ

दफ़्तर का काम निपटाकर उसने चिट्ठी की चार कॉपियाँ टाइप करके अपने बैग में रखीं।

एक कॉपी सामने से आ रहे दीपक को दी और घर की तरफ़ चल पड़ी।

इसी तरह एक कॉपी रास्ते में एक साइकल वाले को और एक कॉपी मोटरसाइकिल वाले नौजवान के हवाले कर, वह घर पहुँच गई।

चौबारे पर जाकर वह बैग से चौथी कॉपी निकालकर पढ़ने लगी--

मेरे प्यारे,

सिर्फ़ तुम ही हो, जो मेरी ज़िंदगी में आए हो। मैं गंगाजल की तरह पवित्र हूँ। आज तक किसी ने मुझे छुआ तक नहीं। बताओ! तुम मुझसे कितना प्यार करते हो?

तुम्हारी...

इसे पढ़कर वह खिलखिलाकर हँस पड़ी। सामने वाले पड़ोसी का बेटा प्रेम, खिड़की से स्नेहसिक्त दृष्टि उसे निहार रहा था।

वह गंभीरता से सोचने लगी, 'क्या ये कॉपी उसे न दे दूँ?' ('बर्फी दा टुकड़ा', 1972 से)

अंतर / सुरिंदर कैले

वह प्रतिदिन श्रद्धापूर्वक गुरुद्वारे जाने वाला गुरसिख था। चेहरे पर फुंसियाँ निकल आने के कारण डॉक्टर की सलाह पर उसे दाढ़ी कटवानी पड़ गई। जब वह गुरुद्वारे में माथा टेकने गया, तो दातुन कर रहे गुरुद्वारे के भाई जी ने आश्चर्यचकित होते हुए पूछा, “अरे खालसा जी! ये क्या किया आपने? क्या आपको नहीं पता हैं कि बाल काटना सिखों के लिए बहुत बड़ा पाप है?"

"अच्छा! तो क्या कोई भी सिख बाल नहीं काटता?"

"नहीं।"

"क्या आप भी नहीं काटते?'

“बिल्कुल नहीं।” भाई जी ने खुली दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए कहा।

उस गुरसिख ने भाई जी की बाँह पकड़कर ऊपर उठा दी और मुँड़ी हुई काँख की ओर इशारा करते हुए पूछा, "तो फिर ये क्या है?"

अब दातुन भाई जी की दाँतों में फँसी रह गई।                            (अणु, जुलाई-1972 से)

विद्रोही बादल / अमर यादव

इंद्र देवता ने बादलों के नेता को अपने कार्यालय में बुलाया और पूछा कि तुम भारत में वर्षा क्यों नहीं करते? "महाराज, मैं हर साल अपने साथियों के साथ वहाँ जाता हूँ। हम सब एक साथ गरजते हैं, लेकिन बरसते नहीं! "क्यों?"

"ऐसा करने वाला मैं अकेला नहीं हूँ, वहाँ के सभी नेता ऐसा ही करते हैं।”

"मैं कुछ समझा नहीं। ज़रा खुलकर बताओ।"

"भारत में जब भी चुनाव होते हैं तो नेता लोग मंच पर खड़े होकर भाषण देते हैं कि इस बार महँगाई को जड़ से मिटा देंगे, कोई बेरोज़गार नहीं रहेगा, ग़रीबी दूर होगी और समाजवाद आएगा।"

“फिर तो वहाँ के नेता बहुत अच्छे हैं।"

"नहीं महाराज, ऐसा कुछ नहीं है। वहाँ के नेता जब चुनाव जीतकर जब राजधानी में बड़ी-बड़ी कुर्सियों पर बैठ जाते हैं तो आँख मूँदकर अपने और अपने सगे-सम्बन्धियों के घर भरने में लग जाते हैं। इससे महँगाई बढ़ जाती है। बिना सिफ़ारिश के नौकरी नहीं मिलती। बाज़ार में हर चीज़ ब्लैक में मिलती है। समाजवाद का सपना देखने वाली भोली-भाली जनता को दो जून की रोटी भी नसीब नहीं होती।"

"जनता उन्हें कुछ नहीं कहती? उन्हें उनके वादे याद नहीं दिलाती ?"

"मुझे इसी बात पर आश्चर्य होता है कि लोग भगवान् की इच्छा मानकर इसे स्वीकार कर लेते हैं। नेताओं का यह हाल देखकर मैं भी बादलों के समूह के साथ वहाँ पहुँच गया। वहाँ पहुँचकर ऐसी गर्जना की कि पूरा आकाश गूँज उठा। लोग बहुत खुश हुए कि अब बारिश होगी, लेकिन हम भी कहाँ कम थे... बिना बरसे ही लौट आए।"

"लेकिन इससे तो जनता और भी परेशान हो जाएगी।"

"ये मैं भी जानता हूँ। परंतु मैं चाहता हूँ कि कठिनाई इतनी बढ़ जाए कि जनता की सहनशक्ति जवाब दे जाए। मुझे विश्वास है कि एक दिन यही लोग राजधानी की ओर कूच करेंगे, इन नेताओं के चेहरे से मुखौटे उखाड़ फेंकेंगे और समाजवाद आ जाएगा।"

यह सुनकर इंद्रदेव तपोभूमि भारत के कलियुग के बारे में और राजधानी दिल्ली और उसमें रहने वाले आधुनिक ऋषि-मुनियों के बारे में सोचते हुए बुदबुदाए, 'ओह, घोर कलयुग है।'                                      (तरकश 1973)

भिखारी / रेक्टर कथूरिया 

एक भिखारी अपने साथी को दिनभर की गतिविधियों के बारे में बताते हुए एक घटना सुनाई, “यार, आज जब मैं एक गली में जा रहा था तो मुझे एक बाबू आता हुआ दिखा। उसे देखकर मैं कुछ माँगने के लिए उसके पास गया। वह जो दो किलो आटा एक थैली में डालकर ले जा रहा था, उसमें से एक मुट्ठी निकालकर मेरी झोली में डाल दी..." और बोलते-बोलते भिखारी रुक गया  तारों से भरे आकाश की ओर देखने लगा। फिर उसने एक लंबी आह भरी और शेष बात पूरी की, “यार, मेरा दिल करता है कि मैं उस बाबू को पाँच-सात किलो आटा दे दूँ। उससे ज़्यादा आटा तो मेरे पास ही है। 

('अब जूझन का दाओं', 1975 से)                                                                          शेष आगामी अंक में...

Thursday 13 June, 2024

सुधा भार्गव की श्रमिक वर्ग पर केन्द्रित लघुकथाएँ

सुधा भार्गव

जानी-मानी साहित्यकार, कवयित्री और लघुकथा लेखिका हैं। इनके अलावा उन्होंने यात्रा वृत्तांत भी लिखे हैं और डायरी साहित्य भी। उनकी लघुकथाओं के 'वेदना संवेदना', 'टकराती रेत' और 'लालटेन' नाम से तीन संग्रह प्रकाश में आ चुके हैं। 

हौंसले बुलंद 

“अरे चची  ।तूने कुछ सुना ! लोग कह रहे हैं हमें जो राशन मुफ्त में मिल रहा है उसी से   देश भिखारी बन रहा है ।”

“हम मुफ्तखोर  भिखारी ही तो हैं । जहां भिखारी रहेंगे उस देश का बेड़ा  तो गरक ही समझो।”

"इसमें हमारा क्या दोष! हमारे मरद पढ़े - लिखे तो  है ना।वे तो मेहनत- मजदूरी ही कर सकें । जब से  करामाती मशीनें बनी हैं 10 मिनट का काम 2 मिनट में हो तो जाए पर  चाकरी  तो चली गई। अब सरकार को   हमारे पेट तो भरने  ही पड़ेंगे।चाहे नौकरी दे चाहे राशन दे।"

“सरकार के पास क्या  नौकरी का पेड़ लगा है ।जो तोड़-तोड़ कर दे दे।अब तो अपने  पेड़  ख़ुद लगाने पड़ेंगे।” 

“मरद तो लगा ही न पाये, हम औरतें की भला  क्या बिसात !” 

“ मर्दों के भरोसे रहने की आदत पड़ गई है ।घर में बैठे बिठाए सब चाहिए।अरे हम औरतें क्या किसी से कम है ।अपनी कीमत तो  समझें नाएं ।बस  तकदीर का ठीकरा फोड़ती रहवे हैं ।” 

“चची जान ऐसा बोल के  क़हर न ढा। बच्चा पालने में क्या कम मुसीबत  है।जान पर बन आय ।”

“लाडो  तेरे बच्चे तो  बड़े हो गये।अब तो कुछ कर सके। सारे दिन चोंच भिड़ाती रहे।” 

“मैं क्या कर सकूँ…!”सोच के बादलों से वह घिर गई।  

तभी चची की आवाज उसे  छेकती चली गई—-

“मैंने तो मन बना लिया ..पापड़ बनाऊंगी —-झोपड़ियां के आगे सूरज का ताप ही ताप।  एक ही दिन में सूख जाएंगे।देख लीजो——माघ मेले में फटाफट बिकेंगे । घर की बनी चीजों  की तरफ़ शहरी बाबू फिर से  लौट रहे हैं।”  

      चेहरों पर धूप आन  बैठी। गाँव में हलचल सी आ गई । ज़बान कम हाथ ज़्यादा चलने लगे। माघ मेला आया तो उसके लिए  एक टोली भी  निकल पड़ी।सभी के सिर पर   टोकरियाँ --किसी में   बैठी थी अचार की मटकियाँ तो   किसी में पापड़ और मंगोड़ियाँ ।प्रतीत होता  था,यह टोली उत्साह के  पंखों पर सवार अपनी तकदीर का कमल खिलाने चल पड़ी है।

पसीने की स्याही

कोलकाता के गरियाहाट बाजार में हाथ से रिक्शा खींचने वालों की लाइन लगी हुई थी । चिलचिलाती धूप से बचने के लिए    उनके सर अंगोछे से ढके हुये थे। लेकिन  निगाहें आने जाने वालों पर ही लगी हुई थी । इस उम्मीद में शायद कोई उनकी तरफ देख ले और बोहनी  हो जाए। 

एक मोटी औरत हाँफती हुई आई। पसीने की बूंदें उसे भिगोये हुई थीं।   वह एक रिक्शा वाले के सामने खड़ी हो गई। दो भारी-भारी बैग हाथों में लटके हुए थे जिनसे ढाकाई और तांत की बंगाली साड़ियाँ झांक  रही थीं। मरियल सी आवाज में पूछा -"मीरा पट्टी जाना है, कितना लोगे!"उस भारी -भरकम शरीर को देख रिक्शा चालक को गश सा आ गया पर दूसरे ही पल दूध की एक बूंद को तड़पता बच्चा उसकी आंखों के सामने आगे आ गया। थकी सी आवाज में बोला  - 

"लाओ, बैग रिक्शा में रख दूँ।  30 रुपये  दे देना।"

“30  तो बहुत हैं । 15  दूँगी।" 

रिक्शावाला चुप । 

"ठीक है- ठीक है !ना जा— !चार कदम पर तो   है ही !मैं पैदल  चली जाऊंगी।"आवाज तीखी थी ।  

चुप्पी घायल हो उठी ।  अवरुद्ध कंठ से बोली-" बैठो मां जी !पेट पर लात ना मारो!"

मीठे -कड़वे सौदे 

“कल तेरे घर खाना खाया था बड़ा लजीज था और सब्जियों का स्वाद तो  अभी तक जीभ पर रखा है।”

“हां शांतनु,सब्जियां बड़ी स्पेशल थी। ढाकुरिया रेलवे स्टेशन के पास  जो फुटपाथिया बाज़ार लगता  है,  वहां कुछ औरतें  ताजा सब्जियां बेचने  सवेरे से आन बैठती   हैं।  भई बड़ी   डिमांड है उन सब्ज़ियों की। चंद  घंटों में ही  वारे न्यारे ! वह भी बड़े सस्ते दाम पर ।”

“मैं तो  केशव वहाँ कभी नहीं गया !”

“तेरे घर के तो बहुत पास है।” 

“जिंदगी की भाग दौड़ में कहां जा पाता हूं।  पार्क में घूमने आ गया यह क्या कम है।” 

“तो चल …अभी ले चलता हूं । दो कदम पर ही है।  मैं भी कुछ सब्जियां ले लूंगा।”

इस सब्जी बाजार में वे एक ऐसी औरत की तरफ बढ़ गए जिसकी छाती से उसका दूधमुंहा बच्चा चिपका हुआ था।  लेकिन  औरत का सारा दिमाग ग्राहकों पर ही लगा हुआ था। 

“सब्जियां कैसी चमक रही हैं, चल, टमाटर लेते हैं।” केशव बोला। 

"ओ बाई, टमाटर किस भाव दिए।” 

“30 रुपए किलो ! एकदम टटका है !अभी खेत से तोड़कर लाई हूं।” 

“30---ये तो बहुत महंगे है। 15 रुपए किलो दे दे तो  5 किलो इकट्ठा ले लूं । मेरा  कुछ तो फायदा हो ! तेरा तो फायदा ही फायदा !एक साथ इतने बिक जायेंगे।” 

“बाबू बिकने की चिंता ना करो ग्राहकों की कमी ना है । यही टमाटर बड़ी-बड़ी दुकानों पर लेने जाओ तो 50 रुपए  किलो से कम ना मिलेंगे। एक पाई कम न हो। सारा मोलभाव हमारी किस्मत में ही  है क्या।  मेरे बच्चे पर तो तरस खाया होता।"   

“अरे देना है तो जल्दी कर।  ऑफिस भी जाना है।” केशव झुंझलाया। 

 शान्तनु अपने दोस्त की मोलभाव की कला  को देख अंदर ही अंदर कुढ़ रहा था। 

“अरे शान्तनु ,तू भी सब्ज़ी ले न । क्या सोच रहा है??”

करेलों की तरह इशारा करते शान्तनु बड़े शांत भाव से बोला - “दो किलो करेले  मुझे भी दे दो।"

“बाबू पहले से ही कह दे रही हूं यह तो 40 रुपए किलो है। एक पैसा कम ना करूंगी।” 

वह चुपचाप  उसकी बात सुनता रहा।  जेब से  100  का नोट देते हुए बोला-“ 80 रुपए तुम्हारे करेले के हुए और 20 तुम्हारे बच्चे के लिए।"

सब्ज़ी वाली के  चेहरे पर चाँदनी छिटक पड़ी । उल्लसित हो बोली -"बाबू ,तुम जैसे लोगों के  भरोसे   ही तो अपने पैरों पर खड़े होने की कोशिश कर रही हूँ। भगवान न करे कभी  कटोरा हाथ में  थामना  पड़े। "

आजाद देश की बेड़ियाँ 

कामकाज से  फारिख हो  दोपहर को पड़ोसन कावेरी के पास आन बैठीं।  सांत्वना देने वाली तो एक दो ही थीं। हाँ, जले पर नमक छिड़कने वालों की   कमी न  थी। 

एक बोली -“हाय रे! कैसा हट्टाकट्टा  जवान था इसका मर्द। सोचा भी ना था कि हाथ की मेहंदी फीकी पड़ने  से पहले ही वह इसे  छोड़कर  चला जाएगा।"

नहले पर दहला फेंकती दूसरी भी बोली-"उसे भी क्या सूझी! भरी बरसात में   स्टेशन पर भागे जा रहा था …वह भी सिर पर भारी भरकम अटैचियाँ लादे! नीचे पानी!ऊपर से पानी !  फिसल पड़ा बेचारा ! टूट गई रीढ़ की हड्डी! हाय री तकदीर !" 

“अरे चुप भी रहोगी!” एक वृद्धा गुस्साई।    कावेरी के सिर पर हाथ फेरती बोली -" बिटिया, ऐसे कब तक रो-रोकर जी हलकान करेगी ।”

स्नेह का छींटा पड़ते ही वह बबककर रो पड़ी।उसके घुटने का सहारा लेती बोली -"मुझे कोई ठौर न सूझ रहा अम्मा!"  

"अरी  तू तो  भागवान है ! मर्द के मरने के बाद उसकी जगह तुझे ही तो मिलेगी ।" 

"आग लगे ऐसी नौकरी को । सूली पर चढ़ा दे पर कुली की नौकरी  न करूंगी।" 

"अरे काहे  इतनी आग बबूला हो रही है!" 

"कुली कहकर बाबू लोग हमारी कितनी बेइज़्ज़ती करे हैं। हम क्या जन्मजात कुली हैं। कातिल तो चले गए पर कुली कहने को अपनी औलाद छोड़ गये।” 

“किन क़ातिलों की बात करे है।”

"अरे वही कमबख्त ! अंग्रेज़ कौम! जो  मेरे गाँव  वालों को नौकरी का लालच देकर जहाज में भेड़ बकरियों की तरह भर कर ले गए। भूखे पेट माल ढोते -ढोते उनकी कमर टूट जाती।

दवादारू के नाम पर उन्हें सीधा समुद्र में फेंक देते।

ए माँ ऐसो धोखा ! एक पड़ोसन सकते में आ गई। 

हाँ, उनकी नज़र में तो वे कीड़े - मकोड़े से ज़्यादा कुछ न थे। सत्यानाश हो  ऐसे फरेबियों का ।

"भूल जा बीती बातों को!अब तो हम आजाद हैं।" 

"हय! कौन से आजाद देश की बात कर रही है  --अब बाहर वाले न सही अपने ही  खून चूस रहे हैं । हमारी  इच्छा का कोई मोल है !"

"क्या बात करे है। तू अपनी इच्छा  से कहीं भी जा,कुछ भी खा !किसने रोका!"

"हा---- हा ---मैं कहीं भी जा सकती हूँ !कुछ भी खा -पी सकती हूँ !सुना तुम सबने! हा--- हा --।  वह विक्षिप्त सी हो उठी। कातरता से बोली --पर अंटी में पैसा कहाँ ! बोल--तेरे  पास है --तेरे पास है --। नहीं ना—।" वह बदहवास सी  औरतों की तरफ  हाथ फेंकने  लगी। बड़ी मुश्किल से उसे शांत किया।  

"हूँ ,मजदूरी तो  बहुत कम मिले है।"  दुख से बोझिल आवाजें गूंजीं। 

"मालूम है कम क्यों मिले है!"

सब कावेरी का  मुंह ताकने लगे। 

"जिससे  हम   दुनिया के साथ न बढ़ पाएँ । आगे बढ़ गए तो पैसे वालों को  कौन  हिंडोले में झुलाएगा! कहने की बात है सबका साथ सबका विकास !"

आहत मन लिए औरतें   तितर -बितर हो गईं। 

सुलगती सांसें  

सार्वजनिक खुले शौचालय के आगे नागिन सी लाइन लगी  थी। उसके खतम होते ही वही भंगिन !अरे जिसका नाम था बेला टी--दनदनाती  अंदर घुस गई। सारा शौचालय गीला --!गनीमत कि फिसल न गई। बदबूदार भबका उठा तो बेचारी ने नाक पर कपड़ा डाल लिया।अपनी ड्यूटी तो  हर हालत में उसे पूरी  करनी थी, सो  मन मसोसकर आगे बढ़ना पड़ा।  । 

अपने कपड़ों को समेटती लोहे के टुकड़े से  कोनों का  पाखाना खुरचने लगी। जब- तब टट्टी उसके नाखूनों में भी भर जाती । उसे कहाँ परवाह!रोजाना की बात !इसकी तो उसे आदत पड़ गई थी। कैंची से हाथ चलाते हुए मैला उठाकर टोकरी में भरने लगी।  कमर की टेक पर टोकरी को उठाया और  ट्रक में डालने चल दी। पर यह क्या! ट्रक तो उस दिन आया ही नहीं था!

"हे भगवान !अब तो टोकरी को सिर पर उठाना होगा। दूर बहुत दूर घूरे पर फेंकने कैसे जाऊँगी!" आँखें गीली हो आईं।किसी तरह पैरों को घसीटती  रास्ता पार किया। 

टोकरी खाली करके वह गुजर ही रही थी कि एक महिला से  छूते- छूते बच गई। महिला घुर्रा पड़ी -"अरी आँख की अंधी ! परे हट  !उफ  बदबू !बदबू! "

एक -एक  शब्द उसके कानों में गरम शीशा उड़ेलने लगे। तड़पती  बोली -"ए माई, हमें क्या  पाखाना उठाने का शौक है !हमें भी  बदबू आवे!  नखरा तो ऐसा मार रही है जैसे तेरे  मैला  में इत्र की खुशबू आती हो।"

"बढ़-बढ़ के ना बोल!अब तो फ्लश सिस्टम चल पड़ा है मुखिया उसे ही लगवाने की बात कर रहे हैं। "

"कितने ही  सिस्टम लगवा ले चौधराइन, तेरे सिस्टम को हमारे सिस्टम की जरूरत तो पड़ेगी! वरना भूल जाएगी …. चमचमाती चूड़ियाँ और अंगूठियाँ पहनना ।"

निशाना चूक गया 

“सुना है सामने बड़ी सी बिल्डिंग बन रही है। उसमें कम से कम 500 फ्लैट है। तब तो हमें बहुत काम मिल जाएगा।”

“ज्यादा खुश होने की जरूरत नहीं पट्टू । यह शहर है शहर। यहां शौचालय   नहीं…रेस्ट रूम होता है। आराम से वहाँ गाने सुनो ,मोबाइल पर बात करो । अखबार पढ़ो और ..साथ में….. ही  ..ही ।”वह जोर  जोर से हंसने लगा। 

“वाक्य तो पूरा कर । बंद कर अपनी ही.. ही ।” 

“ शुशु -पॉटी।”

“उसे उठाने के लिए तो हमारी जरूरत पड़ेगी।” 

“ना-ना  !यह तो पुरानी  बात हो गई ।अब तो  बटन दबाते ही पानी की धार शुरू— सुसु पॉटी एकदम गायब ।”

“यह पॉटी कोई जादू की  है क्या।” 

“ यही समझ ले।” 

“ये रेस्टरूम तो हमारी नौकरी छीन लेंगे।” 

“छीन लें हमारी बला से। नौकरी की क्या कमी है!”

“हमें कौन  नौकरी देगा रे कांछी !देखते ही तो लोग नाक भौं सकोड़ने लगें ।”

“चल मैं तुझे नौकरी दिलवाता हूँ।पानी की मारामारी होने से कुँओं  की सफाई- खुदाई शुरू हो गई है।मज़दूर तो चाहिए ही। मैंने भी अपना नाम लिखवा दिया है। सुपरवाईजर बहुत दयावान है । तुझे भी  ले लेगा।” 

उस दिन काम जोरों पर  था ।सुपरवाइजर की निगरानी में खुदाई हो रही थी।तभी मंदिर से पुजारी निकल कर आए ।काली पीली आंखों करते दहाड़े -“अरे यह मंदिर का कुआं है। लड़कों  तुम्हारी जात कौन सी है?”

पट्टू -काँछी सहम गए। उन्हें   पीछे करते हुए सुपरवाइजर आगे आया । बोला ,”पंडित जी ,हमारी  इनकी  जात तो एक है।”

“क्या कहा! फिर से तो कहना !”पंडित जी ने आँखें तरेरीं।

“मैं और तुम  भारतवासी  ! ये दोनों भी भारत के रहनेवाले !फिर तो भारतीय ही  कहलाएगे। हुई न एक ही जात पंडित जी..!”सुपरवाइजर की आँखों में व्यंग्य मिश्रित हास्य झलकने लगा।

पंडित जी ने जनेऊ पर हाथ रखा और राम-राम कहते हुए मंदिर की ओर उल्टे पांव लौट पड़े।

----0000---

Wednesday 29 May, 2024

आ ज च मिश्र लघुकथा प्रतियोगिता-2024 विजेता लघुकथाएं

आचार्य जगदीश चंद्र मिश्र 

आचार्य जगदीश चंद्र मिश्र लघुकथा सम्मान समिति

लघुकथा के जनक आचार्य जगदीश चन्द्र मिश्र का जन्म 20 जनवरी सन् 1900 को देवबंद (सहारनपुर) में हुआ था। मिश्र जी मूलतः कथाकार हैं; उन्होंने विविध विधाओं में लगभग चालीस पुस्तकें लिखीं। मिश्र जी की 'बूढ़ा व्यापारी' (सन् 1919-20) लघुकथा की गणना पहली लघुकथा के रूप में होती है। 'धूपदीप', 'मौत की खोज' और जय-पराजय' मिश्र जी के कहानी एवं लघुकथा संग्रह हैं। 'मिट्टी के आदमी' लघुकथा-संग्रह व्यंग्यात्मक लघुकथाओं का संग्रह है। 'पंचतत्व' में भावात्मक, सामाजिक, ऐतिहासिक लघुकथाएँ, लघु-लोककथाएँ तथा लघु-बोधकथाएँ संग्रहित हैं। मिश्र जी की अनेक लघुकथाएं विषय की दृष्टि से आज भी प्रासंगिक हैं। लघुकथा तथा बोधकथा के क्षेत्र में मिश्र जी का बहुमूल्य योगदान है। आचार्य जगदीश चंद्र मिश्र लघुकथा सम्मान समिति की स्थापना सन् 2022 में हुई। गत दो वर्ष से इस समिति द्वारा लघुकथा प्रतियोगिता का आयोजन किया जा रहा है। इस समिति का उद्देश्य लघुकथा के क्षेत्र में नवलघुकथाकारों को मंच प्रदान करना है। इसकी संस्थापक डॉ. ऋचा शर्मा हैं।

परिणाम-2024
इस लघुकथा प्रतियोगिता (2024) के परिणाम घोषित करते हुए हमें अत्यंत हर्ष का अनुभव हो रहा है। पूरे देश से लघुकथाकारों ने बहुत उत्साह से अपनी उत्कृष्ट लघुकथाएं हमें भेजीं। इस बहुमूल्य सहयोग के लिए हम आपके हृदय से आभारी हैं। हम आपका हार्दिक अभिनंदन करते हैं एवं आपकी साहित्यिक उन्नति की कामना के साथ उत्तरोत्तर उत्कर्ष की शुभकामनाएँ प्रदान करते हैं।

प्रथम पुरस्कार अर्चना राय - मदर... टू प्वाइंट ओ

द्वितीय पुरस्कार - सविता मिश्रा 'अक्षजा' - सौतन

तृतीय पुरस्कार अब्दुल समद राही - चंदा 

  ऋता शेखर 'मधु' - उजली किरण

प्रोत्साहन पुरस्कार -

• अंजना बाजपेई - लाइक्स एंड कमेंट

• सुरेश बरनवाल - एहसान

• पुष्पा कुमारी 'पुष्प' - सुझाव

• मधु जैन - संतप्त मन

• राम करन - मेड़

पुरस्कार राशि-

* प्रथम पुरस्कार ₹2000/-

• द्वितीय पुरस्कार ₹1000/-

• तृतीय पुरस्कार ₹700/-

• प्रोत्साहन पुरस्कार - ₹500/-

संयोजक -- डॉ. ऋचा शर्मा,

प्रो. एवं अध्यक्ष - हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर (महाराष्ट्र)

संयोजक - लघुकथा शोध केंद्र, अहमदनगर, महाराष्ट्र।

मो.-9370288414

प्रस्तुत हैं लघुकथाएं

• मदर...टू प्वाइंट ओ / अर्चना राय

सप्ताह में कम- से-कम चार बार फोन करने वाली माँ का काफी दिनों से फोन नहीं आने पर हाल-चाल जानने आखिरकार विदेश में बसे बेटे ने माँ को फोन लगा ही लिया। 

"हैलो माँ।"

"हाँ, बेटा।" माँ की आवाज में एक खनक थी। सुनकर उसे झटका-सा लगा। पहले जब भी माँ से बात करता उनकी आवाज में दु:ख और उदासी साफ महसूस होती थी। 

"आपकी तबियत तो ठीक है न?"

"मैं तो बहुत अच्छी हूँ। तू कैसा है? " सुनकर उसे दोबारा झटका लगा। पहले तो उसके पूछने से पहले ही अपनी शिकायतों का पिटारा खोल कर बैठ जातीं थीं। जो फोन रखने तक खत्म ही नहीं होता था।आज उसका हालचाल पूछ रहीं थीं। 

"क्या बात है माँ, आजकल आप फोन ही नहीं करती?"

"अरे क्या बताऊँ ये 'दीनू' है न! ये मुझे एक मिनट भी फुर्सत रहने दे, तभी न करूँ। कभी माॅं, नाश्ते का समय हो गया... माँ, सोने का समय हो गया... माँ, वाॅक पर जाना है.... तो कभी दवा लेकर खिलाने मेरे आगे-पीछे घूमता रहता है।"

"माँ, ये द...दीनू कौन है?"

"अरे! वही तेरा भेजा रोबोट... मैंने उसका नाम दीनू रखा है। अच्छा है न?  तेरे बचपन का नाम रखा है।"

"हूँ।"

"बेटा तूने इस रोबोट का चेहरा और आवाज अपनी तरह बनाकर बहुत ही अच्छा किया है। कभी-कभी तो मैं भूल ही जाती हूँ कि ये तू नहीं बल्कि एक रोबोट है।"

"अच्छा माँ! मुझे आपसे कुछ बात करनी है।"

"हाँ, बोल।"

"आपको तो पता है कि राधिका की डिलेवरी डेट आने वाली है। तो मैं चाहता हूँ आप यहाँ आ जाओ।"

"बेटा, मेरा आना तो संभव नहीं है।"

"क्यों? आप तो कब से यहाँ आना चाहतीं थी। और अब आप मना कर रही हैं?"

"हाँ! मैं आना चाहती थी। क्योंकि मैं अकेली थी, और बेटे के साथ रहना चाहती थी। पर अब नहीं, क्योंकि अब दीनू मेरा बेटा मेरे पास है। उसके साथ मैं बहुत खुश हूँ।"

"माँ! ... आप ये क्या बोल रहीं हैं?"

"बेटा मैं तो नहीं आ सकती हूँ, पर तेरे लिए  एक सलाह जरूर देती हूँ। "

"क्या?"

"जिस तरह तूने अपने जैसा हू-ब-हू दिखने वाला रोबोट बनाया है। वैसे ही अपनी माँ की तरह दिखने वाला रोबोट बना ले। जो माँ वाली जरूरत पूरी कर दे....अच्छा! मैं फोन रखती हूँ। मेरी वाॅक का टाइम हो गया है। मेरा बेटा दीनू मुझे बुला रहा है।"

कहकर उन्होंने फोन काट दिया। -0-

• सौतन / सविता मिश्रा ‘अक्षजा’


“ये क्या, फिर गीली तौलिया बिस्तर पर?”

“कितनी बार कहा है, मेरा काम मत बढ़ाया करो। कॉलेज को लेट हो जाती हूँ। केमिस्ट्री की टीचर हूँ, प्रिंसिपल नहीं कि दिन-प्रतिदिन देर से जाऊँ।” 

पति अपने कान का प्रयोग भलीभाँति इसी समय तो करता था।

जब उधर से कोई उत्तर नहीं आया तो पत्नी धड़धड़ाती हुई ड्राइंगरूम में उसके पास पहुँच गयी, “यह क्या, तुम निक्कर में बैठे हो?”

“अरे यार, घर में ही तो हूँ।” मोबाइल में आँखें गड़ाए हुए ही बोला।

“तो क्या हुआ, कपड़े पहनकर घर में नहीं रहा जा सकता क्या?”

“दिखावा बाहर वालों के लिए होता है, घर में थोड़ी।”

प्रतिदिन ही घर का ऐसा ही वातावरण होता था। तथापि ऑफिस जाना, फिर लौटकर आना और महराजिन द्वारा बनाया भोजन ग्रहण कर बिस्तर पर अपने-अपने साइड पर मोबाइल लेकर चिपक जाना। 

“मोबाइल में ही लगे रहोगे?” बिस्तर पर लेटते हुए आज फिर पत्नी ने कहा था।

“हाँ, बताओ? कुछ बात है...? ...वैसे आज तुम कोई चुटीली पोस्ट नहीं लिख रही हो क्या?”

पत्नी ने मोबाइल उठाया परन्तु तत्क्षण रखकर बोली, “सुनो...!”

“सोशल मीडिया पर हर जगह अपडेट कर रहा हूँ, तुम बताओ, मेरे कान खुले हैं। ...अच्छा, आओ आज, मुस्कराते हुए तुम्हारे साथ ली सेल्फी डालूँ मैं।”

सेल्फी लेने के बाद पति के मोबाइल में आँख गड़ाये पत्नी बोली, “इस तरह से कब गले लगकर या फिर हाथ पकड़कर साथ में बैठे थे हम दोनों?” 

अकेलेपन की पीड़ा को अनसुनी करके पति ने कहा, “अरे पगली, दिखावा बाहर वालों के लिए होना चाहिए, आपस में दिखावे की क्या आवश्यकता...”

बोलते हुए स्माइली और लॉफिंग-लविंग का स्टीकर डालता रहा, लोगों के कमेंट्स और पोस्टों पर।

“मोबाइल न हुआ सौतन हो गया।” पत्नी भुनभुनाई। उसे अनसुना करके सभी साइट पर अपडेट होते ही मोबाइल अपने सीने के पास रख पति ऊँघने लगा। तत्क्षण ही पलँग का दाहिना साइड खर्राटों से गुंजायमान हो उठा और बायाँ साइड सिसकियों से। -0-

• चंदा / अब्दुल समद राही 

चमचमाती कार से उतरते ही नटखट बन्टू ने अपने पापा सेठ धनराज से कहा- ‘‘पापा आप इस निर्माणाधीन बिल्डिग को अक्सर देखने आते हैं और अच्छा चन्दा भी दे जाते हैं। यह सब क्या है पापा ?"      

     ‘‘आप तो कभी किसी को कुछ भी नहीं देते, फिर यहाँ खुलकर.......।" बन्टू ने फिर कहा।   

पापा ने कहा, ‘‘अरे बेटा यह वृद्धाश्रम बन रहा है, यहाँ सभी वृद्ध लोग रहेंगे। खूब भक्ति कर अपनी दिनचर्या व्यक्त करेंगें।"      

     ‘‘बिल्डिंग पूरी होते ही तेरी दादी को भी तो यहीं आना है।‘‘ पापा ने फिर कहा।        

     ‘‘ठीक है पापा, आपके चन्दे से यह बिल्डिंग तो बन जाएगी। मुझे इसको बनाने में चन्दा नहीं देना पड़ेगा।" बन्टू ने आँखे मटकाते हुए कहा।   

      पापा उस मासूम का मुँह देखते रह गये।-0-

• उजली किरण / ऋता शेखर मधु


अपार्टमेंट में वह एक महीना पहले आयी थी। आज रविवार को मॉर्निंग वॉक में साथ हो ली।

टहलते हुए मैंने सिर्फ यह पूछा, "तुम्हारी ससुराल कहाँ है ?"  

"आंटी, मेरी ससुराल इसी शहर में है। पूरे आठ लोगों का परिवार है। वहाँ सब लोग सुबह 5 बजे से उठकर घर के काम में लग जाते हैं। सुबह-सुबह उठना मुझको पसन्द नहीं था। वैसे उठकर मुझे कोई काम नहीं करना होता था। सब-कुछ सासू माँ ही संभालती थीं। सुबह की चाय भी वही बनातीं। मैं ससुर, पति और देवर को चाय पहुँचा देती। मुझे शाम की आठ कप चाय बनानी होती थी। बाकी कुक, मेड सभी को सास ही मैनेज करती थीं।"

बीच में वह साँस लेने के लिए रुकी तो मैंने दूसरा सवाल कर दिया, "और यहाँ अकेला परिवार कैसा लग रहा?"

वह फिर से शुरू हो गयी--

"इस अपार्टमेंट में आने से पहले ही मैंने कुक और मेड को ठीक कर लिया था। हम दोनों को सुबह 9 बजे से ही कम्पनी का काम करना होता है। यहाँ सो नहीं पाती क्योंकि सुबह से ही मेड और कुक को देखना होता है। सुबह-सुबह डस्टबिन बाहर करना होता है। काम के चक्कर में पति को तो चाय दे देती हूँ किन्तु मैं खुद नहीं पी पाती। मेड के पीछे लगकर काम करवाना, कुक को सारा सामान जुटाकर देने में मेरा सब समय ही निकल जाता है। अब मैंने सबको हटा दिया है और खुद ही काम करती हूँ। आराम से रहना और सोना...यह सपना बनकर रह गया। ससुराल में थी तो कई पेंटिग्स भी बनाई, यहाँ महीने भर में एक भी नहीं!" कहती हुई वह ठहाका मारकर हँस पड़ी।

"तो आगे क्या सोचा तुमने, ससुराल वापस जाना है ?" बस टोह लेने के लिए पूछा।

"दुविधा में हूँ। यहाँ कोई टोकने वाला नहीं फिर भी बंधन है। उधर थोड़ा बंधन है किंतु आज़ादी भी है।" 

उसकी बात सुनकर मुझे सचमुच उस पर दया आ गयी। इन गुमराह बच्चों को सही मार्गदर्शन की आवश्यकता थी।

"तुमने पतंग को उड़ते देखा है न। जब तक वह धागे से बंधी रहती है, निर्बाध ऊँचाई पाती है। धागे से आज़ाद पतंग को कभी उड़ते देखा है तुमने ?" मैंने बस कोशिश की कि उसे समझा सकूँ।

वह अचानक मेरे गले लग गयी।

"कभी किसी ने इतने अच्छे से समझाया नहीं आंटी। मैं अभी जाकर सासू माँ को फोन करती हूँ।"

तब तक सुबह की पहली किरण फूट चुकी थी और उस किरण से उसका चेहरा प्रदीप्त हो गया था।-0-

लाइक्स एंड कमेंट / अंजना बाजपेई               

छोटे शहर से महानगर में बस चुका होनहार बेटा अक्सर तरक्की और उपलब्धियों की खबरों से  फेसबुक और सोशल मीडिया पर चर्चा में रहा करता ।

       शिकायत दूर करने के लिए पिताजी को एक महंगा वाला फोन मिला था जिससे वो भी अक्सर फेसबुक पर बेटे की फोटो और सफलता की सूचना देख कर खुश हो जाया करते । मां-बाप अपना सारा प्यार और आशीर्वाद लाइक और कमेंट के रूप में उंड़ेल दिया करते ।

    सफलता और व्यस्तता के बीच बातचीत का समय नहीं था इसलिए ऑफिस, बिजनेस और परिवार के लिए अलग-अलग फोन और व्हाट्सएप नंबर थे जिससे एक-दूसरे में डिस्टरबेंस ना हो ।

    इस वर्ष यंग अचीवर अवार्ड कार्यक्रम में भाग लेने के लिए बेटा दस दिन की विदेश यात्रा से वापस आने से पहले अपनी अवार्ड वाली फोटो व न्यूज़ फेसबुक और इंस्टाग्राम पर पोस्ट कर चुका था। पर उसे हैरानी तब हुई जब इंडिया पहुंचने तक भी पिताजी का कोई कमेंट नहीं आया। 

   अब यूं ही उसने घर वाला व्हाट्सएप  नंबर खोला तो हाथ कांप गए। पाँच दिन पहले मां की मृत्यु की सूचना और दूसरे दिन मां की फोटो पर माला चढ़ी दिखाई दी। लिखा था--तुम्हारे सारे नंबर बंद है इसलिए मैसेज किया ।

   कांपते हाथों से सबको सूचना देने के लिए उसने वहीं पर मां की यही फोटो पोस्ट कर दी । आज हजारों फेसबुक फ्रेंड्स के संदेश आए, पर सबसे पहले लाइक और कमेंट वाली जगह खाली पड़ी थी ।  -0-

एहसान / सुरेश बरनवाल 

भीख मांगकर और कचरे में से रोटियां बीनकर लाने के बाद वह जब अपने मोहल्ले में पहुंचती तो अपनी झुग्गी के सामने वाले नाले में मुंह मारते कुत्ते को दो रोटी डाल देती थी। कुत्ता पूंछ हिलाने लगता था।

शहर में अमीर बहुत थे और वे कचरे में रोटियां फेंक ही दिया करते थे। भीख कम मिलने पर भी उसके परिवार को यूं भूखा नहीं सोना पड़ता था।

पर एक दिन उसे न भीख मिली न कचरे में रोटियां। उसके पहले दिन भी मिली रोटियां उसके परिवार के लिए पूरी नहीं पड़ी थीं। दोपहर चढ़े जब वह झुग्गी पहुंची तो खाली हाथ थी। कुत्ता उसे देख पूंछ हिलाता रह गया। वह अपने दोनों छोटे बच्चों को बहलाती झुग्गी के कच्चे फर्श पर लेट गई। छोटे वाला उसके पेट पर लेट कर उसका मुंह तकने लगा था। उसने उसे थपकी देकर सुलाना चाहा पर बच्चा भी भूखा था सो जागता रहा। कुछ देर बाद झुग्गी के फूस के दरवाजे पर किसी की आहट हुई।

उसने देखा कुत्ता भीतर आ रहा है।

आज कुत्ते के मुंह में कुछ रोटियां थीं।

सुझाव / पुष्पा कुमारी 'पुष्प'


“मामला क्या है?”

न्याय की कुर्सी पर बैठे जज साहब ने सामने कटघरे में खड़ी लगभग 80 वर्ष की वृद्ध महिला के वकील से सवाल किया लेकिन अदालत के नियमों से अनभिज्ञ वह वृद्ध महिला बीच में ही बोल पड़ी...

“जज साहब, मेरा एक बेटा है और एक बेटी है लेकिन दोनों में से कोई मुझे अपने साथ रखकर मेरी सेवा करने को तैयार नहीं हैं !”

“आप क्या चाहती हैं?”

“मैं उन दोनों को अपनी संपत्ति में कोई हिस्सा नहीं देना चाहती।”

“फिलहाल आप रहती किसके साथ है॔?”

“जी, मैं अपने खुद के मकान में रहती हूंँ!”

“और आपके बच्चे कहां रहते हैं?”

“साहब मेरे दोनों बच्चें विदेश में जॉब करते हैं और वहीं रहते हैं। वहां उनका अपना परिवार है उनके भी बच्चे हैं।”

“फिर उन्हें आपकी संपत्ति क्यों चाहिए?”

“वे कहते हैं कि उन दोनों का अपने पिता की संपत्ति में हिस्सा है।”

“आपके पति कहां है?”

“जी 2 वर्ष हुए, गुजर गए!”

“आप अकेले रहती हैं?”

“हां जज साहब, मैं अकेली ही रहती हूंँ!”

“आपका ध्यान कौन रखता है?” उस बुजुर्ग महिला की उम्र देखते हुए जज साहब ने सवाल किया।n⁷

“मेरा एक नौकर है गोपाल! मैं उसी पर आश्रित हूंँ; वही मेरा ध्यान रखता है।”

“कहां रहता है गोपाल?”

“बचपन से हमारे साथ ही रहा है; हमारे घर में!”

“उसका अपना कोई घर नहीं है?”

“नहीं जज साहब, अनाथ है बेचारा! हमेशा से हमारे ऊपर ही आश्रित रहा है।”

“लेकिन अभी-अभी तो आपने कहा कि आप गोपाल पर आश्रित है! और अब आप कह रही हैं कि गोपाल आपके ऊपर आश्रित है! आखिर कौन किसके ऊपर आश्रित है इस बात को आप जरा स्पष्ट कीजिए।”

“हम दोनों एक दूसरे पर आश्रित हैं जज साहब!”

“तो फिर आप दोनों एक-दूसरे का सहारा क्यों नहीं बन जाते?”

“मैं कुछ समझी नहीं?”

“आप अपनी संपत्ति का कुछ हिस्सा गोपाल को दे दीजिए। इससे वह आपसे अपनी सेवा का फल पाकर उत्साह और पूरे मन से जीवन भर आपकी सेवा करेगा! बाकी आपके मरने के बाद तो आपकी संपत्ति आपके नालायक बच्चों को ही मिलनी है!”

जज साहब की बात सुनकर वह वृद्ध महिला सोच में पड़ गई। यह देखकर जज साहब मुस्कुराए...

“आप चिंता मत कीजिए! यह मेरा फैसला नहीं बल्कि एक सुझाव था!”-0-

• संतप्त मन / मधु जैन

"क्या सोच रही हो शांता? जरा जल्दी-जल्दी हाथ चला, देख कितना काम पड़ा है।" 

शांता को चुप देख एक बार फिर कमला मज़ाक में बोली "लगता है तू भी अपने मुन्ने का बर्थडे मेमसाब के बेटे जैसा मनाने की तो नहीं सोच रही।"

शांता की आँखों में पानी भर आया और वह बोली "क्या जीजी ? जन्मदिन तो बहुत दूर की बात, मैं तो उसे पेट पर खिला भी नहीं पा रही हूँ। आज भी उसे भूखा छोड़ कर आई हूँ।"

"क्या हुआ ? कल तू गुप्ता मेमसाब से एडवांस तो लेकर आई थी।"

"हाँ लाई तो थी किंतु वह बनिया खोली का किराया ले गया।"

"ओह, तेरे पास राशन कार्ड भी नहीं है।"

उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कमला ने कहा "एक काम कर, मेमसाब ने हमें खाना तो दे ही दिया है तू यह ले जा और मुन्ने को खिला दे।"

 "लेकिन जीजी इतना सारा काम..."

"अरे! तू जा, मैं सब देख लूंगी।" 

शांता ने आकाश की ओर उड़ते पंक्षियों को देखा, "काश मेरे भी पंख होते।" और लंबे-लंबे डग भरते हुए घर की ओर चल पड़ी। घर पहुँचते ही मुन्ने को कागज चबाते हुए देख क्रोध और बेबसी से उसकी आँखे भर आयीं। मुन्ने को डांटते हुए मुँह से कागज निकालने लगी। मुन्ना ने रोते हुए कहा "माँ इस कागज में रोटी बनी थी।" -0-

•  मेड़ / राम करन 

मेड़ पर बैठे बच्चालाल अपने धान के खेत देख रहे थे - 

'बादलों के धोखा देने पर भी फसल लहलहा उठी। अपने बोरिंग और पम्पिंग सेट की मेहरबानी..... खेत कितना अच्छा लगता है ।' 

बगल के खेत में पड़ोसी के धान भी थे। पर पानी न मिलने से लगता था कि इस बार फसल खराब हो जायेगी।

'अच्छी बात है,'

बच्चालाल सोचने लगे, 

'और आए लड़ने....अब पता चलेगा .....जब खाने को नहीं रहेगा तो फिर लड़ना भूल जाएगा ....जब देखो कूद कर चला आता है .....भला बच्चों के झगड़े पर भी लड़ा जाता है?'

"बेवकूफ,"

बच्चालाल के मुँह से अनायास ही निकल गया.....

'फिर भी है तो पड़ोसी ही। अगर एक बार पानी पा जाता तो खेत लहलहा उठता ....।'

'एक बार कहता तो क्या चला नही देता ....बड़ा स्वाभिमानी बनता है ...

अबकी बार स्वाभिमान की मिट्टी न पलीद हुई तो ........बच्चे भूख से बिलखेंगे तब आयेगा औकात पर।'

बच्चा लाल को अपने बचपन के दिन याद आ गए ....झगड़ों की पुरानी परंपरा है उनके यहां। बहुत बार झगड़ा और मेल - मिलाप हुआ है ....

ऐसे भी दिन थे जब बच्चा के दादा पड़ोसी के दादा से चावल मांगने गए थे ......।'

बच्चालाल को अभी भी याद है ....दादा कह रहे थे बाल - बच्चों की बात है वरना कभी किसी के सामने हाथ नही फैलाता।

'अब उसके बच्चे भी.....'

धान की बाली को हाथ में लेकर कुछ देर वो यूं ही बैठे रहे। देर तक उसे देखते रहे...

फिर अचानक उठ कर पंपिंग सेट चालू कर मेड़ तोड़ दिए। पड़ोसी के खेत में पानी छलछला कर जाने लगा। धान के पौधे पानी पाकर सीधे होने लगे।-0-

Tuesday 28 May, 2024

बड़ी कथाएँ : अभिव्यंजना में डूबती-उतराती लघुकथाएँ

डाॅ. बलराम अग्रवाल हिंदी लघुकथा के क्षेत्र में एक जाना-पहचाना नाम हैं। आपका सद्यः प्रकाशित लघुकथा संग्रह ‘बड़ी लघुकथाएँ’ है। इस संग्रह में कुल 65 लघुकथाएँ हैं। इन सभी लघुकथाओं के अंत में नीचे सर्जना की तिथि एवं काल भी अंकित है। इस संग्रह की समस्त लघुकथाएँ 12/12/2020 से 02/02/2024 कालखंड के मध्य रची गई हैं। मात्र एक लघुकथा ‘उसका जाना’ ऐसी है जिसमें 03/07/2015 तिथि अंकित है। पिता-पुत्र और गधे की कहानी उर्फ 21वीं सदी का प्रबुद्ध पंचतंत्र, 44. खारा पानी और 63.कुशल प्रभारी ऐसी लघुकथाएँ हैं जिनमें लघुकथाओं के काल एवं रचनातिथि का उल्लेख नहीं है। साथ ही 41. ‘सुरंग में लड़कियाँ’ एक ऐसी लघुकथा है जिसका रचनाकाल 01/08/2021से 13/12/2023 है अर्थात इस लघुकथा को पूर्ण होने में 2 साल 4 माह और 13 दिन लगे। यह इस बात का परिचायक है कि लघुकथा भले ही आकार में लघु हो लेकिन उसका सृजन आसान नहीं होता। जिस भाव एवं विचार को लेखक पाठकों तक पहुँचाना चाहता है या जिस संवेदनात्मक तनाव से वह गुजर रहा होता है ,उसको जिस रूप में वह अभिव्यक्त करना चाहता है और नहीं कर पाता है तो वह तब तक उसके अंदर आलोड़ित होता रहता है , जब तक वह पूर्णरूपेण पक नहीं जाता और बाहर आने के लिए पूरी तरह तैयार नहीं हो जाता।

इस कृति की एक अन्य महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसमें प्राक्कथन के स्थान पर एक लेख – ‘लघुकथा: सृजन और चुनौतियाँ’ को स्थान दिया गया है। इससे सुधी पाठक एवं आलोचक दोनों को इस बात को समझने में मदद मिल सकेगी कि किस भावभूमि पर इस संग्रह की लघुकथाएँ आधृत हैं और इन लघुकथाओं के सृजन के लिए किन चुनौतियों का सामना किया है। डाॅ बलराम अग्रवाल जी का मानना है कि ‘समकालीन लघुकथा के संदर्भ में सृजन और विचार के द्वंद्व से विकसित ‘एप्रोच’ नयी रचनाशीलता को जन्म दे रही है।’ और यह नयी रचनाशीलता ‘बड़ी कथाएँ’ में स्पष्टतः परिलक्षित हो रही है।

इस संग्रह की पहली लघुकथा है ‘तलाश’ जो कोरोना महामारी और उसके कारण उत्पन्न वीभत्स और भयावह स्थिति को व्याख्यायित करती है। उस समय अनेक लोग ऐसे थे जो असमय काल-कवलित हो गए और उन्हें सम्मानजनक अंतिम संस्कार भी नसीब नहीं हुआ। कितने ही लोग ऐसे थे जिनको ऐसे ही नदियों में प्रवाहित कर दिया गया। कुत्ते और जंगली जानवर उन्हें नोचते-खसोटते दिखाई देते थे। सरकार और प्रशासन को जिस तरह से अपने कर्त्तव्य का निर्वहन करना चाहिए था, वह नहीं किया। लघुकथा स्पष्ट करती है कि ” इन दिनों वह अक्सर ही ,ठहर-ठहर कर बहती ,गाँव किनारे की गंगा में जा उतरतीं। उसमें तैरते शवों को दोनों हाथों से दाएँ-बाएँ हटाकर बीचोंबीच पहुँच डुबकी लगातीं। कुछेक पल नीचे रहकर परेशान-सी ऊपर आतीं। तैरते शवों के बीच रास्ता बनाती हुई उस पार जा निकलतीं।” यह ,वे दृश्य हैं जिनकी चर्चा उस समय टीवी और अख़बारों में आम थी। कहानी की अम्मा जी कहती हैं “मसल नहीं रही, सरकार को ढूँढ रही हूँ। उसका कोई रेशा ,काश मेरी हथेली पर महसूस हो जाए।” “पता नहीं, पानी में जा डूबी है, पता नहीं मिट्टी में मिल गई है।” सरकार के नकारा और निकम्मेपन को उजागर करने का यह तरीका डाॅ बलराम अग्रवाल जी जैसे मँजे हुए कथाकार का ही हो सकता है।

संग्रह की कहानी ‘तीसरा आदमी’ लाॅकडाउन के समय शहरों से अपने-अपने गाँवों की ओर पलायन करते लोगों की पीड़ा को उकेरा गया है। यह जानते हुए कि यदि गाँव-घर में काम होता तो रोज़गार की तलाश में शहर क्यों आते। जिसको जो साधन मिला ,उसीसे लोग गाँव की तरफ निकल पड़े थे। कुछ ऐसे भी थे, जो हज़ारों किलोमीटर की यात्रा बूढ़े और बच्चों के साथ पैदल ही तय करने के लिए मजबूर थे। चूँकि अब गाँव में पहले जैसा खेती-बाड़ी का काम नहीं रहा। मशीनीकरण के प्रभाव से समस्या बढ़ी है। किंतु लेखक ने कहानी का समापन बड़े रोचक अंदाज में करते हुए उसे जनसंख्या नियंत्रण से जोड़ दिया है। समाज का एक वर्ग ऐसा है जो बच्चों के जन्म को ऊपर वाले से जोड़कर देखता है। लेखक ने लिखा है “ऊपर वाले के निजाम में दखल देने का हक किसी भी इंसान को नहीं दिया जा सकता।”

पुरानी पीढ़ी के लोग नई पीढ़ी को संस्कारित करने और उनका मार्गदर्शन करने के प्रयास में लगे रहते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि ये कम्प्यूटर युग के बच्चे हैं। इनके पास वह एक्सपोजर है जिससे हर तरह के ज्ञान और जानकारी के रास्ते उपलब्ध हैं। ‘तलाश’ लघुकथा एक ऐसी ही बात की तरफ संकेत करती है। आदिका अपने दादू से पूछती तो है कि वह कागज पर स्केच की मदद से क्या बनाए , पर सोचती है वह दादू से कई कदम आगे की बात। इसीलिए वह कहती है- “दादू ,देखो- मैं पेड़ बनाऊँगी। पेड़ पर फूल आएँगे। फूल पर तितली आएँगी।” यह न केवल लेखक के युगबोध को दर्शाता है अपितु नई पीढ़ी की तरफ से एक आश्वस्तिकारक संकेत भी है कि वह भी पर्यावरण को लेकर उतनी सजग है जितना कि पुरानी पीढ़ी के लोग।

नई तकनीक और अंतर्जाल के यदि कुछ फायदे हैं तो नुकसान भी हैं। अनेक सोशलमीडिया प्लेटफॉर्म से ऐसे-ऐसे लोग जुड़े होते हैं जो अपनी उम्र का भी लिहाज नहीं करते और महिलाओं से अभद्र और अश्लील बातें करते हैं। कुछ महिलाएँ भी ऐसी होती हैं जो पुरुषों के साथ बेटी या बहन का रिश्ता न रखकर उन्मुक्त उड़ान भरना चाहती हैं। ‘नदी से नेह’ एक ऐसी लघुकथा है जिसमें लेखक ने लिखा है “अंतर्जाल पर सभी मछलियाँ बहन-बेटी कहलाना पसंद नहीं करतीं। जिनकी आँखों में यह जैसी रुचि देखता है, उनके लिए बेहिचक नदी में कूद पड़ता है।” लेखक ने आगे स्पष्ट किया है कि “यही तो। एक्वेरियम में उतार लेने का मजा अलग है, नदी में कूद पड़ने का अलग। नदी से मन-आत्मा-देह सब तृप्त हो जाती है, एक्वेरियम से क्या!” जिस सांकेतिक तरीके से डाॅ बलराम अग्रवाल जी ने अपनी बात को पाठकों से सामने रखा है,वह काबिलेतारीफ है।

उपनाम या तखल्लुस रखने की परंपरा साहित्य के क्षेत्र में बहुत पुरानी है। उपनाम रखने से व्यक्ति के अंदर लेखन कौशल विकसित हो जाता है या यह लेखन के क्षेत्र में पहचान बनाने का कोई टोटका है। यह बात समझ से परे है। लेखक ने इसी पर कटाक्ष करते हुए ‘मनोहर से बातचीत’ लघुकथा लिखी है। लेखक ने पात्रों के बातचीत के क्रम में दिलीप कुमार जिनका असली नाम यूसुफ था और गुलज़ार साहब का जिक्र किया है जिनका वास्तविक नाम संपूर्ण सिंह कालरा है। हिंदी में लिखने वाले उर्दू शब्द को तखल्लुस के रूप में प्रयोग करते हैं और उर्दू में लिखने वाले हिंदी के शब्द को जबकि इसकी कोई आवश्यकता नहीं होती है। एक नाम जो घर के बड़े -बुजुर्गों ने रखा है ,उसको प्रयोग करते हुए किसी भी क्षेत्र में सफलता प्राप्त की जा सकती है।

समझौतावादी और पलायनवादी प्रवृति मनुष्य के लिए सदैव घातक होती है। विशेषतः तब ,जब आप किसी मुसीबत में होते हैं और दूसरा व्यक्ति आपकी मदद करना चाहता है। वह आपकी मदद करने के लिए कदम भी उठाता है और आप अपना पैर पीछे खींच लेते हैं। ‘मुर्दे बतियाते हैं’ एक ऐसी लघुकथा है जिसमें बस में एक व्यक्ति महिला से छेड़खानी करता है एक व्यक्ति जो उसकी नापाक हरकतों को देख रहा था, जब वह उसका विरोध करता है तो वह दुष्कर्मी बोलता है “जब उसे तकलीफ नहीं है तो तुझे क्यों मिर्ची लग रही है? मैंने कहा- वह विरोध नहीं कर पा रही, इसका मतलब यह नहीं है कि उसे तकलीफ नहीं है। वह बोला- तू एक बार इससे कहला दे कि इसे मुझसे तकलीफ है। इतने में कोई बस स्टाॅप आ गया और अपना न होते हुए भी लड़की तेजी से वहीं उतर गई। ” इस तरह की स्थितियाँ न केवल व्यक्ति को असहज करती हैं वरन कई बार खतरे का सबब भी बन जाती हैं।

कई बार हम संबंधों की वास्तविकता को समझने में असफल हो जाते हैं। हम अपने रिश्तों को अपने आस-पास घट रही घटनाओं या कहानियों की कथावस्तु के आधार मूल्यांकित करने का प्रयास करते हैं। ‘बालकनी में धूप’ एक ऐसी लघुकथा है जो दो भाइयों के संबंधों की अंतरंगता को आलोकित करती है। बड़ा भाई जो माँ के साथ एक ऐसे घर में रहता है ,जहाँ धूप की समस्या है। माँ को विटामिन डी की कमी के कारण धूप की जरूरत है और बड़े भाई को मूत्ररोग के कारण बार-बार कपड़े धोकर सुखाने पड़ते हैं पर घर में धूप तो आती ही नहीं है। छोटे भाई ने नया चार कमरों का एक फ्लैट खरीदा है जिसके दो तरफ बालकनी है। आधा दिन एक बालकनी में धूप रहती है और आधा दिन दूसरी बालकनी में। जब खुश होकर छोटा भाई, बड़े भाई को यह बात बताता है तो उन्हें लगता है कि छोटा भाई जलाने आया है। परंतु स्थिति इसके बिल्कुल उल्ट थी। दोनों मियाँ- बीवी बड़े भाई और माँ को अपने साथ ले जाने के लिए आए थे। “अपने और माता जी के चरणों से उसे पवित्र कीजिए।

हमारे साथ, वहीं रहिए- सुधा राजेश।” बड़ा मार्मिक अंत है लघुकथा का ,जो हमें यह सोचने के लिए विवश करता है कि अभी भी समाज में ऐसे लोग हैं जो रिश्तों को अहमियत देते हैं।

कुछ विषय ऐसे होते हैं जिन पर लिखने से प्रायः साहित्यकार बचते रहते हैं लेकिन डाॅ बलराम अग्रवाल जी एक ऐसे साहित्यकार हैं जो समाज के लिए जरूरी सभी मुद्दों पर बेबाक तरीके से लिखते हैं। इसका एक नमूना इस संग्रह की लघुकथा ‘विलाप’ है। इससे पूर्व लेखक की कृति ‘काले दिन’ के अध्ययन के क्रम में भी मैंने इस बात को महसूस किया था। यह सामाजिक सरोकार का गुण प्रत्येक कवि या लेखक में नहीं होता। लघुकथा ‘विलाप’ का एक संवाद द्रष्टव्य है- ” कुछ खास नहीं, “लेकिन दादा बताया करते थे कि वह हिंदू थे और …।” “यानी जिस तख्त को तुम अपने परदादा का बता रहे हो, वह असलियत में उनके परदादा का था।”

दहेज प्रथा एक बहुत पुरानी सामाजिक बुराई है। इस मुद्दे पर बहुत कुछ लिखा भी गया है। परंतु जब डाॅ बलराम अग्रवाल जी ने इस मुद्दे पर अपनी लेखनी चलाई तो पूर्णतः नवीनता के साथ। ‘लालची लोमड़’ एक ऐसी ही लघुकथा है। बात भले ही दो दोस्तों के मध्य मजाक के रूप में की गई थी परंतु यह हास-परिहास समाज की परतों को उघाड़कर कुत्सित सच्चाई को लाने में सफल रहा है।

देश क्या है? एक नागरिक की दृष्टि में देश की क्या महत्ता है? इस बात को बड़े अनोखे अंदाज में लेखक ने उठाया है। निश्चित रूप से वे लोग जो आए दिन तरह-तरह की अफवाहें फैलाकर समाज के ताने-बाने को छिन्न-भिन्न करते रहते हैं, वे देश के दुश्मन से कम नहीं। कारण ,स्पष्ट है हम अपने शत्रुओं से तो सावधान रहते हैं, उनकी हरकतों पर भी ध्यान रखते हैं पर जो आस्तीन के साँप बने बैठे हैं उनकी हरकतों को नजरअंदाज करते रहते हैं। आज लोगों के अंदर देश के प्रति वह भाव नहीं रहा ,जो देश की आजादी के समय लोगों के अंदर हुआ करता था। इसीलिए लेखक को कहना पड़ा है, “किस देश के ? मासूमियत से पूछा उसने, फिर कहा,” देश तो वह था,जिसकी आजादी के लिए लड़े थे सब मिलकर।” “देश” लघुकथा का यह संवाद यह दर्शाने के लिए पर्याप्त है कि आज लोगों के अंदर वह देश-प्रेम का भाव नहीं रहा जो स्वाधीनता संग्राम के समय हुआ करता था।

आज भी समाज में ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो अपनी कठिनाई को भूलकर दूसरों की मदद को हमेशा तत्पर रहते हैं। “अति सूधो..” लघुकथा में लघुकथाकार ने एक ऐसे ही बालक का चित्रण किया है जो अपने पिता जी मृत्यु के पश्चात घर का भरण-पोषण करने के लिए गुब्बारे बेचता है और अपनी छोटी बहन जैसी एक बच्ची को गुब्बारा देता है और अपनी माँ को हिसाब देते समय उससे झूठ बोलता है। जब उस छोटी बच्ची की माँ मदन को गुब्बारे देने से रोकती है और कहती है “तुम भी तो मोल के ही लाते होगे न!” तो गुब्बारे बेचने वाले मदन ने उस बच्ची की माँ से कहा- ” कोई बात नहीं आंटी, मदन उससे बोला, “दरअसल इतनी ही छोटी मेरी भी एक बहन है।उसे कभी कुछ दे नहीं पाता हूँ, इसलिए….” किसी की मदद करने या उसके प्रति अपनापन जताने के लिए आर्थिक दृष्टि से व्यक्ति का सम्पन्न होना जरूरी नहीं होता,अपितु मदन की तरह उसको बड़े दिल वाला होना चाहिए।

भले ही हम इक्कीसवीं सदी में जी रहे हैं और थोड़ा-बहुत पढ़ लिख भी गए हैं पर अभी तक संस्कारित नहीं हो पाए हैं। राह चलते महिलाओं और लड़कियों के साथ छेड़खानी आम बात है। ” मानस जात” एक ऐसी लघुकथा है जिसमें एक पति-पत्नी रोजाना सुबह सैर पर निकलते हैं। पति अपनी पत्नी की रक्षा के लिए सैर पर जाते समय एक दो फुट लंबा शीशम का डंडा लेकर जाते हैं और इसका कारण पूछने पर कहते हैं- “पत्नी के लिए नहीं, आवारा जानवरों को उससे दूर रखने, उन्हें डराने-धमकाने के लिए!” आगे वे कहते हैं “तुम्हें सिर्फ चार पैर वालों में जानवर नजर आता है! बहुत अफसोस की बात है?” यह आज के तथाकथित शिक्षित समाज की एक कड़वी सच्चाई है।

समग्रतः दृष्टिपात करने से स्पष्ट होता है कि ‘बड़ी कथाएँ’ की प्रत्येक लघुकथा न केवल हमें जागरूक और प्रेरित करती है अपितु अपने कथ्य की मारकता से मन में बेचैनी का भाव पैदा करती है। यह बेचैनी का भाव केवल मुट्ठी भींचकर चुप रहने वाला नहीं है वरन कथाओं के अपने प्रतीकों, बिम्बों और भाषा के मुहावरे के साथ लड़ने के नए हथियार निर्मित करता है। प्रायः इस संग्रह की लघुकथाओं में ब्यौरों भरमार नहीं है। प्रत्येक विचार और बिंब, संवेदनात्मक तनाव से उद्देश्य तक पहुँचता है। कृति की लघुकथाओं की भाषा सहज-सरल और बोधगम्य है। किसी भी भाषा की शब्दावली को लेकर कोई पूर्वाग्रह नहीं है। केवल संप्रेषणीयता को आधार बनाकर ही शब्दावली का प्रयोग किया गया है। इस संग्रहणीय और पठनीय कृति के प्रणयन के लिए आदरणीय डाॅ बलराम अग्रवाल जी को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ! आप इसी तरह हिंदी साहित्य की श्रीवृद्धि करते रहें।

समीक्ष्य कृति: बड़ी कथाएँ ( लघुकथा संग्रह); कथाकार : डाॅ बलराम अग्रवाल; प्रकाशक: विजय गोयल, इंग्लिश-हिंदी पब्लिशर, दिल्ली-32; संस्करण : प्रथम, फरवरी , 2024; मूल्य: ₹ 150/- (पेपरबैक); ISBN : 978-93-84453-01-5


समीक्षक,
डाॅ बिपिन पाण्डेय / मोबाइल : +91 94129 56529

Wednesday 22 May, 2024

पाठक के लिए प्रेरणास्रोत दो आलोचना पुस्तकें / डॉ. सुरेश वशिष्ठ

डॉ. सुरेश वशिष्ठ वरिष्ठ साहित्यकार हैं। कहानी, लघु-कहानी, लघुकथा, नाटक, नुक्कड़ नाटक, एकांकी, आलोचना आदि साहित्य की अनेक विधाओं में लेखन किया है। उनसे आज यह समीक्षात्मक आलेख मिला है जिसे उनकी अनुमति के बिना मैं ‘जनगाथा’ और लघुकथा-साहित्य के पाठकों के समक्ष रख रहा हूँ।

पिछले दिनों लघुकथा विमर्श पर दो पुस्तकें प्राप्त हुई। एक पुस्तक नेतराम भारती द्वारा संपादित--'लघुकथा चिंतन और चुनौतियाँ' है। इस पुस्तक में 25 लघुकथा लेखको से विचार विमर्श किया गया है। लेखक लघुकथा को लेकर क्या सोचते हैं, इस पर साक्षात्कार के रूप में चर्चा हुई है। 
दूसरी पुस्तक 'उत्कृष्ट लघुकथा विमर्श' दीपक गिरकर द्वारा संपादित है। इसके खंड-एक में 26 लघुकथा लेखको से आलेख प्रस्तुत हुए हैं। दोनों पुस्तकों में जिन रचनाकारों के विचार साझा हुए, करीबन वही लोग दोनों तरफ हैं। खंड-दो में कुछ अच्छी लघुकथाएँ हैं। दोनों पुस्तकें लघुकथा के इतिहास, मानक अथवा उसकी स्थिति को लेकर महत्वपूर्ण पुस्तकें हैं। दोनों पुस्तकों में करीब-करीब उन्हीं लोगों के विचार साझा हुए हैं। आलेख के माध्यम से या साक्षात्कार के रूप में, लघुकथा के मापदंड प्रस्तुत हुए हैं। अच्छा होता यदि यहाँ विद्वान समीक्षक भी अपने विचार साझा करते। लघुकथा लेखक से अलग लोग, इस विधा पर मापदंड तय करें तो बेहतर है। 

खैर ! सर्वप्रथम 'लघुकथा क्या है?' इस पर दृष्टि डालते हैं। नेतराम भारती द्वारा संपादित पुस्तक में, डॉ. अशोक भाटिया का कहना है--"कथा परिवार की सबसे छोटी इकाई लघुकथा है। सबसे बड़ी इकाई उपन्यास, फिर कहानी और फिर लघुकथा और यह विशुद्ध भारतीय परंपरा की देन है। इस विद्या ने परंपरा से आकार लिया है और समय के दबाव से समकालीन यथार्थ को अभिव्यक्त करने की प्रेरणा पाई है।" डॉ. अशोक भाटिया ने कालदोष पर भी अपने विचार रखे हैं। उन्होंने इसे हवाई बीमारी कहा है और कालदोष को सिरे से नकारा है। स्पष्ट किया है कि किसी भी विधा की रचना को समय सीमा में नहीं बाँधा जा सकता। कालखंड पर उमेश महदोषी भी यह मानते हैं कि अब इस मुद्दे को समाप्त मान लेना चाहिए क्योंकि विभिन्न कालखंडों को समाहित कर अनेक लघुकथाएँ लिखी जा चुकी हैं। उनकी नजर में--'जीवन से जुड़ी समस्याओं, विसंगतियों और अनुभूतियों पर केन्द्रित आलोचनात्मक और संवेदनात्मक प्रकृति की तीव्र वैचारिक एवं भावनात्मक संवेग वाली कथात्मक रचनाएँ लघुकथा की श्रेणी में आती हैं।'

      अंतरा करवड़े की नजर में प्रत्येक लेखक की अपनी क्षमता अनुसार सामने आने वाली एक बार की सोच, घटना के प्रति उसकी दृष्टि, उसी कालावधि में सामने आते संदर्भ और इन सभी के ताने-बाने लेकर बुनी गई एक रचना लघुकथा है। डॉ. कमल चोपड़ा का मानना है--'लघुकथा अपने आप में एक संपूर्ण कला है। सृजनात्मक कथा साहित्य में लघुकथा एक ऐसा कथा प्रकार है, जिसमें धनीभूत अनुभूतियों की प्रकृति और अभिव्यक्ति सार्थक रूप से पूर्णतया संभव है। दूसरे शब्दों में कहें तो लघुकथा जीवन के यथार्थ खंड, प्रश्न, विचार या अनुभूति को गहराई और गहनता के साथ व्यंजित करने वाली कथा-विधा है। कांत राय लघुकथा को बंद कली के सदृश मानती हैं। बंद कली से उनका आशय कथ्य के संप्रेषण के लिए प्रयोग की गई सांकेतिक भाषा से है। जिस प्रकार बंद कली में पंखुड़ियाँ एक दूसरे में लिपटी और गुँथी हुई रहती है, उसी तरह से लघुकथा में भी अंतर्द्वंद्वों के माध्यम से कथ्य गुंथा हुआ होना चाहिए। डॉ कुमारसंभव जोशी लघुकथा की सर्वमान्य एवं संपूर्ण परिभाषा देने में स्वयं को सामर्थ्यवान नहीं मानते लेकिन संक्षेप में अपनी बात रखते हैं--'सामाजिक विसंगति को तिक्ष्णता से उठाते हुए कथातत्व की अनिवार्यता के साथ, अत्यल्प व आवश्यक शब्दों में कही गई, सुउद्देश्य एवं सुस्पष्ट सम्प्रेषित रचना लघुकथा कही जा सकती है। डॉ. खेमकरण सोमन का कहना है--'लघुकथा ओस की बूँदों के समान है। लघुकथा फूलों की तरह है। लघुकथा तारों के समान है। लघुकथा नदी या कहूँ कि समुद्र की तरह है, जो अपने भीतर बहुत कुछ समाए बैठी है। लघुकथा मनुष्य की आँखों की तरह है जिसे मनुष्य ने कभी छोटा नहीं कहा। परन्तु इन आँखों ने क्या-क्या सच नहीं दिया। कहने का आशय यह कि सारा खेल छोटे होने का नहीं, क्षमताओं का है। जैसे बूँद, फूल, तारे, नदी, समुद्र और आँखें। ये शब्द छोटे अवश्य हैं परन्तु इनके कार्य बहुत बड़े हैं।'

     डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी न्यूनतम शब्दों में रचित एकांगी गुण की कथात्मक विधा को लघुकथा मानते हैं। पुरुषोत्तम दूबे का कहना है--'जीवन में घटने वाली आशा के विपरीत अथवा समस्यामूलक कोई घटना हमको घेर ले तो कारगर संप्रेषण से ऐसे विषम चक्रव्यूह को तोड़कर विसंगतियों रहित, मूल्य आधारित सलभ मार्ग का आश्रय सहज उपलब्ध कराने वाली विधा लघुकथा है।'प्रबोध कुमार गोविल कहते हैं--'हर कथ्यात्मक कल्पना में कोई न कोई बिन्दु ऐसा अवश्य होता है, जिसके चारों ओर कहने योग्य बात घूमती है। यह केन्द्रीय बिन्दु किसी तथ्य, भाव अथवा स्थिति के रूप में हो सकता है। इस बिन्दु पर आधारित संक्षिप्त रूप में विकसित गद्य रचना ही लघुकथा है।' डॉ. बलराम अग्रवाल सुरुचि सम्पन्न लघु-आकारीय कथा को ही लघुकथा मानते हैं। सुरुचि सम्पन्नता का सम्बंध वे मूल्यों से मानते हैं। उनकी नजर में लघुकथा सघन अनुभूति की सुगठित प्रस्तुति है। कुछ लोगों का यह भी कहना है कि लघुकथा उस चिप की तरह है जिसमें पूरी दुनिया और सारे विषय समाए हुए हैं। उस विद्युत उपकरण अथवा स्विच की तरह है, इसके ऑन होते ही वातावरण रोशनी से नहा देता है। कालखंड के विषय में चंद्रेश कुमार छतलानी का कहना है कि एकांगी होना लघुकथा का स्वभाव है। यदि लघुकथा एकांगी नहीं हो पा रही है, तो वह कहानी में तब्दील हो सकती है। और यदि लेखक इस तब्दीली में कोई घटना कर्म से नहीं ले पा रहा है तो वह रचना एक से अधिक कालखंड में विभक्त होकर छोटी कहानी की तरफ मुड़ सकती है और इसमें कोई दोष भी नहीं है।

       भगीरथ परिहार किसी एक दृश्य या घटना को, एक कथानक या मानसिक द्वंद्व और एक सार्थक वार्तालाप या एक अनुभव की कम से कम शब्दों में कथात्मक अभिव्यक्ति को लघुकथा मानते हैं। 

      संतोष सुपेकर लघुकथा को लेकर अपना दृष्टिकोण स्पस्ट करते हैं--"लघुकथा क्षण विशेष की स्वाभाविक अभिव्यक्ति है। इसकी संक्षिप्तता का अन्य अर्थ न लगाया जाए। जैसा कि रमेश बतरा जी ने कहा है कि 'लघुकथा में शब्द सीमित होते हैं लेकिन चिंतन नहीं।' विसंगति और विडंबना इसके केंद्र में रही हैं। सुप्त समाज के लिए इंजेक्शन की सुईं है लघुकथा, जिसकी थोड़ी सी दवा विशाल स्तर पर जागृति फैला सकती है। या यूँ कह लीजिए कि बाहर बिखरा पड़ा ढेर सारा सामान, एक छोटे कमरे में आपको इस तरह सजाना है कि कोई सामान बाहर भी न रहे और कमरा भी व्यवस्थित लगे। इस सजाने की प्रक्रिया में लगने वाला श्रम भी लघुकथा सृजन है। यहाँ सामान से आशय विचारों की भीड़ से है और कमरे से आशय लघुकथा की फ्रेम से है। लघुता, कसावट, सांकेतिकता, संप्रेषणीयता और पैनापन लघुकथा की मुख्य विशेषताएँ हैं।"

     'उत्कृष्ट लघुकथा विमर्श' में बलराम अग्रवाल ने लघुकथा के पैमाने की स्पष्टता के लिए कुछेक बिंदु तय किए हैं। कथा-धैर्य, बिंब, प्रतीक और सांकेतिक योजना, उसका विगत, नेपथ्य और लाघव से उसे संवारने की कवायद, यथार्थ घटना और कथा घटना की अहमियत, कल्पित उड़ान, भाषा-परिवेश और शिल्प एवं शब्द प्रयोग, दृश्य योजना और परस्पर संवाद, लेखकविहीनता, संपूर्णता और शीर्षक इत्यादि बिंदुओं द्वारा उसके स्वरूप को निर्धारित किया है। बलराम अग्रवाल ने बहुत अच्छे से लघुकथा की बारीकियों को समझने और आपको उसे समझाने का प्रयास किया है। लघुकथा को लेकर दीपक गिरकर भी अपनी राय देते हैं—'लघुकथा मानव जीवन की सूक्ष्म एवं तीक्ष्ण अभिव्यक्ति है। लघुकथा कथ्य प्रधान विधा है। लघुकथा में पात्रों की संख्या एक दो तक ही सीमित होती है। लघुकथा के कथानक में घटनाओं के विस्तार का अभाव होता है। लघुकथा के अंत में विस्मयकारी मोड़ लघुकथा को एक नया आयाम प्रदान करता है। जो मानस पटल पर अमित छाप छोड़ जाए, वहीं उत्कृष्ट लघुकथा है।' उन्होंने अपने इस आलेख में भगीरथ के विचार भी सांझा किए हैं। भगीरथ कहते हैं—'लघुकथा अक्सर द्वंद्व से आरंभ होकर तेजगति से चरम की ओर चलती है, तथा चरमोत्कर्ष पर अप्रत्याशित ही समाप्त हो जाती है। लघुकथा का अंत अक्सर चौंकाने वाला तथा हतप्रभ करने वाला होता है। इस तरह का अंत पाठक की जड़ता को तोड़ता है।' दीपक गिरकर जी का कहना है कि लेखक आस-पास जब भी कुछ असाधारण देखता है और अनुभूत करता है, तब उसका अंतर्मन व्यथित होने लगता है और अभिव्यक्ति के लिए छटपटाने लगता है। अंतः लघुकथा क्षणिक घटनाक्रम को आधार बनाकर बुनी जाती है। लघुकथा लिखने से पहले लेखक के समक्ष युगबोध की स्पष्टता, अनुभवों का विस्तार और गहन अनुभूतियों की समझ होनी आवश्यक है। लघुकथा की सृजन प्रक्रिया दीर्घकालिक है, इसीलिए यह देर तक और दूर तक जीवित रहती है। लघुकथा में कथ्य के अनुरूप संप्रेषणीयता, भाषा शैली में सांकेतिकता व संक्षिप्तता का गुण होना आवश्यक है। संवाद चुस्त सटीक एवं संक्षिप्त होने चाहिए। लघुकथा की भाषा जनभाषा होनी चाहिए। लघुकथा की भाषा जीवन्त, प्रवाहमयी, सांकेतिक एवं व्यंजनात्मक होनी चाहिए। लघुकथा का जन्म संवेदनाओं की पृष्ठभूमि पर ही होता है।

       विद्वान मित्रों की राय जान लेने के बाद लघुकथा को लेकर मेरी जो सोच विकसित हुई, वह सामने रख रहा हूँ। मेरी नजर में लघुकथा यथार्थ परिवेश में घटित घटनाओं या समस्याओं से सवेंदित और आहत हृदय का उद्वेग है। यह उद्वेग राजनैतिक, शोषित, सामाजिक और अभाव में घिरे इंसान का रुदन है। आपसी संबंधों का खुलासा है। यह रुदन जब फूटता है, तब रचनाकार की बुनावट में बुन लिया जाता है। सूझ-बूझ से बुना गया तो रचना अच्छी बुनी जाएगी और पाठक पर प्रभाव छोड़ पाएगी। उसे नींद से उठने के लिए बाध्य करेगी। चुनौतीपूर्ण उस यथार्थ के प्रति पाठक को सोचने पर विवश करेगी।'

      दूसरे विश्वयुद्ध के बाद संपूर्ण विश्व में जो परिस्थितियाँ बनी और जो परिणाम सामने आकर खड़े हुए, उनसे आहत या मौत को प्राप्त हुआ आदमी अपनी दास्तान कहने को उठ खड़ा हुआ। दुनिया को सच दिखाने के लिए उसकी वह दास्तान ही कथा बनने लगी। वहीं से लघुकथा का भी जन्म हुआ। भारत में इमरजेंसी से कुछ पहले गरीबी और परिस्थितियों से घिरे चरित्र, पात्र रूप में उपस्थित होने लगे। साहित्य की सभी विधाओं में ऐसे चरित्र दिखलाई पड़ने लगे। लेखन से गोरिल्ला युद्ध लड़ा जाने लगा। उन्हीं दिनों, नुक्कड़ नाटक का भी आगमन हुआ। छोटे क्लेवर में कहानियाँ भी लिखी जाने लगी। लघुकथा उसी समय की देन है। ये दोनों विधाएँ गोरिल्ला की तरह अटैक करती हैं और दर्शक या पाठक की बुद्धि को प्रभावित करती हैं। उसे सोचने पर विवश करने लगती हैं।

     पुरातन काल से चली आ रही कथा सुनने-सुनाने की हमारी प्रवृति धरोहर थी। कथा के माध्यम से यहाँ ऋषि-मुनि मूल्य परोसते थे। अनैतिक का हश्र दिखाते और पाठक या श्रोता के मन को फेरने के लिए प्रयास करते थे। आज के इस दौर में यह सब साहित्य को करना चाहिए। लघुकथा और नुक्कड़ नाटक उसी प्रयास का एक हिस्सा हैं। यह लेखन सामान्य परिस्थितियों में सम्भव ही नहीं। बिना गाम्भीर्य इसे बुनावट नहीं दी जा सकती। यह अंतस के रेशों से बुना जाता है। लेखन के लिए प्रतिभा सम्पन्न हृदय के महत्व को स्वीकार किया जाना चाहिए।

     इसमें भी अलग कोई राय नहीं कि लघुकथा, कहानी का ही एक छोटा कथारूप है। कथा, कहानी लिखना कोई कला नहीं है। वह तो स्वतः अंतस से उपजती है। किन्हीं बेचैन पलों में भीतर से उसका सृजन होता है। शब्दों में आबद्ध होने के बाद उसे भावतत्व से सवार देना कला हो सकती है। कथा, कहानी लिखते समय मानो अवचेतन में सुगबुगाहट हुई, रंध्र फड़के और हाथों में पकड़ी कलम चल पड़ी। मीठा कोई दर्द कहानी के गलियारे में पैदा होने लगता है। आँखें यथार्थ में जिसे देखती रही, समझती और हृदयगम करती रही, उस तकलीफ को बुनती रही, वही तो बाहर आता है। उच्छवास के साथ, वही सब फूटने भी लगता है। फिर हम उसे शब्दकार की तरह सँवारने लगते हैं। उसके अंतिम वाक्य को चौकाने वाला, झकझोरने वाला और पूरी कथा के द्वंद्व को खोल देने वाला मोड़ देकर छोड़ देते हैं। अगला काम पाठक का है। 

      दीपक गिरकर ने खंड-दो में चुनिंदा जिन लघुकथाओं को लिया है, उन्हें पढ़ने से लघुकथा का प्रारूप समझ में आने लगता है। दोनों पुस्तकों में अनेक प्रश्न और जवाब हैं जो निस्संदेह पाठक के लिए प्रेरणास्रोत रहेंगे। नेतराम भारती और दीपक गिरकर जी का यह कार्य प्रशंसा के योग्य है।                                                            -डॉ. सुरेश वशिष्ठ   मो. 9654404416  दिनांकः 23. 5. 24