गतांक से जारी...
लेखक : महेंद्र कुमार |
यही वो कारण है जिसकी वजह से मनुष्य अपने जैसे लोगों के साथ रहना पसंद करता है। उसे लगता है कि वो सामाजिक यी मगर वह सच्चे अर्थों में (जिसमें सभी समुदायों के लोग शामिल हो) सामाजिक नहीं होता। वह एक कृत्रिम समाज (जिसे हमें समूह या वर्ग कहना चाहिए) में रहता है, ऐसा समाज जिसमें उसके ही परिवार, उसकी ही जाति, उसके ही धर्म, उसके ही • जिसमें विपरीत पहचान वाले लोगों का कोई स्थान नहीं होता। लेखक को अपने वर्ग विशेष से ऊपर उठते हुए पूरे समाज का प्रतिनिधित्व करना चाहिए। जब वह किसी दूसरे की रचना की आलोचना करे तो उसे यह याद रखना चाहिए कि आलोचना के केंद्रबिंदु में रचना को रखना है न कि रचनाकार को।
इसी तरह एक लेखक को ख़ुद से यह सवाल भी पूछना चाहिए कि कहीं वह अपने विश्वासों की पुष्टि के लिए अपनी रचनाओं में किसी को बलि का बकरा (स्केपगोट) तो नहीं बना रहा। दोषी को बचाने के लिए किसी निर्दोष को फँसाना बलि का बकरा बनाना कहलाता है। मानव इतिहास में इसकी एक लंबी परंपरा रही है। जर्मनी में नाजी पार्टी के शासन के दौरान जब यहूदियों को जर्मनी की सभी समस्याओं के लिए दोषी ठहराया गया तो वह बलि का बकरा बनाना ही था। ईसाइयों के लिए यहूदी, हिंदुओं के लिए मुस्लिम, मुस्लिमों के लिए ईसाई, गोरों के लिए काले, सवर्णों के लिए दुलित, अमीरों के लिए गरीब और वर्तमान राजनेताओं के लिए पूर्व राजनेता आमतौर पर बलि के बकरे बनने का काम करते हैं। इसका क्रम हमेशा इसी प्रकार हो यह जरूरी नहीं है। जब यह क्रम उलटता है तो दलितों के लिए सवर्ण, मुस्लिमों के लिए हिंदू, कालों के लिए गोरे और गरीबों के लिए अमीर बलि के बकरे का रूप ले लेते हैं। सरकारें कई बार अपनी जवाबदेही से बचने के लिए युद्धोन्माद का सहारा लेती है क्योंकि उन्हें अच्छे से पता होता है कि संकट के समय जनता ठीक उसी तरह उसके साथ खड़ी होगी जिस तरह किसी परिवार के सदस्य बाहरी संकट के समय एक-दूसरे के साथ खड़े होते हैं। इस संदर्भ में एक मुल्क दूसरे मुल्क के लिए बलि का बकरा होता है। यही कारण है कि आप टी.वी पर दूसरे मुल्क की आंतरिक समस्याओं और उसके साथ होने वाले युद्ध की संभावनाओं पर लंबी-लंबी बहसे देख रहे होते हैं ताकि आपका ध्यान देश की आंतरिक समस्याओं से भटकाया जा सके जिसके लिए किसी भी देश की सरकार सीधे तौर पर ज़िम्मेदार होती है। बार-बार नागरिकों को कर्तव्यों की याद दिलाना (मगर उनके अधिकारों की नहीं) या किसी संकट के लिए उनकी लापरवाही को दोष देना (मगर सरकार की अक्षमता को नहीं) भी जनता को बलि का बकरा बनाना ही है। ज़ाहिर सी बात है कि इस खेल में मीडिया सरकारों के साथ होता है। यही कारण है कि वो सरकार से सवाल न पूछकर विपक्ष से सवाल पूछता है। ऐसी मीडिया के लिए विपक्ष बलि का बकरा होता है। किसी मुल्क के लिए बलि का बकरा बनने का यह काम कभी-कभी एक आदमी भी कर सकता है। हर व्यक्ति के अंदर उसके खिलाफ़ भी एक विपक्ष ज़रूर होना चाहिए, अगर आप खुद को एक लेखक कहलवाना चाहते हैं तो उसे ज़िन्दा रखिए। इसके साथ, लेखक को भाषाई प्रयोगों पर भी पर्याप्त ध्यान देना चाहिए क्योंकि एक ओर ये जहाँ हमारे विचारों को स्पष्ट रूप में प्रकट करते हैं तो वहीं दूसरी तरफ़ उसे छुपाते भी हैं। 'सेविका' एक ऐसा ही शब्द है। दूसरे विश्व युद्ध के समय पराजित मुल्कों की महिलाओं को सैनिकों हेतु वेश्यावृत्ति के लिए मजबूर किया जाता था। जापान ने इनके लिए 'वेश्या' शब्द का प्रयोग न करके 'सेविका' का प्रयोग किया था। इसी तरह 'अंतिम समाधान' जहाँ सभी यूरोपीय यहूदियों को मारने की योजना थी तो 'मुस्कराते बुद्ध' भारत के प्रथम परमाणु विस्फोट कार्यक्रम का कूटनाम। इस संदर्भ में जॉर्जओरवेल के उपन्यास 1984 के मंत्रालयों की सूची देखना समीचीन होगा। इन मंत्रालयों में शान्तिमंत्रालय युद्ध संचालन का काम करता है, सत्य मंत्रालय असत्य और मिथ्या बातें फैलाने का प्रेम मंत्रालयकष्ट देने का और समृद्धि मंत्रालय लोगों को भूखा मारने का क्या हो यदि भविष्य में विश्व के विभिन्न मंत्रालय भी इसी तरह से काम करने लग जाएँ? गृह मंत्रालय गृहयुद्ध भड़काने का काम करे, स्वास्थ्य मंत्रालय स्वास्थ्य बिगाड़ने का शिक्षा मंत्रालय शिक्षा रोकने का और वित्त मंत्रालय देश की वित्त व्यवस्था ख़राब करने का। इसी तरह विकास विनाश का द्योतक हो जाए? दूसरे शब्दों में, लेखक को सिर्फ़ शब्द देखकर ही उसका अर्थ नहीं लगा लेना चाहिए बल्कि उसके वास्तविक प्रयोग को भी देखना चाहिए।
ये वो कुछ तरीक़े थे जिनसे कोई भी लेखक अपने चिंतन को स्पष्ट बना सकता है। चिंतन स्पष्ट बनाने के क्रम में उसे कोई भी तथ्य अथवा विश्वास बिना जाँच-पड़ताल के नहीं स्वीकार करना चाहिए। इन तथ्यों और विश्वासों की जाँच हेतु वह प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द आदि प्रमाणों की मदद ले सकता है। इस संदर्भ में उसे विभिन्न प्रकार के तर्कदोषों और मनोवैज्ञानिक अवरोधों की भी जानकारी प्राप्त करनी चाहिए।
आगे जारी है...
'लघुकथा कलश' (जुलाई-दिसंबर 2021; अप्रकाशित लघुकथा विशेषांक-1) पृष्ठ 131 से साभार
संपादक : योगराज प्रभाकर
1 comment:
इस लेखन को पढ़कर समाज में क्या सही क्या गलत हो रहा हैं,समझने का सही तरीका मिला।
Thank you sir
Post a Comment