दिनांक 11-10-2020 से आगे
लघुकथा की संरचना एवं समीक्षा-बिन्दु-3
तीसरी कड़ी
3. भाषा-शैली—हिन्दी साहित्य कोश के अनुसार, ‘‘जिन ध्वनि-चिह्नों द्वारा मनुष्य परस्पर विचार-विनिमय
करता है उनकी समष्टि को भाषा कहते हैं।’’ भाषा के बारे में इस बात का सदैव ध्यान रखना चाहिए कि जिन ध्वनियों से विशेष जीव या वस्तु का बोध होता है, उनका उस जीव या वस्तु से कोई नियत स्वाभाविक सम्बन्ध नहीं, केवल सामाजिक व्यवहार सम्बन्ध है। भाषा के द्योतक हमारे पुराने शब्द वाक् और वाणी हैं, जिनमें बोलने का अर्थ निहित है।‘शैली’ अंग्रेजी शब्द ‘स्टाइल’ का अनुवाद है। किन्तु साहित्य में इसका उपयोग भाषा के सन्दर्भ में ही होता है। किसी भी व्यक्ति की अभिव्यक्ति में लिखी गई भाषा के ढंग या तरीके को उसकी या उस रचना की भाषा-शैली कहते हैं। विभिन्न रचनाएँ जिन प्रभावों को उत्पन्न करती हैं, वे भिन्न-भिन्न कोटियों में होते हैं, फलतः शैलियाँ भी भिन्न होती हैं।
भाषा-शैली के सन्दर्भ में उदाहरणस्वरूप मधुदीप की लघुकथा ‘हिस्से का दूध’ का सहज ही अवलोकन किया जा सकता है। (पड़ाव और पड़ताल, खण्ड-1)
इस लघुकथा में भाषा-शैली का चमत्कार यों तो पूरी लघुकथा में ही परिलक्षित होता है, जैसे—‘‘उनींदी आँखों को मलती हुई वह अपने पति के करीब आकर बैठ गई। वह दीवार का सहारा लिए बीड़ी के कश ले रहा था।’’ या इस वाक्य में श्रेष्ठ भाषा-शैली का नमूना देखें—‘‘बाहर से हवा के साथ एक स्वर उसके कानों से टकराया। उसकी आँखें कुर्ते की खाली जेब में घुस गईं।’’
‘उसकी आँखें कुर्ते की खाली जेब में घुस गईं।’ यह लेखक का वास्तविक रूप एक शैलीकार के रूप में सामने लाता है। यह वाक्य साधारण नहीं है। मधुदीप ने इसे लघुकथा के कथानक के अनुसार विशिष्ट रूप में प्रयोग करके लघुकथा-भाषा को अतिरिक्त सौन्दर्य प्रदान करने में सपफलता प्राप्त की है। जहाँ तक संवादों की भाषा-शैली की बात है तो वह आम सर्वहारा, घर-परिवार में पति-पत्नी जो आपस में एक-दूसरे के प्रति सौहार्द्र भाव रखते हैं, की सहज बोल-चाल की आत्मीय भाषा है। जैसे—यह संवाद देखें—‘‘पगली, बीड़ी के उफपर चाय-दूध नहीं पीते। तू पी ले।’’
4. देश-काल—हिन्दी साहित्य कोश के अनुसार—‘‘कथात्मक साहित्य में वर्णित कार्यों की वास्तविकता की प्रतीति कराने के लिए उनके घटित होने का स्थान तथा समय का निर्देश करना आधुनिक कला की महत्त्वपूर्ण विशेषता है। परन्तु देश-काल के अन्तर्गत केवल स्थान और समय ही नहीं, रीति-रिवाज, रहन-सहन के ढंग, पात्रों की वेश-भूषा, उनके शिष्टाचार, आचार-व्यवहार, विचार-चिन्तन, वार्तालाप की भाषा-शैली तथा कथा की प्राकृतिक पृष्ठभूमि आदि सभी बातें आ जाती हैं, जो कथा को स्वाभाविक वातावरण प्रदान करती हैं।’’ लघुकथा में लघुकथाकारों ने देश-काल के रूप में अपने समय के सच को अमरत्व प्रदान करने का सदैव प्रयास किया है। लघुकथा में भौतिक अथवा प्राकृतिक परिस्थितियों का चित्राण भी किया है। यह चित्राण प्रयोगों के आधार पर या तो केवल वर्णन को सम्पूर्णता प्रदान करने हेतु वर्ण्य-विषय के साथ साम्य या विरोध के रूप में सम्ब( किया जा सकता है।
देश-काल को स्पष्ट करती इन पंक्तियों के लेखक डॉ. सतीशराज पुष्करणा की लघुकथा ‘जीवन-संघर्ष’ को देखा-परखा जा सकता है। (पड़ाव और पड़ताल, खण्ड-22)
वर्तमान समय में जब महँगाई अपने चरम पर हो, तो किसी भी सामान्य नागरिक की क्या स्थिति हो सकती है, उसे अपने वर्तमान काल के साथ प्रस्तुत करती है यह लघुकथा। इस लघुकथा के बारे में बी.एल. आच्छा के शब्दों का उपयोग करना अधिक प्रासंगिक होगा—‘‘लेखक की भाषा जिन मूल्यों के लिए विषयगामिता और भ्रष्टताओं से टकराती है, वह उन्हीं बातों में गलबहियाँ कैसे डाल सकती है। यह अविखण्डित आत्मचेतना उसे संघर्षों में झुलाती है, समृद्धियों से किनारे रख देती है...लेखक की समस्या है कि वह भ्रष्टता की वैतरणी में बैठकर भ्रष्टता पर नावक के तीर नहीं चला सकता... इसलिए फ्लैट खरीदने का विचार साकार नहीं हो पाता।’’ तात्पर्य यह जिस काल की कथा है, वह जहाँ महँगाई का चरम प्रत्यक्ष करता है वहीं समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार को भी बहुत करीने से प्रस्तुत करता है। इस देश-काल का यह संवाद भी पाठकों के समक्ष प्रत्यक्ष होता है—‘‘आज पैसे का बोलबाला है। सरकार भी पैसे की भाषा बोलती है। केवल लेखन से क्या होगा? जुगाड़ किए बिना कुछ नहीं होगा।’’
देश-काल को कथानक के अनुसार सटीक ढंग से प्रस्तुत करने का काम केवल किसी लेखक-विशेष ने ही नहीं किया, अन्य अनेक नए-पुराने लेखक हैं, जिन्होंने देश-काल को उसके सही ढंग से प्रस्तुत करते हुए अपनी लघुकथा को अमरत्व प्रदान किया है।
5. उद्देश्य—हिन्दी साहित्य कोश के अनुसार—‘‘जिसमें लेखक की उस सामान्य या विशिष्ट जीवनदृष्टि का विवेचन होता है, जो उसकी कृति में कथावस्तु के विन्यास, पात्रों की योजना, वातावरण के प्रयोग आदि में सर्वत्रा निहित पायी जाती है। इसे लेखक का जीवन-दर्शन अथवा उसकी जीवनदृष्टि, जीवन की व्याख्या या जीवन की आलोचना कह सकते हैं।’’
उद्देश्य को सही ढंग से समझने हेतु उदाहरणस्वरूप सुकेश साहनी की लघुकथा ‘ठण्डी रजाई’ देखी जा सकती है। (पड़ाव और पड़ताल, खण्ड-25)
इस लघुकथा का उद्देश्य वस्तुतः यह है कि जीवन में यदि हमें सुखी रहना है तो दूसरों के सुख को पहले ध्यान में रखना होगा। दूसरे के दुःख को अपना समझकर उसे दूर करने का प्रत्येक सम्भव प्रयास करना होगा।
यहाँ कतिपय चार संवाद हैं जो इस लघुकथा को उद्देश्य की राह दिखाने में सहायक हैं, देखें—
‘‘कौन था?’’ उसने अँगीठी की ओर हाथ फैलाकर तापते हुए पूछा।
‘‘वही, सामनेवालों के यहाँ से’’, पत्नी ने कुढ़कर सुशीला की नकल उतारी, ‘‘बहन, रजाई दे दो, इनके दोस्त आए हैं।’’
‘‘आज जबरदस्त ठण्ड है, सामनेवालों के यहाँ मेहमान भी आए हैं। ऐसे में रजाई के बगैर काफी परेशानी हो रही होगी।’’
‘‘तुमने तो मेरे मन की बात कह दी, एक दिन के इस्तेमाल से रजाई घिस थोड़ी ही जाएगी’’, वह उछलकर खड़ी हो गई, ‘‘मैं अभी सुशीला को रजाई दे आती हूँ।’’
वह सुशीला को रजाई देकर लौटी तो उसने हैरानी से देखा, पति उसी ठण्डी रजाई में घोड़े बेचकर सो रहा था। वह भी जम्हाइयाँ लेती हुई अपने बिस्तर में घुस गई। उसे सुखद आश्चर्य हुआ, रजाई काफी गर्म थी।
6. शीर्षक—यह रचना का ताज होता है। यों तो प्रत्येक विधा की रचना में इसका महत्त्व होता है, किन्तु लघुकथा में इसका अतिरिक्त महत्त्व होता है। लघुकथा का शीर्षक इतना विचित्र, आकर्षक तथा अद्भुत रखना चाहिए कि वह तत्काल पाठक का हृदय आकृष्ट कर ले। यह शीर्षक भी तो लघुकथा की मुख्य घटना या व्यापार के अनुसार रखा जाता है, जैसे—वेणी-संहार, सुभद्रा-हरण आदि।
कभी-कभी नामकरण में पात्र और विशेष घटना दोनों का संयोग होता है, जैसे—अभिज्ञान शाकुन्तल, स्वप्नवासवदत्ता आदि। कभी-कभी किसी विशेष जाति या वर्ग की कथा के अनुसार उस जाति और वृत्ति के नाम से रखा जाता है, जैसे—नाई की करतूत, वेनिस का व्यापारी।
प्रायः लघुकथाकार अपनी लघुकथाओं के लक्षण या परिणाम के अनुसार भी शीर्षक का नाम रखते हैं, जैसे—प्रायश्चित, बलिदान, परित्याग, आत्मोसर्ग आदि।
कभी-कभी कुछ वस्तुएँ या स्थान ही रचना के नामकरण हेतु उपयुक्त समझे जाते हैं, जैसे—हीरे का हार, काशी का कुम्हार, साकेत आदि।
इन सब प्रकारों के अतिरिक्त लाक्षणिक शीर्षक अधिक श्रेष्ठ एवं आकर्षक माने जाते हैं, जैसे—उजड़ा स्वर्ग, नरक की आग, हृदय-मन्थन इत्यादि।
कभी-कभी वाक्यांशों में भी अपनी रचना का शीर्षक लघुकथाकार ढूँढ लेते हैं। जैसे—कश्मीर हमारा है, खेलने के दिन आ गए, धरती काँप उठी, जब तारे भी रोए थे इत्यादि।
ऐसे शीर्षक स्नेहाविष्ट, भयानक, अद्भुत तथा रोमांचकारी घटनाओं हेतु अधिक उपयुक्त होते हैं। अतः शीर्षक ही सर्वप्रथम अपनी व्यंजना से पाठक को सहज ही आकर्षित कर लेता है।
शीर्षक की सटीकता को लेकर यों तो दर्जनों लघुकथाएँ उद्धृत की जा सकती हैं, किन्तु यहाँ मेरी दृष्टि में आशा शर्मा की ‘झोंपड़ी का दरवाजा’ अधिक सार्थक एवं सटीक होगी। (पड़ाव और पड़ताल, खण्ड-30)
इस लघुकथा का शीर्षक ‘झोंपड़ी का दरवाजा’ एक प्रतीकात्मक शीर्षक है जो अपनी सार्थकता सिद्ध करते हुए लघुकथा के स्तर को पर्याप्त ऊँचाई प्रदान कर देता है।
इस लघुकथा का कथानक कुछ इस प्रकार है कि पति शराबी है, जो अपनी कमाई के साथ-साथ पत्नी की भी पूरी कमाई उड़ा देता है। वह इस क्रोध में पति को कोसते हुए कहती है, ‘‘मर क्यों नहीं जाता कहीं जाकर !’’ पार्वती से उसकी सारी कमाई छीन ली थी उसके पति ने। मगर वो बीमार पड़ता है तो वह अपनी मालकिन से उसे बचा लेने हेतु प्रार्थना करती है। उत्तर में मालकिन कहती है, ‘‘तुम तो खुद चाहती थीं ना कि ये मर जाए।’’ प्रत्युत्तर में पार्वती कहती है, ‘‘मेम साहब, जैसा भी है, मेरा पति मेरी ‘झोंपड़ी का दरवाजा’ है। बिना दरवाजे के घर को लोग आम रास्ता समझ लेते हैं।
यह अन्तिम पंक्ति इस लघुकथा की आत्मा है और शीर्षक उसकी प्रतिष्ठा, जो प्रतीक रूप में इस लघुकथा का स्तर एवं सौन्दर्य दोनों बढ़ा देता है। शीर्षक के मामले में इस लघुकथा की जोरदार चर्चा होनी चाहिए।
शेष आगामी अंक में…………
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