लघुकथा : वीक्षा-समीक्षा के आधारभूत सूत्र
पहली कड़ी
ऐसा कहना कोई गलत नहीं होगा कि समकालीन लघुकथा का जन्म कहानी की नाभि से हुआ है। बावजूद इसके, लघुकथा-लेखन परम्परा तकरीबन सौ-सवा सौ वर्ष की दीर्घायु होकर भी, अनवरत है; मगर, उसके साथ, उसके लेखन की सीमा को परिभाषित करनेवाला किसी ‘वाद’ का परकोटा नहीं बन पाया है। इससे कठिनाई यह हुई कि कहानी की भाँति लघुकथा की समीक्षा के कोई सर्वमान्य मानदण्ड तैयार नहीं हो सके हैं। अर्थात् समीक्षा की दृष्टि से लघुकथाएँ नितान्त बाँझपन की आरोपित राहों से गुजर रही हैं।
वर्तमान में एक पलड़े पर लघुकथाएँ रख दी जाएँ और दूसरे पलड़े पर साहित्य की शेष विधाओं का समेकित गट्ठर बाँधकर रख दिया जाए, तो रचनात्मकता की दृष्टि से लघुकथा का पलड़ा भारी होता नजर आएगा। अब ताज्जुब इस बात का है कि लघुकथा के ऐसे उत्कट ढेर को देखकर पहले तो आलोचना की दृष्टि सकपका जाती है, पीछे लघुकथा की आलोचना का कोई ऐतिहासिक क्रम न होना भी घबराहट का एक बड़ा कारक बनता है कि आखिर वे कौन-से ऐसे शाश्वत बिन्दु हो सकते हैं, जिनका सिरा पकड़कर लघुकथा में डुबकियाँ खाकर, लघुकथा-आलोचना के सर्वमान्य आधार का अवगाहन हो सके।
मगर अतीत में हो चुकी लघुकथा-आलोचना की भूल पर पश्चाताप का ठीकरा फोड़ने से यही बेहतर होगा कि लघुकथा के पक्ष में आलोचना का आकार चिन्तन की किस मिट्टी से गढ़कर तैयार किया जा सके, ताकि बेसबब (without cause or reason) लिखी चली आ रही लघुकथाओं पर या तो नकेल कस दी जाए या पिफर लघुकथा के कण्टैण्ट (विषयवस्तु) पर कोई जिरह चलाकर लघुकथा को आकारगत, विचारगत, शिल्पगत, भाषागत इत्यादि श्रेणियों के प्रमाण-पत्र प्रदान करने के मसविदे गढ़ लिए जाएँ। ताकि...ताकि लघुकथा की रचनात्मकता के आगे कोई Barrier (सीमा अथवा नाका) खड़ा हो सके।
समीक्षा में सम + ईशा (इच्छा) का विनियोग है; गोया कि रचनाकार या रचयिता ने किस मकसद को लेकर रचना की है; रचनाकार या रचयिता के उसी मकसद की पैठ में उतरकर ही समीक्षक अपनी समीक्षा की बिसात पर अपनी आलोचना के मोहरे बढ़ाए। कहने का तात्पर्य यह कि कोई रचनाकार जिस प्रकार रचना की निर्मिति में अनुसन्धान का आश्रय ग्रहण कर किसी रचना को जन्म देता है; बरअक्स इसके समीक्षक को भी आलोच्य रचना में सुप्त, गुप्त अथवा लुप्त बातों की खबर लेने के लिए रचनाकार के समानान्तर अन्वेषी होना होगा। तब ही समीक्षा की बात बन सकेगी।
लघुकथा-समीक्षा के तारतम्य में इस लिखी जा रही भूमिका का मसला यहीं समाप्त करना श्रेयस्कर समझते हुए अब मैं सीधे-सीधे हिन्दी लघुकथा की समीक्षा के उन ठिकानों का विवरण यहाँ प्रस्तुत करने जा रहा हूँ जो लघुकथा की समीक्षा का ऐसा ‘मीटर’ तैयार कर सके जिससे या जिसके बल पर लघुकथा की पारदर्शी समीक्षा के आधारभूत तत्त्व या कारक उत्पन्न हो सकें। तात्पर्य यह कि आलोचना भी एक प्रकार का शोध है।
लघुकथा विधा की समीक्षा करने में संलग्न समालोचक के आचरण पर बात करना प्रथमतः आवश्यक है ताकि एक उम्दा आलोचक का व्यक्तित्व तैयार हो सके। आलोचक में निम्नलिखित बिन्दुवार विशेषता होनी चाहिए; तब ही वह एक सम्पूर्ण आलोचक का व्यक्तित्व धारण कर सकता है और इसी रूप में वह श्रेष्ठ समालोचकों की कतार में खड़ा हो सकता है—
1. समीक्षक को अभिमानी नहीं होना चाहिए।
2. समीक्षक को आलोच्य रचयिता के उद्देश्यों और प्रयोजनों को दृष्टि में
रखना चाहिए।
3. समीक्षक में भाव-प्रधान बुद्धि का होना जरूरी है।
4. नियमानुसार रची गई लघुकथा को मान्यता देनी चाहिए।
5. रचनाकार को दृष्टि में रखकर उसकी लघुकथा की आलोचना नहीं
करनी चाहिए।
6. झूठी नवीनता से प्रभावित होकर रचना के पक्ष में अभिमत नहीं देना
चाहिए।
7. आलोचना का स्वरूप सन्तुलित होना चाहिए।
लघुकथा अथवा लघुकथाओं की समीक्षाओं का कार्य हाथों में लेने से पूर्व लघुकथा अथवा लघुकथाओं को सम्यक् रखते हुए उनकी समीक्षा करने के दरम्यान समीक्षकों को जिन विशेष बातों को ध्यान में रखना चाहिए, वे महत्त्वपूर्ण बातें इस प्रकार हैं—
इतिहास-बोध का उपयोग
किसी भी रचना अथवा लघुकथा की समीक्षा करने में सर्वप्रथम समीक्षकों को इतिहास-बोध का उपयोग करना चाहिए। मसलन, जो लघुकथा/लघुकथाएँ समीक्षा-पटल पर उपस्थित हैं, उसके/उनके कथ्य में किस विचार अथवा समय की अनुगूँज सुनाई पड़ती है। रचनाओं में आलोड़ित ‘काव्य’ की वाचालता को रेखांकित करना चाहिए। उदाहरण के लिए—यदि कोई लघुकथा सामाजिक पृष्ठभूमि को लेकर अवतरित हुई है, तो समीक्षक को आलोच्य रचना (लघुकथा) के पार्श्व में मचलते सामाजिक परिवेश का सम्पूर्ण रूप में अन्वेषण कर समीक्षा की सोच तैयार करनी चाहिए। समीक्षा करते समय समीक्षक के हृदय में जितना इतिहास-बोध गहराएगा समीक्षा उतनी सत्य के समीप दृष्टिगोचर होगी। हर लघुकथा के पीछे किसी चमकदार नक्षत्र की तरह इतिहास की विद्यमानता अवश्य ही बनी रहती है। हर लघुकथा अपने देश-काल अथवा परिवेश से गुम्फित होकर जन्म लेती है। तात्पर्य यह कि लघुकथा-रचना के उपयोग में लिया गया कथानक जिस समय की जुबान बोलता है, उस समय की ‘व्हीप’ लघुकथा-समीक्षक को बराबर सुनाई देनी चाहिए।
आलोचना रचना में अवगाहन करती है
कोई भी आलोचक, अन्वेषण की दृष्टि से जब तक किसी लघुकथा में नहीं उतरेगा, तब तक वह समीक्षा के अर्थ में कृति (लघुकथा) में समाहित उन घटनाओं को भली-भाँति नहीं पकड़ पाएगा, जिन शोधपरक घटनाओं को अंगीकृत कर एक लघुकथाकार ने लघुकथा को जन्म दिया है। यहाँ यह बात ध्यान में रखनी आवश्यक है कि सच्चा लघुकथाकार सृजक रूप में लघुकथा को रचने से पूर्व कथानक को गढ़ने में अपनी अनुसन्धानात्मक शक्ति का उपयोग करता है। फलस्वरूप लघुकथा के समीक्षकों को भी आलोच्य लघुकथा के भीतर अन्वेषक के रूप में पहुँचना होगा। सार यह कि अधिकतर आलोचना अनुसन्धान के पर्याय के रूप में खड़ी मिलती है। एक लघुकथाकार ने अपनी लघुकथा को नियोजित करने में जिस प्रकार के अनुसन्धान का माध्यम अपनाया है और जिसके बल पर लघुकथा को लघुकथा होने की पहचान मिली है; रचनाकार की उसी अन्वेषणात्मक दृष्टि से साहचर्य स्थापित करते हुए लघुकथा के समीक्षक को एतद लघुकथा की समीक्षा करनी चाहिए।
शेष आगामी अंक में…
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