Monday, 21 October, 2019

लघुकथा में 'मैं'


'लघुकथा में मुख्य पात्र का 'मैं' होना वर्जित है या कथानुरूप स्वीकार्य'
20 अक्टूबर 2019 को ‘मिन्नी’ द्वारा अबोहर (पंजाब) में आयोजित लघुकथा सम्मेलन में इस बार सर्वाधिक चर्चा का विषय यही मुद्दा रहा। जो भी बहस हुई, उसे मैं बाद में इस पटल पर रखूँगा। नये-पुराने, लघुकथा के सभी चिंतक  साथियों से निवेदन है कि इस मुद्दे पर, बिना किसी लाग-लपेट के अपने विचार यहाँ रखें।
प्रसंगवश प्रस्तुत है, चर्चा के केन्द्र में रही शोभना श्याम की लघुकथा ‘बख्शीश’। आपको इस लघुकथा के गुण-दोष यहाँ नहीं बताने। केवल इस बिन्दु पर केन्द्रित रहना है कि ‘लघुकथा’ में ‘मैं’ पात्र आना चाहिए या नहीं। नहीं आना चाहिए, तो क्यों? किन परिस्थियों में?

बख्शीश
शोभना श्याम
एक तो उसने ऑटो रिक्शा वालों की आम प्रवृत्ति के विपरीत वाज़िब पैसे ही मांगे थे, दूसरे ऑटो के सवारी के बैठने वाले पिछले भाग में दोनों ओर पारदर्शी प्लास्टिक के परदे लगाए हुए  थे, जो ऊपर और नीचे दोनों ओर से ऑटो के साथ अच्छी तरह बाँधे हुए थे । इस कारण रास्ते की धूल ओर तीखी हवा, दोनों से ही बचाव हो गया था । दिन-भर की थकन जैसे घर पहुँचने से पहले ही उतरनी आरम्भ हो गयी थी । अचानक मैंने खुद को गुनगुनाते पाया, लेकिन फिर तुरंत ही सम्भल गयी । आराम और तसल्ली के इस मूड में एक विचार मन में कौंधा कि घर पहुँचकर इसे किराये से दस रुपए अतिरिक्त दूँगी, आखिर इसने पर्दे लगाने पर जो पैसा खर्च किया है उसका फायदा तो इसमें  बैठने वाले यात्रियों को ही हो रहा है न । यह विचार आते ही मुझे अपनी उदारता पर थोड़ा गर्व  हो आया । मैंने मन ही मन इस किस्से के कुछ ड्राफ्ट बनाने शुरू कर दिए कि प्रत्यक्ष में तो ऑटो वाले की प्रशंसा हो जाये और परोक्ष में मेरा ये उदार कृत्य भी दूसरों तक पहुँच जाये ।
रास्ते में पड़ने वाले बाजार से जब मैंने आधा किलो दूध का पैकेट लेने के लिए ऑटो रोका तो उसने फिर से अपनी सज्जनता का परिचय देते हुए मुझे ऑटो में बैठे रहने का इशारा किया और मुझसे पैसे लेकर स्वयं उतर, दूध का पैकेट लाकर मुझे दे दिया। अब तो उसे बख्शीश देने का निर्णय और भी दृढ़ हो गया, साथ ही सुनाये जाने वाले किस्से में उसकी प्रशंसा के एक-दो वाक्य और जुड़ गए । घर पहुँचकर मैंने पर्स में से किराये के लिए  पचास रुपए का नोट निकालने के बाद जब दस का नोट और निकालना चाहा तो पाया कि मेरे पास छुट्टे रुपयों में बस बीस रुपये का एक नोट ही है, शेष सभी सौ और पाँच सौ के नोट थे । उदारता और व्यवहारिकता के बीच चले कुछ सेकेंड्स के संघर्ष में आखिरकार व्यवहारिकता के ये तर्क जीत गए कि माना किराया उसने ज्यादा नहीं मांगा लेकिन ऐसा कम भी तो नहीं हैं। देखा जाये तो मीटर से तो 40 रुपये ही बनते थे । वो तो ओला और उबर के आने से पहले मांगे जाने वाले अनाप-शनाप किराये के सामने मुझे पचास रुपए कम लग रहे हैं । पर्दों के कारण उसे दूसरों से सवारी ज्यादा मिलती होंगी और स्वयं दूध लाकर देने के पीछे उसकी मंशा समय बचाने की भी रही होगी क्योंकि मुझे पर्दा हटाने में अतिरिक्त समय लगता । इन तर्कों से आश्वस्त होते ही मेरे हाथ में आया बीस का नोट पर्स में ही छूट गया ।
मोबाइल  : 99532 35840

Wednesday, 16 October, 2019

'लघुकथा कलश' रचना-प्रक्रिया महाविशेषांक से-5

'लघुकथा कलश-4'  रचना-प्रक्रिया महाविशेषांक से कुछ चुनी हुई रचना-प्रक्रियाएँ। इनका चुनाव मेरा है और इन्हें उपलब्ध करा रहे हैं भाई योगराज प्रभाकर। अनुरोध है कि शनै: शनै: आने वाली इन रचना-प्रक्रियाओं को समय निकालकर धैर्य के साथ इन्हें पढ़ें और इन पर अपने विचार, सहमति-असहमति अवश्य रखें। ये सभी रचना-प्रक्रियाएँ आपको सीखने की कला से सम्पन्न करेंगी।

एक बात और… ये सभी प्रस्तुतियाँ अपने आप में विशिष्ट होंगी। प्रस्तुति के क्रम को इनकी श्रेष्ठता का क्रम न माना जाए।

तो शृंखला की पाँचवीं प्रस्तुति के रूप में पेश है, पृष्ठ 218-219 से हरियाणा के करनाल अन्तर्गत घरौंडा निवासी श्री राधेश्याम भारतीय की रचना प्रक्रिया उनकी लघुकथा 'मुआवज़ा' के सन्दर्भ में। 

राधेश्याम भारतीय
इस लेख को लिखते हुए मेरे जेहन में अनेक लघुकथाएं आईं जो किसी न किसी कारण चर्चित रहीं। उनमें हैं दूरी, कोट, सुख, चेहरे, खून का रिश्ता, सजा, कलाकार, बड़ा हूं ना, भूख आदि। इसके बावजूद  मुआवजा, और सम्मान लघुकथाएं अपने कथ्य के कारण उपर्युक्त लघुकथाओं से अधिक चर्चित रही। जहाँ मुआवजा लघुकथा देश के भूमिहीन मजदूरों की दयनीय स्थिति को उजागर करती है, वहीं सम्मान लघुकथा कर्म करने की प्रेरणा देती है।
भारत एक कृषि प्रधान देश है। देश की लगभग सत्तर प्रतिशत आबादी कृषि पर ही निर्भर है। इसके बावजूद जब भी कोई प्राकृतिक आपदा आती है तो वह किसानों पर मुसीबत का पहाड़ बन टूट पड़ती है। पकी-पकाई फसल बाढ़, ओलावृष्टि आदि की भेंट चढ़ जाती है। सरकार किसानों के लिए उनकी नष्ट फसल की एवज में मुआवजे की घोषणा करने का रिवाज निभाती है। विचारणीय विषय यह है कि इस धरती पर पैदा होने वाली फसल में किसान के साथ-साथ खेतीहर मजदूरों की बहुत बड़ी भागेदारी रहती है। वे भी बड़ी उत्सुकता से उस फसल के पकने का इंतजार करते हैं।
इस रचना के जन्म से पूर्व मैं उन्हीं खेतीहर मजदूरों के बारे में सोचने लगता हूँ जिनकी रोजी-रोटी केवल खेतों में जी-तोड़ मेहनत करके ही चलती है। उनके पास इतना धन नहीं होता कि वे पैसों से अनाज खरीद सकें। वे तो फसल काटने के बदले मजदूरी के तौर पर मिलने वाले अनाज से ही अपने बच्चों का पेट भरते हैं।
मैं मानता हूँ, कि किसान की फसल खराब होने पर मुआवजे से कोई बहुत बड़ी राहत नहीं मिलती; फिर भी, कुछ न कुछ नुकसान तो पूरा हो ही जाता है। लेकिन उन खेतीहर मजदूरों को तो थोड़ी-सी भी सहायता कहीं से नहीं मिलती। बस, मेरे जेहन में उन मजूदरों के मुरझाए चेहरे घूमने लगते हैं। उनके मुरझाए चेहरे मुझे मुआवजा लघुकथा लिखने को विवश कर देते हैं। उसी यथार्थ को आधार बनाकर मैंने इस लघुकथा का सृजन किया है। क्योंकि लघुकथा में पात्र के नाम का अपना महत्व होता है, इसलिए इसमें मजदूर पात्र का नाम सोच-समझकर रखता हूँ। पात्र का नाम रामधन रखा, जो मुझे मजदूर वर्ग का प्रतिनिधित्व करता-सा प्रतीत होता है।
सच तो यह है कि उस रामधन को ध्यान में रखकर ही इस लघुकथा की रचना की थी। एक दो पत्रिकाओं में प्रकानार्थ भेजी, प्रकाशित भी हुई। एक दिन, जब डॉ. अशोक भाटिया को यह लघुकथा दिखाई तो उस समय इसका अन्तिम वाक्य था—‘रामधन माथा पकड़कर वहीं बैठा रहा।
भाटिया जी ने कहा, कि इस अन्तिम वाक्य को रामधन माथा पकड़कर वहीं बैठ गया कर दो। इस एक वाक्य बदला, तो लघुकथा का भाव ही बदल गया। पहले था—‘बैठा रहा, यानी दुखी मन से बैठा रहा; लेकिन, बैठ गया का अर्थ हुआ कि जैसे उसके जीवन के सारे सपने चकनाचूर हो गए। कहते भी हैं, कि यह तो बैठ गया, शायद ही उठे
फिर यह लघुकथा जहाँ भी प्रकाशनार्थ भेजी, वहीं प्रकाशित हुई।
प्रस्तुत है, उक्त लघुकथा—‘मुआवजा
गाँव में आँधी और फिर ओला-वृष्टि के कारण नष्ट हुई। फसल के बदले मुआवजा राशि बाँटने एक अधिकारी आया।
बारी-बारी से किसान आ रहे थे और अपनी मुआवजा राशि लेते जा रहे थे।
जब सारी राशि बँट चुकी तो रामधन खड़ा हुआ और हाथ जोड़कर कहने लगा, ‘‘साब जी, हमें भी कुछ मुआवजा दे दीजिए!’’
‘‘क्या तुम्हारी भी फसल नष्ट हुई है?’’
‘‘नहीं साबजी! हमारे पास तो जमीन ही नहीं है।’’
‘‘तो तुम्हें मुआवजा किस बात का?’’ अधिकारी ने सहज भाव से कहा।
‘‘साबजी, किसान की फसल होती थी... हम गरीब उसे काटते थे और साल भर भूखे पेट का इलाज हो जाता था। अब फसल तबाह हो गई तो बताइए हम क्या काटेंगे... और काटेंगे नहीं तो खायेंगे क्या?’’
‘‘तुम्हें कुछ नहीं मिलेगा... जाइए अपने घर।’’ इस बार अधिकारी क्रोधित स्वर में बोला।
रामधन माथा पकड़ वहीं बैठ गया।

सम्पर्कराधेश्याम भारतीय, नसीब विहार कॉलोनी, घरौंडा (करनाल)-132114 (हरियाणा) 
                 मोबाइल-9315382236

योगराज प्रभाकर, सम्पादक 'लघुकथा कलश', 'ऊषा विला', 53, रॉयल एन्क्लेव एक्सटेंशन, डीलवाल, पटियाला-147002 पंजाब/ मोबाइल98725 68228

नोट: जिन लोगों को #लघुकथा_कलश_चतुर्थ_रचना_प्रक्रिया_महाविशेषांक (जुलाई-दिसम्बर 2019) अथवा कोई भी अन्य अंक लेना हो, वे  डाक खर्च सहित 300₹ मात्र (इस अंक का मूल्य 450₹ है) 7340772712 पर paytm कर योगराज प्रभाकर +919872568228 को स्क्रीन शॉट अपना नाम, पूरा डाक-पता  पिन कोड सहित और मोबाइल नंबर के साथ सूचित करें। पत्रिका उनको भेज दी जायेगी।