लघुकथा : समीक्षा के सन्दर्भ में आत्मिक और दैहिक अस्तित्व का तात्विक विवेचन
पहली कड़ी
समकालीन लघुकथा में लेखन और विमर्श—दोनों की दृष्टि से यह समय सर्वाधिक व्यस्तताओं से भरा हुआ है। इस व्यस्तता में कुछ अनपेक्षित चीजें शामिल हैं तो कुछ चीजें बेहद अच्छी हैं। इस समय में धूम-धड़ाके का शोर शामिल है तो रचनात्मकता का संगीत भी। एक ओर बेहद सतही लेखन हो रहा है तो दूसरी ओर अत्यंत प्रभावशाली लेखन भी इसी समय में हो रहा है। और भी कई नकारात्मक चीजें एक ओर हैं तो दूसरी ओर बेहद शालीन और इस विधा के जमीनी यथार्थ को सिद्दत से समझने वाले लोग, मनुष्य और मनुष्यता की मौलिक और रचनात्मक पक्षधरता को प्रकाशमान करने की यज्ञार्पण होती संसाधनविहीन आत्मीयता, समर्पण और तपोभावना की उपस्थिति के साथ रचनात्मक संवेदनशीलता का सर्वाधिक उभार भी इसी समय में है। ऐसे समय में लघुकथा के बारे में किये जाने वाले किसी गम्भीर चिंतन के लिए जगह बना पाने में विश्वास की गुंजाइश भले हो लेकिन लघुकथा के बारे में व्यापक दृष्टि से सोचने और समझने के लिए सर्वाधिक उपयोगी समय है यह, जब हमारे सामने सभी तरह की चीजें मौजूद हैं और अन्य विधाओं के सापेक्ष सर्वाधिक सृजन और सम्बन्धित गतिविधियाँ लघुकथा के क्षेत्र में ही हो रही हैं।
सृजन की दृष्टि से संभव है ऐसे समय में कुछ महत्वपूर्ण लघुकथाओं का मूल स्वर शोरगुल में डूब जाये लेकिन इस परिदृश्य और इसमें व्याप्त चुनौतियों को समझने वाले लेखकों की महत्वपूर्ण रचनाएँ कुछ समय बाद अवश्य दिखाई देंगी। उनमें लघुकथा के मानकों की कुछ नई कलियाँ भी खिलती हुई मिलेंगी। इस चुनौतीपूर्ण समय में समीक्षा की दृष्टि से भी विचार के लिए कई चीजें मिल सकती हैं, जो समकालीन लघुकथा के वर्तमान यथार्थ की तहों को उलटने-पलटने के साहस के साथ आने वाले समय में साक्षात्कृत होने वाली लघुकथाओं की पड़ताल की जमीन भी मुहैया करा सकें। इस आलेख के विषय- समीक्षा के बिन्दुओं पर बात करते हुए सामयिकता का यह सन्दर्भ भी जेहन में रहना चाहिए।
समीक्षा और समालोचना शब्दों का शाब्दिक अर्थ अलग-अलग होने के बावजूद आजकल साहित्यिक रचनाओं के सन्दर्भ में इन शब्दों को लगभग समानार्थी समझा जाता है। इसके कारणों में जाने की आवश्यकता मैं नहीं समझता और उससे बहुत अधिक अन्तर भी नहीं पड़ना है। मुख्य बात यह है कि समीक्षा-समालोचना के सामान्य सन्दर्भ में बात करते हुए उन तमाम बिन्दुओं पर बात हो, जो लघुकथा को उसकी समग्र व्यापकता में समझने के लिए आवश्यक हो सकते हैं। प्रायः रचना के दैहिक तत्वों पर बात होकर रह जाती है, जो रचना को भौतिक रूपाकार देने और उसके आकर्षण एवं प्रभाव को बढ़ाने में सहायक तो होते हैं लेकिन उसके आत्मिक स्वरूप और दृष्टि-चिंतन को निर्धारित करने पर मौन रहते हैं। मैं चाहूँगा कि लघुकथा की समीक्षा में इस पक्ष पर प्रमुखता से बात की जाये। इस वस्तुस्थिति को ध्यान में रखते हुए लघुकथा-समीक्षा के तमाम बिन्दुओं को पाँच स्तरों- वैचारिक, दैहिक, कथा-सौंदर्य, शीर्षक और मौलिकता संबंधी तत्वों में विभाजित करते हुए चर्चा करना मुझे आवश्यक और उचित लग रहा है।
क. वैचारिक तत्वों की पड़ताल
चूँकि यहाँ प्रश्न लघुकथा की समीक्षा के आधार बिन्दुओं के निर्धारण का रखा गया है, इसलिए हमें समग्रता से सोचना पड़ेगा। लघुकथा हो या कोई अन्य विधा या वस्तु, ये आधार बिन्दु निश्चित रूप से समीक्षा के सामान्य आशय- सम्यक दृष्टि और रचना या वस्तु के विभिन्न अवयवों/पक्षों से ही सम्बन्धित होंगे लेकिन महत्वपूर्ण बात यह होगी कि तथ्यात्मक दृष्टि से हम सम्यक दृष्टि एवं रचना या वस्तु के विभिन्न अवयवों/पक्षों को किस रूप में ग्रहण करते हैं।
प्रश्न तो यह भी है कि किसी भी रचना की समीक्षा क्यों? यदि इस प्रश्न का वास्तविक उत्तर हमें नहीं मिलेगा तो बाकी प्रश्न और उनके उत्तर भी बेमानी हो जायेंगे। इस प्रश्न का उत्तर सही अर्थों में अन्य सभी प्रश्नों और उनके उत्तरों का यथार्थ प्रस्तुत करेगा। रचना सदैव प्राथमिक होती है। यहाँ मैं समीक्षा या रचना पर अन्य तरह की चर्चा का महत्व नकार नहीं रहा हूँ अपितु ‘सम्यक दृष्टि’ पर विचार का आमंत्रण देना चाहता हूँ। हर रचना के अपने सृजन-सन्दर्भ, उससे जुड़े कारण, उद्देश्य और परिणाम के रूप में होते हैं। ऐसे में यह विचारणीय है कि ‘सम्यक दृष्टि’ समीक्षक के अपने विवेक या रचनात्मक तत्वों की निजी मान्यता तक सीमित है अथवा रचना के सृजन-सन्दर्भों से जुड़े समग्र कारणों और परिणामों तक जाती है! वस्तुतः रचना जहाँ से आरम्भ होती है, समीक्षात्मक विमर्श को वहीं से आरम्भ होना चाहिए। और रचना जहाँ तक जाती है, समीक्षा को भी वहाँ तक जाना चाहिए। दूसरी बात, यदि वास्तव में लेखकीय सृजन मनुष्य और मनुष्यता के कल्याण और विकास के लिए है तो मानवीय न्यायसंगतता का प्रश्न लेखकीय दायित्व में और उसकी पड़ताल समीक्षा के सामान्य आशय, विशेषतः ‘सम्यक दृष्टि’ में निहित होना चाहिए।
इस दृष्टि से विचार करने पर लघुकथा (और अन्य विधाओं) की समीक्षा/समालोचना दैहिक तत्वों की पड़ताल से पूरी नहीं होती। बात उन वैचारिक तत्वों पर कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है, जो लघुकथा-सृजन (अन्य विधाओं में भी रचना-सृजन) के प्रेरक बिन्दु से आरम्भ होकर परिणामी भाव-विचार के सम्प्रेषण तक जाते हैं। लघुकथा एवं समधर्मा विधाओं में इन्हें सृजन के प्रेरक परिवेश, उसकी प्रकृति (लघुकथा के सन्दर्भ में समकालीनता), सृजन के सामाजिक दायित्व, जीवन से जुड़े परिवर्तनों का समायोजन, रचना के विधागत स्वभाव से जुड़े तत्वों, रचनागत और रचनात्मक चिंतन के प्रवाह के रूप में समझा जा सकता है। वास्तविकता तो यह है कि लघुकथा (एवं अन्य समधर्मा विधाओं) के सृजन आधार और परिणाम इन्हीं के संयुग्मन से तय होते हैं। इसलिए लघुकथा की समीक्षा के बिन्दुओं में इनकी पड़ताल प्राथमिकता के आधार पर शामिल होनी चाहिए।
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