Friday, 18 September 2020

लघुकथा : समीक्षा के सन्दर्भ में…6 / डॉ॰ उमेश महादोषी

दिनांक 17-9-2020 से आगे

लघुकथा : समीक्षा के सन्दर्भ में आत्मिक और दैहिक अस्तित्व का तात्विक विवेचन

छठी कड़ी

ख. लघुकथा के दैहिक तत्वों की पड़ताल

      किसी भी विधा के आत्मिक अस्तित्व, जो उसे स्वनामधन्य बनाता है, को समझने के लिए उसके वैचारिक तत्वों को समझना जितना आवश्यक है, उतना ही आवश्यक है उसकी भौतिक पहचान को समझने के लिए उसके दैहिक तत्वों को समझना। दैहिक तत्व केवल उसकी भौतिक पहचान ही निर्धारित नहीं करते हैं, उसके प्रति आकर्षण में वृद्धि का कारण भी बनते हैं। उसके रचनात्मक सौंदर्य एवं आत्मिक अस्तित्व से जनित प्रभाव को बढ़ाने में सहायक होते हैं। निराकार को साकार बनाते हैं।

      कथा साहित्य की तीनों विधाओं- उपन्यास, कहानी और लघुकथा के दैहिक तत्व दृश्यतः लगभग एक जैसे होते हैं। अन्तर उनके चरित्र में होता है जिसका निर्धारण उनके विधागत स्वभाव से होता है। दैहिक तत्वों के लगभग एक जैसा दिखने के बावजूद उपन्यास का संक्षिप्तीकरण कहानी या लघुकथा में और कहानी का संक्षिप्तीकरण लघुकथा में स्वाभाविक नहीं हो सकता। इसी प्रकार लघुकथा का विस्तार कहानी या उपन्यास को तथा कहानी का विस्तार उपन्यास को स्वाभाविकता और पूर्णता नहीं दे सकता। यद्यपि कई लोग परोक्ष-अपरोक्ष कहते सुने-पढ़े जाते हैं कि अमुक लघुकथा को थोड़ा विस्तार देकर कहानी बनाया जा सकता है या अमुक कहानी को विस्तार देकर उपन्यास बनाया जा सकता है। मेरा प्रश्न है कि यदि ऐसा है तो मूल विधागत तत्वों और विधागत स्वभाव का क्या होगा? और यदि आप ऐसी चीजों को मान्यता नहीं देते हैं तो विधाओं की अलग चर्चा और पहचान क्यों? तीनों विधाओं के मध्य जिन चीजों में आन्तरिक और बाह्य अन्तर दिखाई देते हैं, उनकी चर्चा के स्थान पर उपेक्षा क्यों नहीं की जाती? अस्वाभाविक कुछ भी हो सकता हैे, लेकिन जो स्वाभाविक है, उसे तो पहचानना ही होगा। यदि कोई रचना तात्विक दृष्टि से लघुकथा है तो लघुकथा ही रहेगी, उसे जबरन कहानी नहीं बनाया जा सकता। यदि किसी लघुकथा को कहानी बनाया जा सकता है तो वह या तो लघुकथा नहीं हो सकती या फिर उसको लघुकथा के मूल तत्वों से मुक्त करना होगा। किसी भी रचना में तत्वों की प्रभावी सक्रियता/उपस्थिति यह सुनिश्चित करने में सक्षम होती है कि वह रचना लघुकथा है या नहीं।

      लघुकथा के प्रमुख दैहिक तत्वों में अन्य कथा विधाओं के सापेक्ष कुछ चारित्रिक भिन्नताएँ होती हैं, जो उसके प्रभाव और सौंदर्य में वृद्धि का कारण बनती हैं। समीक्षा की दृष्टि से इन भिन्नताओं के सन्दर्भ में लघुकथा के दैहिक तत्वों को समझना आवश्यक है। 

01. कथानक: आकार और प्रकृति

     चूँकि कथानक कथा में शामिल घटनाओं के अनुक्रम और उन्हें जोड़ने वाले सूत्र की तरह होता है, इसलिए पूरी कथा की प्रकृति और उसके प्रभाव को निर्धारित करने में उसकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। लघुकथा में घटनाओं की संख्या सीमित होती है, कभी-कभी तो घटनाएँ भाव-विचार के अन्दर समाहित होकर अदृश्य हो जाती हैं। ऐसी स्थिति में भी कथानक भावों-विचारों को सूत्रबद्ध करता है। किसी विचार या भावपूर्ण लघुकथा को खारिज करने से पूर्व इस बात पर विचार किया जाना चाहिए। दूसरी बात, अपनी विशिष्ट प्रकृति और रचना-प्रक्रिया के कारण लघुकथा कथ्य प्रधान रचना होती है और कथानक कथ्य का वाहक होता है। यह चीज लघुकथा के कथानक में आकार और प्रकृति के सन्दर्भ में विशिष्टीकरण की ओर संकेत करती है। स्वभाविक रूप से लघुकथा के कथानक छोटे और विशिष्ट होते हैं। बहुत लम्बे और शिथिल कथानक ऊर्जावान/प्रभावशाली कथ्य के वाहक नहीं हो सकते। कथानक को यदि अनावश्यक विस्तार दिया जायेगा तो उसमें समय और कथावस्तु से संबन्धित तत्वों का उतना ही अधिक प्रवेश होगा, जिससे कथ्य की ऊर्जा का क्षरण होगा। इसका सीधा आशय यह है कि कथ्य को रूपाकार लेने एवं प्रकटीकरण में समय और कथावस्तु से संबन्धित तत्वों को अवसर अनावश्यक और अनपेक्षित मात्रा/रूप में नहीं दिया जाना चाहिए। कथानक को आकार और प्रभाव की दृष्टि से यथावश्यक विशिष्टता के साथ समापन की ओर जाने देना चाहिए। अनावश्यक चीजों को ठूँसने का अवसर तलाशने से लेखक को बचना चाहिए। बिम्ब, नेपथ्य आदि जैसे तत्व कथावस्तु के विभिन्न अवयवों का भार सीमित करके कथानक को प्रभावशाली बनाने में सहायक होते हैं।

02. कथावस्तु (विषय, घटना, दृश्य, वातावरण, पात्र, चरित्र एवं संवाद): सामयिकता और संगतता 

      लघुकथा में दैहिक रूप से समस्यात्मक स्थिति यानी विषय (लेखन के प्रेरणा बिन्दु के रूप में) और उद्देश्य (लेखन/चिंतन के परिणामी बिन्दु के रूप में, जोकि अन्ततः कथ्य के रूप में अभिव्यक्त होता है) अपेक्षाकृत अधिक महत्वपूर्ण होते हैं। विषय से इतर कथावस्तु के दूसरे अवयव या तो विषय को स्पष्ट करने और आगे बढ़ाने में सहायक होते हैं या फिर कथ्य के रूपाकार लेने और प्रकट होने में। इसलिए रचनात्मक आवश्यकताओं के सन्दर्भ में इन अवयवों में विषय और कथ्य की सानुरूपता (सामयिकता और संगतता) आवश्यक है। 

 विषय

      जीवन से जुड़ी रचना होने के कारण लघुकथा में मानवीय जीवन से जुड़ी सामयिक समस्याओं और परिवर्तनों तथा संवेदनात्मक अनुभूतियों को प्रतिबिम्बित करने वाला कोई भी विषय सृजन का बिन्दु बन सकता है। लघुकथा के विषय का जीवन के सन्दर्भ में व्यावहारिक और मानवीय महत्व होना चाहिए। उसे जीवन से जुड़े किसी सन्दर्भ विशेष पर व्यापक चिंतन एवं विमर्श को आकर्षित करने में सक्षम होना चाहिए। ऐसे विषयों, जिन पर सार्वजनिक धारणाएँ स्थिर हो चुकी हैं, पर लिखी कोई रचना तब तक सार्थक और प्रभावशाली नहीं हो सकती, जब तक किसी नए कोंण से उस पर चिंतन नहीं किया गया हो। जब यह कहा जाता है कि घिसे-पिटे विषयों पर लेखन अधिक हो रहा है तो उसका यही अर्थ होता है कि चिंतन के लिए उन विषयों पर नए कोंणों की खोज संभव नहीं हो पा रही है।

घटना

      लघुकथा में घटनाओं की संख्या नहीं, कथ्य और उसे स्पष्ट करने और उसका प्रभाव बढ़ाने वाले तत्वों/कारकों की रचनागत उद्देश्य के साथ एकरूपता और अन्तरंगता में, उनकी भूमिका आवश्यक है। कई घटनाओं वाली लघुकथाओं में भी इसका निर्वाह करते हुए कथ्य के प्रभाव और सघनता को बढ़ाया जा सकता है। घटनाएँ विषय और कथानक के संगत होनी चाहिए। सामान्यतः लघुकथा में सरल-सहज घटनाओं  की अपेक्षा की जाती है। घटनाओं की जटिलता को लघुकथा की सीमा मान लिया जाता है। लेकिन मुझे लगता है जटिल घटनाओं को लेकर लघुकथा-लेखन हो सकता है और होना चाहिए। इससे लघुकथा के फलक को विस्तार मिलेगा। डॉ. बलराम अग्रवाल की लघुकथा ‘कन्धे पर बैताल’ को इस सन्दर्भ में देखा जा सकता है। घटना की सपाट प्रस्तुति के सापेक्ष उसका दृश्यांकन अधिक प्रभावकारी होता है।

       समीक्षा की दृष्टि से घटना की आन्तरिक सक्रियता की मात्रा और प्रकृति को आवश्यकता और तार्किकता के आधार पर परखा जाना चाहिए। घटना में सक्रियता का रिद्म टूटना लघुकथा को कमजोर बनायेगा।

दृश्य 

      वातावरण सम्बन्धी चीजों के उद्देश्यपूर्ण संयोग के साथ घटना को प्रस्तुत करना लघुकथा में उसका दृश्य रूप होता है। लघुकथा में घटनाओं को जब दृश्य के रूप में प्रस्तुत किया जाता है तो उसका प्रभाव कहीं अधिक, स्पष्ट और अनुभूतिपरक होता है। इसलिए कुछ अतिरिक्त शब्दों के व्यय के बावजूद रचना का प्रभाव गुणित होता है। लघुकथा के स्वभाव के दृष्टिगत दृश्यों को विषयानुरूप एवं कथ्य के प्रभाव व सम्प्रेषण की तीव्रता में सहायक होना चाहिए। ऐसा तभी हो सकेगा, जब दृश्य का रचाव तार्किक और सौंन्दर्यबोधक दृष्टियों के (उद्देश्यपूर्ण) समन्वय से किया जाये। ऐसे दृश्य अनावश्यक चीजों से बचने के साथ पाठकों को अपनी ओर आकर्षित करने और उनके अन्तर्मन में अपने प्रति रुचि जगाने में समर्थ होते हैं। दृश्य में अनावश्यक चीजें रचना की तार्किकता का क्षरण तो करती ही हैं, उसके गठन को शिथिल भी बनाती हैं। इसके साथ हमें यह भी समझना आवश्यक है कि प्रत्येक घटना का दृश्य रूप में प्रस्तुत करना सदैव आवश्यक नहीं होता। यदि कोई घटना सांयोगिक किन्तु किसी कारण से आवश्यक रूप में आ रही है, तो सपाट रूप में उसकी यथावश्यक चर्चा पर्याप्त हो सकती है। 

वातावरण

      वातावरण में स्थान, समय, सजीव-निर्जीव वस्तुओं/पिण्डों की उपस्थिति व क्रियाशीलता, भौगोलिक, राष्ट्रीय व सामाजिक परिस्थितियाँ, रिश्तों और उनके प्रभाव से जनित स्थितियाँ आदि जैसे तत्व शामिल होते हैं। ये तत्व कथा की आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ उसकी स्वाभाविकता, प्रामाणिकता एवं जीवंतता को सुनिश्चित करने में सहायक होते हैं। स्वाभाविक है इनकी उपस्थिति, प्रकृति और रूपाकार लघुकथा के दूसरे वैचारिक और दैहिक तत्वों के सानुरूप एवं संगत हों। वातावरण की निर्मिति अत्यंत सजगता और सावधानी के साथ प्रामाणिकता और चिंतन-मनन के उपयोग की अपेक्षा करती है। इसमें होने वाली असावधानी या चूक लघुकथा रचना को हास्यास्पद एवं अविश्वसनीय भी बना सकती है। स्थानीय संस्कृति का प्रभाव वातावरण में परिलक्षित होने से रचना में स्वाभाविकता बढ़ती है और रचनाकार की सामर्थ्य प्रतिबिम्बित होती है। वातावरण की प्रामाणिकता रचना की प्रामाणिकता भी सुनिश्चित करती है। 

      इस सन्दर्भ में मैं अपनी एक रचना से जुड़ा प्रसंग सामने रखना चाहूँगा। मेरी रचना ‘उस खतरनाक मोड़ पर’ में प्रधानमंत्री को पात्र बनाया गया है। एक दिन सुबह उठते ही किसी मंदिर में हो रहे पाठ से दुर्गा चालीसा की पंक्तियों का स्वर उनके कानों में पड़ता है। यह रचना अग्रज डॉ. बलराम बग्रवाल जी को दिखाई तो उन्होंने इस दृश्य से असहमति जताई। चूँकि प्रधानमंत्री जैसे बड़े पदाधिकारियों के आवास भारी सुरक्षा-व्यवस्था और ध्वनि-प्रदूषण आदि जैसी चीजों से मुक्त क्षेत्र में होते हैं, इसलिएं यह दृश्य अविश्वसनीय-सा था। यद्यपि लघुकथा में न तो यह दर्शाया गया था कि प्रधानमंत्री उस दिन कहाँ ठहरे हैं, न ही किसी अन्य कारण से (उस स्थिति तक) लघुकथा की ऐसी कोई माँग थी, तदापि दुर्गा चालीसा की पंक्तियों का स्वर प्रधानमंत्री के कानों तक पहुँचना रचना की माँग अवश्य थी। इसलिए अविश्सनीयता एवं अप्रामाणिकता की गुंजाइश समाप्त करने के लिए मैंने लघुकथा को संशोधित करते हुए उस दिन प्रधानमंत्री का प्रवास एक कस्बे में दर्शा दिया। चूँकि विशेष परिस्थितियों में ऐसा होना संभव है, इसलिए आपत्ति का यथोचित निस्तारण हो गया।

                                                     शेष आगामी अंक में जारी…

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