Friday, 28 August 2020

अपनी-अपनी ढपली… / मधुदीप

…अपना-अपना राग-1

(लम्बे लेख की पहली कड़ी) 

प्रस्तुत लेख मधुदीप के संपादन सद्य:प्रकाशित आलोचना पुस्तक 'लघुकथा के समीक्षा-बिन्दु' के संपादकीय के रूप में लिखा गया विचारोत्तेजक लेख है। लघुकथा के सुधी पाठकों, आलोचकों और शोधार्थियों के अध्ययन एवं विचारार्थ यहाँ साभार प्रस्तुत है दो कड़ियों में समाप्य उक्त लम्बे आलेख की पहली कड़ी…
इस पुस्तक (लघुकथा के समीक्षा-बिन्दु) के प्रकाशित होते-होते समकालीन हिन्दी लघुकथा पचास वर्ष की प्रौढ़ा (1971-2020) हो चुकी होगी। मगर जितने विवाद इसके रंग-ढंग को लेकर हैं उतने विवाद किसी नवयौवना के रंग-ढंग को लेकर भी नहीं होते। जितनी ढपलीउतने राग। जितने विद्यालय उतने ही अलग-अलग पाठ्यक्रम। दरअसल, यह सब इसलिए होता रहा है क्योंकि इस विधा को अभी तक सही, स्वतन्त्र और सशक्त समीक्षक प्राप्त ही नहीं हुए हैं। जो इस विधा के लेखक हैं वे ही अधिकतर  इस विधा के समीक्षक हैं। उन लघुकथाकारों ने अपनी-अपनी या अपने चहेते लघुकथाकारों की लघुकथाओं के अनुरूप या उन्हें आदर्श लघुकथाएँ मानकर तथा तदनुसार इस विधा की समीक्षा के मापदण्ड बनाकर समीक्षा करने की या समीक्षात्मक आलेख लिखने की चेष्टा अधिक की है। किसी भी विधा के साथ उसके प्रारम्भ में ऐसा ही होता है, लेकिन अब यह समकालीन हिन्दी लघुकथा का प्रारम्भकाल नहीं है । पचास वर्ष का समय कम नहीं होता लेकिन अभी भी यह विधा अपने स्वरूप को लेकर विवादों से मुक्त नहीं हो पाई है। मैंने लघुकथा-शृंखला पड़ाव और पड़ताल के माध्यम से स्वतन्त्र समीक्षकों की जो तलाश शुरू की थी उसमें मुझे आंशिक सफलता ही हाथ लगी और इस शृंखला में पड़ताल का 60 प्रतिशत कार्य लघुकथाकारों से ही करवाना पड़ा। मैं इस बात को बहुत ही साफगोई से स्वीकार करता हूँ कि लघुकथा की जिस ऊँचे दर्जे की और सर्वांगीण पड़ताल मैं करवाना चाहता था उसमें मैं कामयाब नहीं हुआ; लेकिन वह कहावत है ना कि माँ नहीं तो मौसी ही सही’, मैं यह मानता हूँ कि इस शृंखला ने लघुकथा की पड़ताल के लिए एक राह तो प्रशस्त की ही है। कुछ स्वतन्त्र समीक्षक भी इस शृंखला के माध्यम से सामने आए हैं और उन्होंने बहुत ही श्रेष्ठ कार्य किया है। उनकी पहचान भी लघुकथा के समीक्षक के रूप में स्थापित हुई है। लघुकथा के समीक्षा-बिन्दु इस दिशा में मेरा एक और विनम्र प्रयास है जिसमें मैंने 6-6 स्वतन्त्र समीक्षकों और लघुकथाकार-समीक्षकों को लघुकथा की समीक्षा के लिए कुछ बिन्दु तय करने का आग्रह किया था जिसे उन्होंने बहुत ही गम्भीरता से स्वीकारा और पूरा किया। यह इस दिशा में सामूहिक रूप से किया जानेवाला पहला प्रयास है। इसके बाद और भी गम्भीर प्रयास होंगे जोकि लघुकथा की समीक्षा को एक नई दिशा देंगे। मुझे पूरी आशा है कि यह पुस्तक लघुकथा की समीक्षा के मापदण्ड तय करने के लिए अपनी महती भूमिका निभाएगी।

     अब हमेशा की तरह आपसे अपने मन की बात साझा करने का समय है। मैंने लघुकथा पर या इस विधा की समीक्षा पर कोई अधिक अग्रलेख नहीं लिखे हैं क्योंकि मैं स्वयं को इसके लिए आधिकारिक विद्वान न मानकर मात्र लघुकथाकार या लघुकथा का सम्पादक ही मानता हूँ। मैं लघुकथा के बारे में जो कुछ भी महसूस करता हूँ उसे लघुकथा शृंखला पड़ाव और पड़ताल के अपने सम्पादकीयों में अपने मन की बात के अन्तर्गत व्यक्त कर देता हूँ। इसलिए जो भी पाठक लघुकथा के बारे में मेरे विचार जानना चाहते हैं उन्हें इस शृंखला के सम्पादकीय पढ़ने होंगे।

     कुछ समय पहले तक मैं लघुकथा में ‘कथा’ की अनिवार्यता पर बल दिया करता था और कहा करता था की हमें लघुकथा शब्द के कथा शब्द को नहीं भूलना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि ‘लघु’ कहने के चक्कर में रचना में से ‘कथा’ ही गायब हो जाये । मैंने हर मंच से यह बात कही है और पूरा जोर देकर कही है। यही बात मैंने अपने आलेख लघुकथा : रचना और शिल्प में भी कही है,  मगर पिछ्ले दिनों के कुछ घटनाक्रम से मैं यह कहने पर विवश हो गया हूँ कि हमें लघुकथा में ‘लघु’ शब्द की मर्यादा का पालन भी अवश्य करना होगा। 1000 से अधिक शब्दों की रचना को लघुकथा मानना शायद अतिवाद होगा और हमें इस अतिवाद से बचना होगा। आदर्श लघुकथा वही है जो अधिकतम 1.5 पृष्ठ में सिमट जाए । अपवादों को विधा का मूल स्वरूप कभी स्वीकार नहीं किया जा सकता। जैसे कहानी में 40 से 80 पृष्ठ की रचना को लम्बी कहानी कहकर प्रस्तुत किया गया था, क्या हम 1000 से 1500 शब्दों की रचना को लम्बी लघुकथा कहकर प्रस्तुत करना चाह रहे हैं? लेकिन ‘लघु’ और ‘लम्बी’ दोनों विरोधाभाषी शब्द हैं और शब्दों की अपनी गरिमा होती है। लघुकथा की आदर्श शब्द सीमा 500-550 शब्दों से अधिक नहीं होनी चाहिए । यदि किसी रचना का कथ्य 1000-1500 शब्दों की माँग करता है तो यह आवश्यक नहीं है कि उस कथ्य पर लघुकथा ही लिखी जाए, उस कथ्य पर कहानी भी लिखी जा सकती है ।

     मैं लघुकथा में हमेशा ‘प्रयोगों का पक्षधर’ रहा हूँ और मेरे मित्र मुझे प्रयोगधर्मी लघुकथाकार कहते हैं; लेकिन हमें किसी भी तरह के अतिवाद से तो बचना ही होगा। अति सर्वत्र वर्जयेत। 'लघुकथा के समीक्षा-बिन्दु'  पुस्तक के सम्पादकीय में मैं इस बात का उल्लेख कुछ विशेष कारण से कर रहा हूँ । इस पुस्तक में मेरा कोई आलेख नहीं है लेकिन जो बिन्दु मुझे महत्वपूर्ण लगे हैं उनका उल्लेख मैं अपने सम्पादकीय और मेरे मन की बात में अवश्य करना चाहूँगा। आप इन्हें ही मेरी ओर से समीक्षा के बिन्दु भी मान सकते हैं। मेरा मानना है कि विमर्श के दरवाजे हमेशा खुले रहने चाहिए क्योंकि हठधर्मिता किसी भी विधा के हित में नहीं होती। 

     कुछ समय पहले मैंने एक आलेख लघुकथा : रचना और शिल्प फेसबुक पर लिखा था । उसे भी मैं इस पुस्तक की अपनी भूमिका में प्रस्तुत कर रहा हूँ ताकि इस पुस्तक के पाठक  मेरे विचारों से अवगत हो सकें । 

लघुकथा : रचना और शिल्प

लघुकथा कथा परिवार का ही महत्वपूर्ण हिस्सा है जैसे कि उपन्यास, कहानी या नाटक। परिवार में जिस तरह हर व्यक्ति के गुण-धर्म अलग-अलग होते हैं उसी तरह लघुकथा के भी गुण-धर्म अन्य विधाओं से अलग हैं। लघु में विराट को प्रस्तुत करना ही लघुकथाकार का कौशल है। हमारे समक्ष पूरी सृष्टि है। इस सृष्टि में पृथ्वी है, पृथ्वी पर मनुष्य, मनुष्य का पूरा जीवन और उस जीवन का एक पल। यह विस्तृत से अणु की ओर यात्रा है और उस अणु का सही, सटीक वर्णण करना ही लघुकथा का अभीष्ट है। वही लघुकथाकार सफल माना जाता है जो उस पल को सही तरीके से पकड़कर उसकी पूरी संवेदना के साथ पाठक तक प्रेषित कर सके। सृष्टि का अपना विशद महत्त्व है लेकिन हम अणु के महत्त्व को भी कम करके नहीं आँक सकते। मानव के पूरे जीवन में कितने ही महत्वपूर्ण पल होते हैं जो कि उपन्यास या कहानी लिखते समय लेखक की दृष्टि से ओझल रह जाते हैं क्योंकि उस समय लेखक की दृष्टि समग्र जीवन पर होती है मगर एक लघुकथाकार की दृष्टि में वे ही पल महत्वपूर्ण होते हैं जो एक कहानीकार या उपन्यासकार से उपेक्षित रह जाते हैं। उन पलों की कथा ही लघुकथा होती है और यही गुण-धर्म इस विधा को विशिष्ट भी बनाता है और अन्य विधाओं से अलग भी करता है ।

      मैं आपके सामने एक बहुत पुरानी बात दोहरा रहा हूँ। लघुकथा एक शब्द है। इसे एक-साथ लिखना ही चाहिए; मगर इसके दो भाग हैं, ‘लघु’ तथा ‘कथा’ और ‘लघुकथा’ लिखते समय हमें इन दोनों बातों को ध्यान में रखना चाहिए। शुरू में तथा कुछ आग्रही अभी भी, इसके पहले भाग ‘लघु’ को लेकर बहुत आग्रही हैं। वे भूल जाते हैं कि इसमें ‘कथा’ भी जुड़ा हुआ है और यदि लघुकथा में कथा नहीं होगी तो इसके लघु का क्या अर्थ रह जाएगा! साहित्य में कथारस की अनिवार्यता से हम कतई इंकार नहीं कर सकते। इसलिए मेरा अनुरोध है कि आप विधा को बहुत अधिक लघु की सीमा में न बाँधें। उसे कथ्य की अनिवार्यता के अनुसार थोडा फैलाव लेने की आजादी अवश्य दें। कुछ आग्रही 250 शब्दों की सीमा पार करते ही उसे लघुकथा (के सीमा-क्षेत्र) से बाहर कर देते हैं; लेकिन मेरा मानना है कि यदि विषय और कथ्य की माँग है तो शब्द सीमा को 500-600  शब्दों तक यानी डेढ़-पौने दो पृष्ठ तक जाने दें; लेकिन साथ ही मेरा कहना है कि लघुकथाकार अतिरिक्त विस्तार के मोह से बचें। भाई सतीशराज पुष्करणा और अन्य वरिष्ठों की बहुत-सी ऐसी श्रेष्ठ लघुकथाएँ हैं जो मेरी इस शब्द-सीमा को छूती हैं। हाँ, कहानी के सार-संक्षेप को लघुकथा कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता।

 लघुकथा का मूल स्वर

अब मैं आपके समक्ष इस विषय में अपने विचार रखना चाहता हूँ। मेरे विचार से पूरा साहित्य तीन बिन्दुओं पर टिका हुआ है—यथार्थ, संवेदना और विडम्बना यानी विसंगति। जीवन के यथार्थ का कलात्मक चित्रण ही साहित्य है। यथार्थ के कलात्मक चित्रण का मूल आधार हैं—संवेदना और विडम्बना। संवेदना लघुकथा के साथ ही पूरे साहित्य का मूल आधार है लेकिन विडम्बना लघुकथा का मूल स्वर है। हालाँकि व्यंग्य पर भी विडम्बना या विसंगति का प्रभाव देखने को मिलता है लेकिन उसमें अतिश्योक्ति का भी प्रभाव होता है जिससे कि लघुकथा में बचना होता है। विडम्बना लघुकथा की तीव्रता को बहुत तीखा बना देती है। कहानी या उपन्यास में विडम्बना उतनी तीव्रता या तीखेपन से नहीं आ पाती क्योंकि उनके विवरण उसमें बाधक बन जाते हैं और विडम्बना का तीखापन खो जाता है। लघुकथा का फोर्मेट यानी आकार लघु होता है इसलिए इसमें जीवन की किसी भी विडम्बना को पूरी शिद्दत और तीखेपन के साथ प्रस्तुत किया जा सकता है। इसलिए यह लघुकथा की मूल प्रवृत्ति के के रूप में सामने आता है। इसका यह अर्थ कदापि न लगाया जाए कि संवेदना का लघुकथा में महत्वपूर्ण स्थान नहीं है। मैं पहले ही साफ कर चुका हूँ कि संवेदना समूचे साहित्य का मूल आधार है। हाँ, जीवन के यथार्थ पलों का विडम्बनात्मक चित्रण प्रस्तुत करके मानव संवेदना को अधिक गहराई से प्रस्तुत किया जा सकता है। यही साहित्य का प्राप्य है और लघुकथा का मूल स्वर भी।

     मेरे कुछ लघुकथाकार साथी लघुकथा में कालदोष को लेकर बहुत चिन्तित रहते हैं। ऊपर मैंने भी कहा है कि लघुकथा पल का कलात्मक चित्रण होती है मगर वह पल कितना बड़ा हो सकता है इसमें आकर हम उलझ जाते हैं। बात कुछ पलों, घंटों की ही होती है मगर उसे सही तरीके से प्रस्तुत करने के लिए हमें कई बार पूर्व-दीप्ति (फ्लैश-बैक) में उस घटना को भी प्रस्तुत करना होता है जिससे ये पल सम्बन्धित होते हैं। कई बार कोई बड़ी बात कहने के लिए हमें घटना का फलक कुछ बड़ा लेना होता है और उसे देखकर हम भ्रमित हो जाते हैं कि यह लघुकथा कालदोष का शिकार हो गई। मेरी अपनी एक लघुकथा समय का पहिया घूम रहा है’, अशोक भाटिया की लघुकथा नमस्ते की वापिसीतथा भाई श्याम सुन्दर अग्रवाल की लघुकथा सन्तूको लेकर काफी पाठक और नवोदित लघुकथाकार भ्रमित हो चुके हैं लेकिन ये सभी बेहतरीन लघुकथाएँ हैं, सब इस बात को स्वीकार करते हैं। यदि हमें लघुकथा के माध्यम से किसी बड़े फलक की कोई महत्वपूर्ण बात कहनी है तो हमें इस विषय में थोड़ा लचीला रुख अपनाना होगा। फ्लैश-बैक या अन्य तरीकों से और लघुकथाकार अपने कौशल से इसे बाखूबी साध सकता है। इसके कुछ उदाहरण हमें वरिष्ठों की बहुत-सी श्रेष्ठ लघुकथाओं में देखने को मिल सकते हैं। इस विषय में जितनी शंकाएँ हैं,  उन्हें कुछ समय के लिए अलग रखकर हम लघुकथा में कुछ बड़ी बात कहें और अपने कौशल से उस रचना में कालदोष का निवारण करें। कहीं हमारी लघुकथा घर-परिवार के विषयों में ही उलझकर या सिमटकर न रह जाए। हमें आज के समय को पकड़ना है, आज की बड़ी-बड़ी समस्याओं को पूरी शिद्दत से लघुकथा में प्रस्तुत करना है तभी लघुकथा इस सदी की विधा बन सकेगी।

                                                               (शेष आगामी कड़ी में………)

2 comments:

Anonymous said...

इस लेख को यहाँ पर प्रस्तुत करने के लिए भाई बलराम अग्रवाल का आभार ।

सुधाकल्प said...

लेख में बहुत ही सरल भाषा में लघुकथा की रचना -शिल्प ,कथारस,कालदोष आदि के बारे में स्पष्ट किया गया है जो सहज रूप से ग्राह्य है।