दिनांक 15-10-2020 से आगे
लघुकथा की संरचना एवं समीक्षा-बिन्दु-7
7वीं समापन कड़ी
प्रत्येक लघुकथा की भाषा एवं उसकी शैली संवादों में उसके पात्रों के परिवेश, अवस्था एवं उनके चरित्रानुसार
इस लघुकथा में देखें प्रथम अनुच्छेद के पश्चात् ‘दस वर्ष बाद...’ लिखा है। यानी एक छोटी-सी लघुकथा में इतना बड़ा अन्तराल? लघुकथा ऐसा अन्तराल सहन नहीं करती है। अतः ‘कालत्व दोष’ के कारण यह लघुकथा समीक्षक द्वारा खारिज कर दी जा सकती है। हाँ, कभी-कभी लघुकथा में यह दोष लघुकथाकार के कुशल सृजन से इस प्रकार आता है कि पाठक को सहज इसका अहसास तक नहीं होता, तो ऐसे प्रवाह में यह दोष प्रत्यक्ष होते हुए विलुप्त-सा प्रतीत होता है, तो ऐसी स्थिति में यह दोष, दोष न रहकर सृजनकर्त्ता का कौशल बन जाता है। ऐसी स्थिति हेतु कल्पना मिश्र की लघुकथा ‘आलू-टमाटर की सब्जी’ का उदाहरणस्वरूप अध्ययन किया जा सकता है। ;पड़ाव और पड़ताल, खण्ड-30द्ध
इस लघुकथा में यों तो ‘कालत्व दोष’ दो स्थान पर आया है। ‘‘अभी बीस दिन पहले ही की तो बात है। वह रक्षाबन्धन पर आई थी।’’
‘अभी बीस दिन पहले ही की तो बात है।’ यहाँ कालत्व दोष होते हुए भी रचनाकार के कौशल से इसका सहज अहसास नहीं होता। अतः इसे ‘कालत्व दोष’ की श्रेणी में नहीं रखा जाएगा। पुनः इसी लघुकथा में देखें
—इसके पाँच दिन बाद ही खबर मिली कि बाबूजी की हालत ठीक नहीं है, अस्पताल में हैं। वह छटपटा उठी और दूसरे दिन ही हॉस्पीटल पहुँच गई।इसी लघुकथा में यह दुबारा ‘कालत्व दोष’—‘इसके पाँच दिन बाद ही खबर मिली...’ आया है किन्तु यहाँ भी कल्पना मिश्र के रचना-कौशल से वह अपने होने का अहसास तक नहीं होने देता। अतः यह भी कालत्व दोष में नहीं माना जाएगा।
यहीं यह भी स्पष्ट कर देना प्रासंगिक होगा कि कभी-कभी जाने-अनजाने या अज्ञानतावश ‘काल-दोषयुक्त’ लघुकथाएँ भी लघुकथाकार लिख देते हैं। यहाँ यह जान लेना जरूरी है कि ‘काल-दोष’ होता क्या है? ‘काल-दोष’ से तात्पर्य यह है कि मान लीजिए किसी ने मुगलकाल का वर्णन करती लघुकथा लिखी तो तय बात है वहाँ लघुकथा में मुगल काल की भाषा एवं संवाद उसी शैली में होंगे, न कि वर्तमान हिन्दी या अंग्रेजीयुक्त शब्दों में। इसी प्रकार यदि हमने वेश-भूषा दिखानी है तो उसी काल की दिखानी होगी, न कि कुर्त्ता-धोती या पायजामा या पिफर पैण्ट-शर्ट आदि। यदि ऐसा करते हैं तो यह ‘काल-दोष’ कहलाएगा। यों यह अच्छी बात है, अब लघुकथाओं में ‘काल-दोष’ की जैसी भूल दिखाई नहीं देती, अब लघुकथाकार इस मामले में सतर्क हैं। अब जरूरत है उन्हें ‘कालत्व दोष’ से बचने की।
समीक्षा करते समय लघुकथा में विशेष रूप से ‘शीर्षक’ पर भी गम्भीरता से ध्यान देना चाहिए। लघुकथा का शीर्षक उसके एक महत्त्वपूर्ण अंग की भाँति होना चाहिए, न कि मात्रा औपचारिकतावश। लघुकथा, लघुकथा ही होनी चाहिए, समाचार की कतरन, दृश्यग्रापफी, वक्तव्य, गद्य-काव्य, चुटकुला या कहानी में प्रवेश-सा नहीं। कथ्य प्रासंगिक एवं मानवोत्थानिक होना चाहिए। लघुकथा किसी अन्य कथा-रचना से प्रभावित नहीं है, यह देखना भी अनिवार्य है। समीक्ष्य रचना में यदि कोई प्रयोग किया गया है, तो यह देखना चाहिए कि वह कितना सार्थक/उपयोगी है और लघुकथा को समृ( करता है या नहीं? प्रयोग सदैव ऐसा होना चाहिए जो लघुकथा को लघुकथा ही रहने दे, उसे अन्य किसी विधा में प्रवेश न करा दे।
यहाँ यह बता देना भी जरूरी है कि लघुकथा को ‘लघुकथा’ यानी लघु कथा एक साथ मिलाकर लिखना चाहिए कि लघुकथा वस्तुतः अपने आपमें एक पूर्ण संज्ञा है। यों भी यह बात स्पष्ट है जब भी किसी विधा या किसी अन्य का कोई नाम होगा तो वह संज्ञा ही होगा। ‘लघुकथा’ अलग-अलग लिखते ही ‘लघु’ विशेषण हो जाएगा और ‘कथा’ संज्ञा। ऐसी स्थिति में यह किसी विधा का नाम तो हो ही नहीं पाएगा। जैसे किसी व्यक्ति का नाम छोटेराम है। यह संज्ञा है। इसे ‘छोटे राम’ ऐसे लिखने पर छोटे विशेषण और राम संज्ञा बन जाएगा। किन्तु किसी व्यक्ति का नाम-विशेष अलग करके नहीं बोला जा सकता। अतः नाम कोई भी हो, वह संज्ञा ही कहलाएगी। संज्ञा को खण्ड-खण्ड करके एक शब्द को विशेषण और दूसरे को संज्ञा के रूप में नहीं लिखा जा सकता। अतः ‘लघुकथा’ भी चूँकि एक विधा का नाम है, अतः उसे अलग नहीं लिखा जा सकता। अतः उसे लघुकथा ही लिखा जाएगा।
लघुकथा के आकार पर चर्चा करें, इससे पूर्व यह जान लेना चाहिए, साहित्य गणित नहीं है जो सूत्रों के बल पर काम करता हो। सूत्रा रूढ़ होते हैं, उन्हें बदला नहीं जा सकता और साहित्य बदलते समय के साथ-साथ बदलता है। यही कारण है लघुकथा 1874 या 1875 ई. में कैसी लिखी जा रही थी, और उसमें क्रमशः बदलाव आते-आते आज किस रूप में हमारे समक्ष उपस्थित है। बदलाव में कथानक, शिल्प आदि सब बदलते जाते हैं। इनके बदलाव से इनके आकार में भी बदलाव आया है।
हसन मुन्शी अली, भारतेन्दु और पिफर सातवें-आठवें दशक की लघुकथाएँ अवलोकित करें और देखें, आकारगत दृष्टि से कितने छोटे आकार में थीं। मात्र कुछ पंक्तियाँ या आधा-पौन पृष्ठ तक सीमित थीं और आज इनकी सीमा डेढ़-दो पृष्ठ भी हो जाती है। अतः कथानक के अनुसार शिल्प ढलता है और शिल्प ही कथानक के अनुसार उसे सही आकार देता है। अतः अब आकार को लेकर बहस करना, अपना एवं दूसरों का समय नष्ट करना ही है।
अन्त में एक और बात जिसका समीक्षा करते समय ध्यान रखना अनिवार्य है कि सातवें-आठवें दशक की तरह अब लघुकथा में व्यंग्य भी हो तो सकता है, किन्तु अब यह लघुकथा की अनिवार्यता कतई नहीं है। लादा हुआ व्यंग्य लघुकथा को सतही बना देता है।
लघुकथा की समीक्षा करते समय कथानक/विषयवस्तु को केन्द्र मानकर चलना चाहिए। मेरे विचार से इन बातों को ध्यान में रखकर किसी भी लघुकथा की समीक्षा/मूल्यांकन एवं उसके प्रति न्याय आसानी से कर सकते हैं।
सम्पर्क : अध्यक्ष, अ. भा. प्रगतिशील लघुकथा मंच,
‘लघुकथानगर’, महेन्द्रू, पटना-800 006 ;बिहारद्ध
मो.ः 082984 43663, 090064 29311
म.उंपसरू ेंजपेतंरचनेांतंदं/हउंपसण्बवउ
सन्दर्भ
1. डॉ. सतीशराज पुष्करणा (सं.), लघुकथा : बहस के चौराहे पर
2. डॉ. सतीशराज पुष्करणा (सं.), लघुकथा : सर्जना एवं समीक्षा
3. मधुदीप (सं.), हिन्दी की कालजयी लघुकथाएँ
4. डॉ. सतीशराज पुष्करणा (सं.), हिन्दी लघुकथा : संरचना और मूल्यांकन
5. डॉ. सतीशराज पुष्करणा (सं.), तत्पश्चात्
6. योगेन्द्रप्रताप सिंह, हिन्दी आलोचना : इतिहास और सि(ान्त
7. मधुदीप (सं.), पड़ाव और पड़ताल, खण्ड-20
8. प्रो. (डॉ.) रामदेव प्रसाद, हिन्दी व्याकरण-चिन्तन
9. डॉ. नगेन्द्र, नई समीक्षा : नए सन्दर्भ
10. धीरेन्द्र वर्मा (प्रधान संपादक), हिन्दी साहित्य कोश, भाग-1
11. बलराम अग्रवाल (सं.); पड़ाव और पड़ताल, खण्ड-2
12. मधुदीप (सं.), पड़ाव और पड़ताल, खण्ड-1, 3, 22, 25, 27, 28, 30
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