जगदीश कश्यप (01-12-1949—17-8-2004) की 16वीं पुण्यतिथि पर…
—‘हिन्दी लघुकथा की तकनीकी पड़ताल’ शीर्षक लेख में जगदीश कश्यप
जगदीश के बारे में लिखते हुए मेरी स्थिति ऐसी होती है कि उसके खिलाफ सारा ज़हर गले में रोक लेना पड़ता है। उसको और खुद को किसी भी ज़हर से दूर एक रचनाकार के पलड़े में रखना सरल नहीं है, लेकिन लेखकीय ईमानदारी का तकाजा है कि हम लघुकथा के प्रति उसके समर्पण को समुचित सम्मान दें। आज 16वीं पुण्यतिथि पर याद करते हुए प्रस्तुत हैं उसकी दो लघुकथाएँ—‘पहला गरीब’ और ‘अंतिम गरीब’। पहले-पहल इन दोनों रचनाओं को रमेश बतरा ने अपने संपादन में छपने वाली पत्रिका ‘साहित्य निर्झर’ के पहले अंक में स्थान दिया था। 'सारिका' में जाने के बाद इन्हें उन्होंने उसमें भी स्थान दिया। —बलराम अग्रवाल
पहला गरीब
दियासलाई से सुल्फे की गोली सेंकता हुआ एक भिखारी दूसरे से बोला, “आज तो कुल ग्यारह रुपये की ही दिहाड़ी बनी है। चार रुपये का घाटा हो गया।”
दूसरा भिखारी, जो कच्ची शराब की बोतल को पास ही रखे एल्युमिनियम के मगों में खाली कर रहा था; बोला, “अपनी तो आज बोहनी ही अच्छी हो गयी, पूरे चालीस रुपये बन गये।”
“आज कहाँ हाथ मारा स्साले!”
“सुबह काम पर निकला ही था कि एक घर से झगड़े की आवाज सुनकर मैं उसी द्वार पर जा खड़ा हुआ। औरत कह रही थी… घर में आटा नहीं है। कहीं से भी लाओ, वरना भूखा रहना पड़ेगा।… और आदमी कह रहा था कि वह कहाँ से लाये। जो भी है, पहली तारीख तक भूखा रहना ही पड़ेगा।
‘मैं तो भूखी रह लूँगी, पर बच्चों का क्या होगा।’
‘बच्चे जाएँ भाड़ में… अच्छा बाबा, देखता हूँ। दो-चार के पाँव पकड़ूँगा। कहीं से उधार मिला तो ले आऊँगा।’ कहकर आदमी बाहर निकला तो सामने मैं खड़ा था। मैंने झोली फैला दी—दाता तुम्हारी मुराद पूरी करे बाबू साहब’ उसने मुझे पचास पैसे दिये और दिनभर मैंने जिससे भी माँगा, किसी ने खाली हाथ नहीं लौटाया। बड़ा कर्मोंवाला आदमी लगता है।”
“छोड़ यार,” पहले भिखारी ने टोका, “क्यों मजा खराब करता है! चल उठा, और पी।”
दोनों ने अपने मग एक ही साँस में खाली कर दिए। फिर वे बैठे सुल्फे से चिलम फूँकते रहे। थोड़ी देर बाद दूसरे भिखारी को जैसे कुछ याद आ गया। वह एक जोरदार कश लगाकर कुछ खाँसने के बाद वहीं पसरता हुआ बोला, “यार, दिल कहता है, दो-चार किलो आटा लेकर उसके घर दे आऊँ!”
अंतिम गरीब
दरबान ने आकर बताया कि कोई फरियादी उनसे जरूर मिलना चाहता है। उहोंने मेहरबानी करके उसे भीतर बुला लिया। फरियादी झिझकता-झिझकता उनके दरबार में पेश हुआ तो वे चौंक पड़े! उन्हें आश्चर्य हुआ कि वह वहाँ कैसे आ गया? फिर यह सोचकर कि उन्हें भ्रम हुआ है, उन्होंने पूछ लिया, “कौन हो?”
“मैं वही गरीबदास हूँ सरकार…!”
“गरीबदास तुम! तुम्हें तो मैंने दफन करवा दिया था!”
“भूखे पेट रहा नहीं गया माई-बाप! इसलिए उठकर चला आया।”
“अब, क्या चाहते हो?”
“कुछ खाने को मिल जाए हुजूर!”
“अभी देता हूँ।” उसे आश्वासन देकर उन्होंने सामने, दीवार पर टँगी अपनी दुनाली उतार ली।
“यह लो, खाओ!” दुनाली ने दो बार आग उगल दी। गरीबदास वहीं ढेर हो गया।
“दरबान! इसे लेजाकर दफना दो। इस कमीने ने तो तंग ही कर दिया है।”
दूसरे दिन, जब वह गरीबी उन्मूलन के प्रारूप को अंतिम रूप दे रहे थे, तो दरबान हड़बड़ाया हुआ-सा कमरे में आ घुसा। उसकी घिग्घी बँधी हुई थी।
“मरे क्यों जा रहे हो?” उन्होंने डाँटा।
“हुजूर,
हुजूर!…” दरबान ने भयभीत आँखों से बाहर, द्वार की ओर संकेत करते हुए कहा, “वही
फरियादी फिर आ पहुँचा है!”
3 comments:
दोनो ही अच्छी हैं।। लेकिन आम पाठक शायद मुश्किल से समझ पाये। सारिका नियमित रूप से पढ़ी है बचपन मे । सच कहें तो धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, सारिका और कादम्बिनी मे से सबसे ज्यादा निराशा कादम्बिनी से होती थी। कहानियाँ तो अच्छी आती थीं लेकिन तन्त्र मंत्र, साधू सन्यासी और चमत्कारों से भरे आलेख कभी पसंद नही आये। आज जो ज्यादा पसंद थीं वो पत्रिकायें बची ही नहीं, बस कादम्बिनी बची है।
लघुकथा साहित्य के विकास में जगदीश कश्यप जी के योगदान को नकार पाना संभव नहीं है।
यदि लघुकथा विधा में उनके लेखन सहयोग की चर्चा की जाए तो उनके द्वारा रचित रचनाओं में से तीन तिहाई को तो निःसंकोच सशक्त लघुकथाओं के दायरे में रखा जा सकता है। उनकी लेखनी का सबसे सशक्त पक्ष शायद उनकी संवेदनशीलता ही रहा है।
सादर विनम्र श्रद्धांजलि 💐
दोनों जगदीश कश्यप के अपने खाते ही नहीं, समग्र लघुकथा-ख़ज़ाने की माइल स्टोन रचनाएं हैं! आपने सार्थक ढंग से स्मरण किया लघुकथा-योद्धा को 🙏 नमन उन्हें 🙏
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