कथाकार अशोक गुजराती की लघुकथाओं का नया संग्रह आज ही मिला है--'अंदाज़ नया' । उक्त संग्रह से प्रस्तुत हैं उनकी 5 लघुकथाएँ तथा लघुकथा पर लिखा उनका महत्वपूर्ण आलेख। यह आलेख पहले पहल 'समान्तर' (सं॰ डॉ॰ इसाक अश्क और अतिथि संपादक सुरेश शर्मा) के लघुकथा विशेषांक (सन् 2001) में प्रकाशित हुआ था। इसलिए इसमें तभी तक चर्चा में आए लघुकथाकारों की रचनाओं का उल्लेख हुआ है। नवोदित लेखक कृपया अन्यथा न लें और इस लेख को अशोक गुजराती जी की लघुकथा सम्बन्धी दृष्टि के संदर्भ में ग्रहण कर, उस पर ही चर्चा करें। --बलराम अग्रवाल
लघुकथाएँ
॥1॥ मारना कितना आसां
मैं क़बूल करता हूं कि मैं ही था वह... हां, वही जिसने बाबरी मस्जिद कांड के बाद भड़के दंगों में अपने सैकड़ों विजातियों को मौत के घाट उतारा था. छोटे-छोटे बच्चे! हाऽ-हाऽ-हाऽ चलते-चलते अपनी तलवार से उनके सर को धड़ से जुदा कर एक सुकून से तर-ब-तर हो जाता था मैं. जी हां, वही
बंदा, जिसने मंटो की कहानियों के पात्रों को
पुनर्जीवित कर दिया था. ‘खोल दो’ की बदहाल सकीना या ‘ठण्डा गोश्त’ की ख़ौफ़ज़दा मृत युवती
को मन-माफ़िक़ रौंदते हुए मैं अपनी पीठ ख़ुद ही थपथपाता रहा था. इनके सामने सामानों, जानवरों, इमारतों की शख़्सियत ही क्या है. आगज़नी, लूटपाट तो मामूली चीज़ें ठहरीं. यान ओत्चेनाशेक के ‘रोमियो जूलियट
और अंधेरा’ की तरह मुझे मिली युवा लड़की के साथ भी मैं पूरी रंगरेलियां मनाता नहीं थका
था. यूं समझो कि इस फ़साद को सौ टका मैंने अपनी दबी वासना और अपराधिक मनोवृत्ति के उपभोग
के हिसाब से भुनाया और क़ामयाब रहा. आख़िर में शरीफ़ का शरीफ़ !
फिर... अब क्या हुआ ? अब क्यों मैं ज़हर का प्याला अपने मुक़ाबिल रखे ख़ुदकुशी करने पर
आमादा हूं... मैं तो इतना साहसी था, जोश
से सराबोर --- कुछ भी करने को तैयार. किसी ने कभी मुझ पर कोई शुबहा भी नहीं किया, न समाज में मेरी इज़्ज़त में कभी कोई कमतरी हुई. न ब्लड प्रेशर
का मरीज़ और न कायर. अच्छी-ख़ासी कमाई, छोटा
सुखी परिवार. मुस्तक़बिल की पर्वाह और आज की फ़िक्ऱ मेरे लिए बेमानी रहे. तब... मैं
क्यों अपनी जान का दुश्मन बना जा रहा हूं... जानना चाहते हैं... ठीक है... बताता हूं
लेकिन अपने कमज़ोर दिल को थामे रखिएगा...
ज़रा-सा वाक़या है. मेरी दूध-डेयरी है. मैं
दुकान में बैठा ग्राहकों को निपटा रहा था. डेयरी बंद करने का वक़्त क़रीब था. मैंने
काउंटर से नोट निकाले. तरतीबवार लगाकर उन्हें गिन रहा था. इतने में मेरा एक साल का
बेटा नंग-धड़ंग ठुमकते हुए आया-- ‘पप्पा, मम्मी
खाने के लिए बुला लही हैं...’ मैंने पप्पी लेते हुए उसे नज़दीक की कुर्सी पर बैठाते
हुए कहा, ‘आप थोड़ा आराम से बैठिए, मैं अभी चलता हू..’ मैं फिर से शाम की आवक समेटने में लग गया.
कनखियों से निगाह रखे था कि छोटे मियां कुर्सी के हत्थे पकड़ कर खड़े होने की कोशिश कर
रहे हैं. मैं उनकी इस भोली-भाली, पर हिम्मतभरी अदा का क़ायल हो मन-ही-मन मुस्कराया. तभी...
पता नहीं कैसे हो गया.. मैं देख रहा था.. मुन्ने के सायास खड़े होते ही कुर्सी उलार
हो आगे की ओर झुकी.. एक झटके में मुन्ने को ऊपर उछालती हुई पलटी.. मुन्ना उस उछाल के
साथ सीधे भट्ठी पर रखी कढ़ाई के उफनते दूध में जा गिरा.. मैं दौड़ा.. उबलते दूध में दोनों
हाथ डाल उसे पकड़ना चाहा.. वह फिसल गया.. मैंने पुनः प्रयास किया, उसका तेलीय शरीर मेरी जकड़ से छूट-छूट जाता रहा.. दूध की चिकनाहट
और गर्मी से मेरी उंगलियों की पकड़ सख़्त नहीं हो पा रही थी.. मैंने फिर प्रयत्न किया..
दिल-दिमाग़ को मज़बूत कर उसे ज़ोरों से पक्का थाम लिया और ऊपर उठाकर तुरंत अपने सीने से लगाया...
इसके पश्चात क्या-क्या हुआ होगा, आप सोच सकते हैं.. सब दौड़े हुए आये मेरा चीत्कार सुनकर. डाक्टर
को फ़ौरन बुलाया. पत्नी, बड़ा बेटा और बेटी की आंसुओं की धारा
रुके न रुकती थी. मैं कभी उन्हें सांत्वना देता, कभी
ख़ुद को सम्भालता. डाक्टर ने चेकअप किया.. उनकी उदास आंखों ने सारा कुछ बयान कर दिया..
सब ख़त्म हो चुका था.. मेरी आंखों के सामने... काश कि मैंने उसे कुर्सी पर न बैठाया
होता.. उसके साथ भीतर चला गया होता.. या उसे अपनी गोद में लेकर हिसाब करता.. या उसे
तुरत-फुरत दूध से बाहर निकाल पाता.. मैं नहीं बचा सका उसे...
मैंने इतने लोगों को मारा, कुचला, बर्बाद किया और एक जान... एक जान बचा
नहीं सका. मुझे ज़िन्दा रहने का कोई हक़ नहीं है...
॥2॥ अंदाज़ नया
वे साठ पार कर चुके थे. उनकी पत्नी उनसे सात
वर्ष छोटी थी. बुढ़ापा उनका था लेकिन पत्नी को गठिया की दर्दनाक तकलीफ़ हो गयी. घुटनों
ने साथ छोड़ दिया और चलना-फिरना मुश्किल हो गया.
वे जहां तक हो सके उसे सहारा देते रहते. एक
दिन इस परेशानी के चलते उन्होंने मज़ाकिया लहज़े में पत्नी को सलाह दे डाली--‘ऐसा करते
हैं, मैं
दूसरा विवाह कर लेता हूं. वह हमसे जवान तो होगी ही, तुम्हारा पूरा
ख़याल रखेगी और मेरा भी...’
पत्नी ने उन्हें कनखियों से देखते हुए पूछा, ‘ये
बताइए कि मर्द ज़्यादा सक्षम होता है या औरत ?...‘
उन्होंने प्रश्न का मर्म न समझते हुए सहज
ही उत्तर दे दिया, ‘मर्द!'
पत्नी ने हल्की-सी मुस्कान के साथ उन्हें
सवाया सुझाव देने में कोताही न की, ‘फिर यूं करते हैं, मैं ही दूसरी
शादी कर लेती हूं. वह मुझे तो अच्छे-से सम्भाल लेगा ही, आपको भी...’
॥3॥ हवा
पत्नी से उसका तलाक़ हो गया था. अदालत के आदेश के
अनुसार,
कि उसको अभी मां के सामीप्य की ज़रूरत है, वह
अपनी पांच वर्षीय बेटी को भी खो चुका था.
वह अकेला अपने ख़यालों में उलझा बैठा हुआ था. दरवाज़े
के सामने उसे अपनी बेटी की समवयस्क और सहेली लता खेलती हुए दीखी.
उसने उसे आवाज़ दी. वह आयी. उसने चाकलेट निकालकर
उसे देते हुए अपने क़रीब खींच लिया.
लता ने चाकलेट खाते हुए सवाल किया, ‘अंकल, प्रग्या
कब आयेगी...?'
उसने उदास-सा जवाब दिया, ‘बेटे, अब
वह कभी नहीं आयेगी...' फिर अपने आंसुओं को रोकते हुए कहा, ‘अब तू ही मेरी
बेटी है... तू ही प्रज्ञा है...’ और उसने उसका चुम्मा ले लिया.
उसी वक़्त लता की मां ने, जो
बिलकुल पड़ोस में ही रहती थी, आंगन में आकर उसे पुकारा-- ‘लता... ओ लता...’
‘आयी मम्मी...’ कहते हुए लता दौड़
पड़ी. वह फिर अपने दुख में डूब गया.
लता को लेकर उसकी मां अन्दर गयी. टीवी चालू था.
उस पर पिछले दिनों बच्चियों के साथ हुए बलात्कारों पर चर्चा चल रही थी. मां ने उससे
पूछा,
‘बेटी, वहां क्या कर रही थी ?’
लता ने बताया कि अंकल ने बुलाया और चाकलेट भी दी.
मां सतर्क हो गयी-- ‘और क्या किया?'
लता ने असमंजस में पड़ते हुए सरलता से कहा, ‘कुछ
नहीं मम्मी.’
मां ने संतुष्ट होना चाहा-- ‘तुझे अपने नज़दीक लेकर
गोद में तो नहीं बैठाया...?’
नादान लता ने तुरंत उत्तर दिया- ‘हां... मेरी पप्पी
भी ली...’
‘अरे! ऐसा किया उस शैतान ने...
चल... चल मेरे साथ, उसकी ख़बर लेती हूं...’ मां ग़ुस्से में थी.
वह लता को लेकर उसके घर पहुंची. क्रोध से भरी वह
चिल्लायी-- ‘कमीने, तेरे को शर्म नहीं आयी... अपनी बेटी जैसी लड़की को
पास में लेकर चूमा-चाटी कर रहा था... ठहर ज़रा... मैं अभी पुलिस को फ़ोन करती हूं...'
॥4॥ जादूगर
जादूगर तरह-तरह के करिश्मे दिखा
रहा था. लोग तालियां बजा-बजाकर उसे बार-बार दाद दे रहे थे. यह रात का सेकिंड शो था.
बढ़ती हुई उमस के कारण पंखों के चलते हुए भी खुली हवा की ख़ातिर थिएटर के सारे दरवाज़े
खोल दिये गये थे.
रंग-बिरंगी पोशाकें पहने ख़ूबसूरत नवयौवनाएं जादूगर
के आसपास थिरक रही थीं. उनकी मदद से जादूगर एक-से-एक नायाब खेल दिखा रहा था. लोग सम्मोहित-से
अपनी सीटों में जकड़े बैठे हुए थे. तभी एक कुष्ठरोगी भिखारन अपने बच्चे को छाती से चिपकाये
पता नहीं कैसे चौकीदार की निगाह बचाकर अहाते में घुस आयी. वह दरवाज़े की ओट में जादूगर
को अपलक निहारती खड़ी रह गयी.
जादूगर शून्य से बहुत-कुछ पैदा करने में मसरूफ़
था. उसके हाथ उठाते ही कभी अंडा, कभी कबूतर, कभी सौ का
नोट लगातार आते चले जा रहे थे. दो दिनों से भूखी भिखारन जादूगर की शक्ति से इतनी प्रभावित
हुई कि अपनी औक़ात भूल संवेदना में बहती हुई बच्चे को सम्भाले जादूगर की दिशा में दौड़
पड़ी. जादूगर अवाक्! लोग भी चकराये!! जादू देखने में खोया गेट-कीपर जब
तक उसे पकड़े, तब तक वह मंच पर पहुंच चुकी थी.
वह जादूगर के पैरों के पास बच्चे को लिये-लिये
जैसे ढह गयी और रोती हुई उसकी अनुनय करने लगी, ‘महाराज, दो
दिन से कुच नई खाया... मेरेकू एक रोटी... बस एक रोटी बुला दो... इत्ती मेहरबानी...’
उसे हटाने का प्रयत्न करते गेट-कीपर को जादूगर
ने इशारे से रोक दिया. फिर झुककर भिखारन को उठाते हुए बोला, ‘काश!
मैं रोटी पैदा करने का जादू जानता... पर तुम्हें रोटी मिलेगी, ज़रूर
मिलेगी!’
लोगों ने देखा--जादूगर की आंखों में आंसू थे.
उस रात फिर जादूगर आगे खेल नहीं दिखा सका.
॥5॥ तन-मन
संगीता, रमाकान्त और
प्रवाल कालेज में सहपाठी थे. तीनों की मित्रता पूरे परिसर में चर्चा का विषय थी.
धीरे-धीरे प्रवाल को महसूस हुआ कि संगीता और रमाकान्त
बहुत घनिष्ट होते जा रहे हैं. उसने उनकी बढ़ती जा रही आत्मिक तथा दैहिक क़रीबी से ख़ुद
को अलाहिदा रखना ही उचित जाना.
अचानक, रमाकान्त और
संगीता,
दोनों के बीच किसी मामूली वजह से अनबन हो गयी. प्रवाल ने उनको
समझाने की कोशिश की. नतीज़ा सिफ़र रहा.
फिर नया मोड़ आया. संगीता और प्रवाल का आपस में
मेल-जोल अनायास वृद्धि पाता गया. विषय रमाकान्त होता भी, नहीं भी. प्रवाल
के अवांछित स्पर्शों के प्रति संगीता कोई ख़ास विरोध भी नहीं दर्शाती थी.
प्रवाल की हिम्मत में उछाल आया. उसने एक दिन संगीता
को अपने कमरे पर आने का निमंत्रण दिया. वह बिना आनाकानी के आ भी गयी.
प्रवाल का साहस चरम पर था. उसने कमरे के एकांत
में संगीता को आलिंगन में बांध चुंबनों की बौछार लगा दी. संगीता ख़ामोश थी. प्रवाल ने
उसके वस्त्र उतारने की पहल शुरू की. तभी उसने प्रवाल को रोका..
वह धीर-गंभीर स्वर में बोली, ‘‘मैं
तुम्हारी यह हरकत मंज़ूर कर सकती हूं मगर एक शर्त पर... मुझे कहीं से ज़हर ला दो फिर...
मैं रमाकान्त के बिना जीना नहीं चाहती...’’
उसकी शर्त के मर्म ने प्रवाल के मर्म को झकझोर
दिया. वह नज़रें झुकाये तुरंत कमरे से बाहर निकल गया.
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और अंत में, अशोक गुजराती का आलेख---एक स्वतंत्र विधा : लघुकथा
परिचय : कथाकार अशोक गुजराती |
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