चित्र साभार गूगल से |
महानगर छोड़कर पैदल ही गाँव जाने को विवश हुए मजदूरों
के कष्ट पर 5 लघुकथाएँ डॉ॰ श्यामसुंदर दीप्ति से प्राप्त हुई हैं, जो आप सब के
अवलोकनार्थ प्रस्तुत हैं—बलराम अग्रवाल
डॉ॰ श्याम सुन्दर दीप्ति |
मुंडेर पर बैठे कौवे को काँव- काँव करते देख, माँ खुशी से बोली, "आज अपना दर्शी आवेगा। कई दिन से आँख भी फड़के थी। " फिर बहू की तरफ देखती बोली, "सुना ना तूने, कौवा बोल रहा है।"
सुदर्शन घर का चूल्हा जलता रखने के लिए माँ व नौजवान पत्नी को गाँव छोड़, राजधानी में काम करता है। साल दो साल बाद ही आना होता, किसी तीज-त्यौहार।
''माँ, तुझे बताया तो था रात को, चल पड़े हैं; अभी लगेंगे पाँच-सात दिन पहुँचने में। अभी तो आधी राह भी नहीं हुई है। " सितारा ने माँ को समझाया। उसकी सुदर्शन से बात हुई थी कि तालाबंदी के कारण फैक्ट्री बंद हो गई है और रहने-खाने का प्रबंध नहीं है तो सभी पैदल ही चल दिए हैं।
''तो फिर कौवा ऐसे ही… ?" माँ बुड़बुड़ करती अपनी चारपाई पर जा बैठी।
कुछ समय बाद सायरन की आवाज वाली गाड़ी सुदर्शन के घर के आगे आकर रुकी और एक भीड़ इकट्ठी हो गई।
तालाबंदी गाँव में भी थी, पर सब-कुछ सामान्य था। बीमारी अभी देश की खबरों में ही थी, गाँव में नहीं।
सायरन की आवाज़ से सितारा और माँ भी दरवाजे पर आ गईं।
भीड़ में से कोई बोला, '' अरे दर्शी की लाश!… बेचारा!!"
माँ को सिर्फ ‘दर्शी’ सुना और वह खुश होती बोली, "सितारा मैं कहूँ थी ना, कोवा झूठ नहीं बोलता! मेरा दर्शी आ गया है।" और भीड़ की तरफ लपकी तो उस भीड़ ने उसे रोका और वापिस घर के अंदर ले आई।
दर्द काल : 2
राम बिहारी रात भर परेशान रहा। नींद भी पूरी तरह नहीं आई और सुबह मालिक को फैक्ट्री में आया देख, उसके पास जा पहुँचा ।
फैक्ट्री मालिक प्रभात, चेहरे पर मास्क से ही उसकी परेशानी को समझते हुए बोला, "क्या बात, कोई दिक्कत ?"
"नहीं साब, सारी व्यवस्था ठीक है।" और फिर धीरे-धीरे बोलने लगा, "माँ का फ़ोन आया था रात को। बहुत डरी हुई है।"
"तूने बताया नहीं यहाँ का हाल?" प्रभात ने कहा।
“बताया था मालिक। पहले दिन ही बता दिया था, रहने-खाने की कोई परेशानी नहीं।" फिर जरा रुककर भरे गले से बोला, "रात तो माँ रोने लगी, रोते-रोते बोली, तेरा मुँह देखे बिना ही मर जाऊँगी।”
"अरे समझाना था ना।" प्रभात ने उसकी परेशानी समझते हुए भी दिलासा दिया।
“बहुत समझाया। रोज़ ही समझाता हूँ, पर माँ है ना साब।"
"अभी तो बीमारी गाँवों तक पहुँची नहीं है, है ना! फिर भी?" प्रभात ने कहा।
"हाँ साब, पर तालाबंदी ने दिमाग भी बंद कर दिया है। अखबार, टीवी, हर तरफ एक ही बात, डर तो है ही ना।” राम बिहारी ने बात रखी।
"वो तो तू सही कह रहा है। डरे तो सभी हुए हैं।"
"साब, मैं कहने आया था कि मैं जाना चाहता हूँ।"
"कैसे जाऐगा… सब कुछ तो बंद है।"
" जैसे तैसे… धीरे-धीरे पहुँच जाएँगे। कई साथी हैं मालिक।"
"अरे
क्यों
जान जोखिम में डालकर जाएगा!"
"जान तो यहाँ भी जोखिम में है साहब। बीमारी का क्या कोई पता है।"
प्रभात चुप
रहा
।
"सच कहें मालिक, मुझे भी डर लग रहा है। मैं भी गाँव में अपने घर में ही सबके बीच…” कहते हुए उसका रोना निकल गया।
दर्द काल : 3
वह अपने पति से फोन पर बात कर रही थी। दो दिन से एक वक्त की रोटी खाकर गुजारा करने का दर्द और ऊपर से पति से मिल रहा समाचार, उसकी बातों और चेहरे पर स्पष्ट से।
माँ ये सब देख बोली, "क्या कहत है बिटवा। क्या कुछ पैसा भेज रहा है या नहीं। काहे दिल छोटा करती है।"
उसने खीझते हुए कहा , "ले तू खुद ही सुन ले।" और फोन उसको पकड़ा दिया।
"मुझे काहे दे दिया! मुझे कब समझ आवे है इसमें बात!!" बुड़बुड़ाती हुई फोन को सीधा-उल्टा करते कान में लगाती, बस इतना ही बोली, “बिटुवा!” तो उधर से जवाब आया, "हाँ, मैं कहे था कि वापस लौट रहा हूँ। देखो, पहुँच ही जाएँगे।"
माँ को ‘वापसी’ शब्द ही सुना तो बोली, "वापस काहे को! अरे जिद्द करके तो गया था चाचा के साथ। अब का ?"
"माँ, यहाँ बीमारी फैल गई है।"
"बीमारी? तो क्या? दो-तीन रोज़ में ठीक हो जाएगा। अभी तो काम मिला था तेरे को, बहू बताये थी।"
"माँ, वह नहीं; एक नई बीमारी है, करोना। लछमी को बता दिया है बस।" बेटे ने समझाने की कोशिश की।
माँ को करोना शब्द सुना और फिर उसी धुन में लगी बोलने, "करोना! मालिक तो काम करने को कहेगा। करो ना फिर। काहे नहीं करता बिटुवा।"
बेटा भी खीझने लगा कि लछमी ने माँ को फोन क्यों थमा दिया। वह फिर समझाने लगा, "माँ, काम तो करे जा रहे थे। बीमारी आ गई तो मालिक ने सब को भगा दिया। "
माँ ने बात जारी रखी, "भगावेगा ही मालिक। काम नहीं करोगे तो, काहे हरामखोरी करें हैं वहाँ भी!"
अब साथ खड़ी बहू को भी गुस्सा आने लगा। उसने माँ से फोन छीनते हुए कहा, "हो गई तसल्ली!"
और फिर भूख का प्रश्न आ खड़ा हुआ, जिसका इंतजाम होता कही नजर नहीं आ रहा था।
दर्द काल : 4
"उतरो सब !" यह आवाज रामू की थी, जिसने सभी को घर तक पहुँचाने के लिए एक ट्रक वाले से बात कर, यह बंदोबस्त किया था।
सभी उतरने लगे तो करीम बोला, " काहे! गाम आई गवा?"
"अरे, उतरो-उतरो जल्दी, खाली करना है ट्रक।" ऐसी आवाजें आ रही थीं और रामू सबको एक तरफ इकट्ठा कर रहा था।
करीम नीचे उतरा तो दाएँ-बाएँ देख एकदम बोला, "यह तो अपना देस नहीं आया है। कहाँ आया है अपना गाम अभी।"
"अरे चुप रह। अभी अपने देस का बारडर आया है। ट्रक वाला उसे लाँघकर फिर बैठावेगा।"
"काहे ! बारडर कैसा ! नहीं यह धोखा है।" करीम चिल्लाया और वापस
ट्रक
पर चढ़ने को लपका।
"चिल्ला मत, पुलिस खड़ी है। जाँच करती है ट्रकों की। हम पैदल निकलेंगे एक तरफ से। "
"नहीं-नहीं, झूठ बोल रहे हैं सब। मुझे अपने देस जाना है, मैं नहीं उतरुँगा।"
"खुशी चाचा ! समझाओ इसे। कोई लफड़ा करेगा।" रामू बोला।
वह लगातार चिल्लाए जा रहा था--"नहीं-नहीं, मुझे बारडर के पार नहीं जाना है, अपने देस जाना है। "
"अरे! काहे पागलों-सी बातें कर रहा है? अपने देस ही जाएँगे सब।"
"पागल तो वह बना रहा है, क्या नाम है उसका रामू। झूठ है, धोखा, बुद्धू मत बनाओ। पहले कभी नहीं आया बारडर। शहर से सीधी गाड़ी चलती थी गाँव को। कभी बारडर नहीं आया।"
सभी उसे रोकने, पकड़ने और दबोचने को लगे थे। पर, वह पूरे जोर व जोश से ‘झूठ, धोखा, नहीं जाना बारडर पार’ ही बोले जा रहा था।
दर्द काल : 5
फोन की घंटी बजी। उसका हाथ एकदम जेब की तरफ गया। कल रात उसे लगा था कि इसकी बैटरी खत्म हो गई है। शायद दस दिन से चलते हुए भूख, प्यास और थकावट के कारण ऐसा लगा होगा। कुछ भी तो नहीं था राह में।
हाँ, एक पछतावा। आत्मग्लानि। तौबा। राजधानी छोड़कर गाँव लौटने की नहीं, तौबा इस जिंदगी से। साँसों के साथ हो रहे व्यवहार से।
समझ नहीं आ रहा था, एकदम से ये क्या हो गया। सब-कुछ तहस-नहस हो गया। राजधानी से बनाया रिश्ता, एक विश्वास। कोई हाथ थामने वाला नहीं। भूख से दिमाग भिन्ना रहा था और बिगड़ती जा रही थी दिल की धड़कन।
सोचते-सोचते फ़ोन कान को लगाया जो कि गाँव से था।
"हाँ भाई ! बोल।" एक निराश आवाज।
"मैं क्या बोलूँ, तू बोल। कहाँ पहुँच गया?" भाई पूछ रहा था।
"क्या बताऊँ! कुछ भी समझ मेँ नहीं आ रहा है। बीच मँझधार मेँ ही है।"
"अरे! क्या हो गया? बड़ी मरियल-सी आवाज है! और ये क्या मंझधार…!! "
"छोड़ भाई इस कहानी को।" वह धीरे- धीरे कदम घसीटता बोला।
"चल फिर, ये बता कब पहुँच रहा है ?" भाई ने सवाल किया।
"कहाँ ?"
"अरे गाँव, घर! और कहाँ?"
तेज़ दुपहरी और सीमेंट की शाह सड़क। तेज रफ़्तार मेँ गुजरती गाड़ियों मेँ उसकी थिरकती आवाज़… "साँस रहेगी तो जरूर…" और उसका संतुलन बिगड़ गया। साथ चलते भाई ने थामा और उसे गंजी सड़क के किनारे जा लेटाया।
# 97,
गुरु नानक एवेन्यु, अमृतसर, 98158 08506
3 comments:
मन को विचलित करने वाली लघुकथाएं हैं.
सभी रचनाएँ मर्मस्पर्शी हैं। डॉ० श्यामसुंदर दीप्ति जी को हार्दिक बधाई। जनगाथा का हार्दिक आभार।
ਬਹੁਤ ਵਧੀਆ ਚਿਤਰਨ
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