Tuesday 21 June, 2016

कुल्हाड़ा और क्लर्क / पूरन मुद्गल

दोस्तो, वयोवृद्ध लेखक श्रीयुत् पूरन मुद्गल ने कृपापूर्वक 'दैनिक हिन्दी मिलाप' के जालंधर से प्रकाशित होने वाले उस संस्करण (बुधवार, दिनांक 24 जून, 1964) की फोटो-प्रति उपलब्ध कराई है जिसमें उनकी पहली लघुकथा 'कुल्हाड़ा और क्लर्क' प्रकाशित हुई थी। आप के अवलोकनार्थ फोटो-प्रति के साथ ही लघुकथा का पाठ अलग से भी प्रस्तुत है।----बलराम अग्रवाल



परिचय पूरन मुद्गल जी :
जन्म : 24 दिसम्बर 1931 को फाजिल्का (पंजाब) में
लघुकथा संग्रह 'निरंतर इतिहास' और 'पहला झूठ' सहित कुल 8 पुस्तकें प्रकाशित।  पत्रिका  'अक्षर पैगाम' का सम्पादन। अनेक सम्मानों  से अलंकृत।
देहावसान : 11 नवम्बर 2019 ।
निवास का पता : 309/5 ए, अग्रसेन कालोनी, सिरसा-125055 (हरियाणा)
मोबाइल : 09253100377
  

Friday 17 June, 2016

अशोक गुजराती की लघुकथाएँ व उनकी लघुकथा-दृष्टि

लघुकथाएँ 
 

॥1॥ मारना कितना आसां

मैं क़बूल करता हूं कि मैं ही था वह... हां, वही जिसने बाबरी मस्जिद कांड के बाद भड़के दंगों में अपने सैकड़ों विजातियों को मौत के घाट उतारा था. छोटे-छोटे बच्चे! हाऽ-हाऽ-हाऽ चलते-चलते अपनी तलवार से उनके सर को धड़ से जुदा कर एक सुकून से तर-ब-तर हो जाता था मैं. जी हां, वही बंदा, जिसने मंटो की कहानियों के पात्रों को पुनर्जीवित कर दिया था. ‘खोल दो’ की बदहाल सकीना या ‘ठण्डा गोश्त’ की ख़ौफ़ज़दा मृत युवती को मन-माफ़िक़ रौंदते हुए मैं अपनी पीठ ख़ुद ही थपथपाता रहा था. इनके सामने सामानों, जानवरों, इमारतों की शख़्सियत ही क्या है. आगज़नी, लूटपाट तो मामूली चीज़ें ठहरीं. यान ओत्चेनाशेक के ‘रोमियो जूलियट और अंधेरा’ की तरह मुझे मिली युवा लड़की के साथ भी मैं पूरी रंगरेलियां मनाता नहीं थका था. यूं समझो कि इस फ़साद को सौ टका मैंने अपनी दबी वासना और अपराधिक मनोवृत्ति के उपभोग के हिसाब से भुनाया और क़ामयाब रहा. आख़िर में शरीफ़ का शरीफ़ !
          फिर... अब क्या हुआ ? अब क्यों मैं ज़हर का प्याला अपने मुक़ाबिल रखे ख़ुदकुशी करने पर आमादा हूं... मैं तो इतना साहसी था, जोश से सराबोर --- कुछ भी करने को तैयार. किसी ने कभी मुझ पर कोई शुबहा भी नहीं किया, न समाज में मेरी इज़्ज़त में कभी कोई कमतरी हुई. न ब्लड प्रेशर का मरीज़ और न कायर. अच्छी-ख़ासी कमाई, छोटा सुखी परिवार. मुस्तक़बिल की पर्वाह और आज की फ़िक्ऱ मेरे लिए बेमानी रहे. तब... मैं क्यों अपनी जान का दुश्मन बना जा रहा हूं... जानना चाहते हैं... ठीक है... बताता हूं लेकिन अपने कमज़ोर दिल को थामे रखिएगा...
          ज़रा-सा वाक़या है. मेरी दूध-डेयरी है. मैं दुकान में बैठा ग्राहकों को निपटा रहा था. डेयरी बंद करने का वक़्त क़रीब था. मैंने काउंटर से नोट निकाले. तरतीबवार लगाकर उन्हें गिन रहा था. इतने में मेरा एक साल का बेटा नंग-धड़ंग ठुमकते हुए आया-- ‘पप्पा, मम्मी खाने के लिए बुला लही हैं...’ मैंने पप्पी लेते हुए उसे नज़दीक की कुर्सी पर बैठाते हुए कहा, ‘आप थोड़ा आराम से बैठिए, मैं अभी चलता हू..’ मैं फिर से शाम की आवक समेटने में लग गया. कनखियों से निगाह रखे था कि छोटे मियां कुर्सी के हत्थे पकड़ कर खड़े होने की कोशिश कर रहे हैं. मैं उनकी इस भोली-भाली, पर हिम्मतभरी अदा का क़ायल हो मन-ही-मन मुस्कराया. तभी... पता नहीं कैसे हो गया.. मैं देख रहा था.. मुन्ने के सायास खड़े होते ही कुर्सी उलार हो आगे की ओर झुकी.. एक झटके में मुन्ने को ऊपर उछालती हुई पलटी.. मुन्ना उस उछाल के साथ सीधे भट्ठी पर रखी कढ़ाई के उफनते दूध में जा गिरा.. मैं दौड़ा.. उबलते दूध में दोनों हाथ डाल उसे पकड़ना चाहा.. वह फिसल गया.. मैंने पुनः प्रयास किया, उसका तेलीय शरीर मेरी जकड़ से छूट-छूट जाता रहा.. दूध की चिकनाहट और गर्मी से मेरी उंगलियों की पकड़ सख़्त नहीं हो पा रही थी.. मैंने फिर प्रयत्न किया.. दिल-दिमाग़ को मज़बूत कर उसे ज़ोरों से पक्का थाम लिया और ऊपर उठाकर  तुरंत अपने सीने से लगाया...
          इसके पश्चात क्या-क्या हुआ होगा, आप सोच सकते हैं.. सब दौड़े हुए आये मेरा चीत्कार सुनकर. डाक्टर को फ़ौरन बुलाया. पत्नी, बड़ा बेटा और बेटी की आंसुओं की धारा रुके न रुकती थी. मैं कभी उन्हें सांत्वना देता, कभी ख़ुद को सम्भालता. डाक्टर ने चेकअप किया.. उनकी उदास आंखों ने सारा कुछ बयान कर दिया.. सब ख़त्म हो चुका था.. मेरी आंखों के सामने... काश कि मैंने उसे कुर्सी पर न बैठाया होता.. उसके साथ भीतर चला गया होता.. या उसे अपनी गोद में लेकर हिसाब करता.. या उसे तुरत-फुरत दूध से बाहर निकाल पाता.. मैं नहीं बचा सका उसे...
          मैंने इतने लोगों को मारा, कुचला, बर्बाद किया और एक जान... एक जान बचा नहीं सका. मुझे ज़िन्दा रहने का कोई हक़ नहीं है...

॥2॥ अंदाज़ नया

वे साठ पार कर चुके थे. उनकी पत्नी उनसे सात वर्ष छोटी थी. बुढ़ापा उनका था लेकिन पत्नी को गठिया की दर्दनाक तकलीफ़ हो गयी. घुटनों ने साथ छोड़ दिया और चलना-फिरना मुश्किल हो गया.
        वे जहां तक हो सके उसे सहारा देते रहते. एक दिन इस परेशानी के चलते उन्होंने मज़ाकिया लहज़े में पत्नी को सलाह दे डाली--‘ऐसा करते हैं, मैं दूसरा विवाह कर लेता हूं. वह हमसे जवान तो होगी ही, तुम्हारा पूरा ख़याल रखेगी और मेरा भी...’
        पत्नी ने उन्हें कनखियों से देखते हुए पूछा, ‘ये बताइए कि मर्द ज़्यादा सक्षम होता है या औरत ?...‘
        उन्होंने प्रश्न का मर्म न समझते हुए सहज ही उत्तर दे दिया, ‘मर्द!'
       पत्नी ने हल्की-सी मुस्कान के साथ उन्हें सवाया सुझाव देने में कोताही न की, ‘फिर यूं करते हैं, मैं ही दूसरी शादी कर लेती हूं. वह मुझे तो अच्छे-से सम्भाल लेगा ही, आपको भी...’

॥3॥ हवा

पत्नी से उसका तलाक़ हो गया था. अदालत के आदेश के अनुसार, कि उसको अभी मां के सामीप्य की ज़रूरत है, वह अपनी पांच वर्षीय बेटी को भी खो चुका था.  
   वह अकेला अपने ख़यालों में उलझा बैठा हुआ था. दरवाज़े के सामने उसे अपनी बेटी की समवयस्क और सहेली लता खेलती हुए दीखी.
   उसने उसे आवाज़ दी. वह आयी. उसने चाकलेट निकालकर उसे देते हुए अपने क़रीब खींच लिया.
   लता ने चाकलेट खाते हुए सवाल किया, ‘अंकल, प्रग्या कब आयेगी...?'
   उसने उदास-सा जवाब दिया, ‘बेटे, अब वह कभी नहीं आयेगी...' फिर अपने आंसुओं को रोकते हुए कहा, ‘अब तू ही मेरी बेटी है... तू ही प्रज्ञा है...’ और उसने उसका चुम्मा ले लिया.
   उसी वक़्त लता की मां ने, जो बिलकुल पड़ोस में ही रहती थी, आंगन में आकर उसे पुकारा-- ‘लता... ओ लता...’
   आयी मम्मी...’ कहते हुए लता दौड़ पड़ी. वह फिर अपने दुख में डूब गया.
   लता को लेकर उसकी मां अन्दर गयी. टीवी चालू था. उस पर पिछले दिनों बच्चियों के साथ हुए बलात्कारों पर चर्चा चल रही थी. मां ने उससे पूछा, ‘बेटी, वहां क्या कर रही थी ?’
   लता ने बताया कि अंकल ने बुलाया और चाकलेट भी दी. मां सतर्क हो गयी-- ‘और क्या किया?'
   लता ने असमंजस में पड़ते हुए सरलता से कहा, ‘कुछ नहीं मम्मी.’
   मां ने संतुष्ट होना चाहा-- ‘तुझे अपने नज़दीक लेकर गोद में तो नहीं बैठाया...?’
   नादान लता ने तुरंत उत्तर दिया- ‘हां... मेरी पप्पी भी ली...’
   अरे! ऐसा किया उस शैतान ने... चल... चल मेरे साथ, उसकी ख़बर लेती हूं...’ मां ग़ुस्से में थी.
   वह लता को लेकर उसके घर पहुंची. क्रोध से भरी वह चिल्लायी-- ‘कमीने, तेरे को शर्म नहीं आयी... अपनी बेटी जैसी लड़की को पास में लेकर चूमा-चाटी कर रहा था... ठहर ज़रा... मैं अभी पुलिस को फ़ोन करती हूं...'

॥4॥ जादूगर

जादूगर तरह-तरह के करिश्मे दिखा रहा था. लोग तालियां बजा-बजाकर उसे बार-बार दाद दे रहे थे. यह रात का सेकिंड शो था. बढ़ती हुई उमस के कारण पंखों के चलते हुए भी खुली हवा की ख़ातिर थिएटर के सारे दरवाज़े खोल दिये गये थे.
   रंग-बिरंगी पोशाकें पहने ख़ूबसूरत नवयौवनाएं जादूगर के आसपास थिरक रही थीं. उनकी मदद से जादूगर एक-से-एक नायाब खेल दिखा रहा था. लोग सम्मोहित-से अपनी सीटों में जकड़े बैठे हुए थे. तभी एक कुष्ठरोगी भिखारन अपने बच्चे को छाती से चिपकाये पता नहीं कैसे चौकीदार की निगाह बचाकर अहाते में घुस आयी. वह दरवाज़े की ओट में जादूगर को अपलक निहारती खड़ी रह गयी.
   जादूगर शून्य से बहुत-कुछ पैदा करने में मसरूफ़ था. उसके हाथ उठाते ही कभी अंडा, कभी कबूतर, कभी सौ का नोट लगातार आते चले जा रहे थे. दो दिनों से भूखी भिखारन जादूगर की शक्ति से इतनी प्रभावित हुई कि अपनी औक़ात भूल संवेदना में बहती हुई बच्चे को सम्भाले जादूगर की दिशा में दौड़ पड़ी. जादूगर अवाक्! लोग भी चकराये!! जादू देखने में खोया गेट-कीपर जब तक उसे पकड़े, तब तक वह मंच पर पहुंच चुकी थी.
   वह जादूगर के पैरों के पास बच्चे को लिये-लिये जैसे ढह गयी और रोती हुई उसकी अनुनय करने लगी, ‘महाराज, दो दिन से कुच नई खाया... मेरेकू एक रोटी... बस एक रोटी बुला दो... इत्ती मेहरबानी...’
   उसे हटाने का प्रयत्न करते गेट-कीपर को जादूगर ने इशारे से रोक दिया. फिर झुककर भिखारन को उठाते हुए बोला, ‘काश! मैं रोटी पैदा करने का जादू जानता... पर तुम्हें रोटी मिलेगी, ज़रूर मिलेगी!’ 
   लोगों ने देखा--जादूगर की आंखों में आंसू थे.
   उस रात फिर जादूगर आगे खेल नहीं दिखा सका.

॥5॥ तन-मन
   संगीता, रमाकान्त और प्रवाल कालेज में सहपाठी थे. तीनों की मित्रता पूरे परिसर में चर्चा का विषय थी.
   धीरे-धीरे प्रवाल को महसूस हुआ कि संगीता और रमाकान्त बहुत घनिष्ट होते जा रहे हैं. उसने उनकी बढ़ती जा रही आत्मिक तथा दैहिक क़रीबी से ख़ुद को अलाहिदा रखना ही उचित जाना.
   अचानक, रमाकान्त और संगीता, दोनों के बीच किसी मामूली वजह से अनबन हो गयी. प्रवाल ने उनको समझाने की कोशिश की. नतीज़ा सिफ़र रहा.
   फिर नया मोड़ आया. संगीता और प्रवाल का आपस में मेल-जोल अनायास वृद्धि पाता गया. विषय रमाकान्त होता भी, नहीं भी. प्रवाल के अवांछित स्पर्शों के प्रति संगीता कोई ख़ास विरोध भी नहीं दर्शाती थी.
   प्रवाल की हिम्मत में उछाल आया. उसने एक दिन संगीता को अपने कमरे पर आने का निमंत्रण दिया. वह बिना आनाकानी के आ भी गयी.
   प्रवाल का साहस चरम पर था. उसने कमरे के एकांत में संगीता को आलिंगन में बांध चुंबनों की बौछार लगा दी. संगीता ख़ामोश थी. प्रवाल ने उसके वस्त्र उतारने की पहल शुरू की. तभी उसने प्रवाल को रोका..
   वह धीर-गंभीर स्वर में बोली, ‘‘मैं तुम्हारी यह हरकत मंज़ूर कर सकती हूं मगर एक शर्त पर... मुझे कहीं से ज़हर ला दो फिर... मैं रमाकान्त के बिना जीना नहीं चाहती...’’
   उसकी शर्त के मर्म ने प्रवाल के मर्म को झकझोर दिया. वह नज़रें झुकाये तुरंत कमरे से बाहर निकल गया.
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और अंत में, अशोक गुजराती का आलेख---एक स्वतंत्र विधा : लघुकथा
 

 













परिचय : कथाकार अशोक गुजराती





Friday 10 June, 2016

याद एक सार्थक सफर की / कान्ता राय



अभी, कुछ माह पहले, अखिल भारतीय लघुकथा लेखक सम्मेलन में भाग लेने के लिए हम सब लघुकथाकार 'मिन्नी कहानी' संस्था द्वारा कोटकपूरा पंजाब में आमंत्रित  किये गये थे। वहाँ हम पति-पत्नी दोनों गये थे। उस सम्मेलन का समूचा वातावरण इतना अपनत्वभरा और आकर्षक था कि आज भी भुलाए नहीं भूलता। यही कारण रहा कि जैसे ही  अखिल भारतीय  प्रगतिशील लघुकथा- मंच ,पटना के तत्वावधान में आयोजित  २८वें लघुकथा  सम्मेलन  के लिए आमन्त्रण मिला तो पटना जाने का भी इरादा पतिदेव को बता दिया। वह तैयार तो हो गये, लेकिन तारीख़  तय  होते ही  उन्होंने बताया कि वह साथ नहीं जा पायेंगे, उन्हें उन दिनों में बहुत जरूरी काम रहेंगे। सम्मेलन की तारीख़  बहुत नजदीक की निकलने  की वजह से ट्रेन आरक्षण में बड़ी जटिलता आई, लेकिन श्री सत्यजीत राॅय अर्थात मेरे पतिदेव जी ने मेरी सुविधा के लिए येन- केन- प्रकारेण आने और जाने की मेरी टिकट आरक्षित करवा ही दी । सो निश्चित दिन मैं अकेली ही निकल पड़ी उस यात्रा पर।
पटना मेरे लिए नया नहीं है । मूलरूप से मधुबनी बिहार की रहने वाली हूँ। पूर्व में भी पटना  आती-जाती रही हूँ, इसलिए वहाँ किसी भी तरह की दिक्कत आने का सवाल ही नहीं पैदा होता था। 
११ बजे सुबह रेस्ट-हाउस  पहुँचने, नहाने-धोने  के बाद मैंने आदरणीय सतीशराज जी को अपने पहुँच जाने की सूचना दी।  कुछ ही देर में  वह आदरणीया नीलम पुष्करणा जी को साथ लेकर मुझसे मिलने आ पहुँचे । मैंने उनके चरण छुए तो मातृ-भाव से आदरणीया नीलम जी ने  बड़े लाड़  से गले लगा लिया।  मिलन का वह  क्षण मेरे लिये  बेहद सुखद था ।  
सतीशराज जी उपहारस्वरूप मेरे लिए लघुकथा-विधा पर  अनेक तरह की ढेरों पुस्तकें ( करीब  आठ ) लेकर आये थे । लघुकथा पर आलोचना-संदर्भ में  एक खास तरह की किताब की तलाश  भी मेरी यहीं पर सम्पन्न हुई ।
दिन-रात लघुकथा पर व्यापक रूप से सतत  काम करने के कारण  मेरे पास नाना प्रकार के प्रश्न थे लघुकथा संदर्भ में, कई दुविधाएँ थीं जो मुझे लम्बे समय से उलझाये हुए थी,   उनका निराकरण सही मायनों में अब-तक मिल नहीं पाया था। इसलिए समस्त  प्रश्नएक के बाद एकआदरणीय सतीशराज जी के  सामने प्रस्तुत करती गई और  वे पितृ-भाव से  इत्मिनान से मेरे हर प्रश्न का उत्तर देते रहे ।
उनके आलेखों का संदर्भ-व्याख्या उनकी जुबानी सुनना, मुझे धैर्य से समझाना और चर्चा के दौरान  खासकर लघुकथा में शीर्षक के  महत्व पर उदाहरणस्वरूप जो नये  खुलासे  उनके द्वारा मेरे सामने आये, मैं  अचम्भित हुई ।
पूर्व में कई-कई बार पढ़ी हुई चीजों का स्वरूप उनके मुँह से सुनने के बाद ही साकार हुआ। उनसे चर्चा करने के दौरान लघुकथा संदर्भ में  एक नया  दृष्टिकोण सामने आया। बहुत देर तक चर्चाएँ चलती रही। इसी दरम्यान  सतीशराज जी के पास डॉ॰ ध्रुव कुमार जी का फोन आया आयोजन स्थल से, तो वे मुझे भी आयोजन स्थल दिखाने के लिए अपने साथ ले गये। आदरणीया नीलम जी के संग हम सब भारतीय नृत्य कला मंदिर यानि आयोजन स्थल गये । वहाँ हाॅल वगैरह में अगले दिन के आयोजन सम्बन्धी इंतजाम होते देखा और यहीं पर पहली बार ध्रुव कुमार जी से मिलना हुआ।
ध्रुव  जी का कार्यस्थल मधुबनी ही है। मेरे  मधुबनी की होने को सुनकर वे बहुत हर्षित हुए। आयोजन स्थल पर कुछ देर रहने के बाद मैं वापस अपने कमरे पर लौट आई।  वहाँ से आने के कुछ देर बाद ही आदरणीया विभा रानी श्रीवास्तव जी का फोन आ गया । वे अब पटना में ही स्थायी तौर पर रहती हैं।  वे बहुत नाराज हुईं कि मैंने उनको अपने आने की खबर क्यों नहीं दी । कहने लगींआप अभी रूम छोड़कर हमारे यहाँ चली आओ। लेकिन शाम की धुँधलाहट देखकर बड़ी मुश्किल से उनको मनाया कि अगली बार जब भी आऊँगी, आपके पास ही ठहरा करूँगी । इस बार म्माफ कर दीजिए, वहीं आयोजन में मिल लेते हैं ।
रात में किताब पढ़ते हुए कब नींद आ गई, मालूम ही नहीं पड़ा । सुबह ५ बजे ही  नींद से जाग गई थी । इतनी सुबह जागने की आदत नहीं है मेरी । शायद सम्मेलन और सबसे मिलने के कौतूहल ने ज्यादा देर तक आँखों में नींद को रहने नहीं दिया था ।
खैर, नहा-धोकर अपने समय से तैयार होकर मैं आयोजन स्थल पर पहुँच गई ।
वहाँ धीरे-धीरे सब आने लगे थे। मैं हर पल  आदरणीया नीलम जी के साथ ही रही।
सतीशराज जी और  नीलम जी के बीच रिश्ते का माधुर्य, नीलम जी की अस्वस्थता के प्रति  सतीशराज जी की चिन्ता से साफ-साफ झलकता था।  सतीशराज जी का कार्यक्षेत्र, लघुकथा उद्देश्य और समर्पण उन दोनों के  अलग-अलग रहने का कारण बना हुआ है। आदरणीय सतीशराज जी अपना परिवार त्याग पटना में सिर्फ  साहित्यिक संदर्भ व लघुकथा उद्देश्य के तहत ही रहते हैं । वे लघुकथा- पुरुष के नाम से जाने जाते हैं लेकिन मुझे वो लघुकथा-संत  लगे। अपने निवास स्थान को लघुकथा नगर के नाम से ही नामित किया है। उनके समर्पण को देखकर मै अभिभूत हुई हूँ । सन् 1962 से आज तक का उनका अविराम संघर्ष एक मिशाल कायम करता  है 
आयोजन स्थल पर पहुँचते ही मैं नीलम जी के साथ  पुस्तकें व्यवस्थित करने लगी  थी और इसी सिलसिले में मैंने बहुत-सी किताबों और लेखकों को समझने का प्रयास किया। किताबों को संयोजित करते हुए अंदर की कुछ सामग्रियों पर नजर भी डालती जाती और अभिभूत हो उठती देखकर  कि कितनी समृद्ध है लघुकथा यहाँ इन पुस्तकों में। आदरणीय सतीशराज जी, डॉ॰ मिथिलेश कुमारी मिश्र और डॉ॰ पुष्पा जमुआर जी की लघुकथा विधा पर विविध सामग्रियों का संकलन, समीक्षाओं की किताब, लघुकथा-संग्रह मुझे ललचा गए थे; इसलिए आते वक्त मैंने कुछ और पुस्तकें भी खरीद लीं जिसके कारण मेरा बैग बहुत भारी हो गया था ।
सतीशराज जी ने हॉल में उपस्थित हो चुके लगभग सभी वरिष्ठजनों सहित डॉ॰ पुष्पा जमुआर जी, डॉ॰ अनिता  राकेश जी, वीरेन्द्र कुमार भारद्वाज जीसिद्धेश्वर जी, लता पाराशर, श्री नागेंद्र प्रसाद सिंह, अवधेश प्रीत जी से आत्मीय परिचय करवाया। डाॅ॰ नीरज शर्मा भी पहुँच चुकी थीं ।  हठात् वहाँ आदरणीय गणेश 'बागी' जी आये। उन्हें देख  मैं हर्षोल्लास से भर  उठी।  लगा, जैसे हमारा अपना कोई अचानक से मिल गया। उनसे मिलने की सुखद अनुभूति को शब्दों में बयान करना मुश्किल है।
ओबीओ की सर्जना उपहार में दी और किसी जरूरी काम के कारण  थोड़ी देर ठहरने के बाद चले गये । जाने से पहले हमने उनके साथ कई फोटो  भी खिंचवाये। मुझे तो लगा ही नहीं कि उनसे हम पहली बार मिल रहे हैं। उस क्षण यह एहसास हुआ कि दिलों के रिश्ते बहुत गहरे होते हैं। ओबीओ परिवार, साहित्यिक नाता जैसे एक अदृश्य बंधन  है जिसमें एक पारिवारिक  लगाव व अपनेपन का  सम्मोहन  है। ऐसा ही कुछ लगाव 'मिन्नी' पत्रिका के द्वारा आयोजित २४वें अंतरराज्यीय लघुकथा सम्मेलन, कोटकपूरा में भी महसूस किया था मैंने ।
मंत्री जी के आने के पश्चात्  ही सभी गणमान्य   अपना-अपना  स्थान ग्रहण कर चुके थे। विशिष्ट अतिथियों  द्वारा दीप प्रज्ज्वलित किया गया । यहाँ  एक नवीन व स्वस्थ परम्परा यह भी देखने को मिली कि अतिथियों का स्वागत फूलों से नहीं वरन् फलों की टोकरियों से हुआ। वाकई सही कह रहे थे डॉ॰ ध्रुव कुमार जी कि फूलों का हश्र दो दिन बाद कचरे के डिब्बे में जाना ही होता है तो क्यों ना फल जैसी उपयोगी वस्तु से  ही सबका स्वागत किया जाये। सार्थक पहल! नया  चिंतन!! नई मिशाल!! सराहनीय कर्म !!!
माननीय मंत्री जी को प्रतीक चिन्ह भेंट करने के उपरांत कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए आदरणीय सतीशराज जी ने लघुकथा के  लम्बे संघर्ष का संक्षिप्त वर्णन करते हुए अपने समस्त साथियोंमहासचिव ध्रुव कुमार जीसंयुक्त सचिव राजकुमार 'प्रेमी' जी का आभार व्यक्त किया।
कार्यक्रम शुरू होने से पहले चाय पानी की व्यवस्था थी ।
उसके बाद ध्रुव कुमार जी ने कार्यक्रम का संचालन सँभाल सामारोह में उपस्थित सभी  अतिथियों का  स्वागत करते हुए प्रतिवेदन पेश किया  और इसके साथ ही सम्मान समारोह शुरू हो गया। इतने समृद्ध मंच से स्वयं को सम्मानित होते हुए देख अपने वरिष्ठों के प्रति  मैं कृतज्ञता से भर उठी । सम्मान सामारोह में 'लघुकथा अंकुर' सम्मान लेते हुए बच्चों को देखकर मन हर्षित हो उठा कि इतने छोटे बच्चे और लघुकथा लेखन जैसी तीक्ष्ण विधा! बात तो आश्चर्य की थी। सम्मान सामारोह सम्पन्न होने के बाद ही पुस्तक लोकार्पण शुरू हुआ ।
चार सत्रों में पूरा कार्यक्रम था। लघुकथा पर आलेख पाठ सुनने के पश्चात् उस पर भी वरिष्ठजनों ने अपनी समीक्षा रखी थी ।  आलेख और उसकी समीक्षा, उसी वक्त लघुकथा लेखन और सामाजिक उद्देश्य सहित कई नये दृष्टिकोण सामने निकल कर आये । साहित्यकार डॉ॰ वीरेन्द्र कुमार भारद्वाज  कुशल मंच संचालक के रूप में भी यहाँ  नजर आये । श्रीमती आभा रानी और डॉ॰ ध्रुव कुमार सदैव मंच पर लघुकथा सत्र को संयोजित करते रहे।  लघुकथा पाठ के दौरान जब 'किलकारी' के बच्चे सामने आये तो यह क्षण हम सबको  विस्मृत करने वाला था । १२ से १६ साल तक के  दस बारह बच्चों ने लघुकथा पाठ किया था जिसमें कुछ लघुकथाएँ बेहद उम्दा  थीं।
समीक्षा-सत्र के दौरान बेबाकी से लघुकथाओं की समीक्षाओं का दौर चला। डॉ॰ मिथिलेश अवस्थी जी सहित डॉ॰ नागेन्द्र प्रसाद सिंह जी और आदरणीय  अवधेश प्रीत जी ने जब समीक्षा का वाचन शुरु किया,तब मुझे वहाँ एहसास हुआ कि व्यक्ति विशेष से परे यहाँ सिर्फ कलम अर्थात्  लघुकथा  ही मायने रखती है ।
दिल खोलकर आलोचना, समालोचनाओं का दौर चला। बिना किसी पूर्वाग्रह के  विधा पर प्रतिक्रियाओं का दौर भी चला। कई वरिष्ठजनों की लघुकथाएँ भी आलोचना की शिकार बनीं और वे वहाँ सामने बैठे मुस्कुराते रहे । सकारात्मकता का ऐसा प्रवाहमय वातावरण बहुत कम ही देखने को मिलता है । सत्र समाप्ति के बाद समस्त आलोचनाओं को मंच पर ही छोड़कर  सब बड़े प्रेम से मिल रहे थे ।
बाहर आने पर आदरणीय अवधेश प्रीत जी से भी लघुकथा लेखन परम्परा पर जरा देर   मेरी चर्चा हुई । उसके बाद विदा होने से पहले आदरणीय सतीशराज पुष्करणा जी, नीलम जी,नीरज जी, ध्रुव कुमार जीमिथिलेश अवस्थी जी  सहित बहुत से लोगों के साथ एक परिचर्चापरक-सा माहौल बीता । सुनियोजित तरीके से आयोजन बेहद सफल और अपने उद्देश्य को परिपूर्ण करते हुए सार्थक  रहा है ।
डॉ॰  नीरज शर्मा के साथ इस बार आदरणीय डॉ॰ सुधांशु जी भी आये थे । उनसे मेरी यह पहली मुलाकात थी। हँसमुख, नर्म दिल सुधांशु जी से मिलकर मैं प्रभावित हुई।  यहाँ डॉ॰ मिथिलेश कुमारी मिश्र जी से  मुलाकात मैं अपनी बड़ी उपलब्धियों में ही गिनती हूँ।
आदरणीया डॉ॰ पुष्पा जमुआर जी से एक आत्मिक लगाव भी पाया मैंने । उन्होंने भी लघुकथा तकनीक पर मेरी कई भ्राँतियों को दूर किया है। पटना से आने के बाद भी उनको मै अपने बेहद  करीब पाती हूँ। आदरणीया  अनिता राकेश जी भी  समृद्ध साहित्यिक परम्परा का निर्वाह करती हैं। आदरणीया विभा रानी श्रीवास्तव जी से जब मिली तो ऐसा लगा जैसे कोई सहेली बरसों बाद मिल रही हो।  हम सब एक साथ बैठकर दिनभर लघुकथा को जीते रहे मानो पीते रहे। सुबह साढ़े दस बजे से रात साढ़े आठ बजे तक सिर्फ लघुकथा,और कुछ नहीं, खूब चर्चा सुनी वहाँ ।
आते वक्त आदरणीय डॉ॰ मिथिलेश अवस्थी जी का साथ स्टेशन तक पाया। करीब डेढ़ घंटे हम स्टेशन पर साथ रहे। वह बेहतरीन लघुकथाकार होने के साथ-साथ एक समृद्ध समीक्षक भी हैं। मुझे मौका मिला तो मैंने स्टेशन के फूड कोर्ट में बैठकर टेबल पर  अपनी ८-१० लघुकथाओं की समीक्षा उनसे करवाई। सामने बैठकर वे जब मेरी लघुकथाओं में गलतियाँ निकालते और  बार-बार मुझे पूछते कि 'आपको बूरा तो नहीं लग रहा है ?' और मैं मुस्कुराकर कहती'नहीं ,जरा भी नहीं ।'
दरअसल मैं सामने बैठकर कथाओं को आकलन करने के  उनके दृष्टिकोण को आत्मसात्  कर रही थी । उस वक्त मैं शनैः शनैः जान रही थी कि किस तरह सूक्ष्मता से पंक्तियों को परखा जाता है। किस तरह कोई एक शब्द पूरी लघुकथा को परिभाषित कर जाता है। सकारात्मकता से भरपूर  बेहद उदार मन पाया था उनमें । उनके साथ बिताया हुआ डेढ़ घंटा स्टेशन पर मेरे लिए लघुकथा कर्मक्षेत्र में संजीवनी के समान था ।

कान्ता राय
उनकी ट्रेन आ गई थी और वे नागपुर के लिए विदा हुए। मैं अपनी ट्रेन के इंतजार में वहीं रह गई कि अचानक उत्साह से भरे  दो युवक मेरे समक्ष आकर  खड़े हो गये । मैं अपनी प्रतिक्रिया देती उससे पूर्व ही उनमें से एक ने  अपना परिचय राघवेंद्र चिंगारी के रूप में दिया तो याद आया कि आज मेरे साथ ये भी तो सम्मानित हुए हैं वहाँ। एक ही ट्रेन और एक ही बोगी में हमारा रिजर्वेशन था। फिर तो मेरा आगे का सफर भी बहुत अच्छा गुजरा। वे बहुत अच्छी  ग़ज़लें भी लिखते हैं। उनकी कई गजलों की रेकाॅर्डिंग भी हो चुकी है आकाशवाणी के वरिष्ठ कलाकारों द्वारा। रात डेढ़ बजे तक हम लघुकथा से जुड़ी  साहित्य-चर्चा  करते रहे। सुबह उनका स्टेशन आया तो फिर से मैं सफर में अकेली थी। 
सच कहूँ तो इस बार का सफर एक बार पुन: मेरे लिये सार्थक रहा। सुनहरी यादों का कारवाँ मेरे संग-संग चल रहा है अब तक।  इन दोनों ही सम्मेलनों में मैंने लघुकथा को पल-पल जिया है।