Thursday, 21 July 2022

मनोरमा पंत की लघुकथाएँ

दिनांक 20-7-2022 को फेसबुक समूह 'लघुकथा के परिंदे' की ओर से दूसरी साप्ताहिक 'लघुकथा गूगल संगोष्ठी' में बतौर अध्यक्ष भागीदारी का अवसर मिला। इसमें श्रीमती मनोरमा पंत जी ने अपनी 5 लघुकथाओं का पाठ किया जिनकी  समीक्षा प्रस्तुत की विदुषी श्रीमती सुनीता मिश्रा जी ने। संगोष्ठी का संचालन मुजफ्फर इकबाल सिद्दिकी ने किया।  प्रस्तुत हैं, सुनाई गई लघुकथाएँ।

।।एक।। सिद्घार्थ तुम बुद्ध  नहीं 

अचानक, पाँच वर्ष के पश्चात् सिद्धार्थ हँसता हुआ रोहिणी के सामने आ खड़ा हुआ। चौंककर वह कुछ क्षण  हैरान होकर जड़ हो गई, परन्तु शीघ्र ही उसने अपने आप को संयत करके उसकी ओर प्रश्नवाचक दृष्टिपात किया। अब चौंकने की बारी सिद्धार्थ  की थी । कहाँ तो वह सोच रहा था कि उसे देखते ही रोहिणी उससे लिपट जाएगी और आँसू गिराती हुई उसके अचानक गायब हो जाने की शिकायत करेगी। पर वह तो सदानीरा खुशहाल नदी से शुष्क नदी में बदल चुकी थी, जिसमें अब कंकड़, पत्थर, रेत के ढेर बचे थे! रोहिणी प्रस्तरवत् भावहीन सख्त मुद्रा में अभी भी खड़ी थी। कैफियत देने की कोशिश में सिद्धार्थ  ने बोलना शुरू किया, "तुम मेरे प्यार में इतनी पागल थीं कि मुझे किसी भी हालत में विदेश नहीं जाने देतीं इसलिए...।" 

उसके वाक्य को अधूरा छोड़कर रोहिणी ने कहा, "हाँ! ठीक कहा तुमने, वह प्यार नहीं पागलपन था, यह इन पाँच वर्षो में समझ आ गया और तुम भी मुझे कितना प्यार करते थे, यह भी समझ में आ गया। सिद्धार्थ ! तुम वापिस  चले जाओ, तुम बुद्ध नहीं हो।"

।।2।। सतपुड़ा  पर्वत का दर्द 

"अरे देखो! सतपुड़ा दादा को क्या हो गया? सिर थामे बैठे  हैं?

"पगडंडी बेटी! मैं  अपने सुरम्य सागौन के वनों को ढूंढने निकला था, वे मिले नहीं; ऊपर से चिलचिलाती धूप में, मैं घबरा गया। तुम्हें याद है, मेरे घने  जंगलों के कारण मुगल कभी  देवगढ़ का किला नहीं जीत पाऐ थे और अब कहाँ गये मेरे वन?"

"दादा! वनों के साथ-साथ पशु-पक्षी भी गायब हो गये!"

दीर्घ साँस भरते हुऐ सतपुड़ा बोला, "वनों की बात छोड़ो, अब तो मेरा अस्तित्व  ही दाँव पर लग गया है, दूसरों को आश्रय देने वाला स्वयं मैं, अपना आश्रय ढूँढ  रहा हूँ ।"

।।तीन।। कलेक्टर की माँ

 कलेक्टर बेटा आफिस से लौटा तो देखा--माँ जमीन पर पालथी मारे,  इतमीनान से प्लेट में चाय डालकर सुड़क-सुड़क की आवाज के साथ पी रही हैं! आसपास नौकरों का मजमा जमा था और सबके हाथ में चाय की प्याली!! माँ का चेहरा खुशी से दमक रहा था। गुस्से से कलेक्टर बेटे का चेहरा लाल हो गया। उसे देखते ही सारे नौकर नौ दो ग्यारह हो गये। बेटे ने माँ से पूछा--

"जमीन पर क्यों बैठी हो ?"

जवाब मिला, "नहीं, आसन पर बैठे हैं ।"

बेटे ने फिर प्रश्न उछाला--"... और ये प्लेट में चाय क्यों डालकर पीती हो ?"

माँ बोली, "जिंदगी गुजर गई बस्सी (चीनी की प्लेट) में ही चाय डालकर पीते; कोप ( कप) में बहुत गरम रहती है ।"

"और यह सुड़क-सुड़क की आवाज ?"

माँ खुशी से किलकती हुई बोली, "तू भी एक दिन बस्सी में चाय डालकर पी, सुड़क-सुड़क की आवाज से ही चाय पीने की तृप्ति होती है । बचपन में तू  ऐसे ही चाय पीता था । भूल गया ?"

बड़ी मनुहार के बाद माँ को लेकर आये कलेक्टर बेटे ने कुछ सोचा और आवाज लगाई, "रामदीन ! चाय लाओ। कप के साथ प्लेट भी लाना।" 

और माँ के पास नीचे बैठ, प्लेट में चाय डालकर सुड़क-सुड़क की आवाज करता पीने लगा।

।।चार।। भारत का दर्द 

इंडिया और मैं यानी भारत बाजार में टकरा गये।

सूट-बूट धारी इंडिया को देख दीन-हीन मैं कन्नी काटकर जाने लगा, तो इंडिया ने रोककर पूछा, "भैय्ये! यहाँ कैसे ?"

दीनता से मैंने कहा, "फोन लेने आया हूँ। चलो, आपने रोक ही लिया है तो तनिक मदद ही कर दो। एक पुराना स्मार्ट फोन दिला दो। चाहता हूँ कि मेरे बच्चे भी ऑनलाइन पढ़-लिख लें।"

मेरा मजाक उड़ाते हुऐ इंडिया बोला, "भैय्ये! फोन तो खरीदवा दूँगा; पर तुम्हारे सैकड़ों गाँवों में इंटरनेट की समस्या बनी रहती है, तो फोन को क्या चाटोगे!"

मैं, भारत, मन मसोसकर रह गया। कितनी भी योजनाएँ बनें, कितनी भी कोशिशें  कर लें, मैं कभी भी इंडिया की बराबरी नहीं कर सकता। कोरोना ने मुझको फिर पीछे धकेल दिया। मेरे कुछ युवा बेहतर जिदगी की आस में शहरों में बस गये थे; पर उन्हें प्रवासी मानकर वापिस गाँव लौटने पर मजबूर कर दिया। इंडिया को लौटने के लिये हवाई जहाजों तक का इंतजाम किया गया, और मुझे मासूम बच्चों के साथ भूखे पेट, नंगे पैर चिलचिलाती धूप में सैकड़ों किलोमीटर की दुखदायी यात्रा करने को धकेल दिया। क्या मेरे बच्चों का भी मेरे समान अंधकारमय भविष्य रहेगा ?

।।पाँच।। प्रत्याशी 

नामांकन का दिन पास आता जा रहा था, पर अभी तक कुकर बस्ती में यही तय नहीं था कि चुनाव कौन लड़ेगा। बहुत-से युवा कूकर चुनाव लड़ना चाहते थे, पर एक नाम तय नहीं हो पा रहा था।तभी, बस्ती के वयोवृद्ध कूकर, श्रीमणि की नजर नेता जी के अलसेशियन कूकर पर पड़ी--एकदम तदुरूस्त, चमकीले बालों वाला, मस्तानी चाल से अपने नौकर के साथ टहलते दिखा । बस, उसके दिमाग में कुछ कौंधा और उसने चिल्लाकर कुत्तो को पुकारा--"इधर आओ भाई सब; प्रत्याशी मिल गया!"

सबने बड़ी उत्सुकता से पूछा, "कौन ?"

श्रीमणि ने नेता जी के कुत्ते की ओर इशारा किया।

सबने हैरान-परेशान होकर कहा, "अरे, ये बँगले के अंदर रहने वाला हमारा नेता कैसे बन सकता है ?"

श्रीमणि ने कहा, "रोटी के एक टुकड़े के लिये दिनभर भटकते तुम लोगों की क्या औकात है, जो तुम लोग चुनाव लड़ोगे। बस, फैसला हो गया। रही बंद बँगले से चुनाव लड़ने की बात; सो, यह लोकतान्त्रिक देश है। यहाँ मनुष्य जाति के महाबली जेलों में रहते हुुए भी चुनाव लड़ते हैं और जीत भी जाते हैं। जीतने के लिये धन और बल दोनों चाहिये। समझे ?

श्रीमती मनोरमा पंत

शिक्षिका (सेवानिवृत्त), केन्द्रीय विद्यालय  

शिक्षा  : एम.ए. संस्कृत, बी.एड. 

लेखन की विधाएँ : लघुकथा, कविता, व्यंग्य।

साझा संकलन : 8 

संपादन : 'उन्मेष' लघुकथा संकलन की सहसंपादक (आरिणी फाउंडेशन, भोपाल)

प्रकाशन : जागरण, अक्षरा, कर्मवीर आदि पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन 

सम्मान : अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच सम्मान, हिन्दी सेवी सम्मान, (लेखिका संघ भोपाल)

अमृता प्रीतम, महादेवी वर्मा सम्मान (अंतराष्ट्रीय महिला मंच द्वारा)

अनेक साहित्यिक कार्यक्रमों की अध्यक्षता।

संपर्क  : 92291 13195

14 comments:

Anonymous said...

एक से एक बेहतरीन लघुकथाएं, बधाई मैम🙏🙏👏👏

Anonymous said...

'प्रत्याशी' बेहतरीन लघुकथाओ में से एक है।

Amrita said...

बहुत ही उम्दा लघुकथाएँ 🙏

Anonymous said...

निस्संदेह बेहतरीन लघुकथाएं हैं।
बधाई आदरणीया मनोरमा जी!💐💐

Anonymous said...

बेहतरीन रचनाएं दीदी।

Articles and stories said...

बेहद ह्रदय स्पर्शी एवं अंर्तमन को भिगो गई, आपकी सुन्दर लघुकथाएं , दीदी जी🙏🙏💐😊

सुधाकर मिश्रा said...

सभी लघुकथाएं एक से बढ़कर एक। हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं।

Articles and stories said...

बेहद हृदयस्पर्शी एवं अंतर्मन को भिगो गई आपकी खूबसूरत लघुकथाएं दीदी जी🙏🏻🙏🏻💐😊

घनश्याम मैथिल अमृत said...

बहुत बढ़िया लघुकथाएं बधाई मनोरमा जी

Anonymous said...

अहा! सभी लघुकथाएं एक से बढ़कर एक!
सहेजने एवं बारम्बार मनन योग्य 🙏🌹

Anonymous said...

बहुत सुंदर लघुकथाएं।

Anonymous said...

आदरणीय जी सभी लघुकथा बहुत शानदार है। बहुत बहुत बधाई।

डॉ ऋचा शर्मा said...

बहुत अच्छी लघुकथाएं मनोरमा जी ।

Anonymous said...

आभार