दिनांक 12-10-2020 से आगे
लघुकथा की संरचना एवं समीक्षा-बिन्दु-4
चौथी कड़ी
शिल्प के छह उपतत्त्वों की चर्चा उफपर की गई है किन्तु इसके अतिरिक्त कुछ अन्य कारक एवं विशेषताएँ भी हैं जो लघुकथा के शिल्प में अपेक्षाकृत अधिक चमक लाने में सहयोग देते हैं। वे क्रमशः इस प्रकार हैं—1. संवेदनशीलता, 2. संघर्ष, अर्न्द्वन्द्व, 3. अनकहे का कहना, 4. विराम-चिह्न, 5. कालत्व दोष और 6. काल-दोष।
1. संवेदनशीलता—साहित्य-जगत में संवेदना का अर्थ ज्ञान या ज्ञानेन्द्रियों का अनुभव है। जब हम कोई लघुकथा पढ़ते हैं तो कुछ लघुकथाएँ ऐसी होती हैं जिन्हें पढ़कर मन भावुकता के शिखर का स्पर्श करने लगता है, तो ऐसी स्थिति को संवेदना और ऐसी रचना को संवेदनशील रचना कहते हैं। प्रायः लघुकथाकारों द्वारा ऐसी लघुकथाओं की रचना सम्भव हुई है, वस्तुतः जो लघुकथा हृदय का स्पर्श पूरी गहराई तक जाकर कर लेती है, वह लघुकथा संवेदनशील मानी जाती है। उदाहरणस्वरूप चित्रा मुद्गल की लघुकथा ‘दूध’ देखी जा सकती है। (पड़ाव और पड़ताल, खण्ड-2)
एक ऐसी बेटी का दर्द जिसे सयाने होने पर दूध नहीं दिया जाता और इच्छा होने पर उसे चुराकर पीना पड़ता है। ऐसी स्थिति में उसे अपनी माँ से डाँट खानी पड़ती है।
तात्पर्य यह है कि लघुकथाकार को प्रयास करना चाहिए, जब जहाँ भावुकता उत्पन्न करने का अवसर आए, उसका पूरा-पूरा लाभ उठाना चाहिए, प्रत्येक लघुकथा में तो ऐसा सम्भव नहीं है, यह सही है।
2. संघर्ष—कथावस्तु को जो निर्णयात्मक क्षण प्रदान करती है वो स्थिति संघर्ष कहलाती है। व्यक्ति के मन में होनेवाले अन्तर्द्वन्द्व को भी संघर्ष कहते हैं। लघुकथा में संघर्ष की उपस्थिति रचना को श्रेष्ठ बनाने में भरपूर सहयोग प्रदान करती है। जाने-अनजाने प्रायः यानी अधिकांश लघुकथाओं में स्वाभाविक रूप से संघर्ष की उपस्थिति हो ही जाती है। लघुकथा में संघर्ष प्रायः नायक/नायिका अथवा दोनों का प्रत्यक्ष होता है
, संघर्ष का सटीक चित्राण लघुकथा को श्रेष्ठ बनाने में उल्लेखनीय योगदान प्रदान करता है। उदाहरणस्वरूप रूप देवगुण की ‘जगमगाहट’ लघुकथा का अध्ययन किया जा सकता है। (पड़ाव और पड़ताल, खण्ड-3)इस लघुकथा में इन पंक्तियों में ‘संघर्ष’ को देखें—
‘‘अबकी बार उसने सोच लिया था, वह नौकरी नहीं छोड़ेगी, वह मुकाबला करेगी। उसी दिन दोपहर बाद बॉस ने उसे अपने साथ अकेले में उस कमरे में जाने के लिए कहा, जहाँ पुरानी पफाइलें पड़ी थीं। उन्हें उन पफाइलों की चेकिंग करनी थी। उसे सापफ लग रहा था कि आज उसके साथ गड़बड़ी होगी।
एक बार तो उसके मन में आया कि कह दे कि मैं नहीं जा सकती। किन्तु नौकरी का खयाल करते हुए वह इन्कार न कर सकी। कुछ देर में ही वह तीन कमरे पार कर चौथे कमरे में थी। वह और बॉस पफाइलों की चेकिंग करने लगे। उसे लगा, जैसे उसका बॉस पफाइलों की आड़ में केवल उसे घूरे जा रहा है। उसने सोच लिया था कि ज्योंही वह छुएगा वह शोर मचा देगी। दस मिनट हो गए, लेकिन बॉस की ओर से कोई हरकत न हुई।
अचानक बिजली गुल हो गई। यह बॉस की साजिश हो सकती है—यह सोचते ही वह काँपने लगी।’’
यह नायिका का अन्तर्द्वन्द्व/संघर्ष है जो इस लघुकथा की पृष्ठभूमि को शक्ति प्रदान करते हुए मन्तव्य की ओर त्वरा से आगे बढ़ाता है।
3. अनकहे की मुखरता—श्रेष्ठ लघुकथाओं के अनेक गुणों में से एक यह गुण भी बहुत महत्त्वपूर्ण है कि जो बात लघुकथा में शब्दों में न लिखी हो, वह बात भी स्वयं को प्रत्यक्ष करे। वस्तुतः यही वह कला है जिससे लघुकथा अपनी पूर्णता बरकरार रखते हुए शब्दों की मितव्ययिता बहुत ही सुन्दर ढंग से प्रस्तुत कर देती है। लघुकथा को लघु आकार देने में इस गुण का बड़ा महत्त्व हो जाता है। उदाहरणस्वरूप सुभाष नीरव की ‘दर्द’ लघुकथा देखें। (पड़ाव और पड़ताल, खण्ड-30
इस लघुकथा में ‘आईना’ या ‘दर्पण’ शब्द का कहीं लिखित उपयोग नहीं हुआ, और वह पूरी लघुकथा में एक मुख्य सह-पात्रा के रूप में अपनी धमाकेदार उपस्थिति प्रत्यक्ष करता रहा। यह अनकहे शब्दों का कहना या मुखर होना है, जो कलात्मक दृष्टि से लघुकथा को श्रेष्ठ बनाने में बहुत ही महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करता है। ये पंक्तियाँ देखें, जहाँ अनकहा मुखर होता है—‘‘वह किरच-किरच हो गया। अब वहाँ एक नहीं, अनेक चेहरे मेरा मुँह चिढ़ा रहे थे। कमाल यह था कि वह क्षत-विक्षत होकर भी बेहया-सा मुस्करा रहा था।’’ इस प्रकार की लघुकथाएँ प्रबुद्धों द्वारा विशेष रूप से सराही जाती हैं।
4. विराम-चिह्न—विराम-चिह्न मुख्यतः छह होते हैं जो वाक्य संरचना को शुद्ध ढंग से पाठकों तक हू-ब-हू भाव में सम्प्रेषित करते हैं। इनमें पूर्ण विराम-चिह्न (।) उपयोग में आता है, उसके बाद ‘अर्द्धविराम’ (;), ‘अल्प विराम’ (,), ‘उपविराम’ (:), ‘प्रश्नवाचक चिह्न’ (?) और विस्मयसूचक-चिह्न (!) — इन विराम-चिह्नों के अतिरिक्त लघुकथा में जिन चिह्नों का पर्याप्त मात्रा में उपयोग होता है, वे हैं डॉट-डॉट-डॉट (...), हाईफन (-), डैश (—), इनवर्टेड कोमा (‘’) आदि।
इन विराम-चिह्नों को निम्न उदाहरणों से भली-भाँति समझा जा सकता है। जहाँ वाक्य पूर्ण हो जाता है, वहाँ पूर्ण विराम (।) का चिह्न लगाया जाता है। जैसे—मैं पटना से मधुबनी जा रहा था। मैंने उसे बहुत समझाने का प्रयत्न किया किन्तु वह नहीं माना आदि।
अ(र्विराम चिह्न (;)—पूर्ण विराम से कम समय के ठहराव में अर्द्धविराम चिह्न का प्रयोग किया जाता है। यथा—परिश्रम आवश्यक है; इसी से सफलता मिलती है। आदि।
विरोधपूर्ण कथनों को पृथक् करने हेतु भी अर्द्धविराम चिह्न का प्रयोग किया जाता है। यथा—मनुष्य सोचता है कु्छ; और हो जाता है कुछ। आदि।
विभिन्न उपवाक्यों पर जोर देने हेतु भी अर्द्धविराम का चिह्न अनिवार्य है। यथा—
खूब मेहनत करो; परीक्षा निकट है।
आगे बढ़ते रहो; सपफलता इसी में है। आदि।
एक ही विषय से सम्बन्धित दो या अधिक उपवाक्यों को जोड़ने हेतु भी अर्द्धविराम का उपयोग अनिवार्य है। यथा—सूर्यास्त हुआ; शाम हुईऋ तारे उगे और चाँद हँस पड़ा।
जहाँ मुख्य वाक्य तथा उपमुख्य वाक्य का आपस में अधिक सम्बन्ध न हो; वहाँ अर्द्धविराम का उपयोग होता है। यथा—सुबह उठते ही टहलना है; स्नान करना है; भोजन बनाना है; बीस मिनट में ये सब नहीं हो सकता। आदि।
यदि दो से अधिक उपवाक्यों में एक ही कर्त्ता का प्रयोग हो तो अन्तिम वाक्य छोड़कर, प्रत्येक में अर्द्धविराम चिह्न का प्रयोग होता है। यथा—कभी वह हँसती है; कभी वह नाचती है; कभी वह रोती है; कभी वह मौन हो जाती है; कभी पत्थर पफेंकने लगती है। आदि।
अल्प विराम—अर्थ में सुबोधता तथा स्पष्टता लाने हेतु अल्प विराम का प्रयोग आवश्यक है। यथा—
मारो, मत जाने दो।
मारो मत, जाने दो। आदि।
यहाँ अल्प विराम से इतना बड़ा अर्थान्तर हुआ है।
दो से अधिक, समान महत्त्व वाले शब्द या वाक्यऋ जो और/तथा/एवं से जुड़ा हो, तो अन्तिम दो शब्दों या वाक्यों को छोड़कर अन्य सभी के पहले अल्प विराम-चिह्न का प्रयोग होता है। यथा—
शब्द-विलगाव में—
छात्रा को परिश्रमी, कर्मठ, सुशील तथा ईमानदार होना चाहिए। दुकान में लाल, पीले, हरे, नीले और नारंगी कपड़े हैं। आदि।
वाक्य-विलगाव में—
तुलसीदास ने स्वान्तः सुखमय लिखा, केशव ने विद्वानों के लिए लिखा, रत्नाकर ने काव्यशास्त्रियों के लिए लिखा तथा कबीर ने मूलतः जनता के लिए लिखा। आदि।
संयुक्त तथा मिश्रित वाक्यों के उपवाक्यों को अलग करते हेतु अल्प विराम का प्रयोग होता है। यथा—
जब तक बिजली रही, मैं पढ़ता रहा।
राम अवश्य आता, पर उसके पास साधन नहीं थे। आदि।
आवृत्ति या शब्दों पर बल देने हेतु अल्प विराम-चिह्न का प्रयोग होता है। यथा—हाँ, हाँ, वह अवश्य जाएगा। आदि।
पर, परन्तु, अतः, किन्तु, इसलिए, नहीं तो, और जिससे कि से प्रारम्भ होनेवाले उपवाक्यों से पहले अल्प विराम का प्रयोग होता है। यथा—
वह आता, पर वह बीमार हो गया।
वह आया, परन्तु खाली हाथ।
आज हड़ताल है, अतः दुकानें बन्द हैं।
वह घबराया, किन्तु बात समझ में आ गई।
वह लंगड़ा था, इसलिए समय पर नहीं पहुँच सका।
उसके हाथ बँधे थे, नहीं तो वह अवश्य लड़ता। आदि।
अव्ययों से प्रारम्भ होनेवाले वाक्यों में—
हाँ, वह कर्मठ था।
नहीं, मैं नहीं जाऊँगा।
बस, अब अधिक नहीं खाउफँगा।
अब, माथा पकड़ने से क्या लाभ।
तो, उसने शादी कर ही ली। आदि।
वस्तुतः, कर्त्ता का अर्थ करनेवाला होता है।
सम्बोधन को शेष वाक्यों से अलग करने हेतु कभी-कभी अल्प विराम-चिह्न का प्रयोग हो जाता है। यथा—भाइयो, यह राजतन्त्रा नहीं, प्रजातन्त्रा है। आदि।
वाक्य में उद्धरण-चिह्न से पूर्व अल्प विराम-चिह्न का प्रयोग होता है। यथा—श्याम ने कहा, ‘‘मैं कल अवश्य आऊँगा।’’ आदि।
एक ही पंक्ति में नाम, ग्राम आदि पता लिखने पर उनमें से प्रत्येक के बाद अल्प विराम-चिह्न का प्रयोग होता है। यथा—दिशा प्रकाशन, त्रिनगर, दिल्ली-110 035। आदि।
मुख्य बातें—
1. सबसे कम देर के ठहराव में अल्प विराम-चिह्न का प्रयोग होता है।
2. विराम-चिह्नों में सर्वाधिक प्रयोग अल्प विराम का ही होता है।
3. अर्थ के स्पष्टता को ध्यान में रखकर अल्प विराम-चिह्न का प्रयोग अनिवार्य है।
उपविराम—हाईफन यानी रेखिका से कुछ अधिक ठहराव में इस चिह्न का प्रयोग होता है। जैसे—
गांधीजी के बारे में कुछ विचार इस प्रकार हैं—
हिन्दी में तीन शैलियाँ प्रचलित हैं—हिन्दी, उर्दू और हिन्दुस्तानी। आदि।
मुख्य शीर्षक के अन्तर्गत छोटे-छोटे शीर्षकों के बाद उप विराम-चिह्न का प्रयोग होता है। यथा—
भाषा के विविध रूप हैं :
सीमित भाषा :
कामचलाऊ भाषा :
परिनिष्ठ भाषा : आदि।
किसी महत्त्वपूर्ण विषय या कार्य पर विशेष बल देने हेतु इस चिह्न का प्रयोग होता है। यथा—
फणीश्वरनाथ रेणु : कर्तव्य और कृतियाँ
हिन्दी के शोधग्रन्थ : प्रक्रिया और परम्परा
आजकल रेखिका के स्थान पर भी उप विराम का प्रयोग चल पड़ा है। यथा—
अध्यापक : रिश्वत लेना अन्याय है। इसे दूसरे रूप में बताओ।
छात्रा : रिश्वत लेना एक अन्य आय है। आदि।
प्रश्नवाचक चिह्न—सामान्यतः प्रश्नसूचक शब्दों ;क्या, क्यों, कैसे, कौन, कहाँ, कबद्ध के प्रयोग से जब प्रश्न का भाव सूचित होता है, तब प्रश्नवाचक चिह्न का प्रयोग होता है। यथा—
तुम कहाँ जा रहे हो?
तुम्हारे साथ कौन खड़ा है?
मोहन कैसे बीमार पड़ा?
तुम कब आओगे? आदि।
कभी-कभी प्रश्नवाचक शब्दों के अभाव में भी वाक् ध्वनि के चलते प्रश्नवाचकता आ जाती है। यथा—
तुम पटना जाओगे?
तुम पुस्तक नहीं खरीदोगे?
आप जा रहे हैं? आदि।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहीं-कहीं निषेधात्मक स्थिति हेतु प्रश्नवाचक चिह्न का प्रयोग किया है। यथा—
आँखें खोले रहना भी कोई तुक की बात है?
देखा जाए तो सूरदास की साधना से उसका क्या सम्बन्ध था?
पर जामुन कौन अच्छा है? आदि।
द्विवेदीजी ने कहीं-कहीं बाहुल्यार्थ में प्रश्नवाचक चिह्न का प्रयोग किया है। यथा—
पण्डितों से कौन लड़ता पिफरे...?
क्या कहने?
कितना सुन्दर वातावरण उपस्थित है?
कभी-कभी बल देने हेतु इस चिह्न का प्रयोग किया जाता है। यथा—
किस पाप-अभिसन्धि ने इस कुसुम-कलिका को तोड़ दिया था? आदि।
कभी-कभी ‘हाँ’ उत्तर पाने हेतु इस चिह्न का प्रयोग किया जाता है। ऐसी स्थिति में वाक्य के अन्त में ‘न’ का प्रयोग किया जाता है। यथा—
एक बीघा जमीन में बीस कट्ठा जमीन होती है न?
‘साहित्यिक’ तो साहित्य के सम्बन्ध को कहते हैं न? आदि।
कभी-कभी उपेक्षा के अर्थ में भी इस चिह्न का प्रयोग होता है। यथा—
धानुक टोली का तनुकलाल?
छुछुन्दर की तरह तो सूरत है, वह महन्थ होगा? आदि।
कभी-कभी आश्चर्य, विस्मय, विपत्ति के अर्थ में भी प्रश्नवाचक चिह्न का प्रयोग होता है। यथा—
इस्स! एक हजार?
सुनते हैं, शुद्ध संस्कृत में बोल रहा है सक्षम।
सच?
विस्मयसूचक चिह्न—हर्ष, विषाद, आश्चर्य, करुणा, भय इत्यादि भावों को विस्मय कहते हैं। इन्हीं भावों के अर्थ-द्योतक में इस चिह्न का प्रयोग होता है।
इस चिह्न का प्रयोग विस्मयादिबोधक पदों, पदबन्धों का वाक्यों के अन्त में होता है। यथा—
शाबाश! तुमने कमाल कर दिया।
वाह! कितना सुन्दर दृश्य है।
कैसी भयंकर रात है! आदि।
सम्बोधन के लिए भी इस चिह्न का प्रयोग किया जाता है—
मित्रो! परोपकार, एक सामाजिक कार्य है।
बन्धुओ! एकता में ही शक्ति है। आदि।
कभी-कभी या वाधिक्य में इस चिह्न का प्रयोग होता है। यथा—
...महन्थ साहेब! महंथ साहेब सुनिए।
दमे से जर्जर शरीर में दम कहाँ! आदि।
कभी-कभी विपत्ति के अर्थ में भी इस चिह्न का प्रयोग होता है। यथा—
खबड्डा! माय बाप, हाय बाप! सपाक्।
इन छह विराम-चिह्नों के अतिरिक्त (...) का भी लघुकथा में भरपूर उपयोग होता है, यों तो इन डॉट-डॉट-डॉट का प्रयोग कहीं-न-कहीं प्रायः सभी लघुकथाकारों ने आवश्यकतानुसार अपनी किसी-न-किसी लघुकथा में अवश्य ही किया है, किन्तु सर्वाधिक उपयोग पारस दासोत एवं कमल चोपड़ा ने अपनी आरम्भिक लघुकथाओं में किया है। बाद की लघुकथाओं में भी उन्होंने इन डॉट-डॉट-डॉट का प्रयोग किया है किन्तु अपेक्षाकृत बहुत कम। इनके अतिरिक्त अन्य वरिष्ठ लघुकथाकारों के साथ-साथ नए लोगों ने भी इन डॉट-डॉट-डॉट का सटीक उपयोग अपनी लघुकथाओं में किया है। कमल चोपड़ा की ‘छोनू’ लघुकथा में यह वाक्य देखें—
‘‘मैं छिक्ख-छुक्ख नईं अूँ...मैं बीज-उफज नईं अूँ...मैं तो छोनू अूँ...।’’
वस्तुतः ये डॉट-डॉट-डॉट उन शब्दों/भावों के स्थान पर दिए जाते हैं जिससे पाठक पढ़ते हुए अनकहे शब्दों को मुखर रूप से पढ़-समझ लेता है।
एक अन्य उदाहरण महेश शर्मा की ‘डर’ लघुकथा में देखें—‘‘...दोपहर के भोजन के इन्तजार में कुर्सी पर उफँघते बाबूजी पर माँ झुँझलाती है, ‘‘इस कुर्सी पर रहम करो, खाना खाकर सीधे चारपाई ही तोड़ना...थोड़ा सबर कर लो...रोटियाँ सेंककर ला रही हूँ।’’ ...पिफर बिस्तर पर लेटी बहू के सामने से उसी तरह बड़बड़ाती हुई निकल जाती है कि, तंग आ गई हूँ...पेट है या कोठार... अभी दो घण्टे पहले ही तो डटकर नाश्ता किया था...।’’
वस्तुतः मैं कहना यह चाहता हूँ कि लघुकथा में और विशेष रूप से संवादों में डॉट-डॉट-डॉट का सटीक उपयोग संवादों में प्राण डाल देता है।
डॉट-डॉट-डॉट के अतिरिक्त रेखिका, यह चिह्न हाईफन से थोड़ा बड़ा होता है। इसे अंग्रेजी में ‘डैश’ कहते हैं। लघुकथाओं में भी समुचित अभिव्यक्ति हेतु इसका सही एवं सटीक उपयोग किया जाता है जो लघुकथा को श्रेष्ठ बनाने में कापफी सहायक होता है। इसका सही उपयोग कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ ने ‘इन्जीनियर की कोठी’ में अनेक स्थलों पर किया है। इस वाक्य में डैश (—) का सही उपयोग देखें—‘‘मैं सोच रहा था—तो हमारा वर्तमान ही नहीं हमारा भविष्य भी हमारी मुट्ठी में है—जीवन ही नहीं स्वर्ग भी। वस्तुतः डैश का उपयोग थोड़ा लम्बा पॉज देने हेतु किया जाता है। एक अन्य उदाहरण पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ की लघुकथा ‘भगवान्’ के इस वाक्य में अवलोकित करें—‘‘आदमी ने दूसरा मकान तैयार किया—बिलकुल नए ढंग का।’’
इसी प्रकार एक चिह्न छोटी रेखिका यानी हाईपफन ;-द्ध होता है, जो विलुप्त विभक्ति का अर्थ मुखर करता है। जिसे डॉ. शकुन्तला किरण की लघुकथा ‘इमरजेन्सी’ के इस वाक्य में देखें—‘‘तो तू निपटा लेगी गाँव-गिरस्ती के झगड़े?’’ यहाँ गाँव-गिरस्ती के मध्य हाईपफन विलुप्त विभक्ति ‘और’ को मुखर करता है। एक वाक्य डॉ. रामकुमार घोटड़ की लघुकथा ‘ढलते वक्त’ से देखें—‘‘सेवा भाव व छोटे-मोटे काम की तुमसे तो आशा कर ही सकता हूँ।’’ यहाँ छोटे-मोटे के मध्य हाईपफन विलुप्त विभक्ति ‘और’ को मुखर करता है। इसके अतिरिक्त इसके असंख्य उदाहरण दिए जा सकते हैं, किन्तु लेख को अनावश्यक विस्तार देना मेरा उद्देश्य नहीं है।
सभी कथात्मक विधाओं में उद्धरण-चिह्न (Inverted Commas) का उपयोग प्रायः संवादों में किया जाता है या जहाँ कुछ विशेष शब्द या वाक्य को उद्धृत करना होता है, वहाँ इनका उपयोग किया जाता है। उदाहरणस्वरूप कल्पना भट्ट की लघुकथा ‘कठपुतली’ के निम्न संवादों को देखा जा सकता है—‘‘खुद को सँभाल पगली, अब सब-कुछ तुझे ही देखना और करना...तू एक पढ़ी-लिखी स्त्रा है...तू स्वयंसिद्धा है...तुझे इस भँवर से निकलना है...।’’
एक अन्य उदाहरण सीमा जैन की लघुकथा ‘दान’ का यह संवाद भी देखा जा सकता है, ‘‘अरे नहीं, काहे की मेहनत! मुफ्रत में बगीचे से ही तो लाए हैं। देना है तो दो, नहीं तो जाओ यहाँ से।’’ तात्पर्य यह है कि उद्धरण-चिह्न किसी के कथन के आरम्भ और अन्त में उपयोग किए जाते हैं। लघुकथा में इनकी बहुत ही महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है।
शेष आगामी अंक में…………
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