गतांक से जारी...
मैं सोचता हूँ, अतः मैं हूँ।
हम सभी के अलग-अलग विचार, मत और विश्वास होते हैं जिन्हें हम दावों के रूप में प्रकट करते हैं। ये दावे हम लिखकर भी प्रकट करते हैं और बोलकर भी। पर हम दावे करते ही क्यों हैं? क्योंकि हम दूसरों को प्रभावित करना चाहते हैं। हम दावों के माध्यम से दूसरों को यह बताना चाहते हैं कि मेरा ऐसा मानना है, आप भी ऐसा ही मानिए। साहित्य और कुछ नहीं बस ऐसे ही दावों का समुच्चय है जहाँ अलग-अलग लेखक रचनाओं के माध्यम से अपने विश्वासों को प्रकट करते हैं। दावे तथ्य संबंधी भी हो सकते हैं और मूल्य संबंधी भी, दावे विशेष भी हो सकते हैं और सामान्य भी। इन दावों से संबंधित कुछ विश्वास अधिक महत्त्वपूर्ण होते हैं तो कुछ कम महत्त्वपूर्ण। जो विश्वास अधिक महत्त्वपूर्ण होते हैं वही हमारी विश्व दृष्टि का निर्माण करते हैं। दर्शन में हम इन्हीं सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विश्वासों का अध्ययन करते हैं। अब समस्या यह है कि हम में से कितने हैं जो अपने विश्वासों की परीक्षा करते हैं? कितने हैं जो पहले अपने दावों की जाँच-परख करते हैं और फिर उन्हें अपनी रचनाओं में प्रस्तुत करते हैं? यहाँ पर कोई यह पूछ सकता है कि आखिर अपनी रचनाओं में प्रस्तुत किए जाने वाले विश्वासों को जाँचने की आवश्यकता ही क्या है? अगर मुझे लगता है की कोई चीज़ ऐसी है तो मैंने उसे वैसे ही प्रस्तुत कर दिया, इसमें क्या बुराई है? बुराई यह है कि यदि आपका दावा ग़लत हुआ तो आपकी वह रचना भी ग़लत हो जाएगी और अगर आपकी रचनाओं में प्रस्तुत किए जाने वाले सभी विश्वास तो आपका पूरा रचना कर्म बाक़ी अपने ग़लत विश्वासों के कारण आप समाज को जो ग़लत संदेश और दिशा दे रहे होंगे वो अलग। इसलिए यह समझने की बहुत सख्त आवश्यकता है कि जो बात आप अपने पाठक से कहने जा रहे हैं पहले उसे स्वयं ठीक से समझ लें।किसी भी विश्वास अथवा दावे की सत्यता-असत्यता का पता हम साक्ष्यों से लगाते हैं। साक्ष्य अथवा प्रमाणके कई प्रकार हैं। जिनमें से तीन, प्रत्यक्ष अनुमान और शब्द प्रमुख हैं। प्रत्यक्ष प्रमाण में हम अपनी ज्ञानेन्द्रियों (आँख, नाक, कान, जिह्वा और त्वचा) के माध्यम से किसी चीज़ का ज्ञान प्राप्त करते हैं। विभिन्न वैज्ञानिक उपकरणों ने इन ज्ञानेन्द्रियों की क्षमताओं को बढ़ा दिया है जिसके कारण अब हम उनका भी ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं जिन्हें जानना पहले असंभव हुआ करता था जैसे किसी दूर स्थित व्यक्ति की आवाज़ सुनना या देखना अथवा उससे बातचीत करना। ऐसी बहुत से चीजें हैं जिनका ज्ञान इंद्रियों के माध्यम से संभव नहीं है। इन्हें जानने के लिए हमें एक-दूसरे प्रमाण की आवश्यकता पड़ती है जिसे अनुमान कहते हैं। पाश्चात्य दर्शन में अनुमान का अध्ययन तर्कशास्त्र के अंतर्गत किया जाता है। अज्ञानता के इस दौर में जहाँ अज्ञानी को ही ज्ञानी मानने की प्रथा है, तर्कशास्त्र को न जानना एक अपराध है। अगर यह कहा जाए कि हमें अपराधी (अज्ञानी) बनाने के लिए एक पूरा नेटवर्क काम करता है तो ग़लत नहीं होगा। और अगर इसमें यह भी जोड़ दिया जाए कि इस नेटवर्क में हम स्वयं भी शामिल हैं तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। यह एक प्रकार का चक्रव्यूह है जहाँ अभिमन्यु की तरह न जाने कितने ही लोग फँसकर दम तोड़ देते हैं और उन्हें पता भी नहीं चलता। अगर हमें इसमें नहीं फँसना है और इसे तोड़कर बाहर निकलना है तो हमें अर्जुन की तरह अपनी आँख सिर्फ़ मछली की आँख पर ही नहीं बल्कि पूरी मछली पर केंद्रित करनी होगी, अपने आप पर नज़र रखने के साथ। तर्कशास्त्र इसी मछली का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है जिसके द्वारा हम अपने सत्य विश्वासों को असत्य विश्वासों से पृथक करते हैं।
तर्कशास्त्र में अनुमान (अर्थात् ज्ञात सत्यों के आधार पर अज्ञात का निष्कर्ष निकालना) के दो प्रकार माने गए हैं, निगमन और आगमन। इन दोनों में अंतर यह है कि पहले के निष्कर्ष जहाँ निश्चित होते हैं वहीं दूसरे के सम्भाव्य उदाहरण के लिए, ग़ज़ल अशआर से मिलकर बनी हुई रचना है।
आवारगी एक गजल है।
इसलिए आवारगी अशआर से मिलकर बनी हुई रचना है।
यह निगमनात्मक अनुमान का उदाहरण है जिसमें पहले दो तर्कवाक्य आधारवाक्य है और तीसरा यानी अंतिमतर्कवाक्य निष्कर्ष (यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि तर्कशास्त्र में हम 'तर्कवाक्य' अथवा 'प्रतिज्ञप्ति' का प्रयोग करते हैं वाक्यों का नहीं। 'वाक्य' का संबंध व्याकरण से होता है और तर्कवाक्य' का वाक्य के अर्थ से कोई वाक्य व्याकरण की दृष्टि से अर्थपूर्ण होते हुए भी निरर्थक हो सकता है जैसे, 'त्रिभुज एक वृत्त है।' यहाँ यह भी ध्यान रखने योग्य है कि भिन्न-भिन्न भाषाओं के अलग-अलग वाक्य एक ही प्रतिज्ञप्ति को प्रकट कर सकते हैं। उदाहरण के लिए मजरूह सुल्तानपुरी का लिखा यह गीत "अंग्रेजी में कहते हैं के आई लवयू, गुजरातीमाँ बोले तने प्रेम करूँ हूँ, बंगाली में कहते हैं आमीतुमारो भालो बाशी और पंजाबी में कहते है तेरी तो.।" इस गीत में एक ही विचार (मैं तुमसे प्रेम करता हूँ) को चार अलग-अलग भाषाओं में प्रकट किया गया है। यहाँ वाक्य तो चार हैं मगर तर्कवाक्य अथवा प्रतिज्ञप्ति एक। जिस तरह एक ही गीत में किसी विचार को चार अलग-अलग भाषाओं में अभिव्यक्त किया जा सकता है उसी तरह से चार अलग-अलग गीतों (चाहे उनकी भाषा अलग अलग हो अथवा एक) में किसी एक विचार को भी ठीक यही बात लघुकथाओं के ऊपर भी लागू होती है।) आधारवाक्य और निष्कर्ष से मिलकर बनी इस संरचना को 'युक्ति' कहा जाता है। किसी भी युक्ति का निष्कर्ष ही हमारा वह दावा होता है जिसे हम प्रमाणित करना चाहते हैं और आधारवाक्य वो तर्क जिसे हम अपने दावे के समर्थन में देते हैं। यदि निष्कर्ष अपने आधारवाक्यों से तर्कतः फलित होता है (यानी वह तार्किक नियमों का पालन करता है) तो उसे हम वैध कहते है अन्यथा अवैध किसी वैध या अवैध युक्ति के आधारवाक्य सत्य और असत्य दोनों हो सकते हैं। यदि कोई युक्ति वैध हो और उसके आधारवाक्य तथा निष्कर्ष सत्य हो तो वह युक्ति सम्पुष्ट युक्ति' कहलाती है। तर्कशास्त्र में हमारा उद्देश्य इसी सम्पुष्ट युक्ति को प्राप्त करना होता है। ऊपर हमनें जिस युक्ति को उदाहरणस्वरूप लिया है वह एक वैध युक्ति है जिसके सभी तर्कवाक्य (आधारवाक्य और निष्कर्ष) सत्य है, अतः वह एक सम्पुष्ट युक्ति हैं। यदि कोई लेखक अपने कथ्य के समर्थन में सम्पुष्ट युक्ति दे दे तो उसकी रचना तर्क के संदर्भ में अकाट्य हो जाएगी। अब हम आगमन पर आते हैं।
श्रीमान अ की सभी लघुकथाएँ शानदार होती हैं।
कखग श्रीमान अ की एक लघुकथा है।
इसलिए कखग भी एक शानदार लघुकथा होगी।
यह आगमन का उदाहरण है। आगमन के निष्कर्ष निगमन की तरह निश्चित न होकर सम्भाव्य होते हैं। अतः इनके लिए वैधता-अवैधता का प्रयोग नहीं किया जाता। अगर किसी लेखक ने पूर्व में सिर्फ अच्छी लघुकथाएँ ही लिखी हैं तो इसका यह मतलब नहीं है कि भविष्य में आने वाली उसकी बाक़ी लघुकथाएँ भी अच्छी ही होंगी। पूर्व में किया गया अच्छा कार्य भविष्य में होने वाले कार्य के अच्छे होने की संभावना को तो व्यक्त कर सकता है मगर उसकी निश्चितता को नहीं संभावना की मात्रा कम भी हो सकती है और अधिक भी संभावना की मात्रा जितनी अधिक होगी उतनी ही अधिक निश्चितता की मात्रा भी। आगमनात्मक युक्ति में हमारा उद्देश्य इसी अधिकतम निश्चितता अथवा संभावना को प्राप्त करना होता है। यह संभावना हम युक्ति में प्रयुक्त तर्कवाक्यों की सत्यता और उनके बीच स्थित तार्किक संबंध से प्राप्त कर सकते हैं।
तर्कशास्त्र में विभिन्न प्रकार के नियम पाए जाते हैं जिनके उल्लंघन से दोषों की उत्पत्ति होती है जिन्हें हम 'तर्कदोष' कहते है। जो तर्कदोष तर्क के आकार से संबंधित होते हैं वे औपचारिक तर्कदोष कहलाते हैं और जो उसकी विषयवस्तु से वो अनौपचारिक अगर आप एक अच्छे लेखक बनना चाहते हैं तो आपको यथासम्भव इन तर्कदोषों से बचने का प्रयास करना चाहिए। कुछ प्रमुख तर्कदोषों को अभी हम थोड़ी ही देर में देखेंगे, उससे पहले हम शब्द प्रमाण को देख लेते हैं। शब्द प्रमाण अनुमान का एक रूप है। शब्द दो लोगों के प्रामाणिक होते हैं, एक तो वो जिन पर हम विश्वास करते है और दूसरे वो जो विशेषज्ञ होते हैं। अगर आपकी पत्नी यह कहे कि खाने में गोभी के पराठे बने हैं तो सामान्यतः आप विश्वास कर लेंगे। अब पराठा अच्छा बना है या नहीं इसकी सत्यता कौन परखेगा? आप या आपकी पत्नी? उत्तर है कि एक शेफ़ अर्थात् उसका विशेषज्ञ। इसी तरह, आपकी लघुकथा अच्छी है या ख़राब इसकी जाँच के लिए आप एक लघुकथाकार के पास जाएँगे या शेफ के पास? आप कहेंगे कि यह कैसा बेतुका प्रश्न है। अगर यह वाक़ई में एक बेतुका प्रश्न है तो आप एक ही व्यक्ति के पास भिन्न-भिन्न मामलों में सलाह लेने क्यों पहुँच जाते हैं? 18 नवंबर 2018 को साहित्य आज तक के कार्यक्रम में लघुकथा पर आज तक के पत्रकार रोहित सरदाना की सकेश साहनी से हुई बातचीत इस बात का प्रमाण है कि जब एक पत्रकार हर क्षेत्र में अपनी विशेषज्ञता दर्शन का प्रयास करता है तो कैसी स्थिति उत्पन्न हो सकती है। इस बातचीत के विषय में आज तक की वेबसाइट पर लिखा है कि रोहित सरदाना के इस सवाल पर कि साहित्य का बाजार बढ़ रहा है तो लघुकथा का बाजार क्यों घट रहा है इसपर सुकेशसाहनी ने कहा कि ऐसा नहीं है उनकी कई कहानियों पर शॉर्ट फिल्में बनी है अगर पत्रकार ने अपने विषय (लघुकथा) को समझने की जरा सी भी जहमत उठाई होती तो लघुकथा के लिए 'शॉर्टस्टोरी'. 'लघुकथा' और कहानी' जैसे शब्दों का प्रयोग न किया होता। यदि आप लघुकथा से जुड़े हैं तो इस तकनीकी खामी को आसानी से पकड़ सकते हैं। सोचिए कि अगर यही स्थिति अर्थ राजनीति, समाज, शिक्षा, स्वास्थ्य विज्ञान और युद्ध जैसे राष्ट्रीय मुद्दों पर भी हो तो? क्या हम कभी यह सोचते हैं कि जो पत्रकार इन विषयों पर अधिकारपूर्वक अपनी विशेषज्ञता प्रदर्शित कर रहा है। वह उस विषय से संबंधित मूलभूत जानकारी रख भी रहा है या नहीं? या अपने मूल विषय अर्थात पत्रकारिता के विषय में भी बिना इन बातों पर विचार किए किसी पत्रकार अथवा किसी अन्य विशेषज्ञ जिससे हम प्रभावित हो की सभी बातों को सत्य मान लेना आस्थामूलकतर्कदोष में पड़ना है। दाँतों के लिए कौन सा मंजन अच्छा है यह एक दंत चिकित्सक बेहतर बता सकता है। न कि आपका घिय खिलाही अथवा कोई फिल्मकलाकार क्योंकि वह उसका विशेषज्ञ नहीं है। 1998 में आई बंधन फिल्म की यह सेवाद कि जो जीजा जी बोलेंगे, वो मैं करूँगा' भी इसी तर्कदोष का उदाहरण है। जीजा जी कभी गलत भी हो सकते हैं। कह तर्कदोष राजनीति में वहाँ पर देखा जा सकता है जहाँ कोई समर्थक अपने प्रिय नेता की हर बात को सिद्ध करने में जुट जाता है। बस यहाँ जीजा जी की जगह नेताजी आ जाते हैं, जो नेताजी बोलेंगे, वो मैं करूँगा। यह बात किसी राजनैतिक पार्टी, जाति, समूह या धर्म का अंघसमर्थन करने वालोंके ऊपर भी लागू होती है। एक लेखक को किसी व्यक्ति या विचार के प्रति अंध- आस्था नहीं रखनी चाहिए। साथ ही, किसी विषय को अपनी रचना में उठाने से पहले उसे यह सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि उसने उसके विषय में सम्यक जानकारी प्राप्त कर ली है या नहीं।
आगामी अंक में जारी...
'लघुकथा कलश' (जुलाई-दिसंबर 2021; अप्रकाशित लघुकथा विशेषांक-1) पृष्ठ 131 से साभार
संपादक : योगराज प्रभाकर
1 comment:
लेखन मुझे बहुत अच्छा लगा। सर
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