Thursday, 15 October 2020

लघुकथा की संरचना एवं समीक्षा-बिन्दु-5 / डॉ॰ सतीशराज पुष्करणा

 दिनांक 13-10-2020 से आगे

लघुकथा की संरचना एवं समीक्षा-बिन्दु-5

पाँचवीं कड़ी

क्षिप्रतालघुकथा का अतिविशिष्ट गुण ‘क्षिप्रता’ है जिसका अर्थ लघुता में पफुर्तीलापन और गति में त्वरा

होता है। क्षिप्रता के बिना लघुकथा का सृजन ही सम्भव नहीं है। क्षिप्रता ही वह गुण है जो लघुकथा में अनावश्यक शब्दों को रोकता है। क्षिप्रता शब्दों में मितव्ययिता को जमकर प्रोत्साहन देती है। यही कारण है कि मैं लघुकथा को स्थूल से सूक्ष्म की यात्रा मानता हूँ और इसे इसी रूप में परिभाषित भी आरम्भ से करता आया हूँ। इस सन्दर्भ में कुणाल शर्मा की ‘उसका जिक्र क्यों नहीं करते?’ लघुकथा का सहज ही अवलोकन किया जा सकता है। (पड़ाव और पड़ताल, खण्ड-30)

 यह लघुकथा प्रथम एवं अन्तिम वाक्य को छोड़कर पूरी लघुकथा संवादों में ही पूर्ण हुई है। इसमें चार पात्रा हैं जो वार्तालाप करते हुए ही गन्तव्य तक लघुकथा को पहुँचा देते हैं। इनकी बातचीत का विषय लड़की का किसी लड़के के साथ भाग जाना है और तीन पात्रा इस कर्म हेतु लड़की को ही दोषी मानते हैं, किन्तु चौथा व्यक्ति पहले तो चुपचाप तीनों की बातें सुनता है पिफर अन्त में कहता है—‘‘अकेली भागी है क्या लड़की? अगर नहीं, तो भाई, लड़के के बारे में भी कुछ बोलो, उसका जिक्र क्यों नहीं करते...?’’

इस विषय को क्षिप्रता के साथ प्रस्तुत करने हेतु संवाद-शिल्प ही सटीक था, लेखक के इस कौशल ने लघुकथा को श्रेष्ठ बनाने में पूर्ण सहयोग किया।

सुष्ठुतासुष्ठु को अंग्रेजी में ‘कॉम्पैक्ट’ कहते हैं। लघुकथा का यह गुण लघुकथा को फालतूपन की ओर जाने से रोकता है, किन्तु आवश्यकता के अनुसार आये सटीक एवं आवश्यक शब्दों को बहुत ही करीने से प्रस्तुत करता है। सुष्ठुता को प्रस्तुत करती सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ की लघुकथा ‘जंगल और कुल्हाड़ी’ उदाहरणस्वरूप रखी जा सकती है। (पड़ाव और पड़ताल, खण्ड-27हिन्दी की कालजयी लघुकथाएँ)

इस लघुकथा में यह स्पष्ट किया गया है कि जो काम भी करो, करने से पूर्व भली-भाँति उसके परिणाम के विषय में पूरी गम्भीरता से सोच-समझ लो। इस बात को लेखक ने सीधे न कहकर जंगल, पेड़ और कुल्हाड़ी को माध्यम बनाकर बहुत ही सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है। इस लघुकथा की परख वर्तमान की लघुकथाएँ सामने रखकर नहीं की जा सकती। इस लघुकथा को इसके रचनाकाल के समय को देखते हुए ही इसकी परख की जानी चाहिए। कारण, जिस काल में यह लघुकथा रची गई यानी वह काल चौथा दशक है और आज नई सदी का यह दूसरा दशक व्यतीत होने को है, अतः प्रत्येक दृष्टिकोण से इन दोनों कालों की लघुकथाओं के शिल्पों में अन्तर तो होगा ही।

सांकेतिकतासांकेतिकता का अर्थलघुकथा में जब भाषा या अन्य स्तरों पर प्रत्यक्ष कोई बात न कहकर संकेत में कही जाती है तो इस क्रियात्मकता को सांकेतिकता कहते हैं। जब कथा में सांकेतिकता का उपयोग किया जाता है तो लघुकथा में शब्दों की मितव्ययिता तो आ ही जाती है, साथ ही इसकी श्रेष्ठता भी कई गुना बढ़ जाती है।

सांकेतिकता का उपयोग करते हुए जाने-अनजाने बहुत नहीं तो कुछ लघुकथाएँ तो अवश्य ही प्रकाश में आई हैं, जो श्रेष्ठ लघुकथाओं की श्रेणी में गिनी जाती हैं। ऐसी लघुकथाओं में किशोर काबरा की ‘तीन बन्दर’ देखी-परखी जा सकती है। (हिन्दी की कालजयी लघुकथाएँ, पड़ाव और पड़ताल, खण्ड-30, धरोहर भाग)

इस लघुकथा में गांधीजी के तीन बन्दरों को लेकर वर्तमान समय में व्याप्त भ्रष्टाचार को नपे-तुले शब्दों की सांकेतिक भाषा में बहुत ही सुन्दर ढंग से अभिव्यक्त कर दिया है। परिणामतः यह एक श्रेष्ठ लघुकथा बन गई है। लघुकथाकारों को सांकेतिकता का उपयोग करते हुए पर्याप्त मात्रा में लघुकथाएँ लिखनी चाहिए। सांकेतिकता यदि सटीक ढंग से उपयोग में लायी गई हो तो लघुकथा को वह श्रेष्ठता के शिखर तक पहुँचा देती है।

सार-संक्षेप में लघुकथा के रचना-विधान को यों व्यक्त किया जा सकता है, लघुकथा जो विश्वसनीय मानवोत्थानिक कथ्य, प्रासंगिक कथानक, सटीक भाषा-शैली, जीवन-संघर्ष, रंजन, संप्रेषणीय प्रस्तुति, हृदयस्पर्शी, चरमबिन्दु के साथ-साथ सभी कथा-तत्त्वों, उपतत्त्वों को वर्तमान की जमीन पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से समाहित किए एवं यथार्थवादी/यथार्थवादी-सी रचना के रूप में कोई-न-कोई मानवोत्थानिक सन्देश लिए प्रस्तुत होती है। लघुकथा, कथा का ही आधुनिक और विकसित स्वतन्त्रा स्वरूप या विधा है। इसे यों भी परिभाषित किया जा सकता है कि ‘लघुकथा स्थूल से सूक्ष्म की रंजनात्मक कथा-यात्रा है।’ अतः यह समाचार, चुटकुला, लतीपफा, रिपोर्टिंग, कहानी में प्रवेश-सा वक्तव्य, गद्यगीत, संस्मरण, दृश्यग्रापफी आदि न बन जाए अपितु इसमें गद्यात्मक कथापन की उपस्थिति अपरिहार्य है।

लघुकथा के रचना-विधान के पश्चात् लघुकथा की समीक्षा पर भी बात कर लेना प्रासंगिक होगा। साहित्य की गद्य विधा में ‘समीक्षा’ भी एक महत्त्वपूर्ण विधा के रूप में अपना उल्लेखनीय स्थान बना चुकी है।

‘समीक्षा’ शब्द ‘सम+ईक्षा’ से निर्मित हुआ है, जिसका अर्थ किसी भी वस्तु को बराबर दृष्टि से देखना, यानी उसे उसकी पूर्ण विशेषताओं और कमियों के साथ देखना-परखना, उनकी पड़ताल करना। साहित्य में इसका तात्पर्य किसी भी कृति अथवा रचना को गम्भीरतापूर्वक तटस्थ भाव से अवलोकित करते हुए उसके गुण एवं दोषों पर अपनी विशिष्ट भाषा-शैली में बहुत सुन्दर ढंग से प्रकाश डालना है।

यों तो समीक्षा-कर्म व्यक्ति-व्यक्ति पर निर्भर करता है कि अमुक समीक्षक की क्या विचारधारा है या कोई रचना/कृति उसके मन/हृदय को कैसी लगती है। इसी आधार पर समीक्षा के दो प्रकार बताए जाते हैं1. व्यवहारिक समीक्षा, 2. वैचारिक समीक्षा।

1. व्यवहारिक समीक्षायह एक प्रकार से पाठकीय प्रतिक्रिया होती है, किन्तु अन्तर इतना ही होता है कि पाठकीय प्रतिक्रिया एक बार रचना पढ़ते ही हृदय पर जो प्रभाव पड़ा उसकी भावपूर्ण अभिव्यक्ति होती है, जबकि व्यवहारिक समीक्षा करते समय कोई भी समीक्षक रचना का पुनः-पुनः समीक्षा-दृष्टि से अध्ययन करते हुए मन में आई तत्काल प्रतिक्रिया को उसके गुण-दोषों का समन्वय बनाकर अपनी आलोचकीय भाषा-शैली में विस्तृत अभिव्यक्ति प्रदान कर देता है। व्यवहारिक समीक्षा में तत्काल अपनी वैचारिक दृष्टि, लघुकथाकार से सम्बन्धित व्यक्तिगत एवं सामाजिक स्रोतों का ज्ञान, मूल्यबोध तथा संरचना या कृति के गुण-दोष इत्यादि को समीक्षक अपनी पूरी गहराई तक जाकर देखता-परखता है। इस हेतु वह कोई विधागत शास्त्रा आदि का सहारा या ऐसी किसी शास्त्राय मान्यता के प्रति प्रतिब( नहीं होता। उसमें उस समीक्षक की अपनी वैयक्तिक प्रतिक्रिया रहती है। अभी तक प्रायः लघुकथा-लेखक ही इस दायित्व का निर्वाह करते रहे हैं किन्तु निशान्तर, रवीन्द्रनाथ ओझा, राधिका रमण अभिलाषी, कुमार अखिलेश्वरी नाथ, निशान्तकेतु, चक्रधर नलिन, लालमुनि दुबे ‘निर्मोही’, डॉ. चन्द्रेश्वर कर्ण, डॉ. ब्रजकिशोर पाठक, राधेलाल बिजघावने, डॉ. विनोद गोदरे, पुरुषोत्तम सत्यप्रेमी, अमर गोस्वामी, सन्तोष सरस, भूपाल सिंह अशोक, बलदेव उपाध्याय, रामनारायण बेचैन, डॉ. वेदप्रकाश अमिताभ, डॉ. कमलकिशोर गोयनका इत्यादि ऐसे आलोचक हैं जिन्होंने लघुकथाएँ नहीं लिखीं, केवल आलोचक की भूमिका में रहकर यथासम्भव लघुकथा-समीक्षा के विकास में अपना योगदान देते रहे। इनमें से कुछ तो अब इस संसार में नहीं हैं, कुछ लेखन-कर्म से ही दूर चले गए, किन्तु निशान्तर आज भी सक्रिय हैं। पड़ाव और पड़ताल में भी इन्होंने दायित्वपूर्ण ढंग से आलोचक की भूमिका का निर्वाह किया है।

इसके पश्चात् अनेक लोग मधुदीप के सम्पादकत्व में प्रकाशित ‘पड़ाव और पड़ताल’ के माध्यम से जुड़े जिनमें लघुकथा-लेखकों के अतिरिक्त जो मात्रा लघुकथा-आलोचना से जुड़े हैं, उनमें प्रो. मृत्युंजय उपाध्याय, डॉ. सुलेखचन्द्र शर्मा, विनय विश्वास, प्रो. सुरेशचन्द्र गुप्त, भारतेन्दु मिश्र, डॉ. जितेन्द्र ‘जीतू’, सुभाषचन्दर, डॉ. पुरुषोत्तम दुबे, प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा, प्रो. ॠषभदेव शर्मा, डॉ. मलय पानेरी, सुरेश यादव, डॉ. बलवेन्द्र सिंह, डॉ. ओमप्रकाश ‘करुणेश’, डॉ. राजेन्द्र टोकी, डॉ. सुभाष रस्तोगी, डॉ. राकेशकुमार, हरदान हर्ष, डॉ. हरीश नवल, ओमप्रकाश कश्यप, डॉ. स्नेह गुप्ता नवल, डॉ. रश्मि, डॉ. सुधा उपाध्याय, नवीन चौधरी, मानसी काणे, कृष्णा पाल, पारनन्दि निर्मला, डॉ. हून्दराज बलवाणी, डॉ. ब्रह्मवेद शर्मा, डॉ. शशि निगम, डॉ. ध्रुवकुमार, खेमकरण ‘सोमन’,  डॉ. इसपाक अली खान, डॉ. अनीता राकेश, डॉ. स्नेहलता श्रीवास्तव, अरुण अभिषेक, डॉ. व्यासमणि त्रिपाठी, डॉ. गुर्रमकोण्डा नीरजा, प्रो. फूलचन्द्र मानव, डॉ. शंकर प्रसाद, डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा, प्रियंका गुप्ता, प्रो. रामसजन पाण्डेय, डॉ. सत्यवीर मानव, डॉ. हृदयनारायण, भावना सक्सेनाऋ इनके अतिरिक्त पड़ाव और पड़ताल में बी.एल. आच्छा आलोचना-कर्म में सक्रिय रहे हैं, किन्तु ये लघुकथाएँ भी लिखते हैं। ‘पड़ाव और पड़ताल’ के ही 30वें खण्ड में इनकी लघुकथा प्रकाशित है। इनके अतिरिक्त कृष्णानंद कृष्ण, राजेन्द्र मोहन त्रिवेदी ‘बन्धु’, डॉ. मिथिलेशकुमारी मिश्र, डॉ. वीरेन्द्रकुमार भारद्वाज, डॉ. शिवनारायण, डॉ. पुष्पा जमुआर, डॉ. उमेश महादोषी, अनीता ललित, डॉ. अनीता राकेश इत्यादि ऐसे समीक्षक हैं, जो ‘पड़ाव और पड़ताल’ में आलोचक की भूमिका में हैं, यों इन आलोचकों ने पर्याप्त लघुकथा-सृजन भी किया है।

इन सभी आलोचकों ने प्रायः व्यावहारिक समीक्षाएँ ही लिखी हैं।

                                   शेष आगामी अंक में…………

2 comments:

विभा रानी श्रीवास्तव said...

आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 24 जुलाई 2021 को लिंक की जाएगी ....
http://halchalwith5links.blogspot.in
पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!
!

Bharti Das said...

बहुत बढिय़ां, सुंदर समीक्षा