डॉ॰ पुरुषोत्तम दुबे की पत्रात्मक प्रतिक्रिया
संदर्भ : 'परिंदों के दरमियां'
संदर्भ : 'परिंदों के दरमियां'
डॉ॰ पुरुषोत्तम दुबे |
प्रिय
बलराम जी,
लघुकथा-सन्दर्भ में जिन बहस-मुबाहिसों को जिस जिल्द में आपने समेटा है,
उसका नाम वाकई में ‘परिन्दों के दरम्यां’ ही मौज़ूं लगा।
बहुत
सही कहा है आपने ‘अपनी खुद की रचना को उत्कृष्ट बनाने के लिए उसे यथेष्ट अन्तरालों
के बाद बार-बार पढ़ना और सम्पादित करना चाहिए।’ इसी क्रिया के परिणामस्वरूप रचना
का कथ्य न केवल स्पष्ट हो सकेगा प्रत्युत् रचना की ग्राह्यता आसान होगी । बरअक्स
इसके रचनाकार रचना में जिस कोटि के मूल्य स्थापित करना चाहता है ,
उन मूल्यों की प्रविष्टि भी सुगमता के साथ कर पाएगा ।
इसी
आशय से संश्लिष्ट आपकी बात यहाँ रखना चाहूँगा, कि ‘लेखक के मन की बात जब तक मुकाम
नहीं पा लेती, रचना में पूर्णत्व नहीं आ पाता।’
मैं
आपकी इस बात से भी पूर्णरूपेण सहमत हूँ कि ‘लेखक का अन्त:करण जितना व्यापक होगा,
रचनाशीलता भी उतनी व्यापक होगी ।’
वाकई
में लघुकथा का कथानक बाहरी घटनाओं के आश्रय से नहीं बुना जा सकता है; हाँ, मगर
बाहरी घटनाओं के सौजन्य से जो विचार मन में जीवित होता है उस विचार को मथकर कथानक
को बुना जा सकता है । आपके मतानुसार, ‘रिपोर्टर की तरह घटना को ज्यों का त्यों
नहीं लिखा जाना चाहिए ।’
एक
उत्कृष्ट लघुकथा के सिलसिले में मैं आपके इस महती कथन से इत्तेफाक रखता हूं कि ‘लघुकथा को संवाद से शुरू किया जाए,
उसे बोझिल होने से बचाने का प्रभावकारी तरीका है—उसमें नैरेशन को कम
रखा जाए; और मारक बनाने का तरीका है—उसमें द्वंद्व को स्थान दिया जाए।
.....
और भी लघुकथा से सन्दर्भित कई सवालों की घेराबंदी में आपको लाया गया
ताहम भी एक जरूरी बात आपके तयी यह, कि आप सवालों की चौखट से पलायन करते कहीं
प्रतीत नहीं हुए; अपितु लघुकथा-विषयक तमाम जानकारियाँ प्रदान
करने की दिशा में जैसे परिन्दों के दरम्यां अपने अंगदी-पांव से जमे रहे।
मोबाइल ; 9329581414
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