महेश दर्पण ने लघुकथा-लेखन में आठवें दशक में ही पदार्पण कर लिया था। तभी से उन्होंने जीवन के बेहद नजदीक की लघुकथाएँ इस विधा को दी हैं। उनका पहला लघुकथा संग्रह 'मिट्टी की औलाद' (1997) और दूसरा 'हमारा समय' (2015) चर्चित रहे हैं। ये चारों लघुकथाएँ कथाकार बलराम द्वारा चार खंडों में संपादित 'बीसवीं सदी की लघुकथाएँ' (2003) के तीसरे खंड 'पाप और प्रायश्चित' से साभार उद्धृत हैं। इनमें आप मनोभावों की बारीक बुनावट के साथ नौवें और दसवें दशक के लघुकथा-लेखन की खनक भी सुन सकते हैं।
मन
का चोर
महेश दर्पण |
“मैं
बाल कटवाने जा रहा हूँ। तुम तब तक बर्तन माँजकर कमरों में झाड़ू लगा लेना। और हाँ,
मुझे आने में देर हो जाए तो ताले लगाकर चाबी पड़ोस में दे जाना।”
कामवाली को समझाकर मित्र के साथ मैं घर से बाहर हो लिया।
मित्र
को मेरी यह लापरवाही कतई पसंद न आई।
“तुम्हें
पता नहीं,
कैसे होते हैं ये लोग? पहले तो विश्वास जीत लेंगे
आपका और फिर एक रोज चूना लगाकर चलते बनेंगे। पूरा घर इस तरह खुला छोड़ आना भी कोई
समझदारी होती है?”
“अपने
यहाँ रखा ही क्या है यार! कोई चाहेगा भी तो क्या ले जाएगा?” मैंने आदतन उसे चुप करा दिया।
बाल
कटवाते वक्त अनायास ध्यान हो आया कि अलमारी में 700 रुपये यों ही छोड़ आया हूँ। अलमारी बंद हो, सो भी नहीं। मित्र का कहा
बार-बार कानों में बजने लगा। उसके चेताने पर भी तो मैं... पर अब किया ही क्या जा
सकता था!
बाल
कटवाकर आदत के ठीक विपरीत पाँव मुझे सीधे घर खींच ले गए। पड़ोस से चाबी लेकर ताला
खोलने के बाद पहला काम मैंने पर्दा हटाकर अलमारी देखने का किया। 100 - 100 रुपये के साथ नोट ठीक
उसी तरह करवट लिए निश्चिंत पड़े थे, जैसा मैं उन्हें छोड़
गया था। घर पहले से कहीं ज्यादा ठीक-ठाक नजर आ रहा था। मैं सोच ही रहा था कि बेकार
उस भली औरत पर शक किया कि वह फिर आ पहुँची, “आ गए बाऊ जी!
डॉक्टर साहब के याँ जा रई थी। गेट खुला देखा, तो मैंने कही,
जरा देख लऊँ, गर्मी के दिनन में चोरी-चकारी का
डर रहवै है न!” कहकर वह तो चली गई, पर मैं देर तक शीशे के
सामने सिर झुकाए खड़ा रहा।
शहर-बाजार
बाजार
की चमक रामदीन की कल्पनाओं तक को मात कर गई थी। पहनने-ओढ़ने से लेकर खाने-पीने तक,
और खेलने-कूदने से लेकर दुनिया-जहान तक... कौन-सी चीज थी, जो वहाँ मौजूद न थी!
‘यहाँ
सँभल कर रहना जरूरी है!’ रामदीन ने सोचा और अपनी टेंट को सँभालते हुए निश्चिंत हो गए।
किसी ने चलते समय कहा जो था—‘देखते-देखते जेब कट जाती है शहर में!’
फ्रॉक
उठाकर देखा-भर तो था रामदीन ने। जाने कैसा पहाड़ टूट पड़ा—“पैसे निकाल जल्दी!... घंटे
भर से कपड़े खराब कर रहा है।” पास ही खड़े एक युवक ने कहा।
खरीदार
की हैसियत से रामदीन कुछ कहते, इससे पहले ही
दूसरा युवक सामने आ गया, “अरे, ये तो
उठाईगीर है... उठाईगीर!”
रामदीन
अपने आप को इज्जतदार आदमी बताते, उससे पहले ही
बगल की दुकान से उठकर आया युवक उनका दायाँ हाथ थाम चुका था, “क्यों
बे, कपड़ों पर हाथ साफ करने आया था?”
“नहीं
भैया,
मैं तो खरीदने के ताईं देख रहा था... ” रामदीन की आवाज बेहद सहमी
हुई थी।
“खरीदने
के लिए!” युवक ने दूसरा हाथ रामदीन के बाएँ कंधे पर रख दिया,
“खरीदना है तो निकाल पैसे... या फिर बुलाऊँ पुलिस को?”
बेबात
पुलिस का झंझट सिर पर आता देख रामदीन की घिग्गी बँध गई। उन्होंने टेंट से निकाल कर
देखे तो कुल जमा 40
रुपये थे। ‘घर भी तो लौटना है!’... सोच
ही रहे थे कि तीनों युवक करीब-करीब एक साथ आगे बढ़े। एक ने झपटकर उनके हाथ से 10-10
के चार नोट छीन ही तो लिए। बेबस, भौंचक देखते
रह गए रामदीन। अँधेरा ही अँधेरा उनकी आँखों के सामने घिर आया था।
“यह
ले 5
रुपये!... और हो जा उड़न छू!” दुकानदार ने उनकी तंद्रा को तोड़ा तो
वे 5 का नोट मुट्ठी में जोर से भींचे पस्त चाल से आगे बढ़
लिए। चलते-चलते कुछ देर तो वे मोमिया थैली में से बार-बार फ्रॉक को निकालकर देखते
रहे, फिर उसे थैले में रख अपने भीतर खो गए। उन्हें पता ही न
चला कि चौक पर एक ही जगह कितनी देर खड़े रह गए थे।
“ए,
खाली हो? सामान ले जाना है!” कोई शहरी बाबू
पूछ रहा था।
रामदीन
ने एक नजर बाबू पर दौड़ाई और फिर अपने भीतर लौट गए... ‘अरे बाप रे! यहाँ तो एक जगह
चुपचाप खड़ा होना भी गुनाह है!! कौन जाने कोई आके हमारी कीमत ही पूछने लगे!!!’ उन्होंने
खुद से कहा और तेज चाल से स्टेशन की तरफ चल दिए।
एहसास
8
महीनों बाद उसे यह मौका हाथ लगा था। शीशे के सामने खड़ा वह चेहरा
निहार रहा था। उसे लगा कि कनपटी पर के बालों में सफेदी उभर आई है और मूंछ के बाल
बेतरतीब बढ़े चले जा रहे हैं। दाढ़ी पर हाथ फिराते हुए तो उसकी हँसी ही छूट गई। घर
से दफ्तर और दफ्तर से घर के बीच झूलते हुए वह अपने आप से ही मिल नहीं पाता था।
पत्नी
जाने कब पीछे आ खड़ी हुई थी। जैसे ही उसने अपनी ठोड़ी उसके कंधे पर रखी,
वह घबरा गया। तभी उसे शीशे पर पत्नी का चेहरा नजर आ गया।
“आज
कोई खास बात नजर आती है।” पत्नी ने चेहरा घुमाकर पूछा।
“हाँ,
खास बात तो है ही!” कहते हुए वह पत्नी की आँखों में तैरने लग गया।
“क्या
बात है?
जल्दी बताओ।” इस बार पत्नी उससे सट ही गई।
“देखते-देखते
कितना वक्त गुजर गया न! अपनी शादी को पूरे 10 साल
हो गए!” उसने कहा और पत्नी का चेहरा गौर से देखने लगा।
तर्क
सिगरेट
सुलगाकर अभी वह पहला कश ही ले पाया था कि सामने से आती चाची दिखाई दे गई। साथ में
चल रही औरतों के संग बातचीत में मशगूल होने की वजह से चाची का ध्यान उस तक भले ही
न पहुँचा हो, मगर धुआँ उसके नाक और गले के
बीच घूम रहा था। सिगरेट को उसने तुरंत उँगलियों के घेरे में छिपा लिया। एक मन हुआ
कि झट से सिगरेट को फेंक चाची के हाल-चाल पूछ ले, तभी दूसरा
मन सामने आ खड़ा हुआ—‘पूरे 1 रुपए की सिगरेट है! इस तरह सब का लिहाज करते रहे तो जीना दुश्वार
हो जाएगा!’
चोर
आँखों से उसने देखा, चाची अब महज दस-पाँच
कदम दूर रह गई थी। गनीमत बस यही थी कि अब तक उनकी नजर उस पर नहीं पड़ी थी।
उसके
भीतर तर्क का एक तिनका उठ खड़ा हुआ—‘शर्म तो आँखों की होती है यार! चाची ने मुझे
देखा ही नहीं तो फिर काहे की शर्म!!’
पल
भर में,
बिजली की-सी फुर्ती से, जब तक चाची उसके करीब पहुँचती, उसने पीठ फेर ली!
संपर्क—सी-55,
गली नं॰ 5, सादतपुर विस्तार, दिल्ली-110090 / मो 90132 66057
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