दिनांक 22-9-2020 से आगे
लघुकथा : वीक्षा-समीक्षा के आधारभूत सूत्र
समय के शिल्प की पकड़ आलोचना है
किसी भी लघुकथा की समीक्षा करने से पहले समीक्षक को उस कैनवास को पूरी तरह अथवा भली-भाँति ढंग से अपनी पड़ताल के गले में उतारना होगा, जिस कैनवास का आधार ग्रहण कर लघुकथा के कथानक का सृजनात्मक ढाँचा तैयार हुआ है। तात्पर्य यह कि लघुकथा में आगमित कथानक किस परिवेश से चलकर आया है। यदि लघुकथा बुजुर्ग जीवन की दशा-दिशा पर केन्द्रित होकर सम्पादित है; तो ऐसे में आलोचकों को बुजुर्गों के समाजशास्त्र का ज्यादातर अध्ययन करना होगा। बुजुर्ग जीवन पर लिखी हुई लघुकथा की समीक्षा केवल उसी एक लघुकथा का आश्रय ग्रहण कर की जाती है, तो ऐसे में समीक्षा का शाश्वत रूप सामने नहीं आएगा, जब तक कि समीक्षक ने समाज में तमाम साँस लेने वाले बुजुर्गों के दैनन्दिन जीवन का शोधपरक अध्ययन नहीं किया। हो। हर लघुकथा के सन्दर्भ में यह मानकर चलना चाहिए कि वह अवश्यमेव समाज-सापेक्ष है।
आलोचना निन्दा-स्तुति नहीं है
आलोचना रचना के समानान्तर चलनेवाला ऐसा गुण-धर्म है जो रचना की कद-काठी का भली-भाँति नाप-तौल करती है। लघुकथा की बनावट-बुनावट और उसमें खर्च हुआ शिल्प इत्यादि के मुद्दे उठाकर ही आलोचक लघुकथा की नाड़ी की परख करता है। आलोचना का मकसद यह कदापि नहीं होता कि आलोचक अपना आलोचना-धर्म छोड़कर रचनाकार की निन्दा अथवा स्तुति करने में संलग्न हो जाए। आज के दौर में बहुतायत रूप में समीक्षकों का कार्य कृति को एक तरपफ रखकर रचनाकार की निन्दा कम स्तुति करना अधिक रह गया है। यह आलोचक का रचनाकार से शाबाशी या पारितोषिक प्राप्त करने जैसा स्वार्य-लिप्त कार्य है।
आलोचना सृजन मुद्रा में ही पुनर्साक्षात्कार है
जैसा कि विदित है कि लघुकथाकार अपनी लघुकथा की विनिर्मिति से पूर्व लघुकथा का प्लॉट तैयार करने में उन तत्त्वों या कारकों का अन्वेषण करता है; जिन तत्त्वों या कारकों के सुलभ हो जाने के उपरान्त वह लघुकथा को सृजित करता है। यानी लघुकथा के प्लॉट को सजाने-सँवारने में वह भाव या वस्तुजगत से साक्षात्कार लेता है, तदुपरान्त स्वयं से आश्वस्त होकर वह लघुकथा की रचनात्मकता को पूर्ण बनाता है। इसी के समानान्तर लघुकथा का आलोचक भी साक्षात्कार की उसी प्रक्रिया से गुजरता है; तब जाकर वह अपनी समीक्षा-पद्धति में रचनाकार की रचना रचने के सन्दर्भ में उसे उपलब्ध उसकी आन्वेषिक सामग्री के साथ आलोचक रूप में पुनर्साक्षात्कार स्थापित कर रचना (लघुकथा) की आलोचना में अपना सौ प्रतिशत देता मिलेगा।
कहा जाता है कि आलोचना रचना की पुनर्रचना है। लेखकीय अन्वेषण से विस्पफोटित रचना का आलोचकीय अन्वेषण ही समीक्षा है।
समीक्षा है तो सृजन है
लघुकथाकार जब लघुकथा तैयार करने बैठता है; तब लघुकथा के कथानक का निर्वहन करने में अलबत्ता वह लघुकथा की आदर्श सीमा, भाषा-शैली-शिल्प का व्यवहार आदि पर अपनी सोच बनाकर चलता है तो भी लघुकथा रचते समय उसे अपनी लघुकथा की सम्भावित आलोचना के तारतम्य में भय होना चाहिए? भय से मेरा आशय यह कि उसे लघुकथा की रचना करते समय लघुकथा-लेखन के उपयुक्त ‘मीटर’ पर संयत रूप से उतरना चाहिए। क्योंकि समीक्षक सदैव निर्णय-प्रधान होता है। पाश्चात्य समीक्षक ‘ब्रेयन्तर’ ने समीक्षक के तीन प्रमुख कर्तव्य गिनाए हैं—पहला है, अर्थ का स्पष्टीकरण; दूसरा, वर्गीकरण और तीसरा निर्णय-प्रधान। इसका प्रमुख उद्देश्य जनता तथा लेखकों की अभिरुचि का संशोधन तथा कला और साहित्य का श्रेष्ठ निर्देशन है। दरअसल समीक्षक, इतिहास तथा तुलना का आश्रय ग्रहण कर वस्तु के बाह्य और अन्तर दोनों पक्षों की व्याख्या वैज्ञानिक शैली में करता हुआ सिद्धान्तों का निर्माण और आलोच्य वस्तु का मूल्यांकन करने की कोशिश करता है। इसीलिए कहा जाता है कि समीक्षा है तो सृजन है।
वर्तमान में लघुकथा की सृजनावस्था में सबसे बड़ी खोट इसी बात को लेकर है कि आनेवाली ज्यादातर लघुकथाएँ समीक्षा के हत्थे नहीं चढ़ी हैं; इस कारण भरपल्ले या धड़ल्ले से आ रही अधिकांश लघुकथाओं की रचनात्मकता की पाल सड़ी हुई है। समीक्षा ऐसी ‘चैक पोस्ट’ है अथवा नाका है जो लघुकथा को अपने विचारों की भट्ठी में तपाकर उसमें निहित स्वर्णाभा को सामने लाती है। विषयानुरूप होकर यहाँ यह बात मैं जरूरी तौर पर कहना चाहूँगा कि लघुकथा-लेखकों की तादाद तो बढ़ी है मगर लघुकथा के आलोचकों की कमी को लगभग ‘शून्य’ करार दिया जा सकता है। सारांश यह कि समीक्षा की नकेल के अभाव में बेभाव लघुकथाएँ लिखी जा रही हैं। अतएव इसी सन्दर्भ में यह कहना गैरमौजूँ नहीं होगा कि ‘समीक्षा है तो सृजन है।’ वास्तव में समीक्षा ही सृजन को दिशा देती आई है। किसी भी सृजक अथवा रचयिता को यह भ्रम कतई नहीं पालना चाहिए कि रचना ईश्वर प्रदत्त है, बरअक्स इसके इस जरूरी सोच से इत्तफाक रखना चाहिए कि समीक्षा के बूते से ही कोई रचनाकार होनहार लेखक का दर्जा पा सकता है। समीक्षा कंटकजाल नहीं होती है अपितु देख-भाल होती है।
प्रथमतया यह विदित है कि सृजना पहले है, बाद में समीक्षा, मगर ऐसा कतई भी नहीं है। प्रत्युत् रचनाकार स्वयं भी रचना लिखने के पूर्ववाले खुद के आचरण में समीक्षक ही होता है। बल्कि रचनाकार में रचना सम्पादित करने वाले भावों का अवतरण ही उसकी गहन सोच-विचार के परिणामस्वरूप ही है।
समीक्षा का रूप जितना प्रांजल होगा, भविष्यत् में अच्छी लघुकथाएँ लिखे जाने की दिशा में उपयोगी होगा। प्रायः समीक्षा ही सृजन के हेतु ऐसी पारित खिड़की (क्लियरिंग विण्डो) है, जिसमें से गुजरकर कोई रचना अपने श्रेष्ठ होने का तमगा प्राप्त कर लेती है।
इसी सन्दर्भ का आधार ग्रहण कर यहाँ आवश्यक रूप से एक और बात रखना चाहता हूँ कि जो लघुकथाकार अपनी रची लघुकथाओं के सन्दर्भ में अपने मित्र समीक्षक की ओर ताकते हैं; तथा अपनी लिखी लघुकथाओं के लिए प्रशस्ति-पत्र हथियाने का कारनामा सिद्ध कर लेते है; ऐसे लघुकथाकार न तो लघुकथा का हित साधते हैं और न ही लघुकथा की समीक्षा को निष्पक्ष होने का अवसर प्रदान करते हैं। कहने का मतलब यह है कि लघुकथाकार को चाहिए कि मुस्तैदी के साथ लघुकथा लिखे और बिना किसी डर-भय के लिखी लघुकथा को नीर-क्षीर रूपधारी आलोचक की पारी में छोड़ दे।
लघुकथा आलोचना में उतरकर सार्थक हो जाती है
मैं व्यक्तिगत रूप में समीक्षा को सृजन कार्य की सिद्ध-भूमि मानता हूँ। समीक्षा ऐसी ज्यामिति है जो लघुकथा की प्रमेय को सिद्ध करती है। किसी लघुकथा की सार्थकता, उसके अर्थ में आई सार्वभौमिकता तभी सिद्ध हो पाती है जब लघुकथा समीक्षा की कसौटी पर परखी जाए। आलोचना का तात्पर्य गुण-दोष निरूपण या विवेचन करना होता है। इसी अर्थ में आलोचना एक ऐसी साहित्यिक विधा है जो किसी रचना में समाहित लक्ष्य को दृष्टि में रखते हुए उस रचना के गुण-दोषों अथवा रचना की उपयुक्तता का विवेचन प्रस्तुत करती हो। यहाँ हम आलोचक-प्रवर डॉ. श्यामसुन्दर दास की बात करें तो वे कहते हैं कि यदि हम साहित्य को जीवन की व्याख्या मानें तो, आलोचना को उस व्याख्या की व्याख्या मानना पड़ेगा। फलतः समीक्षा का प्रधान कार्य कृति (लघुकथा) की विश्लेषणपरक व्याख्या ही तो है। लघुकथाकार अपनी लघुकथा में जिस कथ्य को लेकर उपस्थित होता है, समीक्षक अपनी समीक्षा में लघुकथा के उन्हीं तथ्यों का विश्लेषण प्रस्तुत करता है।
शेष आगामी अंक में…
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