'लघुकथा कलश' रचना प्रक्रिया महाविशेषांक से-4
18 सितम्बर 2019 वरिष्ठ साहित्यकार रामकुमार आत्रेय जी का फोन आया
रामकुमार आत्रेय (01-02-1944--29-9-2019) |
श्रद्धांजलि स्वरूप
प्रस्तुत है ‘लघुकथा कलश’ के ‘रचना प्रक्रिया महाविशेषांक’ में प्रकाशित उनकी
लघुकथा ‘इक्कीस जूते’ लेकिन पहले, उस लघुकथा के उत्स से जुड़ा प्रसंग यानी उसकी ‘रचना प्रक्रिया’ ज्यों की त्यों……
बन्धुवर योगराज जी ने मुझे धर्मसंकट में डाल दिया है कि मैं अपनी
लघुकथाओं में किन्हीं दो लघुकथाओं को चुनकर उनकी रचना प्रक्रिया के विषय में एक
आलेख लिखूं। सर्वप्रथम तो अपनी ही रचनाओं के विषय में कुछ भी लिखना आसान नहीं
होता। दूसरा, किंही दो रचनाओं को चूनना और उनकी रचना प्रक्रिया के विषय में लिखना
तो बेहद कठिन हो जाता है। योगराज जी के आग्रह को ध्यान में रखते हुए जब मैंने अपनी
लघुकथा के विस्तृत फलक पर दृष्टि डाली तो एक साथ कईं लघुकथाएं स्मृति में कौंधने
लगीं। पंजाब में चल रहे आतंकवाद के भयानक दौर की लघुकथा ‘अनत्तुरित प्रश्न’ के साथ
उत्तर प्रदेश के कानपुर में होने वाले साम्प्रदायिक दंगों पर आधारित लघुकथा
‘यक्षप्रश्न’ याद हो आई। सारिका जैसी स्तरीय पत्रिका में प्रकाशित होने वाली रचनाएं, आज भी मुझे याद हैं। वृद्ध
माता-पिता पर होने वाले अत्याचारों की
जीती -जागती तस्वीर खींचने वाली
रचनाएं‘पिताजी सीरियस हैं तथा ‘हरिद्वार’ याद आईं जो ‘हंस’ तथा ‘कथादेश’ जैसी
पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं थीं। पवित्र नदियों में हमारे द्वारा फैलाएं जा रहे प्रदूषण की समस्या
को ध्यान में रखते हुए लिखी गई लघुकथा ‘चुनौती’ भी याद आई तो विदेश में रोजी रोटी
कमाने वाले युवकों द्वारा संजीदगी के साथ गहरा दर्द अनुभव करवाने वाली लघुकथा
‘कीमती डिबिया’ भी स्मरण हो आई। इसी सोच-विचार के दौरान और भी कईं लघुकथाएं रात
में चमकते जुगनुओं की तरह स्मृतियों में कौंधती रहीं जो इधर-उधर प्रकाशित होने के साथ-साथ अनुदित होकर प्रशंसित भी होती रही
हैं। ऐसी दो लघुकथाओं में ‘बिन शीशों का चश्मा’ तथा छोटी -सी बात जैसी
रचनाएं शामिल हैं। बिन शीशों का चश्मा लघुकथा में हमारी शिक्षा व्यवस्था की विसंगिताओं
तथा सामाजिक विदू्रपता को उद्घाटित करती है।
छोटी सी बात लघुकथा में कन्याओं पर होनेवाले नृशंस बलात्कार करने
वालों के पक्ष में प्रच्छन्न सहयोग जैसी घटिया मानसिकता पर करारा व्यंग्य किया
है।
अंततः मैंने निम्नलिखित दो लघुकथाओं को चुना ‘इक्कीस जूते ’तथा ‘पंख’
। ‘इक्कीस जूते’ एक ऐसी लघुकथा है िंजसके नाम से मेरा पहला लघुकथा संग्रह (1993) भी प्रकाशित हुआ है। ‘पंख’
लघुकथा ‘छोटी-सी बात’ (2006) नामक लघुकथा संग्रह से ली गई है। वैसे तो मैं अधिसंख्य रचनाएं
व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर लिखता रहा हूं। परन्तु ये दोनों रचनाएं हमारे
समाज में व्याप्त गंभीर बीमारियों की ओर संकेत करती हैं। मैं इन रचनाओं में एक
पात्र के रूप में उपस्थित रहा हूं। इन दोनों बीमारियों के परिणाम देश और समाज को
पीढ़ियों तक सताते रहते हैं। इसलिए मैंने इन्हें चुनने का निर्णय लिया। घटना 1989 की है। तब मैं गांव के ही
स्कूल वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय में शिक्षक के रूप में कार्यरत था। प्राध्यापक के
पद पर मेरी पदोन्नति होनी थी। हालांकि, मैं तब तक कार्यवाहक प्राध्यापक ही नहीं ,प्राचार्य के रूप में भी
कार्य कर रहा था। माता जी लगातार बीमार रहने लगी थीं। मेरे अपने विद्यालय में
प्राध्यापक का पद रिक्त पड़ा था। यदि मेरी पदोन्नति वहीं हो जाती तो मुझे माता जी की सेवा करने का अवसर मिल जाता । मैं अपनी मां का अकेला बेटा था।
मेरी पत्नी पहले ही स्वर्गसिधार चुकी थी। इसलिए मेरे सिवा उनकी सेवा करने वाला
अन्य कोई नहीं था। एक परिचित का सिफारिशी
पत्र लेकर मैं चंडीगढ़ में निदेशक (शिक्षा विभाग) के कार्यालय में मिलने पहुंच गया।
वहां सिफारिशी पत्र देखकर संबंधित अधीक्षक ने पदोन्नति पाने वाले अध्यापकों की
सूची देखकर बताया कि मेरा नाम उस सूची में शामिल है और मुझे गांव के विद्यालय में
ही स्थापित कर दिया जायेगा। उसके लिए अधीक्षक ने चुपके से एक हजार रूपये देने के लिए
कहा। मैंने जिंदगी में घूस का एक रूपया तक
नहीं दिया था। यही बात अधीक्षक को
बताते हुए कहा कि घूस न तो लूंगा और न ही दूंगा। यह मेरा संकल्प है। उसने कहा कि
वह खुद के लिए कुछ नहीं मांग रहा ,उसे तो वहां कार्य करने वाले अन्य कर्मचारियों को भी खुश करना पड़ेगा।
तभी वह मुझे गांव के स्कूल में पदोन्नति
का आदेश दे पायेगा। मेरे चुप रहने पर उसने मेरा चेहरा ध्यान से देखा। वह समझ गया
था कि मैं उसे घूस के रूप में कुछ भी देने वाला नहीं हूं। मैंन फिर से सिफारिशी पत्र का हवाला देते हुए
अपनी मजबूरी उसे बताई। इस पर उसने कहा कि मैं इस सिफारिश की वजह से काम कर दूंगा।
आप अपने घर चले जाइए।
पदोन्नति के वे आदेश 1990 में आए। मेरा नाम उस सूची में नहीं था। एक मित्र ने चंडीगढ जाकर
पूछा तो मालूम हुआ कि ठीक मेरे नाम से पहले वाले सभी अध्यापकों की पदोन्नति कर दी गई थी। ।यह सब एक हजार रूपये न
देने के कारण हुआ। बाद में पदोन्नति हुई पर एक वर्ष के पश्चात यानि 1991 में। फलस्वरूप मुझे
वरिष्ठता तथा वेतन संबंधी मिलने वाले लाभ बहुत पीछे चले गए। गांव का विद्यालय भी
छोड़ना पड़ा और माता जी की सेवा से वंचित होने का दुख भी झेलना पड़ा। 1992 में ‘इक्कीस जूते’ लघुकथा
लिखी गई जोकि खुद की दयनीय स्थिति पर विचार
करते हुए लिखी गई थी। इस लघुकथा में ‘इक्कीस जूते’ खाने वाला ईमानदार
व्यक्ति मैं ही हूं। रचना हमारे तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार रूपी कोढ का
पर्दाफाश करती है। देश में परिवर्तन आया है परन्तु भ्रष्टाचार को लेकर स्थिति आज
भी थोडी बहुत पहले की भांति ही बनी हुई है।
और अब, लघुकथा 'इक्कीस
जूते'
बादशाह ने ढिंढ़ोरा पिटवाया कि उसने अपने पूरे राज्य में ऐसे अवसर
उत्पन्न कर दिये हैं कि अब किसी भी व्यक्ति को भूखा नहीं रहना पडे़गा.....पूरा
राष्ट्र खुशहाल हो चुका है...यदि कोई व्यक्ति अब भी भूखा रह गया हो तो उसके दरबार
में हाजिर हो जाये ताकि उसके भूखा रह जाने का कारण जानकर इसके लिए उतरदायी राजकीय
कर्मचारी को दंड दिया जा सके। ढिंढोरा पिटवाकर बादशाह निशि्ंचत हो गया था कि कोई
भी भूखा व्यक्ति उसके समक्ष उपस्थित नहीं होगा और उसकी कीर्ति दशों-दिशाओं में फैल
जायेगी। लेकिन बादशाह के इस सुखद स्वपन को तोड़ता हुआ एक मरियल -सा व्यक्ति उसके
सामने हाथ जोड़े उपस्थित हो गया।
‘‘ तुम भूखे हो?’’बादशाह ने गुर्राते हुए
पूछा।
‘‘जी मालिक।’’ गिड़गिड़ाहट भरा
स्वर था उस व्यक्ति का।
‘‘क्यों....क्यों? आखिर क्यों ? आग की तरह भड़क उठे थे
बादशाह।
‘‘मेरी ईमानदारी के कारण ,भगवन!।’’ व्यक्ति ने गर्व
के साथ बादशाह से आंखें मिलाते हुए कहा।
उसे आशा थी कि बादशाह प्रसन्न होकर उसकी पीठ थपथपायेंगे और पुरस्कार
देंगे।
‘‘क्या तुमने मेरे
कर्मचारियों को तथा दूसरे लोगों को बेईमानी करते हुए नहीं देखा था? क्या तुमने उन्हें अपनी
बेईमानी के कारण पुरस्कृत होते नहीं देखा था?’’अगला प्रश्न था बादशाह का।
‘‘हां, सरकार,देखा था।’’
‘‘क्या तुम्हें किसी ने
बेईमानी करने से रोका था।?’’
‘‘नहीं ,प्रभु ,नहीं।’’
‘‘तो फिर भी बेईमानी करके
तूने अपना पेट क्यों नहीं भरा?’’
‘‘मैं अपने सिद्धांतों पर
अडिग रहना चाहता हूं स्वामी।’’
‘‘बहुत अच्छा। फिर तो भूखा
रहने के उतरदायी तुम स्वयं हो।’’ फिर अपने मंत्री की ओर उन्मुख होते हुए उसने आदेश
दिया-‘‘ इस व्यक्ति को इक्कीस जूते लगाए जाएं,जोकि ईमानदारी व सिद्धांतों
जैसी गली -सड़ी चीजों से खुद को चिपकाए हुए है।’’
पारिवारिक सम्पर्क : 864-ए/12, आजाद नगर, कुरुक्षेत्र-136119 हरियाणा
मोबाईल-09416272588 / ई-मेल
ramkumarattrey@gmail.com
नोट: जिन लोगों को #लघुकथा_कलश_चतुर्थ_रचना_प्रक्रिया_महाविशेषांक (जुलाई-दिसम्बर 2019) अथवा
कोई भी अन्य अंक लेना हो, वे डाक
खर्च सहित 300₹ मात्र
(इस अंक का मूल्य 450₹ है) 7340772712 पर paytm कर योगराज प्रभाकर +919872568228 को
स्क्रीन शॉट अपना नाम, पूरा डाक-पता पिन कोड
सहित और मोबाइल नंबर के साथ सूचित करें। पत्रिका उनको
भेज दी जायेगी।
—योगराज
प्रभाकर, सम्पादक 'लघुकथा कलश',
'ऊषा विला', 53, रॉयल
एन्क्लेव एक्सटेंशन, डीलवाल, पटियाला-147002
पंजाब/ मोबाइल—98725
68228
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