Wednesday, 7 October 2020

समीक्षा की सान पर लघुकथा-4 / डॉ॰ शील कौशिक

 दिनांक 06-10-2020 से आगे

 

समीक्षा की सान पर लघुकथा-4

 

चौथी कड़ी

 

(घ)    देश-काल या वातावरण

     कथ्य को सही ढंग से संप्रेषित करने के लिए अनुकूल पृष्ठभूमि जरूरी है। 
यदि देशकाल विस्तार रूप में न होकर मात्र दृश्यात्मक रूप में लघुकथा के प्रभामंडल को
  द्विगुणित कर दे तो यह सोने पर सुहागा जैसी बात है। लघुकथाकार के अभिव्यंजना कौशल अभिव्यक्ति के कारण पाठक मन-प्राण से रचना से जुड़ जाता है। भगीरथ जी की लघुकथा 'पेट सबके हैं' की इन पंक्तियों को देखें"वर्षों से सूखी जमीन  चटखती जा रही थी, दरारें धीरे-धीरे चौड़ती गईं और इंसान उनमें समाने लगे। भयंकर हाहाकार चारों तरफ लपटें मार रहा था। उसने सोचा - 'सस्ती का जमाना है, मकान बनवा लेना चाहिए, फिर ऐसा सुनहरा मौका नहीं मिलने का”ने मजदूरों के शोषण के लिए वातावरण निर्मित किया है।

 

(ड़)    घटनाकाल

     लघुकथा में आमतौर पर कथानक के दृष्टिकोण से एक घटना, एक स्थिति या एक बिम्ब को उस समय उभारने की अवधारणा है। घटना काल को लेकर अनेक धारणाएं अलग-अलग स्थानों पर देखने को मिलती हैं। आमतौर पर यदि एक समय की घटना न होकर यदि काल के अंतराल में घटित कई स्थितियां कथा में आती हैं तो इसे ‘काल दोष’ माना गया है। यह लघुकथाकार का रचनात्मक कौशल है कि वह कई कालखंड को समेटकर भी रचना को काल-दोष से मुक्त कर देता है। वह काल के अंतराल को विगत की स्मृति में ले जाता है और लघुकथा को वर्तमान में घटित उसी घटना से शुरू करता है।

       'काल-दोष' को न मानने वाले लेखकों विशेष रूप से डॉ. अशोक भाटिया का कहना है, “काल एक निरंतर गतिशील प्रवाह है, जिसका वर्तमान अतीत से जुड़ता है और भविष्य में घटता रहता है।“

फिर भी विस्तृत फलक और अनेक कालखंड को संजोने के लिए कहानी या उपन्यास विधाएं हैं।

           समग्रत: कथानक मौलिक, स्वाभाविक, सुरुचिपूर्ण, गंभीर पैनापन लिए, यथार्थपरक, जिज्ञासा का मंत्र फूंकने वाला, प्रखर, विश्वसनीय व उद्देश्य पूर्ण होना चाहिए।

3. भाषा

          लघुकथाकार की भाषा समृद्ध व उर्वरक होनी चाहिए, फिर कथानक के रूप में चाहे कोई भी बीज हो वह भली-भांति पुष्पित व पल्लवित होगा ही। अनुभूतियों और विचारों को कथानक में बदलने के लिए भाषा का सहारा लिया जाता है। भाषा एक तरह से अनुभूतियों की पोशाक है और पेशकश भी। लघुकथा की पेशकश आकर्षक व प्रभावशाली होनी चाहिए। लघुकथा के गठन के लिए एक-एक शब्द का महत्व है, यहां तक कि एक शब्द भी अपनी जगह से हिला तो सारी कलात्मकता, अर्थवत्ता एवं संप्रेषणीयता पर प्रभाव पड़ेगा। इसके विपरीत एक भी शब्द फालतू हुआ तो वह लघुकथा को शिथिल यह अनुपयोगी बना देगा। इसीलिए लघुकथा की भाषा गढ़ी हुई, मापी-तुली हुई, सजीव व प्रभावोत्पादक होनी चाहिए। इस संबंध में विष्णु प्रभाकर का मत यहां उद्धृत है"लघुकथाकार की अपनी भाषा होती है। न भावुकता, न ऊहापोह,  न आसक्ति, पर अर्थवहन की क्षमता में अपूर्व।"  भाषा के समुचित प्रयोग के कारण थोड़े में अधिक कहने की प्रवृत्ति को अलग-अलग तरह से कहा गया है, यथा-- 'गागर में सागर', 'नाविक के तीर',  ‘देखन में छोटे लगें, घाव करे गंभीर', 'गोली की तरह लक्ष्य भेदने वाली’ और मेरे अनुसार लघुकथा 'होम्योपैथी दवा की छोटी-सी बूंद', जिसका प्रभाव स्थायी और दूरगामी है।‘

   नागेन्द्र प्रसाद सिंह के शब्दों में“भाषा रचनाकार का व्यक्तित्व होती है, जो एक-दूसरे को अलग करती है। यदि कोई लघुकथाकार अपनी भाषा के कारण अपनी पहचान बना ले, तो निश्चित ही वह श्रेष्ठ लघुकथाकारो में गण्य हो सकता है।“ 

भाषा के संबंध में निम्नलिखित विशेषताएं निर्दिष्ट की जा सकती हैं

1.लघुकथा की भाषा सरल, सहज और कथ्य के अनुरूप स्वाभाविक होनी चाहिए। उसे संस्कृतनिष्ठ, क्लिष्ट, अत्यधिक बौद्धिक अथवा शास्त्रीय बनाने की आवश्यकता नहीं। लघुकथा जनसाधारण की बात करती है इसलिए भाषा भी जनसामान्य की होनी चाहिए ताकि प्रत्येक वर्ग उसे सरलता से ग्रहण कर लें। बेमतलब आडंबर, कृत्रिमता, अस्पष्टता, दूरूहता से हर हाल में बचना चाहिए।

2. लघुकथा के निरूपण में छोटे-छोटे चुस्त वाक्य पर चुभते हुए, गहरी भाव व्यंजना लिए होने चाहिए। उदाहरण के लिए हरिशंकर परसाईं की 'जाति' लघुकथा की अंतिम पंक्तियां विद्रूपता को दर्शाती हैंइस पर ठाकुर साहब और पंडित जी ने कहा, " होने दो! व्यभिचार से जाति नहीं जाती है ; शादी से जाती है।"

3.  लघुकथा की पात्रानुकूल भाषा लघुकथा की ग्रहणशीलता और विश्वसनीयता में चार चांद लगा देती है। उदाहरण के लिए भगीरथ की लघुकथा 'फूली' में राजस्थानी संवाद देखिए"सुबह पैली काम के टैम कोई भांडियों है। हे वीर जी! मैं थारा हाथ जोड़ूं, क्यों हमारे पीछे लागे हो।" डॉ.शील कौशिक की 'सभ्यता का नमूना' में बिहारी नौकर भोलू टीवी पर सदन की कार्रवाई देखते हुए चिल्ला उठा, "अरे ऊह देखो साब! अबहिं तो साले मुक्केबाजी करत रहिनबाहर आ के गले मिलत रहिन, जैसे कुछ भईले न रहे।"

4. मुहावरे और लोकोक्तियां में हिंदी विद्वानों का समस्त व्यावहारिक ज्ञान और बुद्धि-कौशल समाहित होता है। लघुकथा को इनका प्रयोग प्रिय है क्योंकि इनके माध्यम से बड़ी से बड़ी बात तीखे, चुभते स्वर में व बहुत कम शब्दों में कहीं जा सकती है। लघुकथा क्योंकि सीमित शब्दों की रचना है इसीलिए मुहावरे और लोकोक्तियां से कथानक सहज, आकर्षक व रोचक बन जाता है। सूक्तियों के प्रयोग का यह उदाहरण देखिए"उम्र लेखक से वैसे ही डरती है, जैसे रैबीज का मरीज पानी से डरता है।"

5. हिंदी लघुकथा में यदि एकाध बहुदा प्रचलित शब्द (अन्यभाषिक) आ भी जाता है तो वह लघुकथा की स्वाभाविकता व ग्रहणशीलता के लिए आवश्यक भी है।  परंतु नई पीढ़ी हिंदी लघुकथा में अधिकाधिक अंग्रेजी शब्दों का बिंदास प्रयोग कर रही है। यह लघुकथा के संप्रेषण में बाधक होने के साथ-साथ अपनी मातृभाषा हिंदी के प्रति अन्याय भी है।

6.  लघुकथा की भाषा में सांकेतिक रूप से बात कहने और बहुत कुछ अनकहा छोड़ने की एक जबरदस्त विशेषता है। इससे पाठक चौकन्ना हो जाता है, उसके मन में अंतर्द्वंद पैदा हो जाता है। वह अपने दिमाग के घोड़े दौड़ाने लगता है। मधुदीप की 'साठ या सत्तर से नहीं’ की पंक्तियां यहां द्रष्टव्य हैं, जिसमें पीड़ा को स्वर  देते हुए यथेष्ट संकेत हैं

"आने के बारे में कुछ कह रहा था?"

" वह शायद ही लौटेगा...उसने लंदन में ही शादी कर ली है।"

"ओह!  हमसे पूछा तक नहीं।"

" मैंने कहा था  लीलावती, आदमी साठ या  सत्तर से बूढ़ा नहीं होता।"

7.  लघुकथा में छोटे-छोटे चुस्त संवादों का प्रयोग भाषा को ऐसी सजीव और प्रवाहपूर्ण बना देता है कि पाठक भौचक्का रह जाता है। एक मिनट में पढ़ी गई लघुकथा पाठक की मन-बुद्धि में चक्कर काटकर उसे उद्वेलित कर देती है। पढ़ते-पढ़ते ठां से खत्म हो जाती है और पाठक विचारणीय स्थिति में और स्तब्ध रह जाता है। कपिल शास्त्री की लघुकथा 'क्या मांगू' में देखिए"हेल्लो, हां क्या हाल है?"

" हां बढ़िया!"

" और क्या कर रही है?"

 "मंदिर गई थीक्या मांगा भगवान से?"

" कुछ नहीं।"

" क्यों?"

 "जब अठारह साल की थी, तब मांगा था, नहीं मिला, जब पैंतीस साल की थी, तब मांगा था, नहीं मिला। अब साठ साल की हो गई हूं, अब पन्द्रह-बीस साल के लिए क्या मांगूं।"

8.  समास शैली लघुकथा को प्रिय है। प्रतीक, उपमा- अलंकार के प्रयोग से रची गई लघुकथाएं पाठक को आकर्षित व चकित करती हैं। भाषा के कलात्मक प्रयोग से तराशी गई लघुकथा रूपवती और गुणवती बनकर पाठक पर चमत्कारिक प्रभाव छोड़ती है परंतु प्रतीकों का प्रयोग केवल चमत्कृति के लिए न हो अन्यथा रचना की सामाजिक उपयोगिता को आघात लगेगा। उदाहरण स्वरूप प्रतीकों का सार्थक प्रयोग देखिए--सुकेश साहनी की 'ठंडी रजाई' मानवीय संबंधों की उपेक्षा का प्रतीक है। सतीशराज पुष्करणा की 'मन के सांप व्यक्ति की दमित इच्छाओं का प्रतीक है। रामकुमार आत्रेय की 'बिना शीशोंवाला चश्मा' में शीशे और चश्मा प्रतीक के रूप में प्रयुक्त हुए हैं। विक्रम सोनी की 'बनैले सूअर' लघुकथा में सूअर स्वर्णो की विकृति, संकीर्ण मानसिकता का प्रतीक है।

4. शीर्षक

कहानी, उपन्यास की अपेक्षा लघुकथा में शीर्षक का अत्यधिक महत्व है। शीर्षक एक तरह से किसी भी रचना का प्रवेश द्वार होता है और यह हर हाल में आकर्षक व जिज्ञासा का भाव लिए होना चाहिए। लघुकथा की असली शक्ति कई बार शीर्षक में निहित होती है, यहां तक कि कई बार  शीर्षक अर्थ को विस्तार देकर लघुकथा का ही हिस्सा बन जाता है। और कई बार लघुकथा की मूल संवेदना को द्विगुणित कर अतिरिक्त आयाम दे देता है। आज के बदलते परिवेश को भी शीर्षक अनेक कोणों पर व्याख्यायित  करता है। अतः शीर्षक में अर्थवत्ता, नवीनता, सरलता, संकेत, प्रतीक और संवेदनात्मक दृष्टि होनी चाहिए। 

                    शेष आगामी अंक में………………

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