Wednesday 30 September, 2020

समीक्षा की कसौटियाँ और लघुकथा-3 / डॉ॰ अनिता राकेश


दिनांक 30-9-2020 से आगे

समीक्षा की कसौटियाँ और लघुकथा

 तीसरी किस्त

लघुकथा-समीक्षा के सन्दर्भ में नव्य-समीक्षा के अन्तर्गत रिचर्ड्स की विचारधारा जितनी महत्त्वपूर्ण है उतनी ही मार्क्स की। मानव-मूल्यों के संरक्षक, प्रेरक के साथ-साथ

नकारात्मक एवं विध्वंसक के प्रति विरोध-प्रतिरोध के स्वरों ने निश्चित रूप से लघुकथा को अपना हथियार बनाया है, इसके प्रमाण अनेकशः लघुकथाओं में मिलते हैं। लघुकथाओं के संग्रह, समीक्षा पुस्तकें इसका प्रबल प्रमाण हैं।

यह सत्य है कि जब रचनाएँ आकार लेती रहती हैं तो उसके क्रियाशील तत्त्व एवं स्वरूप निश्चित नहीं रहते। ये सब रचना की पूर्णता के पश्चात् विवेचन-विश्लेषण के मुद्दे बनते हैं। अतः स्वाभाविक रूप से अचेतन, चेतन, उपचेतन, पूर्वानुभव की सक्रियता मनोवैज्ञानिक विश्लेषण की आकांक्षी हो जाती हैं। मनुष्य के छद्म स्वरूप, मन का गूढ़तम एवं गहनतम कोना प्रच्छन्न ही रहता है। मचलती भावनाओं का ज्वार प्रतीकों, बिम्बों के साए में आश्रय पाता है। इस दृष्टि से मनोविज्ञान भी लघुकथा-समीक्षा की एक कसौटी बनेगा। प्रफायड, एडलर, युंग के मनोवैज्ञानिक सि(ान्त भी लघुकथा समीक्षण के आधार बनेंगे इससे इन्कार नहीं किया जा सकता। मनुष्य की कुण्ठाएँ, वर्जनाएँ, दमित भावादि की अभिव्यक्ति जिस प्रकार स्वप्नों में होती है उसी प्रकार साहित्य में भी वे अभिव्यक्ति पाती हैं।

क्रोचे का ‘अभिव्यंजनावाद’ भी समीक्षा-क्षेत्र में अपनी विशदता के साथ प्रवेश पाता है। उनकी पुस्तक ‘सौन्दर्यशास्त्र’ (Aesthetics)  में विशद् व्याख्या है जिसने साहित्य एवं कला को बहुत अधिक प्रभावित किया। यह सिद्धान्त आत्मा की सौन्दर्यबोध सम्बन्धी प्रक्रिया को अत्यधिक महत्त्व देता है। फलतः यह सौन्दर्य-प्रधान, आत्मानन्दमूलक व्यापार है जिसकी पूर्णता आत्मा में होती है। क्रोचे के इस आत्मानन्दमूलक सिद्धान्त को, आत्मा की प्रवृत्तियों को एक आरेख द्वारा समझा जा सकता है

आत्मा की प्रवृत्तियाँ

ज्ञानात्मक                                                                       व्यावहारिक  

1- सहजानुभूति (स्वयंप्रकाश)  एवं                             1-निजी योगक्षेम एवं 

2-  विचारात्मक                                                      2-नैतिक         

इस दृष्टि से साहित्य एवं कला विशुद्ध सौन्दर्य-प्रधान आत्मिक क्रिया है जिसके मुख्यतः चार स्तर माने जा सकते हैं

अंतःसंस्कार  (Impression) अभिव्यंजना (Expression or Spiritual aesthetic synthesis) आनुषंगिक आनंद   (Pleasure of Beautiful) अभिव्यक्ति  (Translation of the aesthetic fact into physical phenomenon)  

वस्तुतः क्रोचे ने यहाँ जिस आनुषंगिक आनन्द की चर्चा की है वही भारतीय काव्यशास्त्रा में ‘स्वयंप्रकाश्य’ अथवा सहजानुभूति या आनन्द तत्त्व है और यही साहित्य की अन्तिम उपलब्धि होती है। यही रचनाकार के भीतर उत्पन्न होती है तो अभिव्यक्ति की व्यग्रता जन्म लेती है, इसे ही क्रोचे ने 'Translation of the aesthetic fact into physical phenomenon' कहा है। इसे ‘आत्मिक प्रसव-पीड़ा’ या ‘सम्प्रेषण की अकुलाहट’ की संज्ञा दी जा सकती है। पुनः-पुनः यह बात सिद्ध होती जा रही है कि साहित्य रचना एवं विश्लेषण का अन्तिम पायदान आनन्द तत्त्व ही होता है। लघुकथा के सन्दर्भ में भी इसे ही अन्तिम तत्त्व, लक्ष्य एवं सर्वोपरि उपलब्धि मानकर समीक्षा की जानी चाहिए। निश्चित ही आनन्द एवं रस से सराबोर कर देनेवाली लघुकथा विशिष्ट एवं कालजयी होगी। शास्त्रानुसार विविध रस तत्सम्बन्धी आनन्द की ही सृष्टि करते हैं।

समीक्षा के बिन्दुओं पर क्रमशः काल एवं परिस्थिति के आलोक में विवेचन-विश्लेषण के क्रम में आधुनिकतावाद का दौर भी आया। यह परम्परित मूल्यों, मान्यताओं, साहित्यिक वादों, दृष्टियों को अपने विवेचन का बिन्दु तो बनाता है; उस पर प्रश्न भी खड़ा करता है तथा वर्तमान मूल्यों एवं अवधारणाओं की नई कसौटियाँ तय करता है। यहाँ संरचनावाद के प्रवर्तक सस्यूर का उदाहरण लिया जा सकता है जिसने साहित्य में भाषा एवं अर्थ की स्थापित सम्पृक्ति को नकारते हुए कृति का विवेचन स्वतन्त्रा रूप से भाषिक दृष्टि से करने पर बल दिया। दूसरी तरफ वे कृतिकार एवं समीक्षक दोनों को किनारे करते हुए कृति-केन्द्रित विवेचन के पक्षधर दिखते हैं। वे स्वीकार करते हैं कि यद्यपि भाषा का स्वरूप जटिल है तथापि कृति का विवेचन भाषा आधारित ही होना चाहिए। इस मान्यता को, कसौटी को संरचनावाद ने बड़ी शिद्दत से स्थापित किया। यह सिद्धान्त शैली विज्ञान की आधुनिक भाषिक तकनीक है। भारतीय काव्यशास्त्र में काव्यात्मा विमर्श के क्रम में अलंकारादि विविध सम्प्रदायों के विवेचन की प्रक्रिया का समर्थन करती दिखती है यह भाषिक तकनीक।

उक्त संरचनावाद को लघुकथा की कसौटी बनाया जा सकता है क्या? इस प्रश्न के उत्तर जब तलाशे जाते हैं तो इस वाद से सम्बन्धित तीन अवधारणाएँ महत्त्वपूर्ण दिखती हैंµ

1. अखण्डता, 2. प्रयोजन, 3. स्वायत्तता।

अखण्डता’ के अन्तर्गत कृति के संघटक तत्त्वों में एक विशिष्ट एवं परस्पर सम्ब(ता होती है जिसके परिवर्तन से अर्थ-परिवर्तन होता है। दूसरी तरपफ ‘प्रयोजन’ के अन्तर्गत शब्दों एवं भाषा का प्रयोग विशिष्ट प्रयोजनयुक्त होता है। एक ही शब्द प्रयोजन-भिन्नता से भिन्न-भिन्न अर्थ निष्पादित करता है। वहीं ‘स्वायत्तता’ अर्थात् स्वतन्त्रा, आत्मनिर्भर। संरचनावादी रचना की स्वायत्तता को सर्वप्रमुख मानते हैं। कृति अपनी अर्थवत्ता के लिए बाह्य तत्त्वों पर नहीं वरन् स्वयं में निहित आन्तरिक अवयवों से सन्दर्भित अन्विति में से ही अर्थ प्रसारित कर लेती है।

निष्कर्षतः संरचनावाद में भाषा के अतिरिक्त कुछ भी स्वीकार्य नहीं। कृति के भीतर ही उसके अवयव निहित हैं। ये अपने आनुषंगिक अवयवों से, पुनः, ये आनुषंगिक अवयव अपने उप-अवयवों से आधार ग्रहण करते हैं अर्थात् प्राथमिक, द्वितीयक, तृतीयक सोपानों पर निहित अवयव-अवयवी की ही कृति की अर्थोपत्ति में भूमिका होती है। तात्पर्यतः इनकी दृष्टि में रचना स्वयं में पूर्ण होती है। समीक्षा के दौरान उसकी पूर्णता का अन्वेषण ही मुख्य उद्देश्य होना चाहिए। रूपवाद के हावी हो जाने से यह संरचनावाद एकांगीपन का शिकार हो गया। आलोचनाओं, प्रत्यालोचनाओं के दौर से गुजरकर उत्तर-संरचनावाद ने कई वादों को जन्म दिया। इसमें जॉक दरीदाँ का विखण्डनवाद महत्त्वपूर्ण है। यह भी पाठ-केन्द्रित समीक्षा का ही पक्षधर है। पाठ में मूर्त के माध्यम से अमूर्त की तलाश समीक्षक को करनी होती है जो विखण्डन द्वारा ही संभव है। उसके अनुसार भी समीक्षा की कसौटियाँ कृतियों में ही विद्यमान रहती हैं तथा समीक्षा और कृति दोनों ही पाठ-केन्द्रित रचनाएँ हैं। अनुभवों एवं विचार-दृष्टि में मित्रता के कारण एक ही रचना की कई-कई व्याख्याएँ भी हो सकती हैं। अर्थ की शक्ति का अनुभव यहीं होता है तथा शब्द के दुधारेपन का बोध भी यहीं होता है। पाठ में एक ऐसे ‘अज्ञात बिन्दु’ की तलाश अनवरत जारी रहती है जो पाठकों एवं समीक्षकों के लिए सर्वाधिक महत्त्व का होता है। उत्तर-संरचनावादी उस अमूर्त्त या अप्रत्यक्ष की तलाश करते हैं जो कृति के पुनर्पुनर्पाठ से प्राप्त होता है। पफलतः, उनके अनुसार एक ही पाठ का जब भी पुनर्पाठ होगा वह नवीन हो जाएगा तथा उसके अर्थ भी नवीन ही होंगे। इस दृष्टि से किसी भी पाठ के बारे में अन्तिम निर्णय या अन्तिम पठन की बात हो ही नहीं सकती। लघुकथा के सन्दर्भ में भी यह बात कुछ सीमा तक मानी जा सकती है कि पाठ, पुनर्पाठ एवं पुनर्पुनर्पाठ निश्चित ही लघुकथा के दोहरे-तिहरे अर्थ अथवा विश्लेषण के द्वार खोलते हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो किसी रचना से सम्बन्धित निर्णय अन्तिम मान लिया जाता जो सामान्यतः होता नहीं। यही वह बिन्दु है जो शोध एवं खोज की प्रक्रिया का कारण बनता है। इस सन्दर्भ में जॉक दरीदाँ ने विखंडन के महत्त्वपूर्ण तीन सूत्र प्रदान किए हैं—Difference, Trace  और Arc Writing। यहाँ तृतीय बिन्दु ही वह 'Blind Spot' है या कहें अनकहा, अनचीन्हा, प्रच्छन्न, अप्रत्यक्ष तत्त्व है जिसकी तलाश पाठों में की जाती है।

                          शेष आगामी अंक में………

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