दिनांक 29-9-2020
समीक्षा की कसौटियाँ और लघुकथा
पहली कड़ी
लघुकथा-समीक्षा के बिन्दुओं की पड़ताल के क्रम में मैं उसकी सम्भावनाओं एवं उपादेयता की तलाश स्थापित शास्त्रों में निहित सिद्धान्तों के अन्तिम पायदान से करना चाहूँगी। प्रश्न है कि क्या साहित्य की अन्य विधाओं की भाँति लघुकथा में भी रस-निष्पत्ति होती है, साधारणीकरण होता है? निःसन्देह मेरे प्रश्न का उत्तर सर्वत्र एवं सदैव सकारात्मक ही होगा। पुनः प्रश्न उठता है कि जब अन्य विधाओं के समान इसमें भी रस-निष्पत्ति होती है एवं साधारणीकरण होता है; तो अन्य कौन-से तत्त्व या पायदान-सोपान हैं जो लघुकथा-समीक्षा के लिए महत्त्वपूर्ण हैं। यथा, नाट्य विधा में संवादों की महत्ता सर्वाधिक प्रतीत होती है। अभिनय और रंग-सज्जा भी उसके प्रमुख तत्त्वों में ही परिगणित होते हैं। किन्तु रेडियो प्रसारण, नुक्कड़ नाटक आदि में संवाद तत्त्व सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है। तात्पर्यतः कसौटी निर्धारण हेतु निरसन-प्रक्रिया (Elimination Process) भी उपयोगी है।
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी समीक्षा के क्रम में शुक्लजी से आगे उसके कला-पक्ष को भी महत्ता देते हैं। व्याकरणिक शुद्धता, भाषायी स्पष्टता, शब्द, मुहावरों के सुन्दर प्रयोग आदि सार्थक रचना के आवश्यक अंग हैं। पात्रों में सूक्ष्म मनोविज्ञान की तलाश भी होनी चाहिए। इन सबसे थोड़ा अलग हटकर डॉ. श्यामसुन्दर दास ने कृति की विश्लेषणात्मक व्याख्या को ही आलोचना माना है। उनके अनुसार—‘‘यदि हम साहित्य को जीवन की व्याख्या मानें तो आलोचना को उस व्याख्या की व्याख्या मानना पड़ेगा।’’ साहित्य राग-तत्त्व से एवं आलोचना बुद्ध-तत्त्व से संचालित है। उन्होंने भी वैयक्तिकता से परे अर्थात् निष्पक्ष भाव से एक पद्धति का अनुसरण करनेवाले को श्रेष्ठ आलोचक माना है।
तात्पर्यतः, समीक्षा के मानदण्ड भी कालप्रवाह में परिवर्तित-परिवर्द्धित होते रहे। भारतीय एवं पाश्चात्य चिन्तकों के गहन चिन्तन-मनन एवं उनकी शास्त्रीय, तार्किक, विवेचक, विश्लेषक दृष्टि ने जिस प्रकार कसौटियों एवं सिद्धान्तों को प्रस्तुत किया वे अपने-अपने समय एवं परिस्थिति के अनुरूप परिलक्षित होते हैं। लघुकथा-समीक्षा के सिद्धान्तों एवं कसौटियों पर अग्रसर होने के पूर्व एक दृष्टि उक्त विवेचनों पर भी अपेक्षित है।
पाश्चात्य चिन्तकों के अन्तर्गत प्लेटो की साहित्यिक उपयोगिता एवं श्रेष्ठता सम्बन्धी दृष्टि पूर्णतः एवं एकमात्र सामाजिक थी। उनके अनुसार साहित्य लोगों को भटकाता है, गुमराह करता है। नैतिक एवं बौद्धिक दृष्टि से प्रेरित करनेवाला साहित्य ही उनकी दृष्टि में श्रेष्ठता की कसौटी पर खरा उतरता था। परिणामतः कवियों, साहित्यकारों को उन्होंने अपने आदर्श की परिसीमा से बाहर ही रखा। कापफी समय तक प्लेटो का यह सिद्धान्त ग्राह्य एवं अनुकरणीय रहा। किन्तु, इसी क्रम में प्लेटो के शिष्य अरस्तू ने इसे चुनौती के रूप में स्वीकार किया। उन्होंने साहित्य को कला की उस दृष्टि से देखा जो मानव-मस्तिष्क पर प्रभाव डाले तथा परिवर्तनकारी परिणाम दे। सकारात्मक परिवर्तन की प्रभावोत्पादकता के आधार पर विचारों का यह विश्लेषण ‘अनुकरण सिद्धान्त’ एवं ‘विरेचन सिद्धान्त’ के रूप में स्थापित हुआ। अपने गुरु की भाँति ही उन्होंने ‘मिमेसिस’ (Imitation) को स्वीकार तो किया किंतु राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में नहीं। उन्होंने उसे सौन्दर्यवादी परिप्रेक्ष्य में विश्लेषित किया। वैसे तो यह सिद्धान्त अत्यन्त विस्तारित है किन्तु अपने लक्ष्य-संधान की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण एवं सम्बन्धित बिन्दु ही अवलोकनीय होंगे—
- अनुकरण की प्रक्रिया से अनुरंजन की प्राप्ति।
- सत्य का समावेश, जो कृति को सार्वदेशिक एवं सार्वकालिक बनाता है।
- त्रासदी साहित्य की श्रेष्ठतम शाखा है।
- साहित्य द्वारा भावों की उत्तेजना विरेचन में सहायक है।
एक समग्र रचना के सन्दर्भ में अरस्तू ने उक्त तथ्यों को अनुभूत किया। उसके साथ-साथ उसने रचनात्मक साहित्य के तत्त्वों एवं अवयवों का भी सूक्ष्म अवलोकन, विवेचन एवं विश्लेषण किया। यथा, रचना के महत्त्वपूर्ण तत्त्व चरित्र या पात्र के सन्दर्भ में उनकी मान्यता है कि जो कुछ विशिष्ट कार्य एवं व्यापार प्रदर्शित करे वह चरित्र है। वे किसी भी चरित्र को पूर्णतः शुद्ध होना उचित नहीं मानते। पात्र सदाचारी हो सकता है, बहुत अच्छा हो सकता है किन्तु वह पूर्ण नहीं होगा। दुखान्त रचनाओं के नायक चरित्रहीन या अनैतिक न हों किन्तु मानवीय दोषों से युक्त हों, तभी दुखान्त रचनाओं का सृजन होगा। इसी प्रकार हास्य-व्यंग्य की रचनाओं में पात्रा अथवा परिस्थिति में कुरूपता, दोष एवं विकृति आवश्यक है। व्यक्ति एवं परिस्थिति के माध्यम से समष्टि का समाहार होने पर रचना की श्रेष्ठता में स्वयमेव इजाफा होता है। डिक्शन, कथन, शैली के प्रति भी अरस्तू के विचार सुस्पष्ट एवं ग्राह्य हैं। सहज सम्प्रेषणीयता रचना की पहली शर्त है जिसे सरल-सुगम शब्दों का आधार मिलना चाहिए किन्तु, अन्य भाषाओं एवं बोलियों के शब्द वर्जित नहीं। कथन में कल्पना एवं सत्य का समन्वय ही उच्च कोटि के साहित्य का निर्माण करता है। इस समन्वयात्मक दृष्टिकोण का समर्थन पाश्चात्य चिन्तक होरेस ने भी किया है।
शेष आगामी अंक में………
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