Tuesday 6 October, 2020

समीक्षा की सान पर लघुकथा-3 / डॉ॰ शील कौशिक,

दिनांक 05-10-2020 से आगे 


समीक्षा की सान पर लघुकथा


तीसरी कड़ी


(ख) विषय ---

    दरअसल लघुकथा के अधिकतर

विषय जीवन की सच्चाइयों से रूबरू कराते हैं। लघुकथा को एक तरह से मानव-जीवन की व्याख्या कहें तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। लघुकथा मानव जीवन के हर उस क्षण, अनुभव, स्थिति-परिस्थिति तथा मानवीय संभावनाओं को अपने में समाहित कर सकती है, फिर चाहे वह धरती पर हो, पाताल में या फिर आकाश में हो। यही लघुकथा की कसौटी और विशेषता है।

 युगानुरूपू विषय बदलते हैं, मान्यताएं व जीवन को परखने की कसौटी बदलती है।  वर्तमान में भूमंडलीकरण व तकनीक के चलते उपभोक्तावादी व भोगवादी प्रवृत्ति के कारण मानवीय मूल्यों का तेजी से क्षरण हुआ है। परस्पर संबंधों में दरार आई है। इंटरनेट और सोशल मीडिया ने अभिभावकों का बहुत सारा वक्त चुरा लिया है जिससे नई पीढ़ी के बच्चे दिग्भ्रमित हो रहे हैं। उनका बचपन गुम है व वह समय से पूर्व व्यस्क हो रहे हैं। पर्यावरण के प्रति हमारी उपेक्षा और अंधाधुंध दोहन का नतीजा हम भुगत रहे हैं। पृथ्वी का तापमान निरंतर बढ़ रहा है, ग्लेशियर पिघल रहे हैं। जल स्रोत तेजी से कम हो रहे हैं और नदियां मर रही हैं। मौसम चक्र बदलने के कारण कहीं सूखा है तो कहीं बाढ़, कहीं भूकंप त्रासदी है। शोषक शोषण के नए-नए तरीके ढूंढ रहा है और शोषित दो वक्त की रोटी जुटाने में अपना संपूर्ण जीवन स्वाहा कर देता है। अन्नदाता किसान दो वक्त की रोटी जुटाने में असमर्थ होता है तो फंदे पर झूल जाता है। राजनीतिज्ञ सत्ता में काबिज रहने के लिए नित नई चालें चलते हैं। महिलाओं की बदलती सोच व दुर्दशा, नई औद्योगिकीकरण पॉलिसी, बढ़ती बेरोजगारी, कर्मचारियों की अकर्मण्यता व रिश्वतखोरी जैसी समस्याएं वर्तमान में सिर उठाए खड़ी हैं। लघुकथा में उपरोक्त विषयों के साथ अपने समय को समेटने की असीम शक्ति है।

विषय के चुनाव संबंधी कतिपय  सावधानियां आवश्यक हैं जो इस प्रकार हैं—

1.विषयवस्तु की विविधता लघुकथा का आवश्यक तत्व है, इसमें नए विषयों का समावेश जरूरी है जो समय और समाज की नब्ज को पकड़ सके। समाज में फैली विषमता, अन्याय, शोषण, असहिष्णुता, सांप्रदायिकता, निरंकुशता, अप्रजातांत्रिकता जैसी मनोवृतियों के साथ- साथ बाल मानसिकता व नारी समस्याओं का मुख्य स्वर, युवा पीढ़ी की मनोवैज्ञानिक समस्याएं तथा शोषित-वंचित और दलितों की आक्रोशित भावनाओं को भी लघुकथा का विषय बनाना चाहिए। एक समय था जब लघुकथा में केवल भोगा हुआ सत्य ही उद्घाटित होता था; उससे लघुकथा का रचनात्मक धरातल सीमित हो गया था।

2. आजकल विषयों का  दोहराव देखने को मिलता है। फेसबुक पर विषय आधारित लघुकथाओं का प्रचलन बढ़ा है, जिससे विषय के दोहराव के साथ-साथ लघुकथा भी प्रभावहीन रह जाती है।

3.  मानवीय जीवन को केंद्र में रखकर संवेदनात्मक लघुकथाएं अमरत्व पा लेती हैं और पीढ़ी-दर-पीढ़ी पढ़ी जाती हैं।

4.  लघुकथा में विषय की व्यापकता को लिया जाना चाहिए। विषय की इक्का-दुक्का अतिशय घटनाओं पर आधारित लघुकथाएं सर्वमान्य नहीं हो सकतीं।

5. विषय की विश्वसनीयता जरूरी है, कोरी कल्पना से काम नहीं चल सकता। साथ ही विषय आरोपित न होकर व्यावहारिक हो ताकि सहज ही पाठक के जीवन का हिस्सा बन सके, तभी लघुकथा संपूर्णता को प्राप्त होगी।

      समग्रत: विषयों में नवीनता, मौलिकता, सूक्ष्मता, परंपरागत जड़ मूल्यों के खंडन के साथ यथार्थगर्भित होना आवश्यक है।

विषय आधारित कुछ उल्लेखनीय लघुकथाओं के उदाहरण इस प्रकार हैं--

 राजनीति से संबंधित-- हरिशंकर परसासाईं (रोटी), युगल (मुर्दे की मौत), भगीरथ (बैसाखियों के पैर), रमेश बत्रा (नागरिक), माधव नागदा (एफ.आई.आर), शंकरपुणताम्बेकर (चुनाव), विष्णु नागर (ईश्वर और चुनाव), श्यामसुंदर अग्रवाल (गुब्बारे)।

पारिवारिक लघुकथाएं --  सतीश दुबे (बर्थ-डे-गिफ्ट), पृथ्वीराज अरोड़ा (कथा नहीं), विष्णु नागर- (झूठी औरत), बलराम (बहू का सवाल), सूर्यकांत नागर (रोशनी), श्यामसुंदर दीप्ति (एक ही सवाल), रूप देवगुण (तो दिशु ऐसे कहता), डॉ. शील कौशिक (सही पात्र), चैतन्य त्रिवेदी (खुलता बंद घर), रामेश्वर कांबोज हिमांशु (कमीज), मुरलीधर वैष्णव (एग्रीमेंट)।

दलित विमर्श व जाति-पांति---विक्रम सोनी (सूअर), रामकुमार घोटड़ (एक युद्ध यह भी), सतीश दुबे (रीढ़), कमलेश भारतीय (परंपरा), कमल चोपड़ा (संस्कार), हरनाम शर्मा (अब नाहिं), प्रताप सिंह सोढ़ी (शक्ति बिखर गई), इंदिरा खुराना (युगों-युगों का मैल) आदि।

सांप्रदायिकता-- विष्णु प्रभाकर (पानी की जाति), असगर वजाहत (गुरु-चेला संवाद), युगल (दीवार), बलराम अग्रवाल (गोभोजन कथा), प्रताप सिंह सोढ़ी (प्रायश्चित), कमल चोपड़ा (चमक) आदि।

सामाजिक--- विष्णु प्रभाकर (ईश्वर का चेहरा), युगल (पेट का कछुआ), असगर वजाहत (चार हाथ)सतीश दुबे (चौखट), भागीरथ (युद्ध), जगदीश कश्यप (ब्लैक हॉर्स), पृथ्वीराज अरोड़ा (विकास), सिमर सदोष (पंजाबी पुत्तर), पूरन मुद्गल (निरंतर इतिहास), चित्रा मुद्गल (बोहनी), सूर्यकांत नागर (भूमिका), विष्णु नागर (औरत), मधुदीप (हिस्से का दूध), विक्रम सोनी (जूते की जात), सुकेश साहनी (अंततः), रामकुमार आत्रेय (बिना शीशे का चश्मा), सुभाष नीरव (बारिश), सतीश राज पुष्करणा (मन के सांप), चैतन्य त्रिवेदी (जूते और कालीन), रत्नकुमार सांभरिया (आटे की पुड़िया), जसवीर चावला (श्रम), रामयतन यादव (ब्लैकमेल), उर्मि कृष्ण (स्त्री की जाति), मधुकांत ( नंगी)अशोक लव (सलाम दिल्ली)कमल कपूर (अगर), कमला चमोला (भय), पंकज शर्मा (चाय-पानी), पारस दासोत (चूड़ियों वाले हाथ), पुरुषोत्तम दुबे (तीसरा उत्तर) आदि।

     अपनी-अपनी मौत (मधुदीप) लघुकथा में व्यक्तिगत हित यानी स्वार्थों का बोल-बाला है, जूते की जात (विक्रम सोनी) में अत्याचार, खाते बोलते हैं (अशोक वर्मा) पूरे राष्ट्र की अर्थ चेतना को झकझोरती है, शेर की खाल (मधुकांत) में नेताओं की स्थिति पर कटाक्ष, एक उसका होना (कमल चोपड़ा)  में सामंती मानसिकता के विरुद्ध नारी की साहसी मुद्रा, बयान (चित्रा मुद्गल) में स्त्री देह शोषण व अत्याचार, कुंडली (बलराम अग्रवाल) में दहेज कुरीति पर वार, पेट सबके हैं (भगीरथ) में मंदी का दुष्परिणाम गरीब को भुगतना पड़ता है आदि विविध विषयक लघुकथाओं के उदाहरण हैं।

(ग) पात्र-योजना----

 1. लघुकथा के पात्र महत्वपूर्ण स्थिति का निर्माण करते हैं। लघुकथा में पात्रों की संख्या को लेकर आज भी मतवैभिन्नय बना हुआ है। परंतु उपन्यास व कहानी की संरचना में अनगिनत पात्रों की भीड़ की अपेक्षा लघुकथा में सीमित पात्र होते हैं। ये एक से चार पात्र तक हो सकते हैं। हरिशंकर परसाईं की लघुकथा 'बात' में आठ पात्र हैं और उन सभी के संवाद हैं।

2.  लघुकथा में पात्रों की सजीवता दूसरा अंग है। लघुकथा में समसामयिक विषय समाहित होने के कारण इनमें सम्मिलित पात्र जाने-पहचाने और विश्वसनीय होते हैं। पूर्व में पौराणिक प्रसंगों, मिथकों को लेकर बोध-कथाएं व उपदेशात्मक कथाएं लिखी जाती थीं वे अमूर्त पात्रों को लेकर मानवीय प्रवृत्तियों पर कटाक्ष किया जाता था परंतु आधुनिक हिंदी लघुकथा अब भिन्न धरातल पर रची जा रही है।

3. जहां तक पात्रों के चरित्र-चित्रण का प्रश्न है तो लघुकथाओं में पात्रों की विशेषताओं यथा भ्रष्टाचारी, अत्याचारी, प्रेमिल, समझौतावादी प्रवृत्ति को विस्तार में न बता कर, कुछ ही वाक्य में निरूपण कर संपूर्णता प्राप्त कर ली जाती है। एक कुशल लघुकथाकार पात्रों को पाठक के समक्ष इस प्रकार लाकर खड़ा कर देता है कि पात्रों का स्वरूप, चरित्र और उसके संवाद उसे पूरी तरह परिभाषित कर देते हैं। पात्रों के अंतर्द्वंद का विस्तारपूर्वक वर्णन वर्जित है।

4.कई बार लघुकथाकार अपने चिंतनक्रम में एक पात्र को लेकर एकाधिक घटनाओं को निरंतरता के सूत्र में पिरो देता है। फिर भी कथ्य की मांग के अनुसार पात्रों को आने दिया जा सकता है।

शेष आगामी अंक में……

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