‘लघुकथा कलश-4’ ‘रचना प्रक्रिया महाविशेषांक’ से तीसरी प्रस्तुति। इस अंक में अनेक
कथाकारों ने रचना की प्रक्रिया से अलग कुछ ऐसी बातें भी लिख डाली हैं, जिनका सीधा
सरोकार, कम से कम मेरी दृष्टि में रचना प्रक्रिया से तो नहीं है। लेकिन कोई बात
नहीं। ऐसे लोगों की रचना प्रक्रिया में भी अगर कुछ सार्थक नजर आया, तो मैं उतने हिस्से को भी सामने लाने का यत्न करूँगा। गत दो प्रस्तुतियों के
बाद यह भी महसूस किया है कि बहुत लम्बे आलेख पाठकों को बाँधे नहीं रख पाते हैं।
इसलिए एक लेखक की एक ही रचना की प्रक्रिया एक बार में दी जाए।
एक बात और… ये सभी प्रस्तुतियाँ अपने आप में
विशिष्ट होंगी। प्रस्तुति के क्रम को इनकी श्रेष्ठता का क्रम न माना जाए।
अंक के पृष्ठ
97-99 पर जगदीश रॉय कुलरियां की दो लघुकथाएँ—‘मुक्ति’ और ‘अपना अपना मोह’ में से 'मुक्ति' की रचना प्रक्रिया यहाँ
प्रकाशित हैं। इससे जुड़े तथ्य हिला देने वाले हैं। सोचने
को विवश करते हैं, कि गरीबी में जकड़े समाज को विभिन्न कर्मकांडों ने किस हद तक विवश किया हुआ है; और इनसे मुक्ति पाना क्यों
जरूरी है। तो आइए, पढ़ते हैं जगदीश राय कुलरियां की लघुकथा ‘मुक्ति’ की रचना प्रक्रिया…
हमारे
दिलो-दिमाग में बहुत-सी ऐसी बातें होती हैं जिन्हें हम हर एक से शेयर नहीं कर सकते
अथवा समाज में घटित होती अनैतिक/नैतिक घटनाएँ भी कभी-कभी बहुत परेशान करती हैं। कई
बार ऐसा होता है, जब हम किसी का शोषण होते हुए देखते हैं और समाज में प्रचलित कई
रूढ़ियों को देखकर भी मन क्षोभ से भर जाता है। ऐसे में हम सीधे रूप से कुछ ज्यादा
तो नहीं कर सकते, परन्तु अपने अंदर उबलते हुए लावे को शान्त करने के लिए शब्दों का
सहारा लेते हैं। वैसे यह लावा उबलता तो बहुत-से लोगों के भीतर है,
परन्तु एक लेखक इसका प्रयोग शब्दों के माध्यम से अच्छी तरह
से लोकहित में करता है। उसकी कोशिश यह दिखाने की होती है, कि लोग कैसा समाज चाहते
हैं और उसके निर्माण में कैसे सहयोग कर सकते हैं? लेखक की रचनाओं के माध्यम से हम उसकी छवि को देख सकते हैं।
मेरे लिए लघुकथा
लिखना कोई शौक अथवा शुगल मेला नहीं है; न ही कोई मनोरंजन का साधन है। मेरे लिए ये
मेरे विचारों को व्यक्त करने का एक सशक्त माध्यम है। मैं जो कुछ करना चाहता हूँ पर
कर नहीं पाता, वो अपने पात्रों के माध्यमों से करवाता हूँ। इसके इलावा समाजिक
विसंगतियों पर भी ध्यान दिलाने के लिए कलम चलती है। मुझसे लघुकथा कभी भी ‘मिथ’ कर नहीं लिखी जाती है और न
ही ये कोई ऐसा प्रोग्राम है कि मैने उसका कार्यक्रम तैयार किया और निर्धारित समय
पर लघुकथा कागज पर उतर गई। समाज में जब मैं विचरता हूँ तो जो बातें, वो साकारात्मक
हो, चाहे नाकारात्मक; मुझे प्रभावित
करती हैं। वे बातें मेरे भीतर एक खलल-सा डालती रहती हैं। उनका मूल्यांकन चलता रहता
है। उन बातों /घटनाओं के पात्र मुझे परेशान करते हैं, हैरान करते हैं। कभी-कभार मेरे सपनों में आकर मुझसे बातें
करते हैं; फिर एक दिन मेरे हाथों में कलम आ जाती है और वह अपनी बीती बयान करने
लगते हैं। ऐसे मेरी लघुकथा का पहला ड्राफ्ट तैयार होता है।
पंजाबी के एक
सुप्रसिद्ध कथाकार हैं—सरदार वरियाम सिंह संधू। उनकी एक चर्चित कहानी है—‘अपना अपना हिस्सा’। इस कहानी को बचपन में पढ़ा था
और दूरदर्शन पर इस कथा पर बनी एक टेलीफिल्म भी देखी थी। कथा का संक्षिप्त रूप यह है,
कि तीन भाई हैं जिनमें सबसे छोटा गरीब किसान है। उनके पिता की मृत्यु के बाद ‘फूल’ पाने की बात पर भाई उससे
तीसरा हिस्सा खर्चा माँगते हैं; जबकि वह ही आपने माता-पिता को संभाल रहा था। बाकी
दोनों तो फसल में हर बार अपना हिस्सा लेकर शहर में अच्छा जीवन व्यतीत कर रहे हैं।
छोटा ही उनकी दवाई-बूटी कर रहा था। दोनों उनकी सँभाल तो करते नहीं, उल्टा गाँव में
अपना रौब डालने के लिए भोग पर खर्चा करना चाहते हैं और फूल पाने के लिए भी उससे
हिस्सा माँगते हैं तो छोटा कहता है, कि ‘मेरे में इतनी क्षमता नहीं कि मैं यह खर्चा दे
सकूँ। तुम बापू के फूल डाल आओ। जब बेबे पूरी होगी तो मैं डाल दूँगा। यदि आपको यह सौदा भी
मंजूर नहीं, तो मेरे हिस्से के फूल उस किल्ली पर टाँग दो... जब मेरे पास पैसे
होंगे मैं डाल आऊँगा।’
यह कथा मुझे बहुत
परेशान करती। मुझे लगता—इससे आगे भी कुछ हो सकता है। मानवीय रिश्तों में आ रहा निघार
किस तरह खून को सफेद कर रहा है, यह चिंता का विषय बनता। एक दिन हमारे पडोस में
किसी बुजुर्ग की मृत्यु हो गई। जब मैं उनके यहाँ अफसोस प्रकट करने गया तो बातों ही
बातों में उन्होंने बताया कि जब बुजुर्ग के फूल गंगाजी में डालने गए तो वहाँ पर
पंडा कैसे फजूल में ही पैसे बटोरता रहा। धार्मिक स्थानों पर व कर्मकांडो के अवसर
पर, मरने वाले के घर की हालत का अथवा जो कोई दर्शन करने आता है उसकी भावना का,
उसकी आर्थिक हालत का किसी को ख्याल नहीं होता। मकसद सिर्फ माया इकट्ठी करना व ठगना ही हो जाता है। ये सब
घटनाएँ व वाकये लगातार कई साल मन-मतिष्क में घूमते रहे और ‘मुक्ति’ नामक लघुकथा का लेखन इन्हीं
घटनाक्रमों का आधार बना।
और अब, लघुकथा ‘मुक्ति’…
“बेटा, मेरी यही विनती है कि मेरे मरने के बाद मेरे फूल गंगा
जी में डालकर आना।” मृत्युशय्या पर पड़े बुज़ुर्ग बिशन ने अपने
इकलौते पुत्र विसाखा सिंह की मिन्नत-सी करते हुए कहा। गरीबी के कारण इलाज करवाना ही
कठिन था। ऊपर से मरने के खर्चे! फूल डालने जैसी रस्मों पर होने वाले संभावित खर्चे के बारे में सोचकर विसाखा
सिंह भीतर तक काँप उठता था।
“लो बच्चा! पाँच रुपये हाथ में लेकर सूर्य देवता का ध्यान करो।” फुटबाल-जैसी तोंद वाले पंडे की बात ने उसकी तंद्रा को भंग
किया।
उसे गंगा में
खड़े काफी समय हो गया था। पंडा कुछ न कुछ कह उससे निरंतर पाँच-पाँच, दस-दस रुपये
बटोर रहा था।
“ऐसा करो बेटा, दस रुपये अपने दाहिने हाथ में रखकर अपने
पितरों का ध्यान करो… इससे मरने वाले की आत्मा को शांति मिलेगी।”
अब उससे रहा नहीं गया; बोला, “पंडित जी, यह क्या ठग्गी-ठोरी चला रखी है? एक तो हमारा आदमी दुनिया से चला गया, ऊपर से तुम मरे का
माँस खाने से नहीं हट रहे! ये कैसे संस्कार हैं?”
“अरे मूर्ख, तुझे पता नहीं कि ब्राह्मणों से कैसे बात की
जाती है! जा, मैं नहीं करवाता पूजा। डालो, कैसे डालोगे गंगा में फूल?… अब तुम्हारे
पिता की गति नहीं होगी। उसकी आत्मा भटकती फिरेगी…!” पंडे ने क्रोधित होते हुए कहा।
“बापू ने जब यहाँ स्वर्ग नहीं देखा, तो ये तुम्हारे मंत्र उसे
कौन-से स्वर्ग में पहुँचा देंगे? जरूरत नहीं मुझे तुम्हारे इन मंत्रों की… अगर तुम फूल नहीं डलवाते तो… ” इतना कह उसने अपने हाथों में उठा रखे फूलों को थोड़ा नीचा
कर, गंगा में बहाते हुए आगे कहा, “लो, ये डाल दिए फूल!”
उसका यह ढंग
देखकर पंडे का मुँह खुला का खुला रह गया।
.0.
सम्पर्क :
जगदीश राय कुलरियाँ, 46, इम्पलाईज कालोनी, बरेटा जिला मानसा, (पंजाब) 151501 / मो. 95018 77033
—योगराज
प्रभाकर, सम्पादक 'लघुकथा कलश',
'ऊषा विला', 53, रॉयल
एन्क्लेव एक्सटेंशन, डीलवाल, पटियाला-147002
पंजाब/ मोबाइल—98725
68228
नोट: जिन लोगों को #लघुकथा_कलश_चतुर्थ_रचना_प्रक्रिया_महाविशेषांक (जुलाई-दिसम्बर 2019) अथवा
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