दिनांक 07-10-2020 से आगे
समीक्षा की सान पर लघुकथा-5
पाँचवीं कड़ी
वर्तमान में लिखी जा रही लघुकथाओं में शीर्षक बिल्कुल उपेक्षित है। बिना
कुछ शीर्षक विशेषण युक्त हैं जो लघुकथा को अर्थपूर्ण बनाते हैं— विधवा धरती (चंद्रेशकुमार छितलानी), उल्लूक न्याय (मुन्नू लाल), जिनावर (शोभना श्याम), विष बीज (सूर्यकांत नागर)।
काव्यात्मक शीर्षक—मछली-मछली कितना पानी (सुकेश साहनी)।
संकेतात्मक व प्रतीकात्मक—तनी हुई मुट्ठियां (मधुदीप), सिर उठाते तिनके (मधुकांत) आदि।
कुछ अंग्रेजी शीर्षक जो उपयुक्त जान पड़ते हैं—फोटोशॉप (शोभना श्याम मित्तल), स्पेस (रोहित शर्मा)।
अन्य अंग्रेजी शीर्षक—एंजॉय (मुन्नू लाल), पनिशमेंट (कपिल शास्त्री), रिकॉर्ड (शोभना श्याम), ग्रैंड पेरेंट्स डे (सविता इंद्र गुप्ता) आदि।
5. शिल्प-शैली
लघुकथा का शिल्प और शैली यानी लेखन की पद्धति निश्चित तौर पर गद्य की अन्य विधाओं से अलग है। इसमें आकारीय लघुता के साथ-साथ शब्दों की मितव्ययिता यानी कसावट, तीव्र संप्रेषणीयता, उद्देश्य की एकाग्रता आदि सम्मिलित है। प्रत्येक लेखक की अपनी विशिष्ट शैली व शिल्प होता है यानी ढांचा होता है और उसी के अनुरूप वह कथ्य बुनता है। शिल्प और शैली में आवश्यकता अनुसार प्रयोग किए जा सकते हैं। शिल्प में जहां एक और लेखक-विशेष का भाव-पक्ष जाहिर होता है वहीं दूसरी और उसके अनुभव के आधार पर उसका कला-पक्ष प्रदर्शित होता है। दोनों के समुचित प्रभाव से लघुकथा को जीवंतता मिलती है। आचार्य सीताराम चतुर्वेदी का कथन इस विषय में समीचीन है—"शब्दों की कलात्मक योजना ही तो शैली है।" शैली में लघुकथा के गुण-धर्म, युग का प्रतिबिंब, भाषा, व्यक्तित्व सभी कुछ अदृश्य रूप से विद्यमान रहता है।
लघुकथा के शिल्प वे शैली में व्यापक प्रयोगशीलता के आयाम नजर आते हैं, जिसके फलस्वरूप लघुकथा केवल कुछ शैलियों की मोहताज न रहकर विविध शैलियों में लिखी जा रही है। अधिकतर लघुकथाओं में वर्णात्मक, संवादात्मक या कथोपकथन शैली ही देखने को मिलती है, परंतु लघुकथा में भी उपन्यास में कहानी की तरह प्रयोगधर्मी लघुकथाकारों ने विभिन्न शैलियों में सार्थक व प्रभावी प्रणयन किया है। लघुकथा में इतनी शैलियां देखकर लगता है कि लघुकथा भी कहानी के बरअक्स आ खड़ी हुई है।
कुछ कतिपय शैलियों के उदाहरण सहित वर्णन इस प्रकार है—
1. वर्णनात्मक शैली
इस शैली में पात्रों, घटनाओं और वातावरण का वर्णन होता है। यह शैली सरल और अधिक प्रचलित है। इस पद्धति में केवल स्थूल वर्णन रहता है जबकि चित्रात्मक पद्धति में सजीव चित्रण द्वारा एक बिंब या चित्र उपस्थित हो जाता है। चित्रात्मक शैली का उदाहरण देखिए डॉक्टर कमल कमल चोपड़ा की लघुकथा 'खेल' की इन पंक्तियों में-- "एक फटे हुए कपड़े के बीच गांठ मार कर बनाई गई गुड़िया, एक डिबिया और कुछ टूटी-फूटी चूड़ियों के टुकड़े। अपने इन खिलौनों के साथ वीनू खोली के एक कोने में खेल रहा था।"
2. संवादात्मक या कथोपकथन शैली
इस शैली के प्रयोग से लघुकथा की संप्रेषणीयता अत्यधिक रूप से बढ़ जाती है और पाठक बिना एक पल गंवाए, इसे एक ही सांस में पढ़ जाता है। वरिष्ठ व नवोदित लघुकथाकारों ने इस शैली का अधिकाधिक प्रयोग किया है। लघुकथा के लिए यह शैली एक तरह से वरदान से साबित हुई है। क्योंकि इसके प्रयोग से कम से कम शब्दों में सटीक अभिव्यक्ति संभव है। सैकड़ों लघुकथाएं इस शैली में लिखी गई हैं जैसे मधुदीप की 'हिस्से का दूध', पृथ्वीराज अरोड़ा की ' 'रामबाण', सिमर सदोष की 'दांपत्य', रूप देवगुण की 'दूसरा सच', रमेश बत्रा की 'हालात', कमल कपूर की 'तुम्हारे बाद', डॉक्टर सतीश दुबे की लघुकथा 'पासा' आदि।
3. विवरणात्मक या व्याख्यात्मक शैली
अन्य विधाओं की भांति पाठक में उत्सुकता बनाए रखने के लिए किसी न किसी रहस्य की सृष्टि कर लेखक के लिए अंत में उसकी व्याख्या करके रहस्योद्घाटन जरूरी हो जाता है। ये व्याख्याएं घटना, चरित्र, दर्शन, चिंतन या मनोवैज्ञानिक सत्य की भी हो सकती हैं।
4. विश्लेषणात्मक
शैली
चरित्र-प्रधान रचना में लघुकथाकार इस शैली का आश्रय लेता है जिससे वह पात्रों के अवचेतन में प्रवेश पाता है। पात्रों के मनोविश्लेषण के लिए कहीं स्वप्न- चित्रों, संकेतों, व्यंग्य एवं प्रतीकों का सहारा लिया जाता है, तो कहीं व्यंजनात्मक भाषा का प्रयोग किया जाता है। विषय वस्तु के आग्रह व लेखक के विशिष्ट दृष्टिकोण के कारण विश्लेषणात्मक शैली के अनेक रूप हो जाते हैं। कहीं वह आदर्शपरक हो जाती है, कहीं यथार्थपरक, बौद्धिक, मनोवैज्ञानिक, दार्शनिक तो कहीं-कहीं अत्यंत भावपूर्ण हो जाती है।
5. पत्र शैली
पत्र शैली का प्रचलन अधिक देखने को नहीं मिलता। अभी इसका विकास केवल प्रयोगात्मक स्तर तक ही हुआ है। इसका कारण यह हो सकता है कि लघुकथा की मूल आत्मा या केंद्रीय भाव अप्रस्फुटित रह जाता हो या लघुकथा अपनी धार खो देती हो। डॉ. सतीश दुबे की 'आस्था की सलीब' व योगराज प्रभाकर की 'कहा-अनकहा' पत्र शैली की लघुकथाएं हैं।
6. व्यंग्यात्मक शैली
यह शैली लघुकथा में विस्फोट का कार्य करती है अर्थात लघुकथा को धार प्रदान करती है। वर्तमान में व्यंग्य को लघुकथा का अनिवार्य तत्व नहीं माना जाता क्योंकि आजकल भावनात्मक लघुकथाएं लिखी जा रही हैं जिनका अंत प्रभावशाली होता है। फिर भी कथानक की मांग के पर व्यंग्य को लघुकथा से विस्मृत नहीं किया जा सकता। अधिकतर राजनैतिक, सामाजिक विद्रूपताएं, जाति-धर्म की विसंगतियां व्यंग्यात्मक शैली में धारदार बनी हैं। शंकर पुणतांबेकर, परमेश्वर गोयल, भगवान वैद्य प्रखर, मधुदीप, मधुकांत, राजेंद्र मोहन त्रिवेदी 'बंधु', सतीशराज पुष्करणा, कमल चोपड़ा, गोविंद शर्मा, हरिशंकर परसाईं जैसे पांक्तेय लघुकथाकारों ने व्यंग्य का शस्त्र अपनी लघुकथाओं में बखूबी साधा है।
7. संस्मरणात्मक शैली
मानुषी प्रवृत्ति है कि वह बीते हुए की जुगाली करता है। कुछ दृश्य, कुछ घटनाएं, स्थितियां- परिस्थितियां लेखक के मन मस्तिष्क को मथती हैं; ऐसे में वह उनसे पूर्णतया कटकर नहीं रह पाता। बीते हुए यानी किसी संस्मरण को लेकर लघुकथा का प्रणयन करना ही संस्मरणात्मक शैली कहलाती है। डॉ.लता अग्रवाल की 'सांझ बेला', जगदीश नारायण वर्मा की 'दो मुट्ठी चावल', चित्रा मुद्गल की 'बोहनी' इसी शैली की लघुकथाएं हैं।
8. आत्मकथात्मक या आत्मचरित शैली
इस शैली में लघुकथाकार या लघुकथा का कोई पात्र 'मैं' के धरातल पर या आत्मचित्रण द्वारा पूरी लघुकथा कह डालता है। इसे उत्तम पुरुषात्मक शैली भी कहा जाता है। इस शैली के अंतर्गत चरित्र का आत्मविश्लेषण उत्कृष्ट ढंग का होता है। पात्र के अंत:स्थल के अमूर्त से अमूर्त व सूक्ष्मतर भावों, अंतर्द्वंदों की अभिव्यक्ति सरलता से हो जाती है। राजकुमार की लघुकथा 'मैडम झूठ बोलती है' इस शैली की अच्छी लघुकथा है।
शेष आगामी अंक में………………
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