Saturday, 10 October 2020

लघुकथा की संरचना एवं समीक्षा-बिन्दु-2 / डॉ॰ सतीशराज पुष्करणा

 

दिनांक 10-10-2020 से आगे

लघुकथा की संरचना एवं समीक्षा-बिन्दु-2

दूसरी कड़ी

लघुकथा को यदि कथा’ का नया, आधुनिक एवं विकसित स्वरूप मान लें तो लघुकथा की संरचना को मुख्यतः दो तत्त्वों में विभाजित करके उसकी तह तक सहज ही पहुँच सकते हैं। वो दो तत्त्व हैं1. कथानक और  2. शिल्प।

कथानक

कथानक को ही विषयवस्तु या कथावस्तु भी कह सकते हैं। अंग्रेजी में इसे ‘प्लॉट’ कहा जाता है। अरस्तू के


अनुसार—‘‘कथानक-कार्य का अनुकरण और घटनाओं का संगुम्पफन है।’’ कार्यानुकरण में सम्पूर्णता होनी चाहिए। इसमें आदि, मध्य और समापन का होना आवश्यक है। कथानक का रूप ऐसा होना चाहिए कि वह पात्रों के चारित्रिक विकास में उतार-चढ़ाव पैदा कर सके।

कथानक के दो प्रकार होते हैंसरल और जटिल। सरल कथानक एकोन्मुखी होता है। इसकी भाग्य-विडम्बना में विपर्यय के लिए कोई अवकाश नहीं रहता। जटिल कथानक में अनेक प्रकार के विरोध, विपर्यय आदि दिखाई पड़ते हैं। (आधुनिक हिन्दी आलोचना के बीज शब्द, पृष्ठ 29)। सरल कथानक जिसमें मात्र एक ही घटना होती है और इसका कालक्रम निरन्तर होता है। यही सरल कथानक लघुकथा के लिए होते हैं। ‘लघुकथा’ कथानक के स्तर पर ही ‘उपन्यास’ और ‘कहानी’ से भिन्न होती है। अतः लघुकथा हेतु हमें रंजनात्मक सरल कथानक का ही चुनाव करना चाहिए और घटना सत्य-सी आभासित न होकर यथार्थ या यथार्थ के निकट तथा विश्वसनीय होनी चाहिए। यह यथार्थपरकता न मात्र नकारात्मक सन्देशरहित हो अपितु इसके विपरीत वह सकारात्मकता का दिशाबोध भी कराती हो।

जीवन में घटता प्रत्येक जीवन्त क्षण लघुकथा का कथानक हो सकता है, शर्त यह है कि उसका निरूपण एवं प्रतिपादन इतना सम्प्रेषणीय, चुस्त, कसावपूर्ण, क्षिप्र और प्रवाहमान तथा उसका शिल्प कथानक के इतना अनुरूप और सटीक होना चाहिए जैसे किसी मानव की हू-ब-हू तैयार कलामूर्ति जो अपने बोलने का-सा भ्रम उत्पन्न करती हो। तात्पर्य यह है कि उसमें प्रभावोत्पादकता इतनी जबरदस्त होनी चाहिए कि पाठक सीधा लेखक के उद्देश्य तक पहुँच जाए। इस प्रभावोत्पादकता को उत्पन्न करने में उसकी आकारगत लघुता एवं क्षिप्रता, जो भीतर से काफी विस्तार लिए हो, चरमबिन्दु, समापन-बिन्दु और शिल्प के महत्त्वपूर्ण उपतत्त्व सटीक शीर्षक (इसकी चर्चा विस्तार से हम आगे करेंगे) जो लघुकथा का अभिन्न अंग बनकर उभरे आदि की अत्यधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। कथानक से ‘कथ्य’ भी जुड़ा है, कथ्य यानी लेखक वस्तुतः जो कहना चाहता है। अंग्रेजी में कथ्य को थीम कहा जाता है। कथानक क्या है? इसे समझने हेतु जगदीश कश्यप की लघुकथा ‘साँपों के बीच’ का अवलोकन करें। (पड़ाव और पड़ताल, खण्ड-2)

इस लघुकथा का कथानक ‘राशन की दुकान के मालिक द्वारा स्टॉक में तेल होते हुए भी लोगों को तेल न देना और लोगों की भीड़ से किसी का पफोन करके पुलिस को बुला लेना है।’ यह उपर्युक्त लघुकथा का ‘कथानक’ है और ‘कथ्य’ यह है कि लोग स्वकेन्द्रित हैं। उन्हें स्वयं के अतिरिक्त किसी से कुछ लेना-देना नहीं है। जिसे लेखक जगदीश कश्यप ने इन शब्दों में बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति प्रदान की है—‘‘लोगों में एक ने सहानुभूतिपूर्वक कहा, ‘‘तुम पढ़े-लिखे हो बेटा, उन नेताओं को पकड़ो जो एक-एक लाख रुपए में लाइसेन्स बाँटते हैंमहँगाई बढ़ाते हैं। इस बेचारे लाला ने आपका क्या बिगाड़ा है।’’

इस बुजुर्ग की बात का जब पूरी पंक्ति ने समर्थन किया तो लगा वह साँपों के बीच खड़ा है और प्रत्येक उसकी ओर दुमुँही जीभ लपलपा रहा है।’’

शिल्प

‘शिल्प’ को अंग्रेजी में ‘क्राफ्ट’ (Craft) कहते हैं, किन्तु साहित्य में यह शिल्प हेतु सटीक शब्द नहीं है। साहित्य में ‘शिल्प’ से तात्पर्य रचना को सौन्दर्य प्रदान करनेवाला एवं पठनीय बनानेवाला तत्त्व है, जिसे छह उपतत्त्वों में विभक्त किया जा सकता है।

शिल्प के उपतत्त्व

1. चरित्र-चित्रण, 2. कथोपकथन (संवाद), 3. भाषा-शैली, 4. देश काल (परिवेश), 5. उद्देश्य, 6. शीर्षक।

1. चरित्र-चित्रणप्रायः एक श्रेष्ठ और आदर्श लघुकथा में भीड़ आदि की स्थिति छोड़कर अधिकतम तीन-चार पात्रों से अधिक की गुंजाइश नहीं होती। लघुकथा के पात्रा हमारे दैनिक जीवन में आस-पास चलते-पिफरते हुआ करते हैं। लघुकथा-लेखकों को अपनी लघुकथा में प्रस्तुत परिवेश के अनुकूल तथा मनोवैज्ञानिक ढंग से अपने पात्रों के नाम तथा चरित्र को इस हद तक उभारना चाहिए कि उनका जीता-जागता चित्र उसके जीवन-तत्त्वों का चेतन संगठन करते हुए प्रस्तुत कर सके। वह मानव के गुण-दोष, हर्ष-विषाद, विरह-मिलन की अनुभूतियों को परिस्थिति विशेष में अपने पात्रों के जीवनक्रम में रूपायित कर सके। उनके जीवन का चित्रण इतना स्वाभाविक और मार्मिक हो कि वह पाठक के हृदय को कहीं भीतर तक स्पर्श कर सके तथा उनमें दबी जिज्ञासा को जाग्रत कर सके। पात्रों में जूझने की शक्ति तथा संघर्ष (टकराहट एवं तनाव) आदि को उभारने में पात्रा पाठकों के करीब आकर सहानुभूति प्राप्त कर लेते हैं। ऐसी लघुकथाएँ सार्थक भी होती हैं और पसन्द भी की जाती हैं।

उदाहरणस्वरूप हम पूनम डोगरा की लघुकथा ‘हथियार’ में नायिका के चरित्र-चित्रण का अवलोकन कर सकते हैं। (पड़ाव और पड़ताल, खण्ड-28)

‘हथियार’ लघुकथा में मनोरोग से पीड़ित नायिका का चरित्र-चित्रण प्रत्यक्ष किया गया है कि वह जब किसी भी स्थिति में पीड़ित होती है तो वह उस दिन अधिक चटख रहती है और सबसे अधिक चटख लिपस्टिक लगाती है। वस्तुतः उत्पीड़न से निजात पाने हेतु वह एक प्रकार से दूसरों को चिढ़ाते हुए जश्न मनाती है, स्वयं में वह प्रसन्नता का प्रदर्शन करती है। इस लघुकथा में नायिका का चरित्र-चित्रण बहुत ही सुन्दर ढंग से प्रस्तुत हुआ है। ऐसे अन्य अनेक उदाहरण अन्य लेखकों की लघुकथाओं में भी उपलब्ध हैं।

2. कथोपकथन (संवाद)यह शिल्प का एक ऐसा उपतत्त्व है जो पात्रों को जीवन्त रूप में स्थित करते हुए उनकी प्रकृति को प्रत्यक्ष रूप में प्रकट करता है। ‘हिन्दी साहित्य कोश’ के अनुसार, ‘यह कार्य संवाद में प्रयुक्त शब्दों से ही नहीं, उनके स्वराघात या लहजे, लय और प्रवाह, भाषा-शैली, अनुरंजकता और अलंकरण, सभी के सम्मिलित प्रभाव से उत्पन्न होता है। कथोपकथन द्वारा ही विभिन्न पात्रों में एक-दूसरे के विरुद्ध सन्तुलन पैदा होता है तथा प्रत्येक के चरित्र-चित्रण में पूर्णता आती है। यह सही है कि साहित्य में प्रयुक्त वार्तालाप शब्दशः जीवन से नहीं लिया जाता, परन्तु वह कार्य-व्यापार को वास्तविकता अवश्य प्रदान करता है। साथ ही, मूलभूत संघर्ष से उदय होकर वह उसे अग्रसर करता है। और इस प्रकार कार्य-व्यापार को विकसित करता चलता है। कथोपकथन में वर्तमान काल का प्रयोग होता है, जिसके कारण कार्य अत्यन्त निकट, आँखों के सामने तीव्र गति और गहनता के साथ घटित होता हुआ जान पड़ता है तथा साहित्य में इसके द्वारा कहीं अधिक विविधता, विश्रान्ति और स्वाभाविकता की वृद्धि होती है।’’

कथोपकथन को हम उदाहरणस्वरूप अनुराग शर्मा की लघुकथा ‘प्यार’ में देख-समझ सकते हैं। (पड़ाव और पड़ताल, खण्ड-30)

यह लघुकथा आद्योपान्त संवादों में ही अभिव्यक्त हुई है, जो दो पात्रों के मध्य संवाद है, जिसका नायक हरिया है जो मालिक का कर्मचारी या नौकर कुछ भी कह लीजिए। दोनों के संवादों की भाषा आम बोल-चाल की खड़ी हिन्दी भाषा है। आम बोल-चाल की भाषा का उदाहरण इस संवाद में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है

‘‘तूने कभी देखा नहीं? पनघट पे मेहरारुओं को ताकते खड़े जुम्मन और झुन्ना से कैसे हँस-हँसके बात करती है? तुझे अच्छा लगता है उसका सबसे ऐसे घुलना-मिलना? उसके लच्छन ठीक नहीं हैं रे!’’

इस संवाद में ‘पे’, ‘मेहरारुओं’, ‘ताकते’, ‘हँसके’, ‘लच्छन’ इत्यादि शब्द बोलचाल की भाषा के शब्द हैं। संवादों में बोल-चाल का प्रवाह महत्त्वपूर्ण होता है, व्याकरणिक दृष्टि संवादों में लागू नहीं भी हो सकती है। जैसे इसी संवाद में—‘तुझे अच्छा लगता है उसका सबसे ऐसे घुलना-मिलना?’ जबकि व्याकरण की दृष्टि से इस वाक्य को ‘क्या तुझे उसका सबसे ऐसे मिलना-जुलना अच्छा लगता है?’ ऐसे लिखा जाना चाहिए था, किन्तु यदि इस संवाद को शुद्ध-शुद्ध लिखा जाता तो संवाद की सहज-स्वाभाविकता एवं विश्वसनीयता समाप्त हो जाती।

कथोपकथन ही लघुकथा का ऐसा उपतत्त्व है जो कथा को आवश्यकतानुसार गन्तव्य की ओर बहुत ही स्वाभाविकता से ले जाता है। अनुराग शर्मा की तो यह पूरी लघुकथा ही संवादों से शुरू हुई और संवाद पर ही आकर पूर्ण होती है किन्तु प्रत्येक लघुकथा ऐसी ही हो यह आवश्यक नहीं है। हर लघुकथा की संवाद-योजना लघुकथा की कथावस्तु या कथानक कह लीजिए, के अनुसार लेखक शिल्प को देखते हुए तय करता है।

                                                              शेष आगामी अंक में…………

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