'दृष्टि' का सद्य: प्रकाशित अंक 8 (जनवरी-जून 2020) ‘समकालीन लघुकथाओं का जनपथ’ पिछले कुछ दिनों से मेरे साथ है। कोरोना जैसे वैश्विक संकट में इस अंक का प्रकाशन व वितरण संपादक अशोक जैन की लघुकथा विधा के प्रति स्नेह का द्योतक है, जिस हेतु संपादक सहित समस्त टीम बधाई की पात्र है। आइए! इस अंक पर पाठकीय दृष्टि डालते हैं;
वरिष्ठ लघुकथाकार और कलाकार मार्टिन जॉन द्वारा सृजित आवरण रेखाचित्र बहुत नयनाभिराम और आकर्षक है। ‘सम्पादक की कलम से’ में संपादक अशोक जैन का कथन है कि ‘लघुकथा किसी घटना से उपजे सार्वकालिक विचार का संतुलित रूप है।’ यहाँ शब्द ‘सार्वकालिक विचार’ अत्यंत महत्वपूर्ण है। सार्वकालिक अर्थात् कालजयी। कालजयी क्या हो सकता है- वह जो सार्थक है और सार्थक क्या है? जो प्रासंगिक है। इसका अर्थ हुआ कि जो रचना अपने युग के केन्द्रीय सत्य और परिवेश को सही अभिव्यक्ति करती है वह प्रासंगिक है। इस सार्थकता की एक पहचान और है वह है इसकी जीवन सापेक्षता। जीवन के रूप, रस और गंध से परिपूर्ण रचनाएँ निश्चित ही सार्थक होती है और ऐसी ही रचनाएँ देश और काल की सीमाओं का अतिक्रमण ‘सार्वकालिक’ हो जाती हैं। संपादकीय बहुत संक्षिप्त लिखा है और उसमें भी लगभग आधे पृष्ठ पर अंक के बारे में बात की गई है, मेरे विचार से यह कार्य अनुक्रमणिका का था। अच्छा होता यदि संपादक महोदय अपने कुछ और विचार लिखते ताकि पाठक उनके असीम अनुभव से लाभान्वित हो पाते।
आलेख-1 ‘हिन्दी लघुकथाः कथ्य, शिल्प और शैलीगत नवीन प्रयोग’ लघुकथा के वरिष्ठ व सशक्त हस्ताक्षर बलराम अग्रवाल द्वारा रचित है। यह आलेख एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है जिसकी प्रासंगिकता भविष्य में भी बनी रहेगी ऐसा मेरा ध्रुव विश्वास है। इस आलेख के माध्यम से बलराम अग्रवाल ने ‘प्रयोग’ शब्द को बहुत प्रभावशाली व व्यवहारिक ढंग से पाठकों के सामने रखा है। आलेख के प्रथम अनुच्छेद में कथित ‘प्रयोगधर्मी’, जनवादी और प्रगतिशील लेखकों पर टिप्पणी व आगे चलकर कमलेश भट्ट ‘कमल’ के उद्धरण से एक अत्यंत गंभीर व महत्वपूर्ण आलेख अपने मंतव्य से भटकता दिखाई देता है जिससे थोड़ी निराशा हुई। प्रयोग की आवश्यकता को इंगित करती पंक्ति- ‘नये विचार प्रतिपादित करने की ओर अग्रसर’ होने का दबाब ही व्यक्ति को प्रयोगशीलता की ओर ठेलता है- से पूर्ण सहमत होते हुए कहना चाहूँगा कि रचना से प्रयोग बलात् नहीं अपितु सहज होना चाहिए अन्यथा नवीन प्रयोग की का मोह दुर्निवार हो जाता है। रचनाकार सहज-स्वभाविक जीवन से विमुख होकर नवीनता के चक्कर में अद्वितीय और अतिरेकी वस्तु स्थितियों की तलाश में उलझकर रह जाता है। सहज जीवन से असंपृक्त रसहीन रचना को पाठक हृदयंगम नहीं कर पाता। ‘परंपरा से प्राप्त जमीन को आधारस्वरूप अपनाए बिना साहित्य में कोई प्रयोग संभव नहीं है।’ इस पंक्ति से कदाचित असहमत नहीं हुआ जा सकता। भगीरथ परिहार की ‘धर्मिक होने की घोषणा’, संध्या तिवारी की ‘ग्रे शेड’ व चैतन्य त्रिवेदी की लघुकथा ‘उल्लास’ की उदाहरण से यह बात अच्छे से समझ आ जाती है कि कथा-तत्व से विहीन रचनाएँ भले ही कुछ विशिष्ट पाठकों/आलोचकों को आकर्षित भले ही कर ले परंतु सामान्य पाठक इन्हें नकार देता है। कथा कहन की वर्णन, कथोपकथन व मिश्रित शैलियों के माध्यम से यथोचित उदाहरण देकर संवाद शैली की महत्ता को रेखांकित किया गया है। आलेख के अंत में अबूझ भाषा और ऊटपटांग कथा-प्रस्तुति को तथाकथित ‘प्रयोग’ कहने वालों की अच्छी खबर ली है।
प्रखर आलोचक व लघुकथार माधव नागदा रचित ‘युवा मन को संस्कारित करने में सक्षम हैं लघुकथाएँ’ आलेख-2 में पाठ्यक्रम में शामिल लघुकथाओं पर सार्थक चर्चा की गई है और ‘आज हिन्दी विभागों के गलियारों में जहाँ मैला आँचल, चीफ की दावत, डिप्टी कलक्टरी, पार्टीशन, तिरिछ का जिक्र किया जाता है कल बर्थडे गिफ्ट, मूर्ति रहस्य, माँ का कमरा, भ्रम का बाजार में, पेंट की सिलाई, गो भोजन कथा, बाजार जैसी लघुकथाओं की भी बात करेंगे।’ पंक्तियाँ पढ़ते समय सुखद अनुभूति का अहसास होता है। माधव नागदा का कथन, ‘रुग्ण समाज की चिकित्सा के लिए लघुकथा इंजेक्शन की तरह त्वरित है जबकि कहानी मुँह से ली जाने वाली दवा की तरह अपेक्षाकृत धीमे प्रभाव वाली।’ अत्यंत सटीक व प्रभावशाली है। कतिपय लघुकथाओं के उदाहरण से यह सिद्ध करने का सद्प्रयास किया गया है कि यह लघुकथाएँ साहित्य और शिक्षा के उद्देश्यों को पूर्ण करने का सामथ्र्य रखती हैं।
आलेख-3 ‘सार्थक लघुकथा लेखनः नवोदित कितने असरदार’ में विरेन्द्र वीर मेहता लघुकथा के नवीन अभ्यासियों को सतत अभ्यास और वरिष्ठों के मार्गदर्शन से अपनी रचनाओं को तराशने, झूठी प्रशंसा से भ्रमित न होने का परामर्श देते हैं। साथ ही प्रकाशन के ‘तिकड़मी बाज़ार’ के भ्रमजाल से आगाह करते हुए अशुद्ध भाषा और लचर व्याकरण की स्वभाविक अपरिपक्वता के प्रति सतर्क भी करते हैं। वीर मेहता का चंद्रेश छतलानी, संध्या तिवारी, कुणाल शर्मा, सीमा सिंह, जानकी वाही, ज्योत्साना कपिल, दिव्या राकेश और कुमार संभव जोशी सरीखे साथी रचनाकारों को नई पीढ़ी के अथवा नवोदित/नवांकुर कहना कुछ उचित नहीं लगा क्योंकि हम सभी लगभग 2014-15 से साथ लिख रहे हैं, इन्हें साथी अथवा समकालीन रचनाकार कहना अधिक उचित होता। आलेख के अंत मेे ‘वर्तमान में जितना प्रचार और प्रसार लघुकथाओं के प्रकाशन और उनकी मार्केटिंग पर किया जाता है उतना ही प्रयास आखिर इस नई पीढ़ी के विकास के लिए क्यों नहीं किया जाता।’ से अंशिक तौर पर सहमत हूँ क्योंकि लघुकथा कलश, दृष्टि, संरचना, क्षितिज और लघुकथावृत्त समेत बहुत से लघुकथा अनुरागी इस दिशा में गंभीरता से प्रयासरत हैं।
इस अंक के विशिष्ट लघुकथा वरिष्ठ साहित्यकार और लघुकथा के उन्नयन में महती योगदान देने वाले बलराम ‘प्रेम नारायण’ है, जिनकी पाँच लघुकथाएँ क्रमशः ‘मसीहा की आँखें’, ‘चैन-बेचैन’, ‘गंदी बात’, ‘जिस्म अकेला’ और ‘हेर-फेर’ कथानक, प्रस्तुतिकरण और शिल्प में अपने-आपमें विलक्षण हैं।
इस अंक में 112 लेखकों की ‘प्रिय लघुकथाएँ’ उनके अल्प वक्तव्यों समेत शामिल की गई हैं। सभी रचनाएँ पढ़ने के बाद मैं कह सकता हूँ कि जो रचनाएँ लेखक को प्रिय होती हैं वह उनके जीवन से कहीं न कहीं जुड़ी होती है अर्थात् जो रचनाकार ने अनुभूत की हुई होती हैं। इससे अमृतराॅय के कथन, ‘जो जीया है वही लिखो और जो लिखना है पहले उसे जीयो।’ को प्रौढ़ता प्रदान करती है। अंजलि गुप्ता की लघुकथा ‘बाॅर्नविटा वाला दूध’ एक मार्मिक व साकारात्मक लघुकथा है। जीवन की कठिनाइयों को नियति मानकर घुटने टेकने की बजाय संघर्ष करने का सार्थक संदेश देती लघुकथा पाठकीय संवेदनाओं को झकझोरने में सफल सिद्ध होती है। अंजू खरबंदा की लघुकथा ‘नयी पार्टी’ का नया कथानक और आदर्शवादी अंत पाठक को आकर्षित करता है परन्तु इस लघुकथा का शीर्षक कमजोर रह गया। अंतरा करवड़े की ‘गह्वर’ लघुकथा कुछ अस्वभाविक व कृत्रिम प्रतीत होती है परंतु इसका शीर्षक अवश्य आकर्षित करता है। अंगदान की महत्ता को रेखांकित करती अनघा जोगलेकर की ‘ज़िंदगी का सफर’ एक आदर्श लघुकथा है। पर लघुकथा के अंत में माँ का संवाद ‘इसका इलाज मिले-न-मिले लेकिन जब वे तेरे दिल को छुएँगे न... तो जीवन जीने की कला जरूर सीख जाएँगे।’ अत्यंत बनावटी लग रहा है। कोई भी माँ अपने बच्चे की मौत का सोचकर ही सिहर उठती है ऐसे में माँ का यह संवाद गले से नहीं उतरता। इस लघुकथा का शीर्षक चयन भी कुछ फिल्मी-सा प्रतीत होता है। अनिल शूर आज़ाद की लघुकथा ‘माँ’ नख से शिख तक बेहतरीन रचना है। अत्यंत यथार्थवादी लघुकथा ‘चिता किसकी’ में अनिल श्रीवास्तव ने जीवन के नग्न यथार्थ को सहजता से अनावृत्त किया है परंतु इस लघुकथा की अंतिम पंक्ति और अंतिम पंक्ति इस लघुकथा का कमज़ोर पक्ष है। अंतिम पंक्ति ‘काका समझ नहीं पा रहे थे कि पहले चिता किसकी जली- हेमंत की या उसके बाबू की!’ पाठक के चिंतन को कुछ नहीं छोड़ती। अर्चना मिश्र की लघुकथा ‘चोबदार’ भी एक प्रभावशाली रचना है जिसमें पुरुष अहं और पद की गर्मी को बहुत अच्छे ढंग से रेखांकित किया गया है और इस लघुकथा की अंतिम पंक्ति ‘भानु प्रताप पहली बार जज नहीं किसी फरियादी की तरह सज़ा सुनकर अवाक रह गये।’ अपना गहर असर पाठकों पर छोड़ती है। अशोक गुजराती की ‘तेरा तुझको अर्पित, क्या लागे मेरा’, अशोक दर्द की ‘युग-विडम्बना’ और अशोक भाटिया की ‘भीतर का सच’ भी पाठकों पर यथेष्ट प्रभाव छोड़ती हैं।
अशोक वर्मा की ‘भीतर का आदमी’ के वक्तव्य में इस लघुकथा की प्रस्तुति के प्रस्तुतिकरण के निराले अंदाज़ की बात से मेरी कुछ असहमति है क्योंकि 200 से कम शब्दों की इस लघुकथा में ‘एक स्वर जो उसके कानों से आ लगा’ लगभग 160 शब्दों का उबाऊ और संवाद है जो इस लघुकथा की गति को शिथिल कर रहा है। अशोक शर्मा ‘भारती’ की ‘पंद्रह अगस्त’ का शीर्षक चयन बाकमाल है जो लघुकथा के कथानक से पूरा न्याय कर रहा है। शोषण के विरोध में हरिया का उठ खड़ना और अंतिम पंक्ति में ‘गाँव इकट्ठा हो चुका था।’ बदलते वक्त में नए सूर्योदय की ओर संकेत करता है। भूखे व्यक्ति के लिए धर्म, समाज और राजनीति से उपर रोटी की प्राथमिकता को रेखांकित करती आभा सिंह की लघुकथा ‘दृष्टिकोण’ में कारीगर का संवाद ‘रावण तो हमार भगवान है, हमार रोजी-रोटी है।’ इस कथ्य को प्रमाणिकता प्रदान करता है। लिंगभेद के इस अंधे युग में बेटी की कमी को आशा लता खत्री की लघुकथा ‘आप नहीं समझोगे’ में मार्मिकता से दिखाया गया है। आशालंगा प्रमोद शिरढोणकर की लघुकथा ‘बेबस’ अपने समय से आगे की रचना है जो शायद परंपरागत पाठकों के गले से नीचे न उतरे। बेबस पिता रामलाल बेटियों के पतरे ज्योतिषी के सामने रखते हुए पूछता है,‘मेरी तीनों बेटियाँ शादी कब करेंगी?’... के माध्यम से एक गंभीर प्रश्न उठाता है। आशीष दलाल की लघुकथा ‘पहल’ एक सार्थक लघुकथा है। एक दरिंदे की दरिंदगी की सज़ा एक मासूम क्यों भुगते का सार्थक संदेश प्रेषित करती इस लघुकथा में सास का एक संवाद है- ‘वह बच्ची अपनी रीतू की तरह ही मासूम है।’ रीतू जो शायद उसकी पोती है, उससे दरिंदगी की शिकार बच्ची की तुलना करना समाज को हैवानियत की शिकार बच्चियों से सहानुभूति रखने कर संदेश देता है। ‘पहल’ जैसी सार्थक रचनाएँ समाज के लिए प्रकाशस्तंभ का कार्य करती हैं। इस लघुकथा का अर्थगर्भी शीर्षक इसकी अन्यंत्र विशिष्टता है। हालांकि इस लघुकथा की अंतिम पंक्ति के ‘सास के समझदारी भरे वाक्यों को अमल में रखते हुए’ यह शब्द इस लघुकथा को कुछ कमज़ोर बना रहे हैं। ऋचा वर्मा की ‘पापा आप सही हैं’, ओम प्रगास क्षत्रिय की ‘जीते जी’, कनक हरलालका की ‘बंद ताले’ और कमल कपूर की ‘भागभरी’ भी अच्छी रचनाएँ हैं। कमल चोपड़ा की लघुकथा ‘खेलने के दिन’ इस अंक की बेहतरीन रचनाओं में से एक है। कमलेश भारतीय की ‘विश्वास’, कल्पना भट्ट की ‘पार्षद वाली गली’ भी ध्यान आकर्षित करती हैं। इसमें कमला की पात्रानुकूल भाषा इस लघुकथा की स्वभाविकता को अच्छे से उभार रही है। कांता राॅय की लघुकथा ‘चेतना की चाभी’ एक सधी हुई प्रभावशाली रचना है। कुणाल शर्मा की ‘स्वेटर’ का शीर्षक चयन भले ही स्थूल शीर्षक चयन है परंतु इस लघुकथा की अंतिम पंक्ति ‘पर खिड़की से आती ठंडी हवा से उसके चेहरे पर उभरे रोंगटे साफ नज़र आ रहे थे।’ को पढ़कर पाठक के रोंगटे अवश्यक खड़े हो जाते है।
कुमार नरेन्द्र की लघुकथा ‘सेहरा’ पठन से पता चलता है कि यह एक प्रौढ़ और सशक्त रचनाकार की कृति है। लघुकथा सरीखी कोमलांगी विधा में एक-एक शब्द महत्व रखता है। इस लघुकथा में सुधा का एक संवाद है- ‘अब यह स्वांग नहीं रहा। उठिए जी!’ यहाँ शब्द उठिए जी! पर विशेष ग़ौर चाहूँगा। इन दो शब्दों से ही लेखक ने बता दिया कि सुधा ने दिल से पत्नी का रिश्ता स्वीकार कर लिया है। वाह कुमार नरेन्द्र जी! कुसुम जोशी की लघुकथा ‘वो आयेगा’ एक माँ के अंतहीन इंतज़ार को मार्मिकता से दिखाकर संवेदनशील पाठक को मानसिक रूप से झकझोरने के सफल साबित होता है। कृष्ण गंभीर ‘भुक्खे’ लघुकथा के माध्यम से श्रमिक वर्ग की वास्तविकता के रेशे-रेशे को उघाड़ा है। आंचलिक भाषा से सुसज्जित इस रचना के वर्णन में एक जगह ‘परोगराम सिल्मां’ का उल्लेख आता है। मेरे विचारानुसार भाषा का विकार संवादों में तो चल जाता है बल्कि यूँ कहे कि भाषा का विकार संवादों में स्वभाविकता लाता है परंतु विवरण में इस तरह लिखना उचित प्रतीत नहीं होता। जातिभेद पर तीक्ष्ण प्रहार करती कृष्ण महादेविया की लघुकथा ‘प्रहार’ भी एक प्रभावशाली रचना है। कृष्ण मनु की ‘बाप’ लघुकथा में तेज़ी से घटती घटनाओ और अंत तक आते-आते इंस्पेक्टर द्वारा सेल्फी लेने से कुछ अस्वाभिक लगती है। कोमल वधवानी प्रेरणा की लघुकथा ‘देहदान’ कुछ संपादन की माँग कर रही है। वृद्धा की मौत को फ्लैशबैक में दिखाकर जहाँ काल-अंतराल से बचा जा सकता था वहीं ‘ग्वालियर के नेत्रदान’ को किस्से को मनफ़ी करके इसमें से वैयक्तिकता के भाव को दूर किया जा सकता था। लघुकथा की अंतिम पंक्ति ‘अब मेरे मन पर पड़ा टनों बोझ मानो न जाने कहाँ गायब हो गया था।’ की वजह से लघुकथा लाउड हो रही है इसके स्थान पर पात्र के अनुभावों द्वारा दर्शाया जा सकता था।
गिरिजेश सक्सेना गिरिश की लघुकथा ‘गजानन उवाच’ शुरुआत से मध्य तक बहुत अच्छी बनी है। गजानन के संवाद- ‘वही सरोवर जहाँ मनुष्य जल-मल करते हैं, स्नान करते हुए मूत्र विसर्जन करते हैं, जिसमें बेखौफ मवेशी विचरते हैं, जिसमें कारखानों का पानी सीवरेज मिलता है...!’ के माध्यम से एक ज्वलंत मुद्दा उठाया गया था। और भक्त के ‘प्रभु उपाय?’ पर गजाजन कोई प्रतिक्रिया नहीं देते... यहीं से लघुकथा अपने लक्ष्य से भटक जाती है। लघुकथाकार को अर्जुन की भांति अपने लक्ष्य पर एकाग्र होना चाहिए। इस लघुकथा का शीर्षक चयन प्रभावित करता है। चंद्रेशकुमार छतलानी की फैंटसी शैली में रचित लघुकथा ‘मृत्युदंड’ की अंतिम पंक्ति‘... लेकिन उनमें कृष्ण मर गया है।...’ पाठकीय चेतना को एक बौद्धिक झटका देती है। अल्प परंतु यथोचित शब्दों में सृजित यह लघुकथा कलात्मकता की पराकाष्ठा है। सामाजिक रूढ़ियों पर तीव्र प्रहार करती जगदीश राय कुलरियाँ की ‘मुक्ति’ भी एक क्रांतिकारी रचना है।
जया आर्य की ‘जी लो यार’ का प्रथम अनुच्छेद कुछ चुस्त किया जा सकता था। आगे चलकर रज़िया ने राज से कहा,‘दिल्ली सरकार की बात माननी पड़ेगी।’ बनावटी संवाद लग रहा है। चूंकि दोनों उसी शहर में रहते हैं तो अमूमन लोग बातचीत में राज्य विशेष का नाम न लेकर केवल ‘सरकार’ ही कहते है। इस लघुकथा में ‘रज़िया के मन में ख्याल आयाः’ अवांछित लेखकीय प्रवेश का आभास दे रहा है। इस रचना में एक तथ्यात्मक त्रुटि लग रही है, चूँकि रज़िया के दिल्ली निवासी होने के संकेत मिल रहे है तो ऐसे में उसका भिंड में ट्रांसफर होना... एक त्रुटि ही लग रहा है।
जानकी वाही ‘जुगनू’ के माध्यम से बेटी को माँ का वंश देने के अल्प प्रयास से अँधेरे को चीरकर नई रोशनी दिखाने के प्रयास में सफल रही है। शैल्पिक तौर से यह सुगठित लघुकथा है जिसका शीर्षक कथानक से पूरा न्याय कर रहा हैै। ज्ञानप्रकाश पीयूष ने आदर्शवादी लघुकथा ‘कोथली’ के माध्यम से रीति-रिवाजों की सार्थकता को रेखांकित करने का सद्प्रयास किया है। ज्योति जैन की ‘जीजिविषा’ को पढ़कर बाबा आज़मी का शेअर बरबस याद हो उठता हैः
बेहिम्मते ने जिहड़े बहि के शिकवा करन मुकद्दरां दां,
उगण वाले उग पैंदे ने सीना पाड़ के पत्थरां दां।
(कायर लोग किस्मत को रोना रोते हैं जबकि नन्हा पौधा पत्थर को फाड़कर उग आता है)
त्रिलोक सिंह ठकुरेला की ‘हरा दुपट्टा’ और देवराज डडवाल की ‘बेटी का बाप’ भी अपना कुछ प्रभाव पाठकों पर छोड़नी है। सामथ्र्य होने के बावजूद परिस्थितिवश कुछ न कर पाने की विवशता को नरेन्द्र गौड़ की रचना ‘खून और पानी’ मार्मिक ढंग से उभारा गया है। निधि अग्रवाल की लघुकथा ‘हत्यारा’ पाठक को आद्यांत बाँध रखने में सक्षम सिद्ध दिखाई देती है और इसका शीर्षक चयन भी प्रभावित करता है। नीता सैनी की ‘माँ का बरसाती वाला कमरा’ लघुकथा के भेद को पहले ही खोल देता है और केमिस्ट का बेटे से संवाद में बनावटीपन झलकता है। नीना छिब्बर की ‘लव यू जिंदगी’ भी प्रभावशाली रचना है। नीरज सुधांशु की ‘सक्षम’ एक कालजयी लघुकथा है। ‘कनखियों से उसे निहार रही, पास बैठी कलीग से, उसका यह हाल देखा नहीं गया। आखिर उसने कह ही दिया, ‘नीचे जाकर देख क्यों नहीं आती? दिल को तसल्ली हो जायेगी।’ इन पंक्तियों के माध्यम से माँ की अधीरता का सटीक चित्रण किया गया है। हालातों का सामना करके उनपर विजय प्राप्त करके ‘सक्षम’ होने का अहसास माँ और पाठक के होंठों पर एक मुस्कान ला देता है। बनावटी गरीबों
और सरकारी तिकड़मों को पदम गोधा ने ‘मुफ्त के मकान’ में अच्छे से अनावृत्त किया है। पवन जैन की ‘चैम्पियन’ वाकई चैम्पियन रचना है। पवित्रा अग्रवाल ने ‘बैठी लक्ष्मी’ के माध्यम से अंधविश्वासों के प्रति जागरूक रहने का संदेश दिया है। सारगर्भित लघुकथा ‘घुटन’ में पुरुषोत्तम दुबे ने वैश्विक समस्या प्रदूषण से सचेत करते हुए शानदार रचना रची है जिसकी अंतिम पंक्तियाँ ‘अमृत के दानदाता कुल्हाड़ियों के घावों के से इस कदर निष्ठुर हो गए कि इन्होंने भी ज़हरीली हवाओं को मुँह लगाना छोड़ दिया है।’ इस विभीषका के परिणाम से पाठकों को सचेत करतीं है।
पूनम डोगरा की ‘तेरी सज़ा’ एक अलग फ्लेवर की लघुकथा है। इस लघुकथा का कथानक और कथानक-निर्वाहन बाकमाल है। एसिड अटैक की शिकार लड़की का दोषी की बेटी को देखकर ‘ईश्वर करे कोई वहशी तुम तक कभी न पहुँच पाए गुड़िया... खुश रहो हमेशा...’ इस लघुकथा को नई ऊँचाइयों पर पहुँचा रहा है। यह लघुकथा टेलीफिल्म बनाने के लिए एकदम परफ्ेक्ट है। प्रदीप कुमार शर्मा की लघुकथा ‘मजबूरी’ गरीब जनता का ‘भीड़’ के रूप में इस्तेमाल करने वाले भ्रष्ट राजनीतिक नैक्सस की कुटिल चालों को अनावृत्त कर रहा है। हालांकि इस लघुकथा का घिस शीर्षक अत्यंत स्थूल चयन है। प्रभात दुबे की ‘शुक्रिया’ में ‘दो महीने में तीन बार ब्लड डोनेट’ करने की तथ्यात्मक त्रुटि है और इस लघुकथा की नाटकीयता इसे असलीयत से दूर ले जा रही है। प्रेरणा गुप्ता की ‘वफा का बंधन’ ठीक-ठाक रचना है। बलराम अग्रवाल की ‘अकेला कब तक लड़ेगा जटायु’ तो खैर एक कालजयी लघुकथा है। फंटासी शैली में रचित बीना राघव की लघुकथा ‘वक्त चिंघाड़ता है’ भावों की अभिव्यक्ति का शानदार नमूना है। लघुकथा की अंतिम पंक्ति ‘बस इतना बता दो कि तुमने अपनी बहन-बेटी को ऐसे किसी ज़ाॅम्बी से बचाने के लिए किस गुफा में छिपा रखा है?’ पंचलाइन का सशक्त और शानदार उदाहरण है। भगवान वैद्य प्रखर की ‘हर बार’ की उचित पात्रानुकूल व परिवेशानुकूल भाषा इस लघुकथा को सहजता और रवानगी प्रदान कर रही है। भगीरथ की ‘तानाशाह और चिड़ियाँ’ एक सशक्त लघुकथा है। भारती कुमारी की ‘वो राधा नहीं बनेगी’ शानदार रचना है बस इसकी अंतिम पंक्तियाँः- ‘उसकी ओझल होती पीठ को देखकर .... राधा की पीड़ा...?’ इसे लाउड कर रही हैं। यह पंक्तियाँ हटाने से लघुकथा की प्रभावोत्पादकता पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं आएगा। भोलानाथ सिंह की ‘सुधारगृह’ एक फार्मूलाबद्ध रचना है जिसके अंत का अंदाजा पाठक को शुरू से ही हो जाता है। मंजू शर्मा की ‘सदमा’, मधु जैन की ‘एक खिड़की अपनी-सी’ कोई विशेष प्रभाव छोड़ने में नाकामयाब लगती हैं। महिमा श्रीवास्तव की ‘सुलगते आँसू’ में नारी का विद्रोही सुर को मुखरता से प्रस्तुत किया गया है हालांकि इस लघुकथा के शीर्षक में फिल्मीपन नज़र आता है। माधव नागदा की ‘मेरी बारी’ एक मार्मिक लघुकथा है। इस लघुकथा में राजस्थानी आंचलिक शब्द ‘काबर-तीतरा’ के मेरा ध्यान खींचा। विवरण शैली में रचित मालती बसंत की ‘दो बत्ती वाला मकान’ की चित्रात्मकता पाठक को प्रभावित करती है।
मिन्नी मिश्रा की ‘वेदना’ एक गहन प्रतीकात्मक लघुकथा है। मेज का बाप को देखकर अपने पायों को देखकर शुक्र मनाना न कहते हुए भी बहुत कुछ कह जाता है। लघुकथा में अनकहे की महत्ता को इस रचना के माध्यम से अच्छे से समझा जा सकता है। बूढ़े बाप को लाठी के सहारे डगमगाते कदमों से रास्ता नापते देखना अर्थात् बूढ़ा बाप अब आश्रित हो चुका है और सहारे की लाठी का उसे कोई सहारा नहीं है। शानदार अभिव्यक्ति! मीरा जैन ने ‘जानवरों की हड़ताल’ के माध्यम से अपने कथ्य को स्पष्ट करने का अनूठा प्रयास किया है । मुकेश शर्मा ‘मेरे जाने के बाद’ के माध्यम से लघुकथा में कहानी सा प्रभाव पैदा करने में सफल रहे हैं। मुन्नू लाल ‘खिलौना’ कुछ कसावट की माँग करती है। मृणाल आशुतोष की ‘गुरबत’ की छोटी लड़की का ‘जाने दे। दस-बीस रुपये में कौन-सा हमारी किस्मत ले जायेगा।’ पाठक को भी चैंकाता है। ग्रामीण परिवेश को मुखरता से उभारती रजनीश दीक्षित की ‘जिज्जी की राखी’ वर्जनाओं की तोड़ती एक सार्थक लघुकथा है।
राजकमल सक्सेना की ‘कड़वा सच’ के कथानक का कड़वा सच प्रशंसनीय है। कामगार दंपतियों के कथानक पर बहुत अल्प लिखा गया है जबकि इस विषय पर लिखा जाना चाहिए। राजकमल सक्सेना की सूक्ष्म दृष्टि को साधुवाद। मानवीय संवेदनाओं से ओतप्रोत राजकुमार निजात की ‘उसकी अम्मा’ भी एक सार्थक लघुकथा है परंतु इसमें प्रो. केदारनाथ सिंह का नाम न लिख कर यदि एक यात्री लिखा होता जैसा कि कंडक्टर या अम्मा लिखा गया है तो भी लघुकथा की प्रभाव में कोई कमी न आती। राधेश्याम भारतीय की मुआवजा खेतीहर मजदूरों की पीड़ा को वाणी प्रदान करने का सार्थक प्रयास है। जीवनानुभव से उपजी रामकुमार घोटड़ की ‘पैण्ट की सिलाई’ एक सधी व कसी हुई लघुकथा है। इसमें लगभग दस वर्ष के कालखंड को बिना किसी कालअंतराल के अत्यंत कुशलता से लिखा गया है जोकि रामकुमार घोटड़ सरीखे प्रौढ़ रचनाकार के लेखकीय कौशल को दर्शाता है। रामनिवास मानव की ‘टाॅलरेंस’, राममूरत राही की ‘बोहनी’ भी पाठकीय चेतना को झंकृत करने में सफल सिद्ध होती दिखाई देती है। रूप देवगुण की ‘जगमगाहट’ से तो लघुकथा संसार पिछले कई दशकों से रोशनमय है। स्व. लज्जाराम राघव की लघुकथा पढ़ते समय कुछ भावुक सा हो उठा, उनसे कई बार मुलाकात हुई थी। खैर! इस शानदार लघुकथा में डाॅट्स का अनावश्यक प्रयोग खटक रहा है। लक्ष्मीनारायण अग्रवाल की ‘परिवार नियोजन टैक्स’ में एक कड़वी सच्चाई को अनावृत्त किया गया है। इस लघुकथा का नवीन व मौलिक कथानक तथा इसका निर्वाहन शानदार है जिस हेतु लक्ष्मीनारायण जी बधाई के पात्र हैं। लता अग्रवाल की आदर्शोंनुमुखी लघुकथा ‘अर्धांगिनी’ में केवल आठ दिन पहले ब्याही पत्नी का कथन, ‘हम सैनिक की पत्नियों को ईश्वर अतिरिक्त साहस और धैर्य देकर भेजता है।’ में कुछ अस्वभाविकता का पुट नज़र आता है। लाजपत राय गर्ग की ‘माँ, माँ होती है’ अपने शीर्षक को अच्छे से परिभाषित कर रहा है। माँ वाकई माँ होती है। लाजपत राय गर्ग इसको अपनी पहली लघुकथा बताते हैं, कथानक, शीर्षक और निर्वाहन को देखते हुए उनके कथन पर सहज विश्वास नहीं होता। भविष्य में गर्ग साहिब की कलम से उत्कृष्ट रचनाएँ निकलेंगी ऐसा मेरा विश्वास है। भारतीय सामाजिक मूल्यों की गरिमा का वसुधा गाडगिल की ‘बादल’ अच्छे से अहसास करवा रही है। विजय कुमार की लघुकथा ‘जन्मदिन’ कथनी-करनी के घिसेपिटे कथानक पर आधारित है जो कहीं से भी पाठक को संवेदित नहीं करती। बल्कि लघुकथा की कुछ पंक्तियाँ पढ़ते ही ‘आगे क्या होगा’ का अंदाजा हो जाता है। अंडों वाले केक का कथ्य पाठक को आकर्षित नहीं कर पाता क्योंकि बाज़ार में ‘एगलेस केक’ आसानी से उपलब्ध हैं। विजयानंद विजय की ‘होली’, विभा रश्मि की ‘छाँव’ आदर्शवादी लघुकथाएँ है। विभारानी श्रीवास्तव की ‘विश्वास के आयाम’ भी कुछ अधिक प्रभावित नहीं पाई। विरेन्द्र वीर मेहता की ‘जवाब’, विष्णु सक्सेना की ‘कागजी’ अपने कथानकों से न्याय करती नज़र आती है। शराफ़त अली खान की ‘विवशता’ का शीर्षक चयन बिल्कुल भी प्रभावित नहीं करता।
शशि बंसल की ‘ठहरा हुआ स्वप्न’ स्वं की अनुभूति को सर्व की अनुभूति में किस प्रकार परिवर्तिक किया जाए उसका सशक्त उदाहरण है। आकार में कुछ लंबी लघुकथा लंबे कालखंड को समोए हुए है पर ‘आज उसी बेटे को इस दुनिया से गए पूरा माह हो गया।’ द्वारा काल-अंतराल को अच्छे से ‘कवर’ किया है। कथा की अंतिम पंक्तियाँ संवेदनशील पाठक को विचलित करती हैं। शील कौशिक कल ‘दूसरी पारी’ की मुश्किलों को अल्प परंतु यथोचित शब्दों में प्रभावी ढंग से कहा गया है। ‘मोतियाबिंद’ में शेख शहज़ाद उस्मानी ने मध्यमवर्ग के वृद्धों की समस्या पर उंगली रखी है। ‘टूटी ट्रे’ श्यामसुन्दर अग्रवाल की एक मार्मिक व बहुचर्चित लघुकथा है। पेट की आग के आगे ममता जैसे रिश्ते भी मायने नहीं रखते यह श्यामसुन्दर दीप्ति की ‘रिश्ते की बुनियाद’ से समझ में आ जाता है। संगीता गांधी ने ‘चेतन ममत्व’ में पर्यावरण और माँ-बाप से दूर हो रहे बच्चों जैसी समस्याओं को अच्छे से चित्रित किया है। सतीश खनगवाल की लघुकथा ‘पदक’ पढ़ते हुए योगराज प्रभाकर की ‘एन्काउंटर’ की याद आ गई। उसमें पुलिस आतंकवादियों को मुठभेड़ में मारने का ड्रामा करती है और अंत में एक हवलदार आकर पूछता है कि साहब इनके रिक्शों का क्या करना है। सतीश राठी की ‘जुड़ाव’ में मजदूर महिला की बैंक में मजदूरी के समय उससे जुड़ाव/लगाव को मार्मिकता से लिखा है। रूढ़िया को तोड़ती मंदा के चरित्र को संतोष श्रीवास्तव ने ‘मंगल सूत्र’ में अत्यंत स्वभाविकता से प्रस्तुत किया है। हवाई आदर्शवाद से कोसों दूर, यथार्थ की धरती पर जीती मंदा के संवादों से परिवेश को भी बहुत प्रभावी ढंग से चित्रित किया गया है। मुझे इस लघुकथा के तेवर, फ्लेवर और कलेवर ने बहुत प्रभावित किया। विकलांगताजनित हीन भावना को अपने चिढ़चिढ़े व्यवहार के आवरण से ढकने वाले ‘डेविड चाचा’ के चरित्र को मनोवैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुत करती संतोष सुपेकर की लघुकथा भी प्रभावित करने में कामयाब सिद्ध होती है। बाज़ारवाद के ‘तिलिस्म’ की कलई को सविता इन्द्र गुप्ता ने अपनी रचना के माध्यम से प्रभावी ढंग से खोला है।
सविता मिश्रा की ‘रीढ़ की हड्डी’ का कथानक अनुभवजन्य होने के कारण प्रभावित करता है परंतु इस लघुकथा की अंतिम पंक्ति इसको फेसबुकिया प्राॅडक्ट बना रही है। सारिका भूषण की ‘विश्वास की गांठ’ का मंटू का संवाद ‘अम्मा। बाबा की बांह पर इस धागे को बांधना है। देखना बाबा ठीक हो जाएंगे।’ पाठक के अंतस को भिगो देता है। वहीं इस लघुकथा की उपसंहार जैसी अंतिम पंक्तियाँ ‘अपने सात साल के जिगर के टुकड़े.......लिपटी जा रही थी।’ अनावश्यक है और इस लघुकथा को ‘लाउड’ कर रही हैं जो बकौल योगराज प्रभाकर लघुकथा में ‘अलाउड’ नहीं है। सीमा जैन की ‘पानी’ एक उत्कृष्ट लघुकथा है। सीमा वर्मा की ‘मजबूत इरादे’ भी अच्छी लघुकथा है। सुकेश साहनी की ‘मेढकों के बीच’ एक बहुचर्चित व कालजयी लघुकथा है। इसी अंक में प्रकाशित बलराम अग्रवाल के आलेख ‘हिन्दी लघुकथाः कथ्य, शिल्प और शैलीगत नवीन प्रयोग’ में कथा कहन के सबंध में वह लिखते हैं कि,‘लघुकथा में घटना के प्रति रोचकता और समापन के प्रति पाठकीय जिज्ञासा को बनाए रखने की दिशा में रचना का संवाद पक्ष जितना महत्वपूर्ण सिद्ध होता है, उतना महत्वपूर्ण उसका नैरेशन पक्ष आमतौर पर नहीं हो पाता।’ इस आलोक में सुदर्शन रत्नाकर की लघुकथा ‘पिता ऐसे ही होते हैं’ शानदार कथानक के बावजूद अपना प्रभाव नहीं छोड़ पाई। यदि इस लघुकथा में कुछ संवाद होते तो लघुकथा प्रभावशाली बनती। सुशील कुमार चावला की लघुकथा ‘बड़ा कौन?’ एक बहुत बड़ा प्रश्न उठाती है। इसमें ट्रक में भरी गौओं को जनता और ट्रक ड्राइवर को देश चलाने वालों के रूप में चित्रित किया गया है। धर्म, क्षेत्र और जातियों में बंटे देशवासी आपस में ही भिड़ते रहते हैं और इसका फायदा उठाकर ट्रक ड्राइवर गौओं को हाँक कर ले जाता है। गोया धर्म, क्षेत्र और जाति देश से बड़े हो गए हैं। फंटासी शैली में सृजित सुषमा गुप्ता की ‘पूरी तरह तैयार’ लघुकथा लाल फीताशाही के रेशे-रेशे को उघाड़ती नज़र आती है। इस लघुकथा की विशिष्टता है इसका प्रभावशाली प्रस्तुतिकरण। पैर काटने पर जब वह पूछता है कि चलूंगा कैसे तो जवाब मिलता है ‘अंदर बैसाखियाँ दे दी जाएंगी।’- वाह! कमाल! सूर्यकांत नागर की ‘माँ’ एक कालजयी लघुकथा है। वर्णन शैली में रचित स्नेह गोस्वामी की ‘जगत अभी सो रहा है’ अपेक्षाकृत बड़े कलेवर की लघुकथा है परंतु यह कहीं भी पाठक को उबाती नहीं। ‘वे दिन हवा हुए जब नवाब फाख्ता उड़ाया करते थे।’ इस कहावत के माध्यम से अल्प शब्दों में परिवेश को अच्छे से चित्रित किया गया है।
समालोचना भाग में चुनिंदा पुस्तकों की समीक्षाएँ भी प्रभावित करती है। प्राप्त पुस्तकों की सूची से नई पुस्तकों के विषय में उपयोगी जानकारी मिलती है। अंत में दृष्टि के पूर्व प्रकाशित अंकों की जानकारी प्रकाशित की गई है। दृष्टि के 1000 से अधिक पृष्ठों के सात अंक केवल 900 रुपये में उपलब्ध है। लघुकथा प्रेमियों के पास यह सातों और सद्य प्रकाशित ‘मेरी प्रिय लघुकथा’ अंक अवश्य होने चाहिए। सभी से सविनय निवेदन है कि पत्रिका की सदस्यता लेकर दृष्टि को आर्थिक रूप से सुदृढ़ता प्रदान करें। इस हेतु संपादक अशोक कुमार जैन से 9810374941 पर संपर्क किया जा सकता है।
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