Wednesday 8 October, 2014

सुधा भार्गव की दो लघुकथाएँ

माँ और माँ

चित्र:बलराम अग्रवाल
दिवाली के आठ दिन पहले ही त्योहारों का सिलसिला आरंभ हो गया है। आज अहोई अष्टमी है और घर-घर अहोई देवी की पूजा होगी ताकि उसकी कृपा से पुत्र स्वस्थ व दीर्घायु हों। सोमा ने भी अपने बेटे के लिए निर्जला व्रत किया है। तारों के छिटकते ही देवी की पूजा के बाद चाय पीकर उपवास तोड़ेगी।
     दोपहर तक का समय तो भूखे-प्यासे किसी तरह कट गया, पर उसके बाद आँतें कुलबुलाने लगीं। मन को भूख से भटकाने के लिए उसने पड़ोसिन का दरवाजा खटखटा दिया।
     पड़ोसिन उसे आया देख बहुत खुश हुई। स्वागत करती बोली, "बड़ा अच्छा हुआ तुम आ गई सोमा। आज मैंने व्रत कर रखा है ,गपशप में कुछ समय तो कटेगा।
     "व्रत! तुमने…भी!! अहोई का व्रत तो लड़के की माँ ही करती है। तुम्हारे तो…।
    "लड़का हो या लड़की, संतान तो दोनों ही है। अपनी संतान की सुरक्षा के लिए मैंने भी व्रत किया है।
         सोमा को यह बिल्कुल भी अच्छा न लगा कि एक लड़की की माँ उस बेटे वाली माँ की बराबरी करने पर उतर आए। गलती से खुले छूट गये नल को बन्द करके लौट आने का बहाना बनाकर वह उल्टे पाँव लौट आई।


पुत्रदान 

चित्र:बलराम अग्रवाल
"मैं  इंजीनियर हूँ, अच्छा–खासा कमाती हूँ और समझदारी से निर्णय भी ले सकती हूँ कि किस लड़के से विवाह करूँ और कब? आप मेरी शादी की चिंता में अपने को क्यों झुलसा रहे हैं।"
     "बेटी, तेरी शादी में मुझे कन्यादान करना है और एक पिता के लिए कन्यादान से बढ़कर कोई दान नहीं।"
"ओह पापा, मैं क्या कोई वस्तु हूँ जो उठाकर दान कर दो; और फिर कहो, अब तू हमारे लिए पराई हो गई है। मतलब दान में दी वस्तु वापस नहीं ली जाती। आश्चर्य! आप जैसे समाज की सड़ी-गली केंचुली को उतार फेंकने के लिए तैयार ही नहीं!" 
"बेटा समाज में रहकर समाज के अनुसार चलना पड़ता है्।"
"तो आपको हर हालत में मेरा दान करना ही है…।  देखिए, अगले वर्ष भैया की शादी होने वाली है। आप ऐसा  कीजिए कि कन्यादान के बदले पुत्रदान कर दीजिएगा।
"यह कैसे हो सकता है!!!"
"आप ही तो कहते हैं कि लड़का-लड़की समान हैं। समान दृष्टा को क्या फर्क पड़ता है?"