Friday, 12 March 2021

‘मुफ्त की कीमत’ : सहज ग्राह्य लघुकथाएँ / बलराम अग्रवाल

        ‘उजले दिन मटमैली शामें’ (2016) के बाद आशा शर्मा की लघुकथाओं का यह दूसरा संग्रह है।

बालसाहित्य और कहानी-लेखन में भी वह समान रूप से सक्रिय हैं।

साहित्य एवं कला की समस्त विधाओं की तरह लघुकथा की चिंता के मूल में भी मनुष्य की प्रगति, उत्कर्ष और सुख-दुख हैं। उसकी गति का स्रोत कथा की वस्तु या कार्य-व्यापार के भीतर होने वाले घात-प्रतिघात हैं। यह एक अलग प्रकार का द्वंद्व है। इस द्वंद्व से, अपने ही अन्तर्विरोधों से जूझता मनुष्य ही स्वयं अपने इतिहास का निर्माण करता है। इस आत्मसंघर्ष से ही लघुकथा का भी उद्भव होता है। यह आत्मसंघर्ष ही है जिसके कारण कहा जाता है कि ‘लघुकथा में मौन बोलता है’। ‘आवाजें’ को इस संग्रह में अन्तर्द्वंद्व की अभिव्यक्ति की एक अच्छी लघुकथा कहा जा सकता है। इन लघुकथाओं में लाउडनेस नहीं है, नारेबाजी नहीं है; जो भी कुछ है, सहज है, शांतभाव से है।  

इं॰ आशा शर्मा

कुछ कथ्य प्रकृतिजन्य होते हैं। स्त्री और पुरुष, मन भले ही सबका एक-जैसा होता हो, प्रकृति हर मनुष्य की भिन्न होती है, स्त्री-स्त्री और पुरुष-पुरुष की भी। इस भिन्नता का एक महत्वपूर्ण कारक परिवेश भी होता है तथा जीवन-पद्धति भी। अचेतन से अवचेतन तक और अवचेतन से कलम की नोंक तक आने वाली कथ्य-सघनता व्यक्ति की प्रकृति पर निर्भर करती है। ‘मन के साँप’ कोई पुरुष (सतीशराज पुष्करणा) ही लिख सकता था; जैसेकि ‘दूध’ कोई महिला (चित्रा मुद्गल) ही लिख सकती थी।  जगदीश कश्यप ने ‘युद्ध का गणित’ लिखी; लेकिन ‘रोटी का गणित’ महिला (आशा शर्मा) ही लिख सकती थी। यह लघुकथा भारतीय अंचल में परंपरा और संस्कार, दोनों के उत्कृष्ट निर्वहन का चित्र है।

आशा शर्मा कभी-कभी स्वयं लघुकथा में आ उपस्थित होती हैं, उन्हें इस अभ्यास से बचना चाहिए। कथाकार स्वयं उपस्थित हुए बिना लघुकथा की संप्रेषणीयता को जितना तीव्र  रख सकता है, वह तीव्रता कथाकार के आ उपस्थित होने से बाधित होती है, निष्प्रभ होती है। संकेत स्वरूप सिर्फ एक लघुकथा ‘औरत होने के मायने’ का नाम लेना चाहूँगा, शेष को स्वयं देखें। ‘एक कप चाय’ आधुनिक परिवार-बोध की बेहतरीन रचना है। इस संग्रह की अनेक लघुकथाएँ सिद्ध करती हैं कि आशा शर्मा परिवार-बोध के कथ्यों की विशिष्ट कथाकार हैं। संग्रह की शीर्षक रचना ‘मुफ्त की कीमत’ के कथ्य से मैं सहमत नहीं हो पा रहा हूँ। पहली बात तो यह कि महिला के पास ‘लगातार प्रमोशन पाती नौकरी’ होने आदि स्थितियों को उसके दैहिक चरित्र से जोड़कर देखने में कोई नवीनता नहीं है। यह पुरुषवादी दृष्टिकोण है। ‘दुनिया में कोई भी चीज मुफ्त नहीं मिलती’ सिद्धांत की प्रस्तुति के लिए आशा शर्मा को किसी अन्य कथानक का चुनाव करना चाहिए था। महिलाओं की उन्नति को उनकी देह से जोड़कर देखना हमें छोड़ देना चाहिए। यह मौलिक नहीं, रेडीमेड चिंतन है। स्त्री में देह के अलावा भी प्रतिष्ठा देने वाला बहुत-कुछ होता है। क्या? उसकी खोज करनी चाहिए। जिन स्त्रियों में  वह नहीं है, वे आधुनिक समय में लघुकथा की नायिका क्यों बनें?

अनेक बार मूल कथ्य तो एक ही रहता है, लेकिन उसकी अभिव्यक्ति के टूल्स—कथानक, शिल्प, शैली आदि बदले होते हैं। इस तथ्य का प्रमाण लगभग हर कथाकार की इक्का-दुक्का लघुकथा में मिल जाता है, मैं भी इससे अछूता नहीं हूँ। बहुतायत में देखना हो तो कमल चोपड़ा को पढ़ें। अभिव्यक्ति की सरस भिन्नता का वह नायाब उदाहरण हैं। इस संग्रह में आशा शर्मा की ‘यूजलेस’ और ‘जड़ों से उखड़ा’ के कथ्य समान हैं किन्तु कथाएँ अलग। उनकी  अधिकतर लघुकथाओं के कथ्य सामान्य जन-जीवन से जुड़े हैं—‘ट्री गार्ड’, ‘नवजात हत्या’ आदि। अनेक लघुकथाएँ कोरोनाजनित लॉकडाउन काल पर केन्द्रित हैं। वे अमूमन अभिधापरक शैली अपनाती हैं। इसलिए आम पाठक के लिए भी सहज ग्राह्य हैं। किसी-किसी में लक्षणा का प्रयोग है, लेकिन व्यंजना का प्रयोग कम ही हुआ है। आशा शर्मा निरंतर लेखनरत हैं यह प्रसन्नता की बात है। 

जीवन सकारात्मकता का नाम है और चारों ओर विपरीत परिस्थितियों से घिरा व्यक्ति सकारात्मक ‘सोच’ की बदौलत बहुत-सी परेशानियों पर पार पा सकता है। ‘चमक’ आत्माभिमान और सद्-व्यवहार की बेहतरीन कथा है। गली में कबाड़ बीनने वाला लड़का श्रम के बदले मिले खाने की थैली को चुपचाप ले लेता है। उसे मालूम है कि खाना घर के फर्श से उठाकर दिया गया है, लेकिन मना नहीं करता। बाहर निकलकर उक्त खाने को वह गली के कुत्तों के आगे डालकर खाली थैली को कबाड़ वाले थैले में डाल लेता है। उपयोगी वस्तु को सँभालकर रखने का उसका व्यवहार वस्तुत: कथाकार की दृष्टि-सजगता है। माँ के घर आलस्य की महामूर्ति बनी बेटियाँ विवाह बाद पूरी कर्मठ हो उठती हैं। संस्कारों का स्थानांतरण कम से भारतीय बेटियों में तो कायम है। ‘मुफ्त की कीमत’ की लघुकथाओं पर और भी बहुत-कुछ कहा जा सकता है। फिलहाल इतना ही।

पुस्तक—मुफ्त की कीमत (लघुकथा-संग्रह); कथाकार—आशा शर्मा; प्रकाशक—विकास प्रकाशन, जुबली नागरी भण्डार, स्टेशन रोड, बीकानेर-334001 (राजस्थान) प्रथम संस्करण—2020; कुल पृष्ठ—96; मूल्य—रुपए 200/-(हार्डबाउंड); ISBN:978-93-80017-61-0

1 comment:

Vibha Rashmi said...

बहुत अच्छी समीक्षा । आशा शर्मा जी को उनकेलघुकथा संग्रह " मुफ़्त की कीमत "
पर हार्दिक बधाई व शुभकामनाएँ ।बलराम अग्रवाल भाई का आभार ।