Sunday 17 September, 2023

लघुकथा को लेकर कुछ बातें / डॉ. सुरेश वशिष्ठ

डॉ. सुरेश वशिष्ठ वरिष्ठ साहित्यकार हैं। कहानी, लघु-कहानी, लघुकथा, नाटक, नुक्कड़ नाटक, एकांकी, आलोचना आदि साहित्य की अनेक विधाओं में लेखन किया है। गत लगभग एक सप्ताह से मधुमेह के कारण अस्पताल में हैं। आज उनसे बहुत-सी बातें हुईं। स्वस्थ हो जाने के बाद मैंने उन बातों को लिख भेजने का अनुरोध किया तो उन्होंने आज इस टिप्पणी के साथ यह लेख भेज दिया कि यह अभी फाइनल नहीं है। बहरहाल, उनकी अनुमति के बिना मैं इसी रूप में ‘जनगाथा’  और लघुकथा-साहित्य के पाठकों के समक्ष इसे रख रहा हूँ।

डॉ. सुरेश वशिष्ठ
लघुकथा में कथा के अंश का रहना अनिवार्य है। सहज और स्वाभाविक रूप से कथा आगे बढ़े और रोचक परिवेश बनाती हुई कोई सीख देती जाए, यह जरुरी है। सामान्य रूप से लघुकथा में विचार प्रभावी रहता है। विचार और कथा दोनों का आभास पाठक को होता रहे, तभी उसकी सार्थकता है। गोल-गोल घुमाकर वार्तालाप को रख देना ही लघुकथा नहीं। लेखक व्यंग्य छोड़कर रह जाता है, वह भी ठीक नहीं। महसूस हो कि वह छोटी, रोचक और व्यंग्य रचना के साथ बुद्धि पर कटाक्ष करती है। उसमें निहित विचार चोट दे रहा है। लघुकथा का यह ढंग पाठक को परिवेश बदलने के लिए बाध्य करता है। उसे जागने, उठने के लिए विवश करता है। कथ्य में जो कहा गया, वैसा तो हुआ है और उसे वैसा नहीं होना चाहिए था। अब इसे बदलने के लिए आवाज दी जानी चाहिए। यह यथार्थ का सत्य-रूप है, इसे पढ़ने पर ह्रदय मचल उठा है। यही लघुकथा का सार्थक पहलू है।

        आज लघुकथा अपने जिस रूप में हमारे सामने है,उसने  यहाँ तक आने में अनेक करवटें बदली हैं। उसके कथ्य-रूप की चर्चाएँ अस्सी के दशक में शुरू हुई। उन दिनों, आम इंसान का जीना दूभर हो रहा था। भारत ही नहीं, पूरे विश्व में अराजकता का आलम था। आदमी का अस्तित्व खंडित हो रहा था। लोगों में अपने हक के लिए बेसब्री थी। साहित्य पर विसंगत दृष्टि प्रभावी थी। नाटक, कहानी और अन्य विधाओं में परिवर्तन लाजमी हो चला था। नाटक या कहानी के माध्यम से आदमी का जुझारू स्वरूप सामने आने लगा था। डॉयलॉग मुखर हो रहे थे। उसी परिवेश से लघुकथा बाहर आई।

         इमरजेंसी से पूर्व युद्ध के गौरिल्ला सैनिकों की तरह साहित्य में भी ऐसे पात्र खुलकर बोलने लगे थे। कहानी अपने छोटे रूप में यथार्थ को उकेरने लगी थी। पत्र-पत्रिकाओं में आपसी संबंध, मुखर विरोध या छुपा हुआ परिवेश सधे हुए डॉयलॉग के साथ उलीचा जाने लगा था। मंटो, खलिल जिब्रान और ब्रेख्त की धारदार लघु कहानियाँ व्यक्ति मन को प्रभावित करने लगी थी। अंतर्मन और बुद्धि ने करवट बदली और लेखन की दिशा परिवर्तित हुई। नुक्कड़ नाटक और लघुकथा उसी दौरान की देन है।

          उन दिनों, फैक्ट्री के गेटों पर, मलिन बस्तियों में, नगर-गाँव के चौराहों पर धड़ल्ले से नुक्कड़ नाटक खेले जा रहे थे। नाटक में दृश्य को थामकर जो मोड़ लिया जाता और विसंगति को जिस कदर प्रस्तुत किया जाता, निस्संदेह वह चौकाने वाला था। झकझोर देने वाला था। उसी तरह पत्र-पत्रिकाओं में लघु कहानी का जो ढंग विकसित हो रहा था, आगे चलकर उसी ढंग ने लघुकथा को जन्म दिया। अर्थात नुक्कड़ नाटक हो या लघुकथा, दोनों का जन्म एक ही गर्भ से हुआ और वह गर्भ था-- चेतना की नई दृष्टि। यथार्थ परिवेश और रचनात्मक संघ-जाग्रति।

           यह शायद 1984 के आसपास का समय रहा होगा। लेखन में जो रचनात्मक बदलाव हो रहा था, पत्र-पत्रिकाओं ने इसे सहेजकर प्रकाशित करना शुरू किया। उन्हीं दिनों, जानी-मानी पत्रिका 'सारिका' ने भी लघुकथा पर एक विशेषांक निकाला। सारिका के उस अंक में मेरी भी एक लघुकथा 'अनोखा मिलन' जिसे मैंने बाद के दिनों में 'काली छाया' के नाम से पुस्तक में समाहित किया, छपी थी। उसी दौर में असगर वजाहत के 'संवाद' और 'रूहों' के माध्यम से उघाड़े गए सच से पाठक का सामना हुआ। वह लेखन की नई तकनीक और तीखे सवालों से रू-ब-रू हुआ। लिखने का चलन बढा और इजाद के इस रूप में इजाफा होने लगा। लघुकथा को लेकर चर्चाएं तीव्र होने लगीं। असंख्य रचनाकार एक मंच पर एकत्रित होने लगे और लघुकथा के नये आयाम खुलते चले गए।लघुकथा को लेकर भ्रम की स्थिति भी है। लोग उसे परिभाषित भी करने लगे हैं। जिक्र हुआ तो समझ भी विकसित हुई और लघुकथा के प्रति सुदृढ़ विश्वास भी बना। इस विधा के प्रति मेरा दृष्टिकोण सीखने की तरफ ज्यादा गया। इसके तीक्ष्ण प्रहार ने मुझे सहज आकर्षित किया। उसकी गुदगुदी और चुभन सच को बेपर्दा करती है। मैंने असंख्य लघुकथाओं को पढ़ा है। असगर वजाहत के संपर्क में रहने से इसके पक्ष को जाना है। टीम वर्क में डॉयलॉग लिखते समय इसके प्रहार पर नजरें गई हैं। उसके बाद ही लघुकथा लिखने का सिलसिला शुरू हुआ है।

       रंगमंच से हमेशा मेरा जुड़ाव रहा है। ब्रटोल्ट ब्रेख्त पर काम करने के दौरान, ब्रेख्त के रंगकर्म और उनकी लघुकथाओं के तीखे सवालों और कुलबुलाते यथार्थ को जाना है। लेखक उतनी जल्दी नहीं लिख सकता, जितनी जल्दी सरकारें बदल जाती हैं... और सरकारें बदलने का यह सिलसिला बहुत पुराना है। इसी ढंग पर चोट करने का काम लघुकथा करती आई है। मंटो ने जिस मंजर पर कटाक्ष किया, वह मंजर किसने इजाद किया, सहज समझा जा सकता है। अपने समय के सच को कहने और उसके पक्ष में खड़ा रहने का काम लघुकथा का है। यही कारण है कि यह विधा दिनों-दिन अपने क्लेवर को सुदृड़ करती जा रही है।

मैंने अब तक एक सौ पचास से ऊपर लघुकथाएँ लिखी हैं। संवाद शैली में भी और पत्रशैली में भी। रूहों के माध्यम से यथार्थ को अनावृत्त भी किया है।

मोबाइल 96544 04416

Tuesday 4 July, 2023

सत्य शुचि की मोहन राजेश से एक विशेष भेंट-वार्ता

 लघुकथाएक स्वतंत्र, सशक्त विधा : प्रश्नों के घेरे में

'सन्दर्भ साहित्यिकी' के माध्यम से 'डिक्टेटर' ने लघुकथा को पर्याप्त अधिमान्यता दी है। साथ ही 'सन्दर्भ साहित्यिकी' के सम्पादक श्री मोहन राजेश का लघुकथा क्षेत्र में प्रारम्भ से ही सक्रिय योगदान एवं महत्वपूर्ण स्थान रहा है। इसी कारण 'डिक्टेटर' के इस 'लघुकथा बहुल अंक' के लिए कुछ सामान्य पाठकीय जिज्ञासाएं लिये मैं उनके पास पहुंचा। औपचारिक बातचीत के पश्चात् मेरा प्रथम प्रश्न था : 

                   मोहन राजेश कुमावत

● सत्य शुचि : प्रो. कृष्ण कमलेश ने अपने शोध-संबंधी प्रश्न-पत्रक में लघुकथा-संबंधी विश्लेषणात्मक तथ्यों के अभाव का जिक्र करते हुए प्रश्न उठाया है कि आखिर लघुकथा है क्या? उसका औचित्य, इसकी कसौटी आदि सभी कुछ अस्पष्ट-सी है। आप इस सन्दर्भ में कुछ कहना चाहेंगे

मोहन राजेश : प्रश्न निःसन्देह महत्व का है, किन्तु संभवतः कमलेश ने कहीं कुछ अति वेग से काम लिया है। जहाँ तक मेरा ख्याल है, बीच-बीच में कई लेेखकों ने लघुकथा को परिभाषित करने का प्रयास किया है। 'साहित्य-निर्झर' के लघुकथांक मे कुछ परिभाषाएं संकलित भी की गई थी। जहां तक किसी एक सर्वसम्मत परिभाषा का प्रश्न है, ऐसा अब तक न किसी विषय या विधा के संबंध में हो पाया है, और न ही लघुकथा के संंबंध में हो सकता है। इसी प्रकार लघुकथा के आकार-प्रकार, महत्व आदि पर भी टुकड़ों- टुकड़ों में विचार दिये जाते रहे हैं। मैं लघुकथा को एक पूर्ण विधा के रूप में देखता हूँ। जिसका मन्तव्य किन्हीं विशिष्ट क्षणों की सूक्ष्मतिसूक्ष्म अभिव्यक्ति, किन्हीं अनुभूतियों को प्रतिक्रिया या जीवन की प।यांत्रिक जटिलताओं का विश्लेषण या अन्य कुछ भी जो सार्थक हो, या सार्थकता को अभिप्रेरित हो, हो सकता है। 

सत्य शुचि : क्या लघुकथा का संबंध उसके लघु आकार से नहीं है

● मोहन राजेश : बिल्कुल है। वस्तुतः विधा का नामकरण ही इसके आकार-प्रकार की सांकेतिक अभिव्यक्ति देता है। जिस प्रकार कहानी को उपन्यास के किन्तु इसे प्रकार समझा जाना चाहिए कि लघुकथा तो लघु आकार में ही होगी किन्तु जो कुछ भी लघु आकार में है, वह लघुकथा ही है, ऐसा नहीं है। वस्तुत: यह भ्रम एक व्यापक स्तर पर फैलाया जा रहा है और कहानियों के कथानक, छोटे-छोटे संस्मरण आदि लघुकथा के रूप में किए जाते रहे हैं। 

● सत्य शुचि : आलोचकों का कहना है कि लघुकथा लिखना उन्हें 'शीघ्र स्खलन' जैसा प्रतीत होता है? आप क्या कहेंगे

● मोहन राजेश : किसे क्या करना कैसा लगता है यह वैयक्तिक अनुभूतिगत प्रसंग है। निश्चय ही वे आलोचकगण शीघ्रपतन के रोगी रहे होंगे । मैं लघुकथा को एक पूर्ण विधा के रूप में मानता हूँ। इसीलिये ऐसे किसी कथन से मेरे सहमत होने का प्रश्न ही नहीं रहता है। 

सत्य शुचि : राजस्थान विश्व विद्यालय की शोधा छात्रा कु. शकुन्तला किरण ने लघुकथा विषयक अपने शोध में लघुकथा और कहानी के शिल्प प्रारूप संबंधी अंतरों को जानना चाहा है। लघुकथा कहानी से कहाँ अलग होती है? आपकी क्या राय है

● मोहन राजेश : यहाँ मेरा एक प्रश्न है, लघुकथा कहानी से कहाँ मिलती है। आप बतायेंगे

सत्य शुचि : मेरा ख्याल है, दोनों लगभग समान धरातल पर गढ़ी जाती हैं। अतएव पर्याप्त समानता एवं सम्बद्धता रखती हैं। 

● मोहन राजेश : एक ही घरातल पर अवस्थित होने की बात एकदम सही है। किन्तु समान धरातल पर सह सम्बद्ध होना नितान्त आवश्यक नहीं। इस दृष्टि से लघुकथा कहानी की सहयात्री अवश्य हो सकती है। जैसे कि कहानी उपन्यास की है। लघुकथा अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखती है। उसे कहानी का उच्छिष्ट या संक्षिप्तिकरण समझना गलत होगा। जिस तरह कहानी को उपन्यास का संक्षिप्त नहीं समझा जा सकता । एक स्वतंत्र विधा के रूप में लघुकथा कहानी से अलग प्लेेटफार्म रखती है। लघुकथा और कहानी के अन्तर संबंधित मेरा एक लघु लेख डिक्टेटर के किसी अंक में आ भी चुका है। मोटे तौर पर इसे इस प्रकार अभिव्यक्त किया जा सकता है कि कुछ अनुभूतियाँ या कुछ कथ्य ऐसे ही होते हैं जिन्हें लघु प्रारूप में ही कहा जा सकता है। इसके विपरीत कुछ कथ्य लंबे-चौड़े की आवश्कताएँ रखते हैं। वस्तुत: लघुकथा और कहानी इसी संप्रेषणीयता पर एक दूसरे से भिन्न होती हैं। उनमें रुपान्तर की प्रक्रिया संभव नहीं है। यदि लघुकथा के कथ्य को कहानी के रूप में लिखने का प्रयास किया गया तो अनावश्यक विवरणों एवं वर्णनों की बोझिलता में वह अपना प्रभाव खो देगी। इसी प्रकार जिन कथ्यों के सम्प्रेषण के लिए पर्याप्त विस्तार की आवश्यकता होती है, वे भी लघुकथा के रूप में निष्प्रभावी रहे जाते हैं। मैं समझता हूँ कि लघुकथा और कहानी का अन्तर इनके उद्गम (कथ्य) से ही स्पष्ट हो जाता है। 

● सत्य शुचि : लघुकथा, बोधकथा, नीतिकथा, व्यंग्यकथा यादि कथा के कई रूप प्रचलित हैं। क्या ये सब लघुकथा के अन्तर्गत सम्मिलित किये जा सकते हैं अथवा भिन्न विधा के रूप में

● मोहन राजेश : मेरा ख्याल है कि लघुकथा के ही अंतर्गत रखकर मन्तव्य की दृष्टि से उसके विभिन्न उपभेदों के रूप में समझा जाना चाहिये। जिस प्रकार कहानी का वर्गीकरण उसके उद्देश्य, प्रस्तुतीकरण, शिल्प आदि के सन्दर्भ में किया जाता है वैसा ही वर्गीकरण लघुकथा में बोधकथा, नीतिकथा, व्यंग्यकथा, संघर्षकथा, हास्यकथा भयकथा यदि संभव रूपों में किया जा सकता है। 

● सत्य शुचि : लघुु आकारीय होने के कारण लघुकथा से तीव्र व्यंग्यात्मकता की अपेक्षा रखी जाती है। क्या आप भी ऐसा ही सोचते है

● मोहन राजेश : जी नहीं। लघुकथा केवल व्यंग्य ही हो, यह आवश्यक नहीं। यद्यपि यह सत्य है कि व्यंग्य निहित होने से उनमें कुछ तीखापन अवश्य आ जाता है। मर्मांतकता भी बढ़ जाती है; किन्तु यह कथ्य की आवश्यकता पर ही निर्भर करता है। कई एक सामाजिक तथ्यों के कथ्यों पर गंभीरतापूर्वक लघुकथाएँ भी लिखी गई हैं। 

● सत्य शुचि : कुछ लोग लघुकथा के नाम पर चुटकुलेबाजी भी कर रहे हैं। आप इस संबंध में क्या मत देंगे?

● मोहन राजेश : बेशक! कुछ लोगों ने बल्कि ज्यादातर लोगों ने लघुकथा को उतनी गंभीरता से लिया ही नहीं है जितना कि इसे एक विधा के रूप लिया जाना चाहिये था। कुछ लोगों ने तो केवल एक फुल स्केप पेज में लिखी जा सकने वाली अपनी ऊटपटाँँग कल्पनाओं तक ही रख छोड़ा है। कुुछ इसे समय काटने हेतु फिलर के रूप में प्रयुक्त करते हैं। कुछ सहधर्मी लघुुकथाकार भी केवल इसीलिये लघुकथाएँ लिखते रहे हैं कि यह झटपट लिखी जा सकती और कापी-वापी करने में भी कोई झंंझट नहीं आती। कुछेक अपनी छपास की तुष्टि के लिए ही लघुकथा को अपनाये बैठे हैं; किन्तु ऐसे यह स्थिति प्रायः सभी विधाओं के साथ रही है। गुणात्मकता कम होती है, संख्यात्मक अधिक। खेद की बात है कि लघुकथा को चुटकलेबाजी का रूप देने में एक शीर्षस्थ पत्रिका भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती रही है। 

● सत्य शुचि : हिन्दी लघु के प्रकाशन क्षेत्र के सन्दर्भ में आप क्या कहेंगे? 

● मोहन राजेश : प्रकाशन की दृष्टि से लघुकथा को व्यापक क्षेत्र मिला है। वस्तुत: लघुकथा और लघु-पत्रिकाओं ने परस्पर सहयोगी भूमिकाएं निभायी हैं। जहाँ तक बड़ी पत्रिकाओं का सवाल है, स्थिति किसी से छिप नहीं है। 

● सत्य शुचि : लघुकथा का आरम्भ, प्रमुख लघुुकथाकार, उनकी मुख्य लघुुकथा आदि के बारे में अपना मत प्रस्तुत कीजिये । 

● मोहन राजेश : जहाँ तक लघुुकथा के उद्गम, प्रवर्तक आदि के प्रश्न हैं, मेरी इसमें कोई रुचि नहीं है। साथ ही यह सम्प्रति शोध विषय थी। प्रमुख लघुकथाकारों को मैं दो श्रेणियों में रख सकता हूँ--एक वे, जिन्होंने लघुकथा लेखन के साथ-साथ एक विधा के रूप में उसे स्थापित करने में भी महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभाई हैं। ऐसे कुछ नाम हैंप्रो. कृष्ण कमलेश, रमेश बतरा, जगदीशचन्द्र कश्यप, सिमर सदोष और शायद मोहन राजेश भी । दूसरी श्रेणी में वे लघुकथाकार है जिन्होंने अपनी सशक्त लघुकथाओं के माध्यम से लघुकथा को समृद्ध किया है। बृजेन्द्र वैद्य, कमलेश भारतीय, मधुप मगधशाही, भगीरथ, महावीर प्रसाद जैन, जयसिंह आर्य, अर्जुन कृपलानी, अनिल चोरसिया, हंसराज अरोड़ा, कैलाश जायसवाल, किशोर काबरा, धनराज चौधरी, नीलम कुलश्रेष्ठ शकुन्तला किरण, रेणु माथुर, सुशील राजेश, एल. आर. कुमावत, वि. शरण श्रीवास्तव, सत्य शुुचि आदि कुछ ऐसे ही लघुकथाकार हैं । कुछेक हस्ताक्षर जो आशाएं जगाते हैंडॉ. अनूपकुमार दवे, विभा रश्मि, जवाहर आजाद, विजय विधावन, कृष्ण गंभीर, सुषमा सिंह, प्रचण्ड, मुकुट सक्सेना आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। उपर्युक्त वर्गीकरण आदि मेरी व्यक्तिगत धारणा है। जहां तक इन लघुकथाकारों को रचनाओं का प्रश्न है, मैं अलग-अलग सभी के नाम गिनवा सकने में असमर्थ हूँ। 

सत्य शुचि : लघुुकथा के भविष्य के बारे में आप क्या सोचते हैं ! 

● मोहन राजेश : इतने व्यापक स्तर पर चर्चित प्रकाशित होने के पश्चात भी क्या लघुकथा के भविष्य के बारे में संदेह रह जाता है? मैं एक स्वतंत्र विधा के रूप में लघुकथा का भविष्य काफी उज्जवल देखता हूं। इसकी सघर्षशीलता उपलब्धियों के कई धरातल भी दिये हैं । अन्तर्यात्रा, तारिका, साहित्य निर्भर, अतिरिक्त, शब्द, मिनीयुग, दीपशिखा, हिन्दी मिलाप, दैनिक नवभारत, बम्बार्ड, डिक्टेटर, लघुकथा आदि पत्र-पत्रिकाओं के लघुकथा विशेषांकों एवं लघुकथाओं को प्राथमिकता देने से लघुकथाकारों का हौसला काफी बढ़ा है। भगीरथ ने रावतभाटा से 'गुफाओं से मैदानों की ओर' प्रथम लघुकथा संकलन देकर विधा को स्थापित करने की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान दिया है तो कृष्ण कमलेश ने अपने लघुकथा संकलन 'मोहभंग' के माध्यम से उसमें अपना योग दिया है। भोपाल विश्वविद्यालय से कृष्ण कमलेश और राजस्थान विश्वविद्यालय से कु. शकुन्तला किरण के लघुकथा संबंधी शोध भी विधा के उज्ज्वल भविष्य के ही संकेतक हैं। भगीरथ और अमलतास (बलराम) आदि ने लघुकथा संबंधी समीक्षात्मक लेख भी लिखे हैं, किन्तु भगीरथ-सी निरपेक्षता सभी में दृष्टिगत नहीं होती। जो भी है, लघुकथा एक युवा विधा है। क्योंकि इसके सृजेताओं में कुछेक अपवादों को छोड़कर बहुतांश युवा रचनाकारों का ही है । 

 
(साभार : 'डिक्टेटर', स्वतंत्रता दिवस विशेषांक; 12 अगस्त, 1976)
 □ डिक्टेटर साप्ताहिक, चम्पानगर, ब्यावर (राजस्थान)

Friday 9 June, 2023

कमलेश भारतीय की तीन प्रेम लघुकथाएँ

कमलेश भारतीय। समकालीन लघुकथा की पहली पीढ़ी के सम्माननीय कथाकार। 

।।1।।

बहुत दिनों बाद 

बहुत दिनों बाद अपने छोटे से शहर गया था । छोटे भाई के परिवार में खुशी का आयोजन था । बीते सालों में यह पहला ऐसा मौका था जब मैं वहां पूरी फुर्सत में रुका था । मैं अपने शहर घूमने निकला या शायद बरसों पुरानी अपनी पहचान ढूँढने निकल पडा । अपना चेहरा खोजने निकल पड़ा।

पाँव उसी छोटी-सी गली की ओर चल पड़े जहाँ रोज शाम जाया करता था। वही, जिसे पा सकता नहीं था लेकिन देख आता था। कुछ हँसी, कुछ मजाक और कुछ पल। क्या वह आज भी वहीं...? कितना भोलापन ? कैसे वह वहां हो सकती है ? घर तक पहुँच गया। मेरे सपनों का घर। उजड़ा-सा मोहल्ला। वीरान-सा सब-कुछ। खंडहर मकान। उखडी ईंटें। 

क्या बरसों बाद प्यार का यही असली रूप हो जाता है ? क्या प्रेमिका का चेहरा किसी खंडहर में खोजना पड़ता है? क्या प्रेम बरसों में कहीं खो जाता है ?

नहीं। खंडहरों के बीच बारिशों के चलते कोई अंकुर फूट रहा था। शायद प्रेम यही है जो फूटता और खिलता ही रहता है... खंडहरों के बीच भी... मैं कभी यहां से कहीं गया ही नहीं... सदा यहीं था... तुम्हारे पास...

।।2।।

ऐसे थे तुम

बरसों बीत गये इस बात को। जैसे कभी सपना आया हो। अब ऐसा लगता था। बरसों पहले काॅलेज में दूर पहाड़ों से एक लड़की पढ़ने आई थी। उससे हुआ परिचय धीरे-धीरे उस बिंदु पर पहुँच गया जिसे सभी प्रेम कहते हैं। 

फिर वही होने लगा। लड़की काॅलेज न आती तो लड़का उदास हो जाता और लड़का न आता तो लड़की के लिए काॅलेज में कुछ न होता। दोनों इकट्ठे होते तो जैसे कहीं संगीत गूँजने लगता, पक्षी चहचहाने लगते।

फिर वही हुआ जो अक्सर प्रेम-कथाओं का अंत होता है। पढ़ाई के दौरान लड़की की सगाई कर दी गयी। साल बीतते न बीतते लड़की अपनी शादी का काॅर्ड देकर उसमें आने का न्यौता देकर विदा हो गयी।

लड़का शादी में गया। पहाड़ी झरने के किनारे बैठ कर खूब-खूब रोया, पर... झरने की तरह समय बहने लगा, बहता रहा। इस तरह बरसों बीत गये। इस बीच लड़के ने आम लड़कों की तरह नौकरी ढूँढी, शादी की और उसके जीवन में बच्चे भी आए। कभी-कभी उसे वह प्रेमकथा याद आती। आँखें नम होतीं,  पर वह गृहस्थी में रम जाता और कुछ भूलने की कोशिश करता। 

आज पहाड़ में घूमने का अवसर आया। बस में कदम रखते ही उसे याद आया कि बरसों पहले की प्रेम वाली नायिका का शहर भी आयेगा। उत्सुक हुआ वह कि वह शहर आने पर उसे कैसा-कैसा लगेगा? आकुल-व्याकुल था पर, कब उसका शहर निकल गया, बिना हलचल किए, बिना किसी विशेष याद के; क्योंकि वह सीट से पीठ टिकाये चुपचाप सो गया था। जब तक जागा तब तक उसका शहर बहुत पीछे छूट चुका था। 

वह मुस्कुराया। मन ही मन कहा कि सत्रह बरस पहले एक युवक आया था, अब एक गृहस्थ, जिसकी पीठ पर पत्नी और गुलाब से बच्चे महक रहे थे। उसे किसी की फिजूल-सी यादों और भावुक से परिचय से क्या लेना देना था ? 

इस तरह बहुत-पीछे छूटते रहते हैं शहर, प्यारे-प्यारे लोग, उनकी मीठी-मीठी बातें, आती रहती हैं... धुंधली-धुंधली सी यादें और अंत में एक जोरदार हंसी--अच्छा, ऐसे थे तुम! अच्छा, ऐसे भी हुआ था तुम्हारे जीवन में कभी!!

।।3।।

आज का रांझा 

उन दोनों ने एक दूसरे को देख लिया था और मुस्कुरा दिए थे। करीब आते ही लड़की ने इशारा किया था और क्वार्टरों की ओर बढ़ चली। लड़का पीछे-पीछे चलने लगा । 

लड़के ने कहा--"तुम्हारी आँखें झील-सी गहरी हैं।"

-हूं ।

लड़की ने तेज-तेज कदम रखते इतना ही कहा।

-तुम्हारे बाल काले बादल हैं।

-हूं। 

लड़की तेज चलती गयी।

बाद में लड़का उसकी गर्दन, उँगलियों, गोलाइयों और कसाव की उपमाएँ देता रहा । लड़की ने 'हूँ' भी नहीं की। 

क्वार्टर खोलते ही लड़की ने पूछा--"तुम्हारे लिए चाय बनाऊं ?" 

चाय कह देना ही उसकी कमजोर नस पर हाथ रख देने के समान है; दूसरा, वह बनाये! लड़के ने 'हाँ' कह दी। लड़की चाय बनाने चली गयी और लड़का सपने बुनने लगा। दोनों नौकरी करते हैं। एक-दूसरे को चाहते हैं। बस। ज़िंदगी कटेगी। 

पर्दा हटा और...

लड़का सोफे में धँस गया। उसे लगा, जैसे लड़की के हाथ में चाय का प्याला न होकर कोई रायफल हो, जिसकी नली उसकी तरफ हो, जो अभी गोली उगल देगी। 

-चाय नहीं लोगे ?

लड़का चुप बैठा रहा । 

लड़की बोली--"मेरा चेहरा देखते हो? स्टोव के ऊपर अचानक आने से झुलस गया। तुम्हें चाय तो पिलानी ही थी; सो दर्द पिये चुपचाप बना लाई।" 

लड़के ने कुछ नहीं कहा। उठा और दरवाजे तक पहुँच गया । 

"चाय नहीं लोगे?" लड़की ने पूछा, "फिर कब आओगे?"

- अब नहीं आऊँगा ।

-क्यों ? मैं सुंदर नहीं रही ?

और वह खिलखिला कर हँस दी ।

लड़के ने पलटकर देखा...

लड़की के हाथ में एक सड़ा हुआ चेहरा था और वह पहले की तरह सुंदर थी । 

लड़का मुस्कुराकर करीब आने लगा तो उसने सड़ा हुआ चेहरा उसके मुँह पर फेंकते कहा--"मुझे मुँह मत दिखाओ।" 

लड़के में हिम्मत नहीं थी कि उसकी अवज्ञा करता।

सम्पर्क-94160 47075

Saturday 3 June, 2023

लघुकथा और कथाकार

 

                     डॉ. सुरेश वशिष्ठ

96544 04416

लघुकथा पाठक मन को झकझोरने लगती है। उसे कम समय में पढ़ा जा सकता है। एक अच्छी लघुकथा सोच की शिराओं और रंध्र की गति को प्रभावित करती है। व्यंग्य से भरपूर कोई घटना वर्तमान के किसी सच पर जोरदार प्रहार करती है और अपना तीक्ष्ण प्रभाव पाठक पर छोड़ देती है। उसे चंद मिनटों में पढ़ा और समझा जा सकता है। यह जरुरी नहीं कि उसके कथानक वर्तमान के ही रहें, केवल परिवार और आपसी संबंधों तक ही वे सीमित रहें, राष्ट्र अथवा वैश्विक सच को भी लेखन में उकेरे जाने की जरूरत है। वे समसामयिक भी हो सकती हैं और इतिहास के आइने में व्यंग्यात्मक भी हो सकती हैं। 

     लघुकथा को एक विचार तक सीमित नहीं होना चाहिए, उसमें कथा-तत्व का होना भी अति आवश्यक है। किसी सच को प्रतिकार में ढालकर संवाद के रूप में भी कहा जाना लघुकथा का स्वरुप है। बशर्ते, वह प्रतिकार शब्दों की कसावट में बाहर आना चाहिए। रंध्र को क्षण-भर में गति देने और मानस की बुद्धि को सोचने पर विवश कर देने वाला कथा-तत्व ही लघुकथा है।

       लघुकथा की सार्थकता यही है कि यथार्थ के उद्वेग से उत्पन्न कोई भी वाक्य लघुकथा हो सकता है, बशर्ते वह रहस्यों से पर्दा हटाने लगे। खुलकर कुछ कहने की बजाय इशारा भर ही कर दे और अंत में प्रश्न-चिन्ह अंकित करे! कथा है तो रोचकता दिखनी भी चाहिए। चाहे शब्दों की मार्फत या कथा-तत्व की दृष्टि से, वह पाठक को रुचिकर तो लगनी ही चाहिए। बंदूक से छूटी गोली के समान जो हृदय को बींध सके और बुद्धि को जागृत कर सके ! जिसे पढ़ने पर पाठक सोचने पर विवश होने लगे।

       आज असंख्य लघुकथा लेखक बड़ी तेजी से रचना कर रहे हैं और उन्हें वाह-वाही भी खूब मिल रही है। कई नामचीन लोग भी उत्साहवर्धन में टिप्पणियाँ दे रहे हैं। पूरा एक समूह खीसें निपोरने में लगा है। उन्हें पढने पर मैं सोचने के लिए विवश होता हूँ कि उनमें निहित कथ्य, शैली और संप्रेषण बहुत कमजोर होने पर भी नामचीन लोग वाह-वाही क्यूँ कर रहे है? ना उसमें रोचक तत्व कहीं दिखाई देता है और ना कथा-रस ही उपस्थित रहता है। यथार्थ विसंगतियाँ गौण रहती हैं और आपसी संवाद नी-रस जान पड़ते हैं। जबकि किसी भी रचना-धर्म में वर्तमान विसंगतियों का निहित होना लाजमी होना चाहिए। यह सब सहज और स्वाभाविक है। आज यह कथारूप किस दिशा में अग्रसर है, मुझे समझ नहीं आता, केवल चाटुकारिता और लेखन-दम्भ वहाँ दिखाई देता है। 

       आज सच बेदम हो रहा है और झूठ चिंघाड़ने लगा है। झूठ की तेज धार सच को कंपा देती है। तर्कहीन संवाद चमत्कृत करने लगते हैं और सच बनकर प्रस्तुत होते हैं। जिसे उकेरा जाना चाहिए वह इन कथाओं में नदारद ही है। आज इस धार में लेखक बहने को विवश है। विचारभरी बहसों और तर्कों से उसे कमजोर और अपंग किया जा रहा है। बोलने वाले बहुत हैं और उन्हें गुलामी भी मंजूर नहीं, परन्तु उनके मुख सील दिए गए हैं। जुबानें लकवा-ग्रस्त होकर रह गई हैं। रियाया के साथ जो हो रहा है या हुआ है, उसकी तरफ उनकी दृष्टि जाती ही नहीं। उस सच को मानो किसी ने देखा ही नहीं! किसी रचनाकार ने अगर उसे शब्दों में कैद किया भी है तो कोई भी उस पर टिप्पणी नहीं करता। मानो किसी दृष्टि ने स्त्रियों को चीज की तरह इस्तेमाल किया और लेखक को कहा कि आपसी जिरह लिखते रहो और वे उसे ही लिखने में मशगूल हैं।

       लोग बसेरा छोड़कर भागते रहे और जुबानें मौन रहती आई हैं। रचनाकार नींद के आगोश में ऊँघ बिखेर रहा है। उसने इतिहास से सच को मिटा देने का नायाब तरीका अपना लिया है। उनके हुक्म से वह बहुत पहले ही उसे सीख चुका है। डौंडी पीटते रहो और झुनझुना बजता ही रहेगा।

       जिसे उकेरा जाना चाहिए था, वह आज भी नदारद है। इस धार में असंख्य रचनाकार बहने को विवश है। यथार्थ के उद्वेग से उत्पन्न कोई भी वाक्य लघुकथा हो सकता है, बशर्ते वह रहस्यों से पर्दा हटाने लगे। खुलकर कुछ कहने की बजाय केवल इशारा-भर कर दे और अंत में प्रश्न-चिन्ह अंकित करे ! कथा है तो रोचक तत्व दिखना भी चाहिए। चाहे शब्दों की मार्फत या कथा-तत्व की दृष्टि से, पाठक को वह रुचिकर भी लगनी चाहिए। बंदूक से छूटी गोली के समान जो हृदय को बींध सके और जो पाठक की बुद्धि को झिंझोड़ सके, जागृत कर सके ! जिसे पढने पर पाठक सोचने पर विवश होने लगे।

(03-6-2023 को वाट्सएप पर प्रेषित)

Monday 7 November, 2022

लघुकथा-समीक्षा / बबीता कंसल

समीक्षित संग्रह : अस्तित्व की यात्रा

कथाकार  : कांता रॉय 

लघुकथा संग्रह 'अस्तित्व की यात्रा' समाज में व्याप्त विसंगतियों, विडम्बनाओं को पहचान कर संवेदानाओं में रची भिन्न कथानकों, चरित्रों में बसी हुई, नयी राह पर चलने का मार्ग दिखाती हैं। भाषा सहज, सरल है। पंच लाइन से लेखिका की पैनी व सूक्ष्म दृष्टि का पता चलता है।  लघुकथाएं पाठक के मन को गहरे तक पैठ बनाती हैं, जिनको पढ़ते हुए हुए मैं कितनी ही बार नि:शब्द सी रह विचार करती रह गयी।

कांंता राॅय
मैंने कान्ता जी की लघुकथा को पढ़ा ही नही घूंंट-घूंट पिया भी हैं। यही कारण है कि पाठकीय प्रक्रिया देने में देरी हुई। उनकी लघुकथाओं पर समीक्षा करना मेरे वश में नहीं, ना ही उनकी लघुकथाओं पर समीक्षात्मक प्रक्रिया देने की सामर्थ्य मुझ में है । पर सत्य को जीवन्त करती हुई उनकी लघुकथाएं पढ़कर प्रतिक्रिया दिये बिना कैसे रह सकती थी।

'अस्तित्व की यात्रा' लघुकथा संग्रह का आवरण पृष्ठ प्रभावी हैं, जिसे देखकर पुस्तक को पढनें का मन होता हैं।

इस संग्रह में 160 लघुकथाएँ हैं, जिनमें पहली लघुकथा 'सावन की झड़ी' बहुत सुन्दर मर्मस्पर्शी लघुकथा हैं। इसमें चीनू अपनी भाभी से जानवर पर निबंध लिखवाने को कहता है। वह जब अपनी बहन के प्रेमी को बाऊजी द्वारा जानवर कहे जाने को लेकर बहन को परेशान देखता है तो अपनी भाभी से बातों ही बातों में निबंध के माध्यम से, हृदय की संवेदनाओं को प्रकट करता है। बच्चे के मुख से सहज सत्य कहलाकर पाठक के मन को अन्दर तक छू लेने वाली लघुकथा है। 

एक गरीब लड़की कैसे असमय प्रौढ़ बन जाती है। घर में मां, दादी की कही बातों को बिना जाने ही मान जाना और मालकिन से भी उसे मानने को कहना। उसकी मासूमियत को 'कतरे हुए पंख' लघुकथा में बहुत प्रभावी रूप से दर्शाया गया है। मालकिन का उसे स्कूल भेजना, साथ ही पगार भी देते रहना, उसके उड़ने को पंख लगा देता हैं।

'विभाजित सत्य' एक स्त्री और जमीन का आपसी संवाद जिसमें स्त्री जमीन से कहती हैं कि "मैं तुम्हारा दर्द समझती हूँ। जमीन बिकने के बाद भी अपना स्वभाव और स्थान नही बदलती, जबकि स्त्री को मालिक के अनुसार बदलना पड़ता हैं।" लघुकथा की हर पंक्ति पाठक को  सत्य से जोड़ती है।

'खटर -पटर'।  पाठक पति पत्नी के बीच की लड़ाई को औरत और मर्द के रुप में जब देखता है, उसका नजरिया ही बदल जाता है।

ऐसे ही, 'श्रम की कीमत' आरम्भ से अंत तक पाठक को बांधे रखती है। मजदूर के हाथों की फटी हथेलियों को देख मजदूर के बिना कुछ कहे ही पूरा पारिश्रमिक दे देता है। आखिर मेहनत की अनदेखी नहीं कर पाता।

"स्वभाववश" सांप और नेवले की लघुकथा, जिसमें दोनों अपनी लड़ाई से उकताकर भगवान से एक ही प्रजाति में जन्म लेने की इच्छा रखते हैं ताकि साथ रहें और एक-दूसरे से प्रेम भी करें। दूसरे जन्म में तब एक स्त्री और एक पुरुष बना यानी मनुष्य जाति में भी एक-दूसरे के विपरीत।

"परिमलतुम कहां गये" में एक बिगड़ैल बेटे को मां अपना बेटा मानने से मना कर देती है। अच्छी लघुकथा ।

'अहिल्या का सौन्दर्य', जमीर की हिफाजत', 'बदनीयत', 'तालियां', 'नशे', बन्दगी', 'आहुति', 'इंजीनियर बबुआ', 'जंगली', 'रंडी', 'पगहा', विविध विषयों और समाज में उभरती विसंगतियों पर चोट करती लिखी गयी, पाठक के मन पर प्रभाव छोड़ती लघुकथाएं हैं। ये लघुकथाएँ पाठक के मन में चिंतन-मनन का धरातल बुनती हैं और पाठक विचलित हो सोचने पर मजबूर हो जाता है। हर लघुकथा में अपने आसपास के परिवेश का प्रभाव दिखता है। इस तरह ये अपना अर्थपूर्ण संदेश देने में  कामयाब रही हैं ।

मुझे विश्वास है कि कान्ता जी का लघुकथा संग्रह पाठकों को अवश्य ही पसन्द आयेगा और वो संग्रह को अपना पूरा स्नेह देंगे।

मैं इस लघुकथा संग्रह के लिए कान्ता जी को प्रणाम करती हूँ। हार्दिक बधाई, शुभकामनाएं देती हूँ। इसी तरह उनकी लेखनी निरंन्तर चलती रहें और हम उनकी  पुस्तक पढ़कर लाभान्वित होते रहें।

बबिता कंसल, दिल्ली


 

 

 

 

 

 

 

 

Saturday 5 November, 2022

लघुकथा : सृजन भूमि और समालोचना / डॉ. बी. एल. आच्छा

Prof. B L Achchha

साहित्य एक व्यापक संज्ञा है और विधाएँ उसकी अभिव्यक्ति का सहज प्रतिबिम्बन। विधाओं की विषयगत या भावगत अनुरूपता होती है। मसलन गीत के लिए जो अंतरंग भाव सघनता की लय चाहिए तो कथा-कुल के लिए गद्य का पठार | पर ऐसा भी नही कि कविता में लय ही लय होती हो और कथा- कुल में भाव- सघनता से रिश्ता- नाता न हो। इसीलिए आज की कविता में गद्य-अभिव्यक्ति ने भी ताल ठोककर पहचान बनाई है और कथा-साहित्य भी गद्य-गीत की लय में संक्रमित हुआ है। यह परिवर्तन जब रचनाओं में घटित होता रहता है, तो  आलोचक की दृष्टि इस बदलाव को परखती है। और जब युग- सापेक्ष संवेदन या वैचारिक संबोध में भावान्तर आता है, तब भी वह पड़ताल का विषय बनती है। तो क्या इस बदलाव की किसी सुनिर्धारित शास्त्र से फॉर्मेट से, सुनिश्चित मानकों से तौलना चाहिए? स्पष्ट है कि रचना में बदलाव आया है और वह प्रवाह यदि कन्टेन्ट और फॉर्म में भी उतरा है, तो मानदण्ड स्थायी नहीं हो सकते।

           
रचना का तापमान अलग तरह का है, तो बेरोमीटर भी बदलाव के लिए प्रतिश्रुत है। पर इसका अर्थ यह भी नहीं कि पुराना शास्त्र खारिज हो जाता है और नये को परखने की दृष्टि ही पुराने शास्त्र के हिसाब से बेगानी हो जाती है। कालिदास जब ‘पुराणमिवत्येव न साधु सर्वम् ‘की बात करते हुए नये की प्रतिष्ठा  करते हैं ,तो तय है कि रचनाधर्मिता में बदलाव आया है, फिर कसौटी में भी बदलाव आएगा! आखिर बासी उत्तरों से भी नये सवाल खड़े होते हैं। और साहित्य तो उस रमणीयता का उपासक रहा है। जो कहता है- ‘क्षणे क्षणे यन्नवतामुपैति तदैव रूपं रमणीयताया:।” कालिदास साहित्य में इसी प्रयोगविज्ञान के उपासक थे। लघुकथा हो या साहित्य की अन्य विधाएँ, ये सभी नवोन्मेषी प्रयोगशीलता की माँग करती हैं। क्योंकि युग बहुत गतिशील है, तकनीक और विचार में भी ; इसलिए साहित्य में यह गतिशीलता और बदलाव दशक-पंचक में उतर आये है।
             

समीक्षा या आलोचना रचनापेक्षी है। शास्त्र तो एक तरह से नौसीखियों के लिए सधी हुई सीढ़ियाँ हैं। पर वे भी इतनी सुगठित है कि न तो छठी शताब्दी के आचार्य भामह की  अनदेखी की जा सकती है, न आचार्य भरत के नाट्यशास्त्र की। हिन्दी में यह बात आचार्य शुक्ल और  हजारीप्रसाद द्विवेदी प्रभृति अनेक आलोचकों की परंपरा मे पुनराविष्कृत हुई है। वामपंथ में भी और रसवादी आनंद धारणा में भी पर बदलाव बहुत आये हैं। मार्क्स, फ्रायड, पूँजीवाद, आधुनिकता, उत्तर- आधुनिकता, ग्लोबल से गुजरते हुए और नयी विधाओं के रूपांकन के साथ उनके निरन्तर बदलाव में भी।
            

अब किसी फार्मेट या चौखट से  बंधकर लिखना संभव नहीं है। यों भी साहित्य हर काल में परम्परा का अतिक्रमण करता है। यदि घनानंद कहते हैं कि–“लोग हैं लागि कवित्त बनावत, मोहि तो मोरे कवित्त बनावत।” लक्षणों के आधार पर निर्मित काव्य- व्यक्तित्व एक बात है और स्वानुभूत प्रयोगविज्ञान से निर्मित व्यक्तित्व नितांत अलहदा। इसीलिए शास्त्र को रचनात्मक व्यक्तित्व के विकास की सीढ़ियां कहा है, व्यक्तित्व का मूर्ति स्थापन नहीं| रचनाकार पुरानी मूर्तियों को गला भी देता है, तो नये आविष्करण के लिए । इलियट इसे ट्रेडिशन एंड  इन्डिविज्युअल कहते हैं। हम भी जानते हैं कि जब कोई विधा ऑटोमेटिक सी हो जाती है, यहाँ तक कि रचना किसी प्रवाह या वाद- संबद्ध भी तो उसपर भीआघात होता है। नयी रचनाधर्मिता अतिक्रमण करती है। पर आलोचक के लिए उन्हीं सोपानों का यानी शास्त्र का ज्ञान जरुरी है। और रचनाधर्मिता में आ रहे बदलावों को चीरकर देखने की नयी दृष्टि भी। साथ ही इन बदलावों के पैटर्न को समझकर शास्त्रीय दृष्टि को नवनवीन बनाने की। रचना भी बदलती है और शास्त्र भी बदलता है। रचना को समझने के लिए शास्त्र भी जरूरी हैं और रचना के बदलाव को समझने के लिए लोचदार शास्त्रीय दृष्टि भी।
पैरवी में उठा हाथ हो सकता है, विवशता की बॉडी लैंग्वेज हो सकती है। और… और… पर अंतर्गठन तो उत्स से लेकर पूर्णता तक एक दिशा, एक गंतव्य। अब इसे कितने शब्दों में रूपाकृत किया जाए तो शास्त्रीय निर्देश भी साधक हैं- ‘अन्यूनातिरिक्तत्वं मनोहारिणी अवस्थितिः। न कम न अतिरिक्त शब्द- रचना मनोहारी होती है। तय है कि कथा भी होगी, कथारस भी, ध्वनियाँ भी, शब्द भी, संवाद भी, कथानकीय मोड़ भी, दृश्य-नाट्य भी, परिवेश भी, चरित्र का केंद्रीय संघटन भी, संदेश की दिशा भी। मगर सारा लक्ष्यधावन तो उसी अंतिम बिन्दु के लिए समर्पित,  जिसके लिए कथा का रचाव है। इसलिए न प्रासंगिक कथाजाल, न बहुचरित्रीय, न परिदृश्यों की पट्टभूमि ।तंतुजाल तो हो लता की तरह, पर उसी में कोई फूल खिलकर मुखर हो जाए। संपूर्ण लता की बात नहीं, केवल एक पुष्प के लिए जो तंतुजाल बुना जाता है, बस उसी के प्रतीक के रूप में।
          

अब कई बार यह भी कहा जाता है कि क्या दो काल और दो कथाएँ समांतर रूप से नहीं चल सकतीं? मेरा मानना है कि हर्ज नहीं है क्योंकि युगांतर को दर्शाने के लिए ऐसा हो सकता है, पर समांतर योजना का उद्देश्य भी एक बिन्दु पर जाकर विस्फोट करना है। उदाहरण के लिए भृंग तुपकुरी की लघुकथा’बादशाह बाबर का नया जन्म’ मे बाबर की शहंशाही सल्तनत और राजेश की बेबसी विरोधी रंग योजना में समांतर कथानक रचते हैं, पर दोनों ही विवशता के शिखर पर माइक्रो हो जाते हैं। या अशोक वर्मा की ‘खाते बोलते हैं' के कालान्तर के तीन परिदृश्य। पर मार तो अंतिम परिदृश्य के ‘रामभरोसे’ के व्यंग्य और सामाजिक-आर्थिक स्थिति पर ही है। इसे कालदोष मानने की जरूरत भी नहीं।
         

लघुकथा चाहे आतिशबाजी में तीर की तरह आकाश में नुकीले क्षण पर विस्फोट कर अपने रंग बिखराये या चक्री की तरह घुमावदार होकर जमीनी वृत्त में ही बिन्दु विशेष को जगमगा दे, पर उसका वृत्त समूचे परिदृश्य या चरित्र को प्रकाशी बनाने का नहीं है। “क्षण को सीमित अर्थ में लेना ठीक नहीं, उसके साथ वह अनुभूत चक्र भी है, जो एक दिशा में ही एक अपनी अणु- व्यंजना पर संकेन्द्रित होता है। लघुकथा एकरेखीय नहीं है, वह मनस्थितियों का संघर्ष भी है, विरोधों की तल्खी भी है, तटस्थता की चुप्पी की भीतरी व्यथा भी है, समाजशास्त्र का छोटा सा एकांश भी है, चरित्र की माइक्रो झलक भी है। और इतना जरूर है कि सारा कथाविन्यास अपने व्यंजक शीर्ष के लिए समर्पित हो। लघुकथा न बौन्साई है, न कहानी का लघु- संस्करण। इस सूक्ष्म, इस क्षण, इस शीर्ष, इस अणु, इस मेक्रो की संघनित अभिव्यक्ति का पूर्ण बिम्ब उतरकर आ जाए और वह कहानी में परिवर्तित होने की संभावनाओं को भी यह जतला कर समाप्त कर दे कि इससे व्यंजना का घनत्व बिखर कर अपनी क्षमता को खो देगा। तय है कि ऐसी बुनावट लघुकथा को संक्षिप्त आकार ही देगी, क्योंकि यह सौ मीटर की दौड़ है, मैराथन नहीं। तलवार, कटार और चाकू तीन अलग अलग हथियार हैं, उसीतरह आज कथाकुल की सबसे छोटे आकार की लघुकथा अब विधारूप में स्थापित है, शब्दों की संख्याके आधार पर नहीं, स्वरूप की संभावित पहचान के आधार पर।

और किसान- मजदूर, मजलूम झंडा गाड़ गये। श्रेष्ठता के सामाजिक अधिमान वाले सारे पात्र जब कथा साहित्य से झड़  गये हैं, तो साधारण आदमी के सारे मनोराग, सारी दुर्बलताएँ, सारी शक्तिमत्ता, सारे संघर्ष, सारे सोच, परिवार, समाज और में उसकी केन्द्रीयता, उसकी वैयक्तिक सत्ता अस्मिता और सामाजिक स्वतंत्रता, विवशता और मानवीयता जैसे अनेक अक्स कथा साहित्य में आ गए। कभी उच्च-मध्य-निम्त वर्गीय अवधारणाओं और संघर्ष के साथ, कभी अवचेतन की कुंठाएँ, कभी राजनैतिक-सामाजिक प्रतिरोध, कभी विवश दैन्य की चीख तो कभी संकल्पों की हुँकार। और इन अक्सों के भी कई भीतरी अक्स हैं। और कहना होगा कि ये अक्स, ये संवेदन, ये परिदृश्य ,ये मनोराग, ये अनुभूतियाँ इतने पार्श्वों के साथ संजीदा हैं, जिन्हें लघुकथा के कलेवर में ही संघनित अभिव्यक्ति मिल सकती है। आखिर सूरज का अपना आकाश है, और जुगनू के लिए रात के अंधेरे के परिदृष्य में क्षणिक मगर रेखांकन योग्य चमक। हिंदी लघुकथा जुगनू की इस चमक में अपने समय के उजले- अंधेरे अक्सों को इन पात्रों के माध्यम से व्यक्त कर रही है। अब इन पात्रों का शास्त्रीय दृष्टि से वर्गीकरण संगत नहीं है, न ही उसकी सार्थकता सवाल। इतना ही है कि वह पात्र भी कितना स्मरणीय बन जाता है।
          

ये चरित्र लेखक की तयशुदा मानसिकता के उत्पाद हैं, या किसी वैचारिक हलचल, आदर्श-यथार्थ की टकराहट, परिवर्तन की आकांक्षा, पीढ़ियों के टकराव, यथास्थिति और संवेदनशीलता के द्वंद्व के नये रचाव की सूक्ष्मता युगबोध, नक्काल आधुनिकता  पर प्रहार, मुर्दा आस्थाओं का प्रतिकार, किसी सूक्ष्म भाव रसायन की मानवीय अर्थवत्ता या तलस्पर्शी फलसफ़ों से इस तरह सने हों कि लघुकथा के सूक्ष्म आकार में भी चरित्र और कथा एकमेक हो जाएं। पर इससे लघुकथा की अन्विति प्रभावित न हो कभी ली लघुकथा मे चरित्र के दो केन्द्र बन जाते है। कन्हैया लाल मिश्र 'प्रभाकर' की ‘इंजीनियर को कोठी' में केन्द्र तो इंजीनियर है, पर माली का चरित्र भी उतना ही प्रभावी। इससे चरित्र का केन्द्र स्खलित होता है। इसके बजाय प्रसाद का ‘गूदड़ सांई’ एक संपूर्ण चरित्र बन जाता है, अविस्मरणीय।

लघुकथा में संवाद सपाटपन, सहजबयानी और वर्णनात्मक ठंडेपन पर प्रहार करते हैं।अपनी जीवंतता, संवेदनीयता और कहन के भीतरी प्रेरकों से। कभी कभी तो लघुकथा का चरमांत कथन अपने में की पूरी ताकत दिखाता है। कभी इनमें प्रहार, कभी छुअनभरी संवेदनीयता, कभी प्रतिकार , कभी दर्शन की गहराई, वहीं प्रतिबोध कहीं व्यथा, कहीं क्रियात्मक संवेग, कहीं भीतरी कुंठा, कहीं मनोवेग, कहीं दोहरापन आदि इसतरह व्यक्त होते हैं कि सारे संवाद चरित्र के आत्मसंघर्ष को नुकीले अंत तक पहुॅचा देते हैं। इनमें कहीं गद्यगीतों का मार्मिक गुंफन, कभी व्यंग्य की मार, कभी खुली चुनौती, कभी आत्मव्यथा आदि संवेग रचना की अपेक्षानुरूप बुन दिये जाते हैं। बल्कि ये संवाद खुद ही लघुकथाकार के मानस पर इस तरह छा जाते हैं कि शब्दों में भाव-तरंगें झंकृत हो जाती हैं।  

             

भाषा-शैली के तेवर इन लघुकथाओं को संदेश और आस्वाद की दृष्टि से, चेतना और कलात्मक स्थापत्य की दृष्टि से असरदार बनाते हैं। आधुनिक लघुकथाओ’ में तो बिंब, प्रतीक, सांकेतिकता, मिथक, विरोधी रंगों का संयोजन या कंट्रास्ट, व्यंग्य, आंचलिकता, शब्दलय और अर्थलय, अन्योक्ति, काव्यात्मक स्पर्श, खड़खड़ाते शब्दों की आग, कभी सम्मूर्तन कभी अमूर्तन, कभी चित्रात्मकता, कभी सांगीतिक प्रभाव कभी संस्मरणात्मक या रेखाचित्रात्मक भाषा, कभी देशी-विदेशी शब्दों की कोडमिक्सिंग से लघुकथा में विन्यास की चालक शक्ति को नियोजित किया जाता है कि लघुकथा का अंत अपने पैनेपन में एक खासतरह की चुभन बन जाता है। पर यह सब रचना की अंतर्वस्तु की प्रेषणीयता पर निर्भर करता है। शब्दों, ध्वनियों, वाक्य योजना के प्रवाह, विराम चिह्नों की सार्थकता या अर्थव्यंजना में सहकारिता, अर्थ की सांकेतिकता आदि का चयन लेखकीय क्षमता का प्रतिमान बन जाता है। फिर शैलीगत प्रयोग तो लघुकथा में निरंतर हो रहे हैं। कथाकथन की शैली से लेकर पंचतंत्रीय शैली तक, संवादात्मक शैली से आत्मकथा या डायरी शैली तक, मिथकीय प्रयोगों से लेकर कालांतरों के परिवर्तन तक।

            

जहाँ तक परिवेश या केनवास का सवाल है, लघुकथाकार शब्दों की मितव्ययता के साथ परिवेश के नियोजन में भी सार्थक मितव्ययता का ही परिचय देता है। प्रकृति का उतना ही अंश जो लघुकथा की मनःस्थिति का पोषक हो । घर-परिवार का उतना ही नाट्य दृश्य, जो रचना के भीतरी तनाव और संदेश का क का नियोजक हो । एकतरह से सृजन और कतरन एक साथ चलते हैं, सर्जक के भीतर के आलोचक की तरह।बड़ी बात यह कि प्रकृति, जीवन या समाज ये सादृश्य तभी सकारक होते हैं, जब वे लघुकथा की भीतरी जरूरत का अनिवार्य हिस्सा बन जाते हैं। यथार्थ भी, कला भी, परिवेश भी ,संवेदना भी,चित्र भी, मनःस्थिति भी ।

              

पर बात उस चरमांत की है,जिसे पुरानी भाषा में उद्देश्य कहा जाता है।और ये सारे तत्व, सारे रचाव, सारी यति-गतियाँ, सारे चरम विन्यास, शैलीगत विन्यास इसी पैनी, भाव-संवेदी अर्थवत्ता से जुड़े हैं। लघुकथा की अंत:प्रेरणा से लेकर उसकी व्यंजना तक ।सारे कथा-विन्यास का वात्याचक्र, वैचारिक संवेदन का मर्म, माइक्रोस्कोपिक चित्रण का ऊर्जा बिन्दु, व्यंग्य की मार, संघर्ष के चरमान्त, की चेतना, संवेदना का तर्क, चुभन का एन्द्रिय मनस्तात्त्विक उद्वेलन, यथार्थ का साक्षात्कार, जड़ता पर कौंधभरी चेतना, पतनशील मूल्यों से मुठभेड़ करता विवेक, अन्तर्विरोधों की सूक्ष्म पकड़ ,लेखकीय प्रवेश से रहित उसके आंतरिक मनस्ताप वाला व्यक्तित्व इस उद्देश्य में विशिष्ट छाप छोड़ जाते हैं। गेहूँ की बाली का कद छोटा ही होता है, पर सूखने के बाद उसका नुकोला सिरा कितना चुभनदार होता है। इस चुभन में लघुकथा का अंतरंग जितना छुपा होता है, उतना ही पाठक के भीतर का प्रभावी संवेदन भी।

           

पर ये छह तत्व तो सीढ़ियाँ हैं, दरवाजे हैं। न जाने कितनी खिडकियाँ और वातायन हैं, जिनसे कोई कौंध अपनी गमक के सा प्रविष्ट हो जाती है और रचनाकार के भीतरी रसायनों से से श्लिष्ट होकर रूपाकृत हो जाती है। खासकर लघुकथा के लिए इनका कंडेसिंग या संघनन बहुत छोटे आकार में बड़ा संदेश देने की जद्दोजहर करता है। तो  भाषिक विन्यास को कितना काटना-पीटना, तराशना, संप्रेषी तत्वों में रचाना एक गहरी तन्मयता और समावेशी कला की मांग करता है। शीर्ष संवेदन की संप्रेषणीयता से सिद्धि के लिए भाषा के तमाम घटक यदि पथार्थ के नुकीले अक्स तक जाएँ, भावतरलता में रूपांतरित करें, ये तर्क से पाठक की चौखट को खटखटाएँ, नये शिल्प के प्रभावक बनें, पुराने शिल्प में नयी संवेदना के संवाहक बनें तो लघुकथा पाठक भी पूँजी बन जाती है। कोई तर्क, कोई संवेदना, यथार्थ का कोई सिरा तीर की तरह राह चीरता हुआ पाठक तक पहुँच जाए और उसके हृदय-मस्तिष्क मे टन्न बजा दे ।
         

ये सारी बातें पुरानी भी हैं और बहुत कुछ नयी भी, बल्कि अभिव्यक्ति में प्रयोगी भी। पर कुछ अच्छी लघुकथाओं के आधार पर कहूँगा कि सावयविक अंतर्ग्रथन (organik unity ) जरूरी है। बुनावट में यह संवेदन और भाषिक विन्यास की बुनी हुई मित्रता है, उसके नाट्य और विज्युअल रूप में।कई बार इनके भीतर यथार्थ का पठार और गद्यगीत की भावुकता मैत्री करते हुए गड्‌मड्ड हो जाते हैं। जो प्रतीक या चरित्र उभरते हैं, वे संपूर्णता में खुद को विकसित नहीं कर पाते। पर मूल संघर्ष और उसकी वांछित परिणति के निर्मायक बन जाते हैं। लेखक पात्रों को अपने तोतारटंत संवादों से नहीं लादता, बल्कि नेपथ्य में ही संवेदना का अंग बन जाता है।
            

और इस सब के लिए शिल्प की चालक शक्ति ही कारगर है, बिना किसी नक्काशी के, बिना जड़ाऊ शिल्प के | सार्थकता संवेदनात्मक चरमान्त के साथ पाठकीय प्रवेश में है। इसीलिए बहुत ज्यादा अमूर्तन या
सपाटपन से पाठक दरवाजे पर ही ठिठक  जाएगा। चाहे झनझनाए, तरल कर दे, उदात्त बनाये, तर्क खड़ा करे, यधार्थ के किसी कोने को शीर्ष बनाए, कभी नयी मर्यादा गढ़े, पुराने को खंडित करे, विरोध की तनी हुई मुट्ठी बने,विसंगति के खिलाफ प्रतिपक्ष या प्रतिरोध बने, पर लघुकथा समकाल की वैचारिकी से भरीपूरी हो और रचाव मे अन्तस्तंतुओं से इतनी गहरी बुनी हो कि उसनके किसी हिस्से को काटना, या बदलना नामुमकिन हो जाए। 
             

लघुकथा की वस्तुपरक (objective) पड़ताल के अतिरिक्त एक पक्ष और है मूल्यांकन का | तब नये बिन्दु उमरते हैं – रचना का यथार्थ और जीवन का यथार्थ। कई लोग इनके सीधे तुलना करते हैं, तो कई रचना के यथार्थ को विशिष्ट मानते हैं। इसलिए भी कि रचना में कलात्मक संप्रेषण के साथ रचनाकार की सृजन- भूमि के मनस्तत्व वैचारिकी  से संश्लिष्ट होते है। कई बार कल्पना और कला तत्व उसे स्थूल यथार्थ की अपेक्षा संवेदनीय यथार्थ में इसतरह विन्यस्त कर देते हैं कि जीवन की धड़कन ही विशिष्ट हो जाती है। पर जो मूल्यगत प्रतिमान होते हैं, उन्हें आलोचक विचारधारा, अपनी आलोचना दृष्टि और पूर्वाग्रहों से परखता है, तो विवाद भी होते हैं। देखना तो यह भी चाहिए कि  लेखक जिस उद्देश्य को लेकर चला है, वह रचना से संप्रेषित होता है या संदेश और रचना के विन्यास में कोई खोट है। मूल्यग्गत प्रतिमान सब्जेक्टिव या विचारधाराओं की प्रतिबद्धता लिए हों तो परिणाम भी वस्तुनिष्ठ नहीं हो सकते। असल में तीन चरण हो सकते हैं- रचना के भीतर दो-तीन बार अन्तर्यात्रा। रचना की भाषा से रचना का सूक्ष्म विश्लेषण। सूक्ष्म विश्लेषण के आधार पर रचना की मूल्यगत पड़ताल और जीवन सापेक्षता। इससे रचना केन्द्र में रहेगी और मूल्य प्रतिमान रचनापेक्षी।
             

इस लंबे विमर्श में विमर्शों की भी अपनी भूमिका है, क्योंकि वे समकालीनता का चर्चित पक्ष होते हैं। व्यापक तौर पर ये वैचारिक विवेक के पक्षधर हैं;जो सामाजिक रूप से मानव नियति को समता और बेहतर जीवन तक ले जाते हैं। चाहे जेण्डर समता हो, वर्गीय विषमता का संघर्ष हो, तकनीक और जीवन का पक्ष हो, पर्यावरण ‘और जैविक संतुलन का पक्ष हो । पर इन सबसे साक्षात्कार लेखक की वैचारिकी का हिस्सा है। यह हिस्सा सृजनात्मक बनकर रचना में आए, न कि विचारधारा के साधन के रूप में । विमर्शों से रचना का कथ्य लदा न हो, वल्कि विमर्श पात्रों की चेतना और कथ्य का सहज पक्ष बनें। यह भी कि रचनाएं विमर्श को नये कोण दें ,संवेदना के नये अक्स दें और विमर्श इस सृजनात्मकता से अधिक समृद्ध हों।
       

इतना सब कहने के बावजूद लघुकथा और उसकी समालोचना में ”इदमित्थम्’ तो नहीं हो पाता। बात तभी सार्थक लगती है, जब रचना के ध्वनि पक्ष से लेकर उसके सारे भाषिक तत्वों से गुजरा जाए। मुक्तिबोध इस रूप में संगत लगते हैं कि रचनाकार भाषा के सिंहद्वार से बाहर आता है।तो आलोचक भाषा के सिंहद्वार से रचना में प्रवेश करता है। पाठक रचना का सहयात्री बन जाए और आलोचक रचना की भाषिक संरचना से ध्वनित संदेश का वस्तुपरक-मूल्यपरक मूल्यांकन करें।

(लघुकथा डाॅट काॅम,  नवम्बर 2022 से साभार)

डाॅ. बी एल आच्छा

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