लघुकथा लिखते समय कथाकार के सामने घटनाओं का भरा-पूरा जंजाल होता है। उस जंजाल से कथ्य के अनुरूप एकांगी घटना को चुनना और शेष को नेपथ्य में छोड़ना सरल काम नहीं है। अनेक बार कथाकार कथा की व्याख्या से जुड़ी वे बातें भी कथानक में दर्ज कर देता है, जो वस्तुत: आलोचक के अधिकार-क्षेत्र की होती हैं। प्रस्तुत कथा के मूल ड्राफ्ट में उन्हें देखा जा सकता है।
कथाकार की मूल भावना को समझे बिना कथा-सूत्र को पकड़ पाना किसी अन्य के वश की बात सामान्यतः नहीं रहती। यद्यपि इस कथा के अंतिम रूप में अभी भी कसावट की गुंजाइश है, तथापि यहाँ तक के सफर से भी बहुत-कुछ सीखा जा सकता है। कदम-दर-कदम इस लघुकथा के विकास को देखें, इसी दृष्टि से बीना जी की अनुमति से यह यहाँ प्रस्तुत है।
।।मूल ड्राफ्ट : बीना शर्मा।।
शीर्षक : शादी
धीरे-धीरे निकलती शादी की उम्र रानी के अड़ोसी-पड़ोसी व नातेरिश्तेदारों की चिंता का महासागर बनती जा रही थी।
उसकी कुछ तरंगे जब उसके घर में पहुंच जातीं तो घर में हडकंप सा मच जाता। पर वह बेफिक्र ही रहती क्योंकि उसकी मां उस का साथ देती।
अचानक एक दिन माँ ने उससे पूछा, 'तू हर रिश्ते को मना कर देती है। क्या कोई है,,,, लोगों के उकसाने पर माँ की आँखोँ में अविश्वास की परछाई देख वह आपा खो बैठी और गुस्से से बोली 'हां बता दो सबको। है कोई जिसे मैं बेहद प्यार करती हूँ । उसी का इन्तजार है मुझे।" ये सुनते ही माँ के चेहरे पर मंडराती अमावस्या को देख वो धीरे से बोली ' मां तुम तो जानती हो जब तक मुझे जॉब नहीं मिल जाता मैं शादी नहीं करूंगी।"
ये सुनते ही माँ का चेहरा पूर्णिमा सा हो गया।कुछ दिनॉ बाद रानी को कामयाबी मिलते ही शादी के प्रस्ताव चक्रवृद्धि ब्याज से हो गए। अपनी सहेली रूपा के भाई का रिश्ता उसे डबल धमाल सा लगा।
बड़ी बहनों की दूर ससुराल व भाभी से माँ के मनमुटाव को ध्यान में रख उसने इस रिश्ते को हां कर दी।
ससुराल में आते ही सास ने उसे बांहों में भरते हुए 'तुम नाम की ही रानी नहीं, इस घर की सचमुच रानी हो।" कह चाबियों का खूबसूरत सा गुच्छा उसके हाथों में थमा दिया।
धीरे-धीरे उसे समझ में आने लगा कि रानी का खिताब दे उसे नौकरानी के मकड़जाल में फंसाने की वो साजिश थी ।
पति का बदलता व्यवहार भी उसे एहसास दिलाने लगा था कि पत्नी चाहे घरेलू हो या कामकाजी गुस्सा आने पर उसके मुंह पर चांटा मारने और खुश होने पर उसके शरीर की बोटी -बोटी नोचने का हक उसे मिलता ही है।
एक ही शहर में होने के बावजूद वह मायके कम ही जा पाती। जब जाती ससुराल में महाभारत मच जाता।धीरे-धीरे उसका मायके जाना त्योहार सा हो गया।
माँ दुखी न हों यही सोच वो मुस्कुराहट का लेप लगाये रखती। पर अपने जख्मों के नासूर बनने का डर उसे हमेशा सताता।इसीलिये वो अपने जख्मों पर कलम से मरहम लगाने लगी। अनचाहे को मनचाहा बनाने की फितरत तो थी उसकी। अपनी व्यथा को किसी भी पात्र में उड़ेल देती।
माँ को उसकी मुस्कुराहट के पीछे छिपे जिस गम का अंदाजा था उसकी पुष्टि उसकी कहानियाँ करने लगीं।
एक दिन अकेले में उससे उन्होंने पूछ ही लिया, 'तू खुश तो नहीं है, पर अपने मन की बात बताने से दुख कुछ कम ही होगा बेटी।" अपनत्व की गर्माहट ने अंतर्मन को पिघला दिया।
वो माँ के कंधे को भिगोने लगी ।उसे पुचकारते हुए माँ ने रुंधे गले से पूछा ' बेटी तूने इतना सहा पर कभी क्यूँ नही कहा?"
सुबकते हुए उसने जवाब दिया "बडी बहनों के गम में डूबी आपको मैं और दुखी नहीं करना चाहती थी।"
ये सुन उसे अपने सीने से चिपटाते हुए वो बोली 'पगली माँ को कमजोर तो बेटी की चुप्पी कर देती है।।तू कमजोर नही तेरी आत्मनिर्भरता तेरी ताकत है। मैं आखिरी सांस तक तेरे साथ हूँ ।"
माँ के शब्दों की संजीवनी ले वह घर पहुंची। हमेशा की तरह महाभारत मच गया वहाँ । वह चुपचाप खड़ी रही। उसकी चुप्पी को कमजोरी समझने वाले पति के उठे हुए हाथ को उसने कसकर पकड लिया।
पलटवार देख सब दायें-बायें हो गये।पर पति अभी भी मैदाने जंग में डटा था। आज तो उस पर भी मानो सरस्वती की कृपा बरस रही थी।
उसके तर्कों से थक-हारकर पति चिल्लाया, "शादी कर यहाँ आई है तू। मेरे घर से बाहर निकल।" पति की बात से विचलित हुए बिना उसने कड़कते स्वर में कहा 'ये घर तुम्हारा ही नहीं मेरा भी है।शादी की है मैनें कोई अपराध नहीँ ।
।।कथाकार को सलाह हेतु तैयार ड्राफ्ट : बलराम अग्रवाल।।
शादी
धीरे-धीरे निकलती शादी की उम्र रानी के अड़ोसी-पड़ोसी व नाते-रिश्तेदारों के कौतूहल का महासागर बनती जा रही थी।
उसकी कुछ तरंगें जब उसके घर में पहुंच जातीं तो घर में हड़कंप-सा मच जाता। पर वह बेफिक्र ही रहती क्योंकि माँ उसका साथ देती।
अचानक, एक दिन माँ ने उससे पूछा, "तू हर रिश्ते को मना कर देती है। क्या कोई है!..."
लोगों की शंकालु नजरों की तिलभर भी फिक्र नहीं थी उसे। लेकिन माँ उनसे विचलित हो उठेंगी, सोचा नहीं था। उनकी आँखोँ में अविश्वास की परछाई देख वह आपा खो बैठी और गुस्से से बोली, "हां, बता दो सबको। है कोई जिसे मैं बेहद प्यार करती हूँ । उसी का इन्तजार है मुझे।"
यह सुनते ही माँ के चेहरे पर अमावस्या की कालिमा उभर आई। उसे देख वह धीरे-से बोली, "माँ, तुम तो जानती ही हो कि मैंने जॉब न मिलने शादी न करने का फैसला किया था।"
"हाँ, लेकिन... "
"अभी-अभी मिला है अपॉइंटमेंट लैटर!" हाथ में थाम रखे लिफाफे को उनके चेहरे के आगे लहराते हुए उसने कहा, "अब लाइन क्लियर है।
माँ ने लंबे समय बाद जैसे पहली बार चैन की साँस ली। उनका चेहरा पूनम के चाँद-सा दमक उठा।
(बीना जी, इसके बाद कथानक लघुकथा को छोड़कर कहानी में प्रविष्ट हो गया है।)
।।दूसरा ड्राफ्ट:बीना शर्मा।।
शादी
धीरे-धीरे निकलती शादी की उम्र रानी के अड़ोसी-पड़ोसी व नाते-रिश्तेदारों के कौतूहल का महासागर बनती जा रही थी।
उसकी कुछ तरंगें जब उसके घर में पहुंच जातीं तो घर में हड़कंप-सा मच जाता। पर वह बेफिक्र ही रहती क्योंकि माँ उसका साथ देती।
अचानक, एक दिन माँ ने उससे पूछा, "तू हर रिश्ते को मना कर देती है। क्या कोई है!..."
लोगों की शंकालु नजरों की तिलभर भी फिक्र नहीं थी उसे। लेकिन माँ उनसे विचलित हो उठेंगी, सोचा नहीं था। उनकी आँखोँ में अविश्वास की परछाई देख वह आपा खो बैठी और गुस्से से बोली, "हां, बता दो सबको। है कोई जिसे मैं बेहद प्यार करती हूँ । उसी का इन्तजार है मुझे।"
यह सुनते ही माँ के चेहरे पर अमावस्या की कालिमा उभर आई। उसे देख वह धीरे-से बोली, "माँ, तुम तो जानती ही हो कि मैंने जॉब न मिलने शादी न करने का फैसला किया था।"
"हाँ, लेकिन... "
"अभी-अभी मिला है अपॉइंटमेंट लैटर!" हाथ में थाम रखे लिफाफे को उनके चेहरे के आगे लहराते हुए उसने कहा, "अब लाइन क्लियर है।"
माँ ने लंबे समय बाद जैसे पहली बार चैन की साँस ली। उनका चेहरा पूनम के चाँद सा दमक गया ।
भाभी से मां का मनमुटाव व बड़ी बहनों की दूर ससुराल के कारण उसने अपनी सहेली रूपा के भाई के रिश्ते को हां कर दी।
पहले ही दिन सबके सामने ' रानी तुम केवल नाम की ही नहीं इस घर व मेरे दिल की रानी हो।"कह पति ने उसे जो गर्व महसूस कराया था वो जल्द ही चकनाचूर हो गया।
धीरे-धीरे वह महसूस करने लगी थी कि पत्नी चाहे घरेलू हो या कामकाजी पति को गुस्सा होने पर उसे पीटने व खुश होने पर उसके शरीर की बोटी-बोटी नोचने का अधिकार होता है।
माँ उसका दुख जान कहीँ टूट न जायें इसीलिये चेहरे पर मुस्कुराहट का लेप लगाये रखती।कहीं जख्म नासूर न बन जायें यही सोच उसने कलम थाम ली। अपनी व्यथा को किसी भी पात्र में उड़ेल कर सकून मिलने लगा था उसे।
उसकी कहानियाँ पढती माँ के दिल को अनहोनी की आशंकाएँ घेर लेतीं ।एक दिन माँ ने उसकी आँखोँ में झांकते हुए जब इस बारे में जानना चाहा तो उसने आँखे झुका लीं।
माँ उसके हाथों को अपने हाथों मे थामते हुए बोली 'बेटियों की चुप्पी ही माँ को कमजोर कर देती है।"
अपनत्व की गर्माहट चुप्पी रुपी बर्फ की दीवार को पिघलाने लगी।
उसने वो सब कहा जो भी सहा ।उसे पुचकारते हुए माँ ने रुंधे हुए स्वर में पूछा 'पगली तूने मुझे बताया क्यूँ नहीं?"
माँ के गले से लिपट वो सिसकने लगी। माँ उसके सिर को सहलाते हुए बोली 'तेरा मनपसंद साथी जॉब व माँ तेरे साथ हैं।तुझे कसी से डरने की जरुरत नहीं। माँ के शब्दों की संजीवनी ले वह वापस आई।
वादविवाद की बिसात से भयभीत हुए बिना उसके तर्कपूर्ण जवाब पति के क्रोध को हवा दे रहे थे।
आवेश में हाथ उठाते हुए वो बोला, 'शादी की है तुमने।पत्नी हो मेरी, निकलो मेरे घर से।"
पति के उठे हाथ को कसकर पकड़ उसने फुफकारते हुए कहा, 'मैने शादी की है कोई अपराध नहीं। पत्नी हूँ कैदी नहीं। रही घर की बात ये घर तो मेरा भी है।"
।।तीसरा ड्राफ्ट : ब.अ.।।
शीर्षक : शब्दों की संजीवनी
बढ़ चुकी उम्र वाली रानी अड़ोसी-पड़ोसी व नाते-रिश्तेदारों के लिए कौतूहल का महासागर बन चुकी थी।
परेशान हाल माँ ने, एक दिन धीमी आवाज में उससे पूछा, "तू हर रिश्ते को मना कर देती है; क्या कोई है!..."
औरों की शंकालु नजरों की तिलभर भी फिक्र नहीं थी रानी को। लेकिन माँ उनसे विचलित हो उठेंगी, सोचा नहीं था। उनकी आँखोँ में अविश्वास की परछाई देख वह आपा खो बैठी और गुस्से से बोली, "हां है; बता दो सबको। है कोई जिसे मैं बेहद प्यार करती हूँ। उसी की 'हाँ' का इंतजार है मुझको।"
यह सुनते ही माँ के चेहरे पर अमावस्या की कालिमा छा गई। उसे देख वह धीरे-से बोली, "माँ, तुम तो जानती ही हो कि मैंने जॉब मिलने पर ही शादी करने का फैसला किया था।"
"हाँ, लेकिन... "
"अभी-अभी मिला है यह अपॉइंटमेंट लैटर!" हाथ में थाम रखे लिफाफे को उनके चेहरे के आगे लहराते हुए उसने कहा, "अब लाइन क्लियर है।"
तपते घाम के बीच माँ ने लंबे समय बाद पहली बार ठंडी बयार महसूस की। उनका चेहरा पूनम के चाँद-सा दमक उठा। उन्होंने तुरंत उसकी सहेली रूपा के भाई रोहन का रिश्ता आने की बात उससे कह दी। रानी ने तुरंत 'हां' कर दी।
शादी हो गई।
"तुम नाम की ही नहीं, इस घर की व मेरे दिल की भी रानी हो।" रोहन ने पहले ही दिन सबके सामने उसे जो गर्व महसूस कराया था वो जल्द ही चकनाचूर हो गया।
गुस्सा होने पर उसे पीटने व खुश होने पर उसके शरीर की बोटी-बोटी नोंचने को वह अधिकार की तरह प्रयोग करता था।
जख्म नासूर न बन जायें, यही सोच उसने कलम थाम ली। व्यथा को किसी भी पात्र में उँड़ेल डालने में उसे सकून मिलने लगा।
उसकी कहानियाँ माँ पढ़तीं तो उनके दिल को अनहोनी की आशंकाएँ घेर लेतीं। उसके ऑफिस पहुँच, एक दिन माँ ने जब उसकी आँखोँ को पढ़ना चाहा तो वे टप-टप टपक पड़ीं।
उसके हाथों को अपने हाथों में थामकर माँ ने कहा, "बेटियों की चुप्पी माँ को छील डालती है।"
ममता भरे बोलों की गर्माहट पाकर बर्फ की दीवार पिघलकर बह निकली। जो कुछ वह सह रही थी, सब कह डाला। उसे पुचकारते हुए माँ ने रुंधे हुए स्वर में कहा, "पगली, कम से कम मुझे तो बताया होता!"
वह उठी और माँ के गले से लिपटकर सिसकने लगी।
माँ उसके सिर को सहलाते हुए बोली, "तेरी जॉब और तेरी माँ तेरे साथ हैं। किसी से भी डरने की जरुरत नहीं।"
माँ के शब्दों की संजीवनी ले वह घर आई। वाद-प्रतिवाद की बिसात से भयमुक्त उसके तर्क पति के क्रोध को हवा देने लगे। आवेश में हाथ उठाते हुए वह चीखा, "अभी, इसी पल, निकल मेरे घर से।"
पति के उठे हाथ को मुट्ठी में जकड़ उसने फुफकारते हुए कहा, "शादी करके लाई गई हूँ। पत्नी हूँ, रखैल नहीं। रही बात घर की, तो यह घर मेरा भी है, सुन लो!"
रोहन को पहली बार पहाड़ के नीचे से गुजरने का एहसास हुआ।
उस दिन के बाद रानी ने कभी न सिर झुकाया न आँखें।
प्रो. (डॉ.) बीना शर्मा
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मेरे विचार से यह एक कहानी है, लघुकथा नहीं
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