Thursday, 30 July 2020

नवें दशक की एक महत्वपूर्ण लघुकथा-कृति : घायल आदमी

_इतिहास के झरोखे से _

चर्चाकार : अनिल शूर आज़ाद



जैसा कि पहले भी लिखता-कहता रहा हूं लघुकथा विधा किन्हीं चार-छह लोगों के किसी अवसरवादी समूह की बपौती नहीं है। सच यह है कि ऐसे निष्ठावान रचनाकारों की फ़ेहरिस्त बहुत लंबी है जिन्होंने अपना खून-पसीना एककर इसे मौजूदा उच्च मुकाम तक पहुंचाया है। ऐसे लेखकों में एक सम्मानित नाम पंजाब के एक छोटे कस्बे बंगा से सम्बन्धित डॉ सुरेंद्र मंथन (अब स्वर्गीय) का भी है।

        वर्ष 1984 में प्रकाशित इनका प्रथम लघुकथा-संग्रह "घायल आदमी" मेरे सम्मुख है। किसी विद्वान का कथन है कि पृष्ठों की गिनती के आधार पर किताब की महत्ता तय करना निहायत बचकाना है। यह उक्ति साधारण रंग-रूप की अड़तालीस पृष्ठीय इस कृति के प्रति सौ फीसदी खरी सिद्ध होती है। इस लघु पुस्तक में शामिल उनतीस लघुकथाओं में अधिकांश इतनी सशक्त हैं कि अनेक नामचीन लघुकथाकार इनके समक्ष कहीं नहीं ठहरते। पिता, भूख, फल, रणनीति, राष्ट्रीयकरण, भीड़, चोट खाया आदमी, दुश्मन, घायल आदमी आदि लघुकथाएं तो एक से बढ़कर एक हैं।

       जानेमाने विद्वान, पंजाब विश्वविद्यालय के रीडर डॉ यश गुलाटी का विद्वतापूर्ण 'आमुख' तथा किताब के अंतिम भाग में सुरेंद्र मंथन की लघुकथा विषयक टिप्पणी 'लघुकथा : सूक्ष्म संवेदना का प्रतिबिंबित रूप' में कई काम की बातें निहित हैं। जैसे, "लघुकथा अनुभूति का वर्णन न होकर अनुभूति का प्रतिबिंबित रूप है। गहन सूक्ष्म  संवेदना इसकी पहली शर्त है तो लघुता दूसरी शर्त। लघुकथा कथा-सारांश अथवा कहानी का संक्षिप्तिकरण नहीं है। लघुता प्रस्तुतिकरण को मारक बनाती है और सांकेतिकता उसे बहुआयामी अर्थ प्रदान करती है।" आगे चलकर सुरेंद्र लिखते हैं "लघुकथा-लेखन को असफल लेखकों अथवा नये लेखकों द्वारा लघुविधि के रूप में अपनाना लघुकथा का प्रथम संकट-बिंदु है; तो इसे चुटकला, व्यंग्य, बोधकथा, कथा-सारांश आदि से विलग न कर पाना  दूसरा संकट-बिंदु। अतएव लघुकथा का स्वतंत्र विधा के रूप में अस्तित्व नारेबाजी का नहीं, कृतित्व का मोहताज है।" ऐसा लिखकर इन्होंने यथार्थ पर पकड़ बरकरार रखी है। यही सब मिलकर इसे नवें दशक की एक महत्वपूर्ण लघुकथा कृति भी बनाते हैं। पाठकों के संदर्भ के लिए इसी संग्रह से एक लघुकथा भी प्रस्तुत की जा रही है।
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_लघुकथा _
भीड़

*सुरेंद्र मंथन

मुझे सही रास्ते का पता नहीं था। जिधर अधिक लोग जा रहे थे मैं भी उधर ही चलता गया। मेरा अनुमान सही निकला। वे भी योगीराज के आश्रम को जा रहे थे।

     तीन घन्टे की प्रतीक्षा के बाद मेरी बारी आई। योगीराज लंबी-चौड़ी पूछताछ करते थे। कभी लय में आकर हारमोनियम पर गाने लगते। उन्होंने विशेष कुछ नहीं बताया। वैसे जब इतने लोग वहां जाते हैं, तो उनमें कोई चमत्कार तो होगा ही।
    
     वापसी पर सड़क-किनारे चाट की रेहड़ियां खड़ी दिख गयीं। भूख चमक उठी। जिस रेहड़ी पर अधिक भीड़ थी, मैं उधर ही बढ़ गया।●

1 comment:

उदय श्री ताम्हणे said...

"भीड़" में भी कसावट। वह दौर ऐसी ही लघुकथाओ का था। सुंदर प्रयास।