Sunday, 27 September 2020

लघुकथा के समीक्षा-बिन्दु-6 / डॉ॰ पुरुषोत्तम दुबे

दिनांक 26-9-2020 से आगे

लघुकथा  : वीक्षा-समीक्षा के आधारभूत सूत्र

छठी कड़ी


इक्कीसवीं सदी के शुरुआती इन दो दशकों में लघुकथा-लेखन के पैमाने बदले हैं। वैश्विक मन्दी
, आतंकवाद, राजनीतिक अस्थिरता इत्यादि ऐसे कई बेमेल कारक पायदार हैं जो आम आदमी के जीवन-मूल्यों में कृत्रिम कड़वाहट पैदा कर रहे हैं। जागरूक और सामाजिक तौर पर दृष्टिसम्पन्न लघुकथाकार आज के मनुष्यों में ठहरी ऐसी ही विषण्ण दशाओं को चित्रित कर अपनी लघुकथाओं में समकालीन मूल्यों को तरजीह दे रहा है। अतएव जिस ढंग का परिवेशगत लघुकथा-लेखन मौजूदा समय में आ रहा है लघुकथा के समीक्षक को भी लघुकथाकार के लघुकथा-लेखन-सन्दर्भ से संश्लिष्ट होकर अपनी समीक्षा-पद्धति में लघुकथाकार की लघुकथा के साथ साम्य स्थापित करते हुए समीक्षकीय आचरण का निर्वहन करना होगा, तब कहीं जाकर आज का समीक्षक आलोच्य लघुकथा में स्थापित मानवीय मूल्यों की तात्त्विक समीक्षा कर पाने में सफल सिद्ध होगा।
 

5. समकालीन मूल्यों से तालमेल

माना जाता रहा है कि समकालीन शब्द का प्रादुर्भाव द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति से हुआ है। समकालीन का अर्थ, ‘जो आज के दिन के लिए एकदम प्रासंगिक है।’ अब गर्दन में पीछे मुड़कर देखने के खम पैदा करने का समय जाता रहा है। अब जरूरत है वर्तमान के पटल पर घटित घटनाओं के आरोह-अवरोह का अभिलेखन करने की। आज का समय ऐसा समय है कि लेखक और पाठक दोनों एक-दूसरे के समानान्तर खड़े होकर सामाजिक गतिशीलता पर बराबर की दृष्टि जमाए हुए हैं। अन्तर केवल इतना है कि लेखक सामाजिक गतिशीलता को भाँपकर उसे कलमबद्ध कर देता है; जबकि पाठक उस गतिशीलता से पैदा परिदृश्यों को अपने मस्तिष्क में संचित कर उस पर तब तक मनन-चिन्तन करता फिरता है, जब तक उसमें संचित विचारों से साम्य स्थापित करनेवाला कोई लिखित साहित्य उसके अध्ययन-पठन की सीमा में हस्तक्षेप करता न मिले।

समकालीन, समसामयिकता और आधुनिकता के सन्दर्भ में अज्ञेय जी से अजीत कुमारजी की बातचीत में अज्ञेयजी से अजीतकुमार का यह सवाल कि ‘वात्स्यायनजी, कभी-कभी मन में यह बात भी उठती है कि क्या हम ऐसा कह सकते हैं कि समकालीन वह है, एक लेखक के लिए जो उसका आज का युग या समाज है।’ इसके जवाब में अज्ञेयजी ने कहा कि, ‘हाँ, मेरा खयाल है कुछ तो कर सकते हैं। क्योंकि अनुभव की भी बात मैंने कही तो कुछ का आग्रह इस पक्ष पर हो सकता है कि उसके स्तर पर जो है हमारे इसी जीवन के और मुख्यतया हमारे गोचर अनुभवों पर आधारित चीज है, उसी को महत्त्व दें।’ अर्थात् लघुकथा की समीक्षा में समीक्षक प्राथमिक रूप से उन्हीं चीजों को लें जिन बिन्दुओं में समकालीनता की धड़कनें स्पष्ट सुनाई दें।

आज की लघुकथाओं को परखने की सबसे बड़ी कसौटी है कि उस लघुकथा में समकालीन जीवन-मूल्यों की कितनी और क्योंकर विवेचना हुई है।

लघुकथा में समकालीन मूल्यों की पड़ताल करना लघुकथा की रचनात्मकता में से उस मूल्य को खोज लेना है जिस मूल्य से जुड़कर लघुकथाकार ने अपनी लघुकथा का स्वरूप निर्धारित किया है। समकालीनता का चित्रण दूर की कौड़ी नहीं है अपितु लघुकथाकार के आसपास का पफैला हुआ वह समाज है; जिसमें एकाकी अथवा संयुक्त परिवारों में वासित लोगों के जीवन की रस्साकशी देखने में आती है। गृहस्थी के परिचायन में अब अकेले मुखिया का ही नहीं बल्कि परिवार के सभी सदस्यों का आर्थिक संकट के निष्पादन में काम से जुड़े होना, सबको समान अर्थ में दायित्वों का वहन करना इत्यादि कई मुद्दे होते हैं, जिनका दोहन कर लघुकथाकार अपनी लघुकथा का पफलक तैयार करता है। घर में वृद्ध पिता की स्थिति, रुग्ण माँ की देख-रेख का सवाल, निरन्तर बढ़ती उम्र का स्पर्श करती घर में बैठी कुँआरी लड़की, बेरोजगार बेटा, इन सबके उपरान्त एक ही छत के नीचे रह रहे परिजनों के मध्य आपसी मनमुटाव ऐसे कई परिदृश्य हैं जिनको घेरकर लघुकथा में समकालीनता के स्वर मुखरित होते हैं। ऐसे ही पारिवारिक वैषम्य का बिन्दुवार अन्वेषण कर लघुकथा का समीक्षक लघुकथाओं में समकालीन मूल्यों को खोज निकालकर आलोच्य लघुकथा में समकालीनता के गुप्त और लुप्त विचारों को पाठकों के अवलोकनार्थ पटल पर लिख छोड़ देता है। फलस्वरूप लघुकथा में से समकालीन मूल्यों के अवगाहन से प्राप्त परिणाम न केवल पाठकीय जिज्ञासा का शमन करते हैं प्रत्युत् परिणामों की इन उतरी हुई खेपों से अपनी जीवनगत समस्याओं का निष्पादन भी पा जाते हैं।

6. लघुकथा की भाषा

उभयनिष्ठ हिन्दी भाषा का शब्द है। भाषा में यह विशेषण के रूप में प्रयोग किया जाता है। इसे अंग्रेजी में ;ब्वउउवदद्ध कहा जाता है। उभयनिष्ठ का आशय है कि जिसकी उपस्थिति सभी पक्षों में सम्मिलित हो। अर्थात् भाषा का उभयनिष्ठ रूप रचनात्मकता को परिपूर्ण बनानेवाले कथ्य, शैली-शिल्प, रचना में निहित सांकेतिकता, रचना में समाविष्ट चरित्र की विशेषताओं को उद्घाटित करनेवाला गुण-धर्म--सभी के लिए एक आवश्यक कारक है।

अब वह दौर नहीं रहा है कि भाषा केवल लेखक की पूँजी हुआ करती थी। वरन् आज भाषा जितनी लेखक को आती है अब भाषा का उतना ही ताल्लुक पाठकों से हो गया है। अर्थात् भाषा के संयोजन में लेखक और पाठक दोनों की भूमिका अहम् होती जा रही है। अलबत्ता यह अलग बात है कि लेखक का भाषा को लेकर कर्तत्व और वक्तृत्व दोनों ही दशाओं पर समान अधिकार होता है।

लघुकथा में भाषा-विषयक उक्त मन्तव्य को प्रस्तुत करने के पीछे मेरी सिपर्फ यह धारणा रही है कि जब भाषा तत्त्व को लेकर लघुकथा का कोई समीक्षक समीक्षा के व्यवहार से गुजरता है तो समीक्षक को चाहिए कि वह आलोच्य लघुकथा में प्रयोजनीय हुई भाषा को इस अभिप्राय से आलोचित करे कि वह भाषा जितनी लेखक अथवा लघुकथाकार की है उतनी ही लघुकथाकार की लघुकथा के पाठक की भी है। भाव यह कि भाषा के आधार पर ही लेखक की कृति के साथ पाठकीय तादात्म्य पैदा होता है।

कई बार लघुकथाओं में भाषा इतनी आलंकारिक होती है कि उसकी घटाटोप छाया में कथानक दब जाता है। यही बात लघुकथा में शिल्पाधिक्य के प्रयोग के तारतम्य में भी कही जा सकती है। अतएव यहाँ समीक्षकों को मेरी सलाह है कि वे लघुकथा में प्रयोजनीय भाषा की आलोचना करने में अपना ‘जी’ न चुराएँ।

माना गया है कि लघुकथा में अब सांकेतिकता केवल नाममात्र की नहीं रही है अपितु सम्पूर्ण लघुकथा सांकेतिक शैली में लिखी जाने लगी है। अतएव लघुकथा के समीक्षक को अपनी समीक्षा-पद्धति के दरम्यान लघुकथा में सांकेतिकता का अवगाहन अधिक-से-अधिक करना चाहिए जिससे सांकेतिकता के आश्रय से लघुकथा लिखनेवाली आगामी पीढ़ी इस कारक का अनुकरण कर लघुकथा को अनावश्यक विस्तार देने से बच सके।

लघुकथा की भाषा को लेकर अभी भी कोई सन्तोषप्रद हल सामने नहीं आया है। जिसने जैसी भाषा लिख दी, वही लघुकथा की ‘कहन’ बन गई। परिणाम यह हुआ कि आज के पाठक गहन तीव्रता के साथ लघुकथा को तो पढ़ जाते है; किन्तु किसी भी एक लघुकथा का ‘कण्टैण्ट’ उन्हें मौखिक रूप से याद नहीं रह पाता है। इसके पार्श्व में लघुकथा के कथ्य को व्यावहारिक भाषा में विरचित न कर पाने का संकट है।

लघुकथा के समीक्षक को लघुकथा में निहित भाषा के उपयोग की पड़ताल करनी चाहिए जिससे कि लघुकथा में भाषा प्रयोग की कोई स्पष्ट कसौटी तैयार हो सके।

7. लघुकथा की प्रभावन क्षमता

कोई भी साहित्यिक रचना सार्थक सिद्ध तभी हो पाती है जब पाठकों की न केवल उस पर प्रभावी प्रतिक्रिया सामने आती हो प्रत्युत् उस रचना लेकर आयोजित गोष्ठियों में उपस्थितों के मध्य चर्चा-परिचर्या के जोर पैदा हों।

किसी लघुकथा का दृष्टिसम्पन्न आलोचक सहृदय सामाजिकों के बीच पहुँचकर अपनी ओर से ही आलोच्य लघुकथा पर चर्चा चलाकर सम्बन्धित लघुकथा में निहित गुण-दोषों को हासिल कर तदुपरान्त उसके द्वारा चर्चा में लाई गई लघुकथा का बिन्दुवार आकलन कर उसको अपनी समीक्षा में लाता है। लघुकथा का एक अच्छा समीक्षक वही माना जाएगा जो लघुकथा पर एकदम से अपनी राय न बनाकर बल्कि आलोच्य लघुकथा को अपने चिन्तन क्षेत्रा में स्थान देकर उस पर गहन वैचारिकता के साथ खड़ा मिले। पिफर प्रस्तुत लघुकथा पर अपना एकाकी मन्तव्य प्रसारित करने से पूर्व अपने इर्द-गिर्द के समीक्षकों/रचनाकारों के मध्य उस लघुकथा की प्रभावशीलता पर मत प्राप्त करे, ताकि समवेत स्वरों में उस लघुकथा की प्रभावन क्षमता का कोई प्रत्युत्तर सामने ला सके।

उदाहरण के तौर पर यदि मुझे कोई लघुकथा पसन्द आती है तो दूसरे ही क्षण मैं उस लघुकथा का पाठक न रहकर स्वयं को उस लघुकथा का आलोचक मानते हुए उसमें झाँककर असल मायने में उस लघुकथा में उन कारकों की खोज करने लगूँ जो वास्तव में लघुकथा को प्रभावी लघुकथा बनाने में कारगर होकर जुड़े हों। मसलन, लघुकथा का कथ्य, कितना वैज्ञानिक, कितना सैद्धान्तिक होकर किस तरह से समकालीन मूल्यों से परिपूर्ण हुआ है। इसके अलावे लघुकथा में शिल्प-विन्यास, लघुकथा के कथ्य को मुखरित करनेवाले संवाद, लघुकथा में सांकेतिकता के अवतरण और उसमें यत्किंचित् पात्रों का प्रवेश किस अन्दाज से हुआ है, इसकी छान-बीन कर पिफर उस लघुकथा की प्रभावन क्षमता पर अपने विचार रखने में स्वयं को तत्पर करूँ।

शेष आगामी अंक में…

1 comment:

Rakesh said...

आप लघुकथा लेखन को एक नई दिशा दे रहे है सर