दिनांक 14-10-2020 से आगे
लघुकथा की संरचना एवं समीक्षा-बिन्दु-6
छठी कड़ी
2. वैचारिक समीक्षा—
जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, इस प्रकार की समीक्षाओं में समीक्षक प्रायः उस विचारधाराको आधार बनाकर समीक्ष्य लघुकथा को अपने निकष पर कसता है, जिस विचारधारा के प्रति वह प्रतिब( होता है। अपनी-अपनी प्रतिब(ताओं को ध्यान में रखकर कोई भी समीक्षक प्रभाववादी, तुलनात्मक, निर्णयात्मक, ऐतिहासिक, व्याख्यात्मक, चरितात्मक, मनोवैज्ञानिक, प्रगतिवादी, सौन्दर्यवादी, रूपवादी, पाठकीय इत्यादि अपनी-अपनी प्रतिब(ता के अनुसार ही समीक्षाएँ लिखता है।;पद्ध प्रभाववादी समीक्षा—इस प्रकार की समीक्षा में समीक्षक लघुकथा अथवा कृति से जुड़ी अपनी वैचारिक प्रतिब(ता को अभिव्यक्ति प्रदान करता है।
;पपद्ध तुलनात्मक समीक्षा—इस प्रकार की समीक्षा का आयाम बड़ा विस्तृत है। एक पंक्ति की लघुकथा से लेकर डेढ़-दो पृष्ठों की लघुकथा तक उसकी तुलना किसी बड़ी कृति से विचारधारा अथवा रचना-कौशल के स्तर पर की जा सकती है।
;पपपद्ध निर्णयात्मक समीक्षा—इस प्रकार की लघुकथा-समीक्षा में लघुकथा के समस्त गुण-दोषों को निरूपित करते हुए उसका महत्त्व निर्धारित करना होता है, हालाँकि यह समीक्षा-प्रकार परम्परागत है।
;पअद्ध ऐतिहासिक समीक्षा—यह सर्वमान्य है, प्रत्येक श्रेष्ठ लघुकथा अपने समय का सच होती है। कोई भी लघुकथा देश-काल से निरपेक्ष नहीं होती। अतः ऐतिहासिक से वर्ग एवं परिवेश, समाज-रचना के प्रचलित मूल्य-संस्कार तथा युग-विशेष के आयामों से कृति लघुकथा को बाहर रखना सम्भव नहीं है।
;अद्ध व्याख्यात्मक समीक्षा—आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार, ‘‘व्याख्यात्मक समीक्षा किसी पुस्तक में आई हुई बातों को एक व्यवस्थित रूप में सामने रखकर इनका अनेक प्रकार से स्पष्टीकरण करती है। यह मूल्य-निर्धारित करने नहीं जाती है। योगेन्द्रप्रताप सिंह के अनुसार, ‘‘रचना में सन्निहित सर्वनात्मक तत्त्व एवं सामाजिक मूल्य तथा उनको व्यवस्थित अर्थात् क्रमब( तथा तार्किक रूप से प्रस्तुत करके विश्लेषण करना इस प(ति का मुख्य धर्म है।’’
;अपद्ध चरित्रात्मक समीक्षा—किसी लघुकथा की व्याख्या के साथ सर्जक के परिवेश, देश-काल एवं संस्कारों की छानबीन के साथ उसके कर्तृव्व का विश्लेषण ही चरित्रात्मक समीक्षा है।
;अपपद्ध मनोवैज्ञानिक समीक्षा—यह सर्वमान्य है कि कोई भी लघुकथा लघुकथाकार के मन में उपजी उसकी अवधारणाओं की विशेष अभिव्यक्ति है। यह रचनाकार की मन में उपजी अवधारणा है कि लघुकथा में वर्णित स्वरूप को विषयवस्तु या कथानक के अनुकूल कौन-सा शिल्प प्रदान कर दे। इस सन्दर्भ में मनोवैज्ञानिक समीक्षा रचनाकार की मानसिक समझ एवं रुझान के उन सन्दर्भों की खोज करने हेतु प्रतिब( होती है—जो सृजन के सापेक्ष्य में अपने प्रभाव से उसकी सम्पूर्णता को अपने अनुकूल परिवर्तित करती है। यही मनोवैज्ञानिक समीक्षा है।
;अपपपद्ध प्रगतिवादी समीक्षा—कार्ल मार्क्स के भौतिक द्वन्द्ववाद के प्रचार के साथ-साथ साहित्य के क्षेत्रा में प्रगतिवादी विचारधारा का प्रवेश हुआ और इस विचारधारा के समीक्षक इस प्रगतिवादी समीक्षा को साहित्य के विवेचन के आधार के रूप में स्वीकृति प्रदान करते हैं। यही स्थिति लघुकथा विधा में भी है। इसी को मार्क्सवादी अथवा सामाजिक यथार्थवादी समीक्षा-प(ति भी कहते हैं। तात्पर्य यह है कि मार्क्स के भौतिक द्वन्द्व को निकष मानकर जब किसी लघुकथा की समीक्षा की जाती है तो वह प्रगतिवादी समीक्षा कहलाती है।
;पगद्ध सौन्दर्यवादी समीक्षा—सटीक शिल्प द्वारा प्रदत्त सौन्दर्य से सजी लघुकथा की कलात्मक अभिव्यक्ति किसी भी पाठक को सहज ही आकर्षित करती है। इस आकर्षण के मूल में सौन्दर्यमूलक सर्जन के उपादान लघुकथा के अनिवार्य धर्म हैं-और उनकी व्याख्या तथा विश्लेषण करना आलोचक का मुख्य कार्य है। इस प्रकार की गई समीक्षा सौन्दर्यवादी समीक्षा कहलाती है।
;गद्ध रूपवादी समीक्षा—इस प्रकार की समीक्षा में कोई भी लघुकथा अपने स्वरूप में पहचानी जाती है। इसके स्वरूप की पहचान हेतु उसकी भाषा-शैली, बिम्ब, प्रतीक, रूपक-विधान, मिथकीय सन्दर्भ आदि ऐसे कारक हैं, जो उसके सर्जनात्मक कलेवर का विधान करते हैं, ऐसे कारकों की उपस्थिति का विवेचन ही रूपवादी समीक्षा कहलाती है।
;गपद्ध पाठकीय समीक्षा—अनेक विद्वानों का मत है कि कोई रचना भाषा के माध्यम से अपनी अभिव्यक्ति प्राप्त करती है। अतः भाषा के सर्जनात्मक सामर्थ्य की पहचान एवं विश्लेषण ही पाठकीय समीक्षा है। योगेन्द्रप्रताप सिंह के कथनानुसार—‘‘पाठकीय समीक्षा रूपवादी समीक्षा की अन्तिम परिणति है।’’
उपर्युक्त वर्णित सभी ग्यारहों प्रकार भीतर से आपस में जुड़े हैं। लघुकथा की समीक्षा करते समय यदि इन सभी प्रकारों का ध्यान रखा जाए तो किसी भी लघुकथा के साथ समीक्षक पूरा-पूरा एवं सही न्याय कर सकता है। यह सही है प्रत्येक समीक्षक की दृष्टि एवं विचारधारा भिन्न होती है। हो सकती है, किन्तु पिफर भी साहित्य का मूल एवं उद्देश्य तो एक ही रहता है, वह कभी नहीं बदलता है। अतः विचारधारा भिन्न होने के बावजूद तटस्थ समीक्षा किसी भी लघुकथा के साथ न्याय कर सकती है।
सार-संक्षेप में किसी भी लघुकथा की समीक्षा करते समय रचना को प्रथमतः एक पाठक की तरह पढ़ना चाहिए, तत्पश्चात् उसे अनेक बार समीक्षक की दृष्टि से पूरी लघुकथा को पूरी गहराई तक समझकर लेखकीय उद्देश्य तक पहुँचने का प्रयास करना चाहिए, तब यह देखना चाहिए वह लघुकथा समीक्षक को कहाँ तक प्रभावित करती है या कितनी हृदयस्पर्शी यानी संवेदनायुक्त है? इसके पश्चात् उसमें मानवोत्थानिक किन्तु नकारात्मकता रहित सन्देश की तलाश करते हुए उसके शिल्प को परखना चाहिए कि वह उस लघुकथा के अनुकूल है या नहीं? कारण, अधिकांश लघुकथाएँ प्रतिकूल शिल्प के कारण ही अपना प्रभाव खो देती हैं। ‘कथ्य’ और ‘कथानक’ के अनुसार आकार को भी देखना चाहिए, कारण, आकारगत लघुता और क्षिप्रता किसी भी श्रेष्ठ लघुकथा की बड़ी विशेषताएँ हैं। लघुकथा में जो कहा गया है वह पाठकों तक सम्प्रेषणीय होना अनिवार्य है किन्तु कभी-कभी ऐसा भी होता है कि पाठक लेखक की पहुँच तक नहीं पहुँच पाता है और उसे ‘दुरूह’ लघुकथा समझकर नकार देता है, जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए। यदि ऐसा होगा तो जयशंकर ‘प्रसाद’ की अनेक लघुकथाएँ नकार दी जाएँगी, जबकि वे उत्कृष्ट लघुकथाएँ हैं। ऐसी स्थिति में पाठक को ऐसी दुरूह रचना को बार-बार पढ़कर उस रचना के मर्म तक पहुँचने का पूरा-पूरा प्रयास करना चाहिए। पाठक को अपनी कमी का अहसास करते हुए यह भी सोचना चाहिए कि लघुकथाकार सदैव पाठकों के लिए ही नहीं लिखता, कुछ वह अपनी पसन्द की पहचान भी पाठकों को अति विनम्रता से करवाना चाहता है और पाठकों को भी अपनी कमी का अहसास करते हुए अपनी अध्ययनशीलता को क्रमशः बढ़ाना चाहिए।
शेष आगामी अंक में…………
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