मुन्नू लाल |
अब तक खुद मै और शायद मेरे जैसे
तमाम नवोदित लघुकथाकार भी यही जानते थे कि लघुकथा क्षण-विशेष की कथा है,
पर पुस्तक में आ. बलराम अग्रवाल सर बताते हैं कि 'लघुकथा' में 'क्षण' सिर्फ समय की इकाई को नहीं कहते, 'संवेदना की
एकान्विति' को भी क्षण कहते हैं।' पुस्तक
में इसे समझाने के लिए कवि और कथाकार स्नेह गोस्वामी की लघुकथा 'वह जो नहीं कहा गया' उद्धृत की गई है जो पूरे दो दिन
के कालखण्ड को समेटती है। इसके अतिरिक्त इसी तरह की तमाम जिज्ञासाओं का समाधान
विभिन्न लघुकथाकारों की लघुकथाओं को उद्धृत कर अच्छी तरह समझाया गया है। प्रसन्नता
की बात है कि उद्धरित तमाम लघुकथाएँ नवोदित लेखकों की ही हैं। रोचक यह भी है कि
एकाध रचनाकार की जिज्ञासा का समाधान उन्हीं की लघुकथा उद्धृत कर किया गया है। इससे
विदित होता है कि नवोदित लेखकों में बहुत सम्भावनाएँ हैं, बस
इन्हें खुद को माँजने की जरूरत है ।
उद्धृत की गई लघुकथाओं के लघुकथाकारों
का विवरण निम्न है—(क्षमा करेंगे,बिना
श्री/श्रीमती या आदरणीय लगाये लिख रहा हूँ )—शोभना श्याम, कान्ता
राय, अर्विना गहलोत, कमल कपूर, दीपक मशाल, डॉ. नीरज सुधांशु, कपिल
शास्त्री, विजयानन्द विजय, सुरेन्द्र कुमार
अरोड़ा, बलराम अग्रवाल, सूर्य कुमार
मिश्र, कमल चोपड़ा, सुनीता त्यागी,
महेश दर्पण, डॉ. सतीश दूबे, मुन्नू लाल, जया आर्य, लता
कादम्बरी, डॉ. श्याम सुन्दर दीप्ति, राहिला
आसिफ, जानकी बिष्ट वाही, सुधीर
द्विवेदी, अर्चना तिवारी, उषा भदौरिया
व भगीरथ।
रचना को मुकम्मल बनाने में, एक वरिष्ठ रचनाकार
को भी, कितनी काट-छाँट की जरूरत होती है, इसके उदाहरणस्वरूप सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार ज्ञान चतुर्वेदी के लेखन का एक
अंश एक पूरे पेज पर उद्धृत किया गया है । 'समीक्षक की कसौटी'
अध्याय के अन्तर्गत लघुकथाकार डॉ. लता अग्रवाल की आ. बलराम अग्रवाल
सर से समीक्षा के सन्दर्भ में बहुमूल्य बातचीत दी गई है । इसके अतिरिक्त '21वीं सदी की 22 लघुकथाएँ' शीर्षक
अध्याय के अन्तर्गत इस सदी के दूसरे दशक में लघुकथा-लेखन से जुड़े कथाकारों की
लघुकथाएँ दी गई हैं व भविष्य में समीक्षा के क्षेत्र में उतरने के इच्छुक
रचनाकारों से इनकी समीक्षा करने का आह्वान भी किया गया है। उपरोक्त विकास में
कतिपय तथ्य या नाम छूटे हों, तो क्षमा चाहूँगा। 'परिन्दों के दरमियां' पुस्तक से महत्वपूर्ण सूत्र,
जो मेरी समझ में आये, निम्न हैं (दावा नहीं कि
मेरे ही वाक्य हैं, अंशतः या सम्पूर्ण आ. बलराम अग्रवाल सर
के भी हो सकते हैं)—
(1) अनुशासन सीखें, साष्टांग बिछ जाना नहीं ।
(2) आत्म-अवलोकन (आत्म-निरीक्षण
)से बड़ा कोई गुरु नहीं ।
(3) सपाटबयानी अग्राह्य है,
पर सपाट-लेखन ग्राह्य है ।
(4) विचार में 'पैनापन' और दृष्टि में 'प्रगतिशीलता'
हो ।
(5) यदि लघुकथा के अन्त में करुणा
उभरती है तो इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि रचना का सकारात्मक अन्त हो रहा है
या नकारात्मक ।
(6) जल्दबाजी कतई न करें, कितना भी समय लगे ।
(7) घटी ताजा घटनाओं पर लिखते समय
उनकी सत्यता और प्रामाणिकता देना ही पर्याप्त नहीं, जब तक
पर्याप्त रचनाशीलता न दिखाई गई हो ।
(8) तय करें कि 'दाम' के लिए लिख रहे हैं या 'मूल्य'
के लिए। ध्यान रखें कि 'दाम' के लिए लिखने वाले 'आने वाले कल के लिए' नहीं लिखा करते ।
(9) लेखन में कुछ खास करना है,
तो तुरन्त प्रकाशित व प्रशंसित होने से बचें ।
(10) यदि आलोचना/समीक्षा की राह
पकड़नी है, तो सर्वप्रथम स्व-आलोचना व स्व-समीक्षा के मार्ग
से गुजरें ।
(11) बेहतर है, रचना संवाद से शुरू करें, नैरेशन कम रखें व द्वन्द्व को स्थान दें । (12)किसी
के कहने पर तब तक न बदलाव करें, जब तक खुद न आश्वस्त हों ।
(13) 'अगले दिन' लिखने के बजाय पाठक को संवाद आदि किसी माध्यम से पता चले कि घटना अगले दिन घटित हुई ।
(13) 'अगले दिन' लिखने के बजाय पाठक को संवाद आदि किसी माध्यम से पता चले कि घटना अगले दिन घटित हुई ।
(14) शीर्षक-चयन में रचना की कथास्तु के साथ-साथ शीर्षक देखते ही पाठक के मन
में उत्पन्न होने वाली जिज्ञासा का भी ध्यान रखें।
(15)
'विधा के विकास' के लिए प्रयोग करें न कि 'प्रयोग के लिए प्रयोग'।
(16) सिर्फ लेखन से जुड़े रहकर बेहतर लेखन सम्भव नहीं, उच्चस्तरीय
अध्ययन भी जरूरी ।
अन्तत:
आ. बलराम अग्रवाल सर के शब्दों में ही कहना चाहूँगा कि 'स्थायित्व के लिए तप जरूरी है' (कथाकार सीमा जैन के
साथ उनकी बातचीत, 'कथाबिंब' पत्रिका
में) ।
संपर्क—ग्राम-पुरुषोत्तमपुर, पोस्ट-सोनपुर वाया गैंसड़ी, जिला-बलरामपुर-271210 उप्र
1 comment:
अच्छी समीक्षा है। जो बिन्दु निकालकर लिखे गए हैं, वे उपयोगी हैं।
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