Wednesday, 17 March 2021

आठवां दशक और लघुकथा का रचना औचित्य / शशि कमलेश

लघुकथा से जुड़ी पुरानी पीढ़ी के भी अधिकतर लोग शशि कमलेश जी के नाम और रचना-कर्म से परिचित नहीं है। आठवें दशक के मध्य तक उन्होंने लघुकथा-विधा की जमकर पैरवी की, प्रस्तुत आलेख उसका छोटा-सा एक उदाहरण भर है। भगीरथ भाई अवश्य ही उनके बारे में बहुत-कुछ जानते होंगे। थोड़ा-बहुत मैं भी जानता हूँ, लेकिन वह जानकारी शायद उतनी आधिकारिक न हो। मैं चाहूँगा कि भगीरथ भाई लघुकथा की नयी पीढ़ी को उस विस्मृत व्यक्तित्व का थोड़ा परिचय अवश्य उपलब्ध कराएँ।--बलराम अग्रवाल

ये उपेक्षित लघुकथाएँ 

हर काल खण्ड समाज के विकास क्रम में कुछ न कुछ अलग होता ही है तो फिर साहित्य की विधा उस अलगपने से , उस बदलाव से अछूती कैसे रह सकती है. मिनी नवगीत मिनी कविता लघुकथा मिनी रूपक आदि के आंदोलनों से जिनमे पर्याप्त अर्थवत्ता भी है. लघुकथा का अभियान ज्यादा पुराना और एक हद तक ज्यादा सही भी लगता है.संस्कृत के पंचतंत्र और हितोपदेश, फिर खलील जिब्रान और हिंदी साहित्य में रावी, कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर, हरिशंकर परसाई, हंसराज अरोड़ा, डॉ श्रीनिवासन, कमलेश भारतीय, मोहन राजेश, सुशीलेंदु, रमेश यादव, लक्षमेंद्र चोपड़ा, रमेश बतरा, कृष्णा अग्निहोत्री, भगीरथ कृष्ण कमलेश, बृजभूषणसिंह, मधुप मगधशाही, लक्ष्मीकांत वैष्णव, पुरुषोत्तम चक्रवर्ती, अवधेश अमन, शशि राजेश, विष्णु सक्सेना, आभा जोशी, सुषमा सिंह तक में यह सिलसिला चला आ रहा है. शताधिक लघुकथाएँ इसी दशक में इधर-उधर छपी हैं लेकिन सामायिक लेखन के नाम पर की गई किसी भी टिपण्णी में उनका जिक्र क्यों नहीं है? यह मेरी समझ के बाहर है. शायद लघुकथाओं का कोई सुरक्षित शिविर न हो या क्या पता अधिकांश लघुकथा को अपनी केन्द्रीय विधा मानकर न चल पा रहे हों और इसे महज पास-टाइम मानते हों.

सारिका, कात्यायनी, अमिता, अंतर्यात्रा, रूपाम्बरा, कहानीकार, सप्तांशु, शताब्दी, सौर चक्र, जनसंसार, भास्कर,मिलाप, स्वदेश,अतिरिक्त आदि पत्र पत्रिकाएं जहाँ लघुकथाएँ निरंतर छपती रहती है, वहां मरुगंधा, कहानी, नई कहानियां, निहारिका आदि लघुकथाएँ छापने से परहेज करती है. व्यावसायिकता के कारण आम तौर पर सोलह या सत्रह फुलस्केप साइज़ के पृष्ठों की कहानी ही छपती है. लम्बी कहानी नारा भी शायद इसीलिए शुरू हुआ. फिर लम्बी कहानी को लेकर सारिका ने काफी हाय-तौबा भी मचाया, क्या लघुकथा के खिलाफ साजिश नहीं है? लोग चुटकले छाप सकते हैं, रंग-व्यंग्य छाप सकते हैं लेकिन लघुकथाओं के साथ अधिकांश पत्र-पत्रिकाओं का यह सौतेला व्यवहार गंभीर चिंता और खेद की वस्तु है.

गलत आरोपों की शिकार लघुकथाएँ

लघुकथा एक सुगठित विधा है. सामान्यत: यह पैनी, सीधी और कंडेंस्ड होती है. कुछ इतनी कि किसी एक क्षण को जीती लगे, घेरती लगे. शायद यह किसी फॉर्म की तलाश है. कितनी ही चीजों से लघुकथा को अलग होना पड़ा है. गुलिस्तां-बोस्तां की उद्देश्यपरकता, नीतिकथाओं का केन्द्रीयपन, गद्यगीत की भावुकता आदि-आदि. इसीलिए संत्रास [श्रीहर्ष], मांस [हंसराज अरोड़ा], अलगाव [रूपकिशोर मिश्र], प्रतीक्षा [रमेश यादव], चेहरा दर चेहरा [कृष्ण कमलेश] में गजब की बेववता है. और ये लघुकथाएँ अपने में सधी हुई हैं. प्रतीक्षा में अस्वीकृत और बाद में अवसरवादी बन जाने वाले लेखकों से अधिक लेखकीय और प्रकाशकीय व्यवस्था पर तीव्र व्यंग्य है.

कहने वाले कुछ भी कह सकते हैं. यह भी कि अधिकांश लघुकथाएँ जो आज छपती है, बड़ी कथाओं का छोटा रूप हैं या ये छोटी कथाओं में तबदील हो सकती हैं. दोनों ही बातें यह प्रमाण देती हैं कि विधा की उस हैसियत तक ये कथाएँ नहीं पहुंची हैं. जब तक ट्रांसफर संभव न हो, लघुकथा हार जाती है.                              

ऐसे लोग जो बाल की खाल निकालने के आदी हैं उन्हें एंटीकरप्शन [मोहन राजेश], वह [शशि कमलेश], शक [राजकुमार कपूर], गिनती[श्याम नारायण बैजल ],सिर दर्द का इलाज [विनोद प्रिय] आदि लघुकथाएँ पढ़नी चाहिए. जहाँ तक मैं जानती हूँ, कोई भी लघुकथा ऐसी नहीं है जो बड़ी कथा में तबदील नहीं की जा सके और कोई भी कहानी ऐसी नहीं जिसका लघुकथा में रूपायन संभव न हो. आरोप लगाने वाले कुछ भी आरोप लगा सकते हैं लेकिन कथाओं का रिवाज उनके इल्जामों से सवालिया कटघरे में नहीं आयगा.

गोष्ठियों के निष्कर्ष

मथुरा, भोपाल, पिंजोर, नसीराबाद, हैदराबाद, ग्वालियर, ब्यावर, आदि विभिन्न शहरों में लघुकथा के रचना औचित्य को लेकर विचार गोष्ठियां आयोजित की गई. गोष्ठियों में प्रायः सभी इस बात पर सहमत प्रतीत हुए कि लघुकथाएँ आधुनिक युगबोध को लेकर बड़ी ईमानदारी से चल रही है. संत्रास [श्रीहर्ष], जहाँ एक क्षेत्र, एक दायरे विशेष की मानसिकता उभारती है  वहां भीड़ [लक्षमेंद्र चोपड़ा] किसी दायरे में यकीन  नहीं रखते. युगधर्म [लक्ष्मीकांत वैष्णव] बाहरी और भीतरी दोनों स्तर पर चलती है, स्थितियों और आक्रोश की उनमे बड़ी गहरी पकड़ है. संतोष, कृपा, दया [विष्णु सक्सेना] एक सूक्ति कथा या बोध कथा जैसी प्रतीत होती है लेकिन उसका रूपक विधान रेखांकन योग्य है. लघुकथा के लिए रूपक [एलीगेरी] आउट ऑफ़ डेट हो गया है या नहीं, यह कह सकना खतरे से खाली नहीं है. क्योंकि समकालीन हिंदी कहानी के नाम पर भी रूपकों, प्रतीकों, बिम्बों के सहारे रचना तंत्र बुना गया  है.

अन्य लघुकथाओं में : एक युवक सिफारिश, रिश्वतखोरी और अन्य स्थानीय मुद्दों से समझौता न करने के कारण ओवर एज हो जाता है [ओवर एज-आभा जोशी]. एक व्यक्ति जो फ़ौज में भारती होने जाता है उसे छाती के बदले पेट का माप पहले दिखाई देता है [पेट का माप-सुशीलेंदु]. एक व्यक्ति जो भीड़भाड़ की समस्या से त्रस्त है महानगर बोध उसे आहत किए हुए है सडक पार करना चाहता है और सडक पार नहीं कर पाता [वह-शशि कमलेश]. आदमी आज जानवरों से भी गया बीता है और उसकी लड़ाई गधों की लड़ाई से भी गई गुजारी है [गंदर्भ युद्ध- प्रताप अपराजित], ज्योतिष और हस्तरेखा का ढोंग करने वालों की कलई खुलती जा रही है [पामिस्ट-मोहन राजेश], लबादा ओढ़े हुए ईमानदारी भीतर से कितनी नंगी है [व्यक्तित्व-मधुप मगधशाही]. सामाजिकता के नाम पर बाराती कितना शोषण करते हैं [बाराती-श्रीकांत चौधरी], आदमी किसी की सहानुभूति का पात्र बनना नहीं चाहता [कछुए–भगीरथ] आदि ऐसी दर्जनों लघुकथाएँ हैं जो समाज के ऊपरी और भीतरी तौर पर चलने वाले कयास को ध्वनित करती है.[कांच का घेरा-अवधेश कुमार अमन] इकाई के टूटने की ऐसी ही छन्न सी आवाज है.

प्रश्न-प्रतिप्रश्न

बहरहाल, लघुकथाएँ लिखी जा रही है और लिखी जाती रहेंगी. सिलसिला सदियों पुराना है लेकिन सिलसिले को देखने वाली आँख [आँखे] कुछ और साजिशों में लगी है. कुछ सवाल अनायास उभरते हैं क्या नई लिखी जानेवाली हर कथा बासी नहीं लगती है ? शायद फार्मूला बाजी के कारण जो अब लघुकथाओं में भी आ गई है. यदि कोई रचनाकार लघुकथा के लिए ही विशुद्ध रूप से समर्पित रहे तो बात कुछ बन सकती है जैसे रावी लेकिन जो लोग हर विधा में अपनी टांगअड़ाए रखना चाहते हैं जैसे प्रभाकर माचवे वे लोग सामायिक लेखन का न तो सही प्रतिनिधित्व करते हैं और न कर सकते हैं. समय तो उस फ़िल्टर पेपर की तरह है जिसमें काम की चीज छन कर रह जाती है.

साभार : अतिरिक्त-अंक-7 दिसम्बर 1972, सौजन्य : भगीरथ 

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