Wednesday 22 June, 2022

लघुकथा का विराट मिशन : मधुदीप / बी. एल. आच्छा

[मधुदीप ने जब 'पड़ाव और पड़ताल' के 1988 में प्रकाशित प्रथम संस्करण का पुनर्मुद्रण 2013 में किया था, तब निश्चित रूप से स्वयं उन्हें भी यह अनुमान नहीं था कि उन्होंने लघुकथा उन्नयन के एक अनोखे पायदान पर कदम रख दिया है। लघुकथा-साहित्य के प्रकाशन क्षेत्र में वह नि:संदेह एक बड़ी लकीर खींच गये हैं। उनके उक्त योगदान को रेखांकित करता महत्वपूर्ण आलेख 'वीणा' के नवीनतम जुलाई 2022 अंक में सुप्रतिष्ठित साहित्यकार श्रीयुत् बी. एल. आच्छा जी का प्रकाशित हुआ है। प्रस्तुत है वह आलेख]

लघुकथा के ऐतिहासिक  प्रकाशक : मधुदीप 
मधुदीप
हमारे बीच नहीं रहे ! यह साधारण वाक्य नहीं है। एक गहरा उत्ताप इस 'बीच' में समाया है। यह उत्ताप एक मित्र के जाने का नहीं है। एक लेखक के अलविदा होने का नहीं है। यह कुछ खाने और पाने मात्र का नहीं है। एक समूचा मिशन है, लघुकथा विधा के विकास का। लघुकथा की ऐतिहासिकता की पहचान का। हिन्दी लघुकथा के लगभग डेढ़ सौ लघुकथाकारों की शीर्ष रचनाओं की पहचान का। समीक्षकों की सैद्धांतिक व्यावहारिक राह का। नये लघुकथाकारों के श्रेष्ठतर को प्रकाशित और पुरस्कृत करने का। संतान विहीनता के शून्य में इतनी बड़ी बिरादरी को समाहित करते हुए लघुकथा को बेटी की तरह समावेशी पोषण देने का।
        मधुदीप से मेरा परिचय एक दशक से पहले
का नहीं है। 'पड़ाव और पड़ताल' के चौथे खंड में अशोक भाटिया की ग्यारह लघुकथाओं पर समीक्षात्मक आलेख के लिए भगीरथ जी का फोन आया। मैंने लिखकर भिजवा दिया। इसके बाद तो सिलसिला थमा ही नहीं। मधुदीप ने लघुकथा के सृजन और समीक्षा की हिमालयी श्रृंखला खड़ी कर दी, पड़ाव और पड़ताल के तब तक के पच्चीस खंडों में। मैंने पच्चीस खंडों की समीक्षा के लिए वीणा के संपादक राकेश शर्मा जी से सहमति चाही। संयोग से दो किश्तों में बहुत विस्तार के साथ समीक्षा का प्रकाशन हुआ। संयोग यह भी कि 'लघुकथा कलश' के संपादक योगराज प्रभाकर  जी ने भी उसे प्रकाशित किया। हिन्दी में किसी विधा पर इतने बड़े आकार में, इतने लेखकों और उनकी दो हजार लघुकथाओं का आयोजन देखने में नहीं आया। अलबत्ता चयन की अपनी कसौटी पर जितने लघुकथाकारों को लिया, उससे कई गुना लघुकथाकारों की रचनाओं का प्रकाशन न करने की विवशता को भी व्यक्त करना पड़ा।
       
मधुदीप अकेले के लिए जीनेवाले प्राणी नहीं थे। हाँ, यह जरूर है कि पड़ाव और पडताल कें कुछ खंडों का संपादन अन्य मित्रों ने किया। मगर  अधिकतर का चयन और संपादन स्वयं मधुदीप का। इस चयन में समीक्षकों की तलाश। दिवंगत लघुकथाकारों के संकलनों की तलाश।उनके साक्षात्कारों-आलेखों का धरोहर के रूप में समायोजन। आरंभिक पंद्रह खंडों में छह-छह लघुकथाकारों की ग्यारह-ग्यारह रचनाएँ। और प्रत्येक की समीक्षा। बाद के इन खंडों में एकल लघुकथाकारों की 66-66 लघुकथाओं पर तीन-चार समीक्षकों के विस्तृत आलेख। मगर संपादकीय में न अपना मतवाद, न वैचारिक आग्रह। एक खुली छूट स्वयं के लिए, रचनाओं के चयन की। और खुली छूट समीक्षकों के अपने नजरिए की। इसीलिए मधुदीप इन सबके साथ खड़े हैं, सबके साथ है, विधा के संजीवन के लिए। लघुकथा की नयी पीढ़ी को प्रोत्साहित करने के लिए।
     
मधुदीप अस्पताल में जाँच करवाने भर्ती होते रहे। घर में करनेवाला भी कौन ? एक कर्मचारी सुधीर और लेखक मित्र कुमार नरेन्द्र। पर इसकी तुलना में अस्पताल में ही उन्होंने ऐसी आत्मीयता पैदा करली कि डॉक्टर और परिचारकों का परिवार ही उनके लेखन से जुड़ गया। अस्पताल से ही अंत-अंत की दो तीन पुस्तकें प्रेस में जाती रहीं। कभी लगता है कि इस अकेले प्राणी को सालभर में ही इतने आघात लगे हों, उसकी हृदय-लिपि कितनी वायब्रेट होती होगी। पत्नी को कैन्सर और बिछुड़ने का आघात। माँ की मृत्यु। भाई का अंतिम संस्कार। बेहद सूना घर और खुद को कैन्सर। यह कैसी जीवट-लिपि है, जो लगातार जूझते हुए भी प्रेस, प्रूफ,पुस्तक, मित्र-संवाद और भविष्य की योजनाओं से मुक्त होती ही नहीं थी।
   
अस्पताल पहुंचने से पहले मुझे फोन किया। ऑपरेशन के लिए जा रहा हूं। महीना भर तो ठीक होने में लगेगा। कीमोथेरेपी के उपचार तो करवाता रहा। मगर ऑपरेशन की बात और है। अभी पड़ाव और पड़ताल के तैंतीसवें खंड के प्रूफ अच्छी तरह देख नहीं पाया। इसलिए भिजवा दिये हैं आपको। पर जब घर लौटूंगा, तभी वापस भेजना। वरना घर पर डाक लेनेवाला तो कोई होगा ही नहीं। अब कितना पिघलाने वाला क्षण है।  जिस हृदय- लिपि से लघुकथा के मिशन को गढ़ रहे थे, ऑपरेशन के दौरान ही भूचाल आ गया। इस आघात ने उनके लघुकथा संग्रह को सामने ला दिया--'समय का पहिया'। और पहिया ऐसा थमा कि जीवन्त मुद्रा में घर भी नहीं लौट पाए। अब भारतेन्दु से लेकर 2020 तक के 132 रचनाकारों की लघुकथाओं की लगभग 18० पृष्ठों की समीक्षा किसे पहुंचाता?लघुकथा का चितेरा पाखी तो आकाशमार्गी हो चला था ।
      संभवतः 2015 में इन्दौर के अहिल्या पुस्तकालय में आयोजित एक गोष्ठी में उनसे पहला साक्षात्कार-संवाद हुआ। लघुकथा पर केन्द्रित इस गोष्ठी मे लघुकथा का पूरा इन्दौरी संप्रदाय हाज़िर। संवाद मेरा भी। समापन के बाद मधुदीप बोले--'आच्छा भाई, अब छोड़ेंगे नहीं। खूब लिखना है।' बस यही पहली और अंतिम प्रत्यक्ष भेंट ।मगर संवाद और विमर्श बने रहे। पच्चीस खंडों के बाद महिला लघुकथाकारों और नवोदित लघुकथाकारों पर संग्रह की तैयारी हो रही थी। एक दिन मैंने भी फेसबुक पर  लिख दिया  कि भारतेन्दु या प्रेमचन्द से लेकर आज तक की श्रेष्ठतम सौ लघुकथाओं का चयन संग्रह के रूप में प्रकाशित हो। और अच्छी सी भूमिका भी, जो कालक्रमिक बदलावों को रेखांकित कर सके। पाँच मिनट बाद ही संदेश आ गया । इस शर्त के साथ स्वीकार कि इसकी पचास पेज की समीक्षात्मक भूमिका लिखेंगे। पड़ाव और पड़ताल का सत्ताईसवाँ खंड इस रूप में ऐतिहासिक बन गया। क्योंकि सन् 1876 से सन् 2000 तक की 66 लघुकथाओं का चयन और रचना केन्द्रित समीक्षा के 85 पृष्ठ प्रकाशित होकर आए। 'हिन्दी की कालजयी लघुकथाएं' पुस्तक में।  इसी का दूसरा भाग सन् 2001 से 2020 तक की 66 लघुकथाएँ प्रूफ बनकर ही आए। भविष्य में इसका प्रकाशन भी संभव हो जाए। कम से कम भारतेन्दु से लेकर सन् 2020 तक की लघुकथाओं का ऐतिहासिक-सा ग्रंथ हिन्दी की धरोहर बन जाए।
      दिल्ली में  मधुदीप नौकरी के दौरान ही लिखते रहे। बाद में दिशा प्रकाशन के निदेशक। एक यात्रा अन्तहीन, उजाले की ओर, और  भोर भई ,पराभव, लौटने तक, कल की बात उनके उपन्यास हैं। छोटा होता आदमी कहानी संग्रह के साथ संपादित कथा संग्रह भी। तनी हुई मुट्ठियां,मेरी तेरी उसकी बात, समय का पहिया के साथ अंतिम समय में 'बिना सिर का धड़' लघुकथा संग्रह भी प्रकाशित हुआ। मगर 'पड़ाव और पड़ताल' के बत्तीस खंडों में उन्होंने लघुकथा को श्रेष्ठतम  चयन के साथ समीक्षात्मक धरातल दिया। वैचारिक विमर्श की चौपाल दी। लघुकथा के ऐतिहासिक आधार को रेखांकित किया। दिवंगत लघुकथाकारों के लिए दीपशिखा बने। समकालीन लघुकथाकारों को समीक्षा की पट्टभूमि के साथ प्रतिष्ठित किया। शीर्ष दस लघुकथाकारों पर स्वतंत्र पुस्तकें प्रकाशित कीं। महिला लघुकथाकारों पर स्वतंत्र पुस्तक।  नवोदित लघुकथाकारों पर स्वतंत्र पुस्तक। दिशा प्रकाशन से नवोदित लघुकथाकार एवं लघुकथा समालोचना  सम्मानों का आयोजन किया। सम्मान-निधि के साथ प्रतिवर्ष एक श्रेष्ठतम लघुकथाकार की पांडुलिपि का प्रकाशन भी। अतीत, वर्तमान और भविष्य की लघुकथा को गढ़ती पीढ़ी को जोड़ना और समीक्षात्मक धरातल पर मूल्यांकित करवाने के प्रयास। असाधारण समर्पण और जीवट का व्यक्तित्व ही कर सकता है। धनराशि का व्ययन भी और प्रकाशन का दायित्व भी।
     अलबत्ता मधुदीप पर मैंने कुछ लिखा ही नहीं। जबकि सुकेश साहनी, अशोक भाटिया, कमल चोपड़ा, श्यामसुन्दर अग्रवाल पर लंबे आलेख प्रकाशित हुए। पर जब योजना बनी उमेश महादोषी के संपादन में 'मधुदीप : लघुकथा-सृजन के विविध आयाम'।पुस्तक छपकर आई। नील वर्ण के कवर में 728 पृष्ठों का महाग्रंथ। कोई चालीस-पैंतालीस लेखकों के आलेख। शोध- ग्रंथ की तरह विषयों के अलग अलग परिप्रेक्ष्य और पड़ताल । प्रशंसा-अभिनंदन के लिए कोई जगह नहीं। पर इतने लेखकों का यह महाआयोजन मधुदीप के लिए अंतरंग स्नेह और लेखकीय अस्मिता का द्योतक नहीं है? आश्चर्य तो तब भी हुआ, जब उनकी एक पृष्ठ की लघुकथा 'नमितासिंह' पर तीन सौ पृष्ठों की पुस्तक में पचास-साठ लेखकों के समीक्षात्मक आलेख पुस्तकाकार होकर आए।
      मधुदीप जितने 'सृजन के अनेकान्त' के चितेरे हैं, उतने ही लघुकथा की पड़ताल की दिशाओं के भी। इसीलिए वे हिन्दी कहानी के प्रख्यात चरित्रों की तरह हिन्दी लघुकथा के प्रख्यात चरित्रों का विश्लेषणात्मक आयोजन भी करते हैं। पता नहीं, 66 संख्या उनके प्रकाशन के गणित की चौखट बन गयी। इस पुस्तक में भी 66 लघुकथाओं के चरित्रों की परख समीक्षकों द्वारा की गयी है। यही नहीं, एक कथा समीक्षा की आधारभूमि तैयार करने के लिए स्वतंत्र पुस्तक का प्रकाशन किया--'लघुकथा के समीक्षा बिन्दु'। यह कोई शास्त्रीय पुस्तक नहीं। मगर सैध्दांतिक-व्यावहारिक समीक्षा की दिशा-दृष्टि से एक महत्वपूर्ण कदम। कई लेखक हैं, मगर मधुदीप सबके सामने खुला आकाश रखते हैं। संपादकीयों में कोई मतवाद नहीं। बल्कि दृष्टियों के अनेकान्त का खुला मंच ।
   इस सारी अकादमिक-सृजनात्मक प्रकाशन यात्रा के बीच उनका हृदय धड़कता था, जीवन- सहचरी शकुन्त जी के लिए। दैनंदिन रूप से प्रभु राम और सहचरी शकुंत के लिए अलग अलग दो पोस्ट। करुणा से परिपूर्ण भावों का द्रवणांक मित्रों को भी तरल कर देता था। उच्छवासों की यह भाषा एक पुस्तक बन गयी--'लव यू' शीर्षक से। अंग्रेजी अनुवाद भी कल्पना भट्ट ने किया। पढ़कर लगता है कि खिड़की का कांच उच्छवास से वाष्पित हो गया हो !
     लेकिन मधुदीप इस तरलता में ही अपनी भाव-लिपि को लघुकथा में रच लेते थे। उनकी लघुकथा 'हिस्से का दूध' पहली बार 'वीणा' में ही प्रकाशित हुई थी श्यामसुन्दर व्यास जी के संपादकत्व में। आर्थिक विषमताओं की यह कसमसाहट इन रचनाओं में पारिवारिक पृष्ठभूमि का समाजशास्त्र रचती थी। फिर तो वे मातृत्व के  संवेदन, दाम्पत्य के टकराते-बनते रिश्तों, वृद्धावस्था के विस्थापन, जैसे अनेक परिदृश्यों से लघुकथा को बुनते रहे। पर उनकी रचनाओं में रिश्तों का सगुण पक्ष है और मूल्यों की आकांक्षा। विषयों की समकालीनता और प्रयोगधर्मी विन्यास के कारण वे सोशल मीडिया तक भी आए। फेसबुकिया चैट में रिश्तों का बदलता रूप। यथार्थ, मनविज्ञान और समाजशास्त्र की अंदरूनी बनावट बदलते परिदृश्यों में सामाजिक मूल्यों को तलाशती है।  यों कई सारे कोण हैं इन लघुकथाओं के। पर सचेत विन्यास और भाषिक सजगता में तो उनका कौशल है ही। मधुदीप की लघुकथाओं का अंग्रेजी में अनुवाद डॉ हेमंत गेहलोत ने किया है। अन्य भारतीय भाषाओं में भी अनुवाद प्रकाशित हुए।
      अब इतने बड़े विस्तार को संक्षेप में कहने के बावजूद यह लगता नहीं कि मधुदीप हमारे बीच नहीं है। लघुकथा के ऐतिहासिक विकास का एक जीवन्त अध्याय। नयी पीढ़ी के साथ नये परिदृश्यों के रचाव की आकांक्षा। सांस्कृतिक सामाजिक मूल्यों की चिंता। मधुदीप लघुकथा विधा के लिए इतने अपरिहार्य हैं कि किसी भी दिशा में शोध कार्य किया जाए, 'पड़ाव और पड़ताल' में वे हर कहीं नजर आएँगे। मधुदीप लघुकथा के सामूहिक तेवर हैं। उनके इस विराट संपादन की तहों में वे हमेशा झाँकते मिलेंगे। अलबत्ता काया तो विनश्वर है, मगर लघुकथा का मधुदीप जाग्रत शब्दों का सामूहिक स्वर। विनम्र श्रद्धांजलि।














बी. एल. आच्छा
फ्लैटनं-701, टॉवर-27
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पेरंबूर
चेन्नई (तमिलनाडु)
पिन-600012
मोबाइल : 9425083335

2 comments:

Anonymous said...

आपके लेखन को नमन है...मधुदीप जी के विषय में विस्तार में बताया आपने... कितनी ही यादें जुड़ी है आपसे। लघुकथा का विराट संसार दे गये मधुदीप जी ने!हम सबको अब गढ़ना है , उनके मिशन को पूरा करना है।
आभार अच्छा जी।

निहाल चन्द्र शिवहरे said...

आदरणीय आपके आलेख के माध्यम से परम आदरणीय मधुदीप जी की जीवटता एवं लघुकथा के उत्थान के लिए उनके योगदान को जाना । आपका सादर अभिवादन एवं मधुदीप जी को नमन ।